लघुकथा- पढ़ाई (Short Story- Padhai)

अगर वही सब करना था, तो इस तरह मेहनत करके पढ़ाई करने की क्या ज़रूरत थी? उसकी अनपढ़ मम्मी उससे अच्छा घर का मैनेजमेंट करती हैं. पढ़ने में बेकार समय गंवाया.

मार्कशीट और सर्टिफिकेट को फैलाए उसके ढेर के बीच बैठी कुमुद पुरानी बातों को याद करते हुए विचारों में खोई थी. सारी पढ़ाई, मेहनत और ख़र्च उस दिन उसे व्यर्थ लग रहा था. पागलों की तरह पहला नंबर लाने के लिए रात-दिन मेहनत करती, पहले नंबर की बधाई के साथ मिलनेवाली मार्कशीट देख कर ख़ुश होकर भागते हुए घर आती. पूरे मोहल्ले को बताती. सभी लड्डू मांगते. गर्व होता ख़ुद पर कि उसने कुछ किया है. तब कहां पता था कि यह सारी मेहनत, ख़ुशी और डिग्रियां एक दिन आलमारी की दराज़ में बंद हो कर रह जाएंगी.


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कुमुद ने शादी की, तो किताबें छूट गईं. बच्चों की मार्कशीट देखकर ख़ुश होने लगी. अपना सब कुछ उसने एक पाॅलीथिन में लपेट कर आलमारी की दराज़ में बंद कर दिया था. मार्कशीट और सर्टिफिकेट के साथ सपने भी, जो ज़्यादातर महिलाएं देखती हैं. अगर वही सब करना था, तो इस तरह मेहनत करके पढ़ाई करने की क्या ज़रूरत थी? उसकी अनपढ़ मम्मी उससे अच्छा घर का मैनेजमेंट करती हैं. पढ़ने में बेकार समय गंवाया. अफ़सोस करते हुए सारी मार्कशीट व सर्टिफिकेट समेटकर आलमारी की दराज़ में रखकर कुमुद फिर सफ़ाई में लग गई.
कुमुद के दिन ऐसे ही मस्ती में बीत रहे थे, तभी अचानक एक दिन कार एक्सीडेंट में पति आशीष बिस्तर पर पड़ गया. अस्पताल का ख़र्च, बच्चों की फीस और घर का ख़र्च चलाना मुश्किल हो गया. घर की ज़िम्मेदारी ख़ुद के कंधे पर आने से कुमुद ने हिम्मत करके कहा, “आप कहो, तो मैं नौकरी कर लूं?”

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इस विपरीत परिस्थिति में घर से परमीशन मिल गई. सालों बाद वह आश्चर्य से अपनी मार्कशीट व सर्टिफिकेट देख रही थी. एक भावना के साथ मन में यह सवाल भी उठ रहा था कि वह न पढ़ी होती तो… ये डिग्रियां न होतीं तो..?

– वीरेन्द्र बहादुर सिंह

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Photo Courtesy: Freepik

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Usha Gupta

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