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कहानी- पीहू की राखी (Short Story- Pihu Ki Rakhi)

क्या वह अपने भइया के लिए एक और राखी नहीं ला सकती? अचानक उसे ख़्याल आया. वह दौड़ती हुई पापा के पास गई और उनके गले में बांहें डाल लाड़ लड़ाते हुए बोली, ‘‘पापा, आप एक सुंदर सी राखी ला देंगे क्या? मुझे यश भइया को बांधनी है.’’ 
‘‘हां बेटे अभी लाता हूं.’’ पीहू ख़ुश हो गई. उसका काम बन गया था. तभी पापा की नज़र वहां रखे पेन स्टैंड पर पड़ी.
उन्होंने पूछा, ‘‘पीहू, यह पेन स्टैंड किसने बनाया था?” ‘‘मैंने. ओह, समझ गई पापा. जल्दी से अपना मोबाइल दीजिए.’’ मुस्कुराते हुए पापा ने अपनी जेब से मोबाइल निकालकर दिया.

राखी ख़रीदने के लिए पीहू स्कूल से सीधी दुकान पर पहुंची. यह दुकान स्कूल और उसके घर के बीच में थी जिस पर बहुत सुंदर-सुंदर राखियां बिक रही थीं. तीन दिन पहले उसने एक सुंदर सी राखी यश भइया के लिए पसंद की थी, जो तीस रुपए की थी. राखी की क़ीमत सुनकर वह ख़ामोश हो गई. इतने रुपए उसे मां से मांगना ठीक नहीं लगा. बहुत दिनों से वह अपनी गुल्लक में पैसे जमा कर रही थी. आज सुबह उसने गुल्लक तोड़ी, तो उसमें पचास रुपए निकले. पीहू बेहद ख़ुश हुई. उसने बीस रुपए मां को दे दिए और तीस रुपए अपने पेंसिल बॉक्स में रखकर स्कूल चली आई.
उसने अपनी मनपसंद राखी उठाई और प्यार से उस पर हाथ फेरा. लाल रंग की यह राखी यश भइया की कलाई पर कितनी अच्छी लगेगी. 
‘‘अंकल, इसे लिफ़ाफ़े में रख दीजिए.’’  पीहू ने कहा और रुपए देने के लिए ज्योंहि पेंसिल बॉक्स खोला, वह हैरान हो गई. रुपए उसमें नहीं थे. पीहू घबरा गई. उसने काउंटर पर अपना बैग पलट दिया और एक-एक किताब देखी. रुपए नहीं थे. रुआंसी होकर वह बोली,  ‘‘अंकल, मुझे यह राखी नहीं चाहिए.’’ 

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‘‘क्या हुआ बेटी? पैसे खो गए क्या?” 
‘‘हां अंकल.’’ आंखों में आंसू लिए वह घर की ओर चल दी. कितना अच्छा होता, वह मां का कहा मान लेती. उन्होंने उससे कहा भी था कि वह पैसे स्कूल न ले जाए, किंतु वह नहीं मानी.
पीहू के पापा, डॉ. संजय और उनकी पत्नी डॉ. मीना के ड्राइवर थे और उसकी मां उनके घर खाना बनाने के अलावा उनके दोनों बच्चों यश और अदिति की देखभाल करती थीं. वे लोग कोठी के आउटहाउस में रहते थे. पीहू को पिछले साल की घटना याद आ गई. उस दिन रक्षाबंधन था. स्कूल में छुट्टी थी. उसकी मां कोठी पर गईं, तो वह भी उनके साथ हो ली. अदिति दीदी यश भइया के हाथ पर राखी बांध रही थीं. पीहू उदास मन लिए उन्हें निहार रही थी.
उसके स्कूल में भी सभी सहेलियां आज अपने भाइयों को राखी बांधेंगी. बस वही है, जो यह त्योहार नहीं मना पाती. काश उसका भी कोई भाई होता, तो आज वह भी उसके हाथ पर राखी बांधती.
डॉ. मीना उसके चेहरे की उदासी देख तुरंत उसके मन की बात समझ गईं. उन्होंने प्यार से उसे अपने पास बुलाकर कहा, ‘‘पीहू, इतनी उदास क्यों हो?”
पीहू रुआंसी हो उठी, ‘‘डॉ. आंटी, अगर मेरा भी भाई होता, तो मैं अदिति दीदी की तरह उसको…’’ आगे के शब्द उसके होंठों में ही रह गए.
डॉ. मीना ने प्यार से पीहू को गले लगा लिया और उसका माथा चूमते हुए बोलीं, ‘‘तुम्हारी मां अदिति और यश की अपने बच्चों की तरह देखभाल करती हैं, तो क्या ये दोनों तुम्हारे भाई-बहन नहीं हुए. आज से तुम हमेशा यश को राखी बांधोगी.’’
अदिति दौड़कर एक सुंदर सी राखी ले आई. पीहू ने हंसते हुए यश को राखी बांधी. इस नए रिश्ते से तीनों बच्चे बहुत ख़ुश थे. इस साल उसने सोचा था, वह यश भइया के लिए ख़ुद राखी लाएगी किंतु…
अगली सुबह पीहू सोकर उठी, तो मां ने कहा, ‘‘पीहू,
डॉ. आंटी ने तुम्हें नौ बजे राखी बांधने के लिए बुलाया है.’’ 
‘‘नहीं मां, मैं इस बार यश भइया को राखी नहीं बांधूंगी.’’ 

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‘‘अरे भाई के लिए ऐसा नहीं बोलते. एक बार जिसे अपना भाई मान लेते हैं, उससे सारी ज़िंदगी रिश्ता निभाते हैं. तुम राखी ख़रीदने के लिए तीस रुपए स्कूल ले गई थी न उनका क्या हुआ?”
‘‘किसी ने बैग में से निकाल लिए.’’ उसने डरते-डरते मां को बताया. 
‘‘मैंने रुपए स्कूल ले जाने के लिए तुमसे मना किया था न. चलो कोई बात नहीं, अब तुम यश को मौली बांध देना.’’ 
‘‘मौली,’’  पीहू ने मुंह बिचकाया. 
‘‘क्यों मौली में क्या हर्ज है? मौली पवित्र धागा है, जिसे पूजा के समय बांधा जाता है.’’ मां ने समझाया, किंतु पीहू मन ही मन परेशान थी.
क्या वह अपने भइया के लिए एक और राखी नहीं ला सकती? अचानक उसे ख़्याल आया. वह दौड़ती हुई पापा के पास गई और उनके गले में बांहें डाल लाड़ लड़ाते हुए बोली, ‘‘पापा, आप एक सुंदर सी राखी ला देंगे क्या? मुझे यश भइया को बांधनी है.’’ 
‘‘हां बेटे अभी लाता हूं.’’ पीहू ख़ुश हो गई. उसका काम बन गया था. तभी पापा की नज़र वहां रखे पेन स्टैंड पर पड़ी.
उन्होंने पूछा, ‘‘पीहू, यह पेन स्टैंड किसने बनाया था?” ‘‘मैंने. ओह, समझ गई पापा. जल्दी से अपना मोबाइल दीजिए.’’ मुस्कुराते हुए पापा ने अपनी जेब से मोबाइल निकालकर दिया.
पीहू ने यूट्यूब पर देखा, राखी कैसे बनाते हैं. फिर उसने मां से पतला रेशमी रिबन और कुछ सितारे और कपड़े के फूल लेकर कुछ ही देर में एक सुंदर सी राखी तैयार कर ली.

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मां के हाथ की बनी नारियल की बरफी लेकर वह कोठी पर पहुंच गई. उसने यश भइया को टीका लगाकर पहले मौली फिर अपने हाथ की बनी राखी बांधी, तो सभी बहुत ख़ुश हुए.
डॉ. अंकल और आंटी ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, ‘‘इस राखी में जो प्यार है वह बाज़ार से ख़रीदी राखी में नहीं है, क्योंकि इसमें तुम्हारी मेहनत भी छिपी है.’’ यश ने उसे एक ख़ूबसूरत डॉल हाउस दिया, जिसे उसने ख़ुद बनाया था. अपनी पसंद का डॉल हाउस पाकर पीहू बहुत ख़ुश थी. वह मन ही मन सोच रही थी कि भइया और दीदी के बर्थडे पर वह अपने हाथ से ही उपहार बनाएगी.

रेनू मंडल

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Usha Gupta

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