कहानी- प्रतीक्षा (Short Story- Praktisha)

अचानक मां की अंतिम सलाह दिमाग़ में कौंधी.
सहसा मेरे मुंह से निकल पड़ा, “नहीं, विभोर. सब कुछ गड़बड़ हो गया था. मैं कुछ भी साथ नहीं ला सकी.”
“क्यों?”
“लॉकर की चाबी मां ने जाने कहां रखी थी, दिनभर ढूंढ़ती रही, मिली ही नहीं.”
उसका सांवला, गोल चेहरा ग़ुस्से से सुलग उठा.
अचानक वह बिफर उठा. उसका इस तरह बिफरना मेरे लिए अप्रत्याशित था.

दिसंबर माह की तीस तारीख़ की बेहद ठंडी रात. डेढ़ बज रहे थे. समय काटना बहुत ही कठिन लग रहा था. एक-एक पल, एक-एक सदी की तरह कट रहा था. मैं सोच रही थी कि आज मैं ज़िंदगी के उस चौराहे पर खड़ी हूं, जहां से मुझे अपने लिए नई राह चुननी है. एक तरफ़ प्यार भरे जीवन का अनंत आकाश था, तो दूसरी तरफ़ मां का ममता से भरा हृदय. मुझे ही यह तय करना था कि अपना सारा जीवन विभोर को सौंप दूं या मां की इच्छाओं का सम्मान कर उनके बताए युवक से शादी कर लूं.
यूं तो अक्सर बेटियां मां-बाप के कहने से अपना जीवन एक अनजान युवक को सौंप देती हैं. लेकिन कुछ ही साहसी युवतियां होती हैं, जो स्वयं अपना जीवनसाथी चुनती हैं. मैं विचारों के संसार में विचर रही थी.
मेरी हथेलियां पसीने से भीगी हुई थीं. दिल धड़क रहा था. घबराहट-सी हो रही थी. यह फ़ैसले की घड़ी थी. यदि आज विभोर के साथ न जा सकी, तो फिर कभी भी नहीं जा सकूंगी. इस घड़ी का महीनों से मुझे और विभोर को इंतज़ार था. आज तो जाना ही होगा. एक तरफ़ मां का मोह, तो दूसरी ओर विभोर का प्यार भरे सुखद जीवन का आश्‍वासन. विभोर की ज़िद पर ही मैं घर छोड़कर जा रही हूं. ऐसे फ़ैसले में किसी और की राय भी तो नहीं ली जा सकती थी. मुझे मालूम है कि मेरी भोली मां शायद ही यह सदमा सहन कर पाए. लेकिन मैं क्या करूं? मैं अपने दिल के हाथों मजबूर थी.

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पूरा मकान अंधकार में डूबा हुआ था. केवल मेरे कमरे में टेबल लैम्प जल रहा था, जिसकी रोशनी में विभोर के प्यार भरे पत्र को मैं कई बार पढ़ चुकी थी. लिखा था- मेरी जीवनसंगिनी सोनिया, कल रात ठीक तीन बजे प्लेटफॉर्म नंबर चार पर मैं तुम्हारा इंतज़ार करूंगा. घबराना मत. मैं तुम्हारे साथ हूं और सदा रहूंगा…
और भी बहुत कुछ लिखा था, जो मुझे रोमांचित करने के लिए काफ़ी था.
कल दोपहर की ही तो बात है, जब हम दोनों कॉफी हाउस में बैठे उस संसार को सजाने की बात कर रहे थे, जो हमारे लिए एक सुंदर स्वप्न की अनुभूति जैसा था.
सारी योजना बन चुकी थी. केवल अब उसे मूर्तरूप देना ही शेष था. विभोर की ही सलाह पर मैंने मेरे दहेज के लिए संभालकर रखे गए रुपयों और जेवरों को सूटकेस में रख लिया था.
विभोर के कहे हुए शब्द कानों में गूंज रहे थे, “ताक़तवर होने के लिए अपनी शक्ति पर भरोसा रखना ज़रूरी है. उन व्यक्तियों से कमज़ोर और कोई नहीं होता, जिन्हें अपने सामर्थ्य पर भरोसा नहीं होता.”
मैंने पूछा था, “विभोर, कहां जाएंगे?”
बड़े आत्मविश्‍वास से उसने कहा था, “तुम मुझ पर विश्‍वास करो.” और मेरा मन उसकी बातों पर विश्‍वास कर रहा था.
मैंने आज शाम को अपने निर्णय से मां को अवगत कराते हुए बताया था, “मां, तुम विभोर को तो जानती ही हो. वह कई बार आया है हमारे घर. मैं उसी के साथ घर बसाना चाहती हूं, इसलिए मैं आज यह घर छोड़कर जा रही हूं.”
“बेटी, तुम्हारे मामा एक लड़के को देख आए हैं. वह हर दृष्टि से तुम्हारे योग्य है और वह इसी रविवार को आ भी रहा है तुमसे मिलने के लिए. हम सभी तुम्हारे विवाह के लिए चिंतित और प्रयत्नशील हैं. थोड़ा-सा हमें वक़्त दो. सुखद समय की प्रतीक्षा करो. थोड़े-से धैर्य की ज़रूरत है. बस, फिर सब अच्छा ही होगा.” मां एक ही सांस में सब कुछ कह गईं.
पर मैं विभोर के सम्मोहन में इस कदर जकड़ी हुई थी कि मां की हर बात मेरी समझ से परे थी और मैं अपनी ज़िद पर अड़ी रही. इस विषय पर हमारी काफ़ी तीखी बहस हुई. आख़िरकार मां समझ गईं कि मुझ पर एक नासमझ ज़िद सवार है और यह ज़िद किसी अन्य बात को अपने आगे टिकने नहीं देगी.
मां ने फिर कहा, “जिसके भरोसे तुम यह घर और मुझे छोड़कर जा रही हो, कम से कम उसे और उसके प्यार को एक बार जांच-परख ज़रूर लेना. यह मेरी अंतिम सलाह है बेटी.”
मां के स्वर नम पड़ गए थे. मैंने लापरवाही से कहा, “मैं अब बड़ी हो चुकी हूं. विभोर को अच्छी तरह से जानती हूं और मुझे उस पर पूरा भरोसा भी है.”
“धोखा वही खाते हैं, जो विश्‍वास करते हैं.” यह कहते हुए मां रोते हुए अपने कमरे की ओर चली गईं.
अब फैसले की घड़ी नज़दीक आ चुकी थी. मैंने घड़ी को देखा, तो दो-पन्द्रह हो चुके थे. मैंने सोचा, अब चलना चाहिए.
धीरे से लैम्प बुझाया. बिना आवाज़ किए बाहर आंगन में आई, तो नीले आसमान में तारे ही तारे छिटके हुए दिखाई दिए. आसमान, नाचते मोर के पंख जैसा लगा. ठंडी हवा का एक झोंका बदन से आकर टकराया. इस झोंके की परवाह न कर मैं आंगन पार कर घर का बंद मुख्य दरवाज़ा खोलनेवाली ही थी कि हृदय की गहराइयों से आवाज़ आई- यह क्या कर रही हो सोनिया? क्या यही हमारे परिवार की परंपरा है? क्या होगा इस प्रतिष्ठित परिवार की इ़ज़्ज़त का?
कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ता है. यह दूसरी आवाज़ थी.
तुमने कभी अपने पिता को तो नहीं देखा, क्योंकि वे बचपन में ही चल बसे थे, लेकिन मां ने कैसे तुम्हें पाला, क्या यह भी तुझसे छिपा है?
नहीं, मुझे सब पता है. लेकिन यह भी सच है कि जब बच्चे समझदार हो जाते हैं, तो उन्हें इस तरह के क़दम उठाने का पूरा अधिकार होता है. शायद ऐसा ही विभोर भी सोचता है. इस विचार की पुष्टि में मेरा मन मेरे साथ खड़ा था.
अब ज़्यादा सोच-विचार की ज़रूरत नहीं है सोनिया. विभोर तुम्हारा इंतज़ार कर रहा होगा. चलो, जल्दी करो… मन के अंदर से आदेशात्मक आवाज़ आई.
नहीं, यह पूरी तरह ग़लत है सोनिया. जो चीज़ ग़लत है, उसे चाहे जिस तर्क के लिबास में लपेटा जाए, वह ग़लत ही रहेगी. दिमाग़ बोल रहा था.
कल क्या होगा? तुमने सोचा है कभी? क्या होगा?
जगहंसाई होगी. लोग तुम्हारे नाम पर, तुम्हारे खानदान पर इल्ज़ाम लगाएंगे, अनर्गल बातें करेंगे. कहेंगे- लड़की भाग गई. तुम्हारे लिए इस घर के दरवाज़े सदा के लिए बंद हो जाएंगे. सोनिया दिल से नहीं, दिमाग़ से काम लो. अभी भी व़क़्त है, मत जाओ. अभी घर की बात घर में है… मुझे अपना सिर भारी-सा लगने लगा. मन और दिमाग़ के इस सवाल-जवाब की फ़ेहरिस्त से मैं परेशान होने लगी. मुझे लगा कि यदि और ज़्यादा देर तक सोचती रही, तो शायद फिर मैं कभी भी विभोर के साथ न जा सकूंगी.
मैंने अपने सिर को ज़ोर से झटका देकर विचारों से मुक्त होने का असफल प्रयास किया और दरवाज़ा खोलकर घर से बाहर गली में आ गई. गली पूरी तरह सुनसान थी. मुख्य सड़क पर आई, तो एक ऑटोवाले ने मेरे हाथ में सूटकेस देखकर ऑटो रोक दिया.
मैं ऑटो में बैठी और उसे रेलवे स्टेशन चलने को कहा.
ऑटो ने रफ़्तार पकड़ी. धीरे-धीरे शहर छूट रहा था. शहर क्या छूट रहा था? मां छूट रही थी. मेरा अतीत छूट रहा था. वे गलियां छूट रही थीं, जहां मैंने अपना बचपन गुज़ारा था. मैंने आंखों से बहते हुए आंसुओं को रोकने का असफल प्रयास किया. मैं सोच के समंदर में डूबती-उतराती रही.
तभी रेलवे स्टेशन दिखाई देने लगा. ऑटो रुका, मैं उतरी. तभी अंधेरे से विभोर प्रकट हुआ, उसको देख मुझे ऐसा लगा कि वह काफ़ी देर से मेरा इंतज़ार कर रहा था. उसने ही ऑटो के पैसे दिए. मेरा सूटकेस हाथों में लेकर वह तेज़ चाल से प्लेटफॉर्म की ओर बढ़ा. मैं भी उसके पीछे-पीछे तेज़ क़दमों से चलने लगी.
प्लेटफॉर्म नंबर चार पर पहुंचकर उसने एक बेंच के पास सूटकेस रखकर कहा, “बैठो.” मैं ठीक से बैठ भी नहीं पाई थी कि उसने फिर कहा, “सब ठीक है?”
मैंने सहमति में सिर हिलाया.
वह कुछ देर तक चुप रहा. शायद उसका चुप रहना उसे ही असहनीय-सा महसूस हो रहा था. वह फिर बोला, “गाड़ी एक घंटा लेट है.”
मैं कुछ नहीं बोली, तो उसने कहा, “अभी आता हूं.”
वह दौड़कर दो कॉफी ले आया.
हम दोनों ने ख़ामोशी से कॉफी पी.
उसने धीरे-से स्नेह भरे लहजे में पूछा, “रुपए-जेवर तो साथ ले आई हो न?”
अचानक मां की अंतिम सलाह दिमाग़ में कौंधी.
सहसा मेरे मुंह से निकल पड़ा, “नहीं, विभोर. सब कुछ गड़बड़ हो गया था. मैं कुछ भी साथ नहीं ला सकी.”
“क्यों?”
“लॉकर की चाबी मां ने जाने कहां रखी थी, दिनभर ढूंढ़ती रही, मिली ही नहीं.”
उसका सांवला, गोल चेहरा ग़ुस्से से सुलग उठा.
अचानक वह बिफर उठा. उसका इस तरह बिफरना मेरे लिए अप्रत्याशित था.
वह पहले तो धीरे-धीरे बोल रहा था, फिर उसका दिमाग़ असंतुलित हो उठा और वह अचानक गुस्से से चीखने-सा लगा.
“क्यों आई हो खाली हाथ? क्या होगा परदेश में बिना पैसे के? कितने दिन से मैं तुम्हें समझा रहा था?..” और जाने क्या-क्या वह कहता चला गया.
उसे इतना असहज होते हुए मैंने पहली बार ही देखा.
मैंने कहा, “पहले मेरी भी तो बात सुनो?”
मैंने प्यार से उसका हाथ पकड़ना चाहा, तो उसने क्रोध में मेरा हाथ झटक दिया. वह कुछ भी सुनने के लिए तैयार न था.
मैंने उसके क्रोध के सागर में एक भंवर उठते देखा, जिसमें मुझे डूबने का ख़तरा नज़र आया.


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मैंने सोचा, सच बता ही दूं कि मैं तुम्हारे अनुमान से अधिक धन लेकर आई हूं, लेकिन तभी मन ने कहा, ठहरो, पहले इसे परख तो लो और मन का कहा मानकर मैं चुप ही रही.
विभोर न जाने क्या-क्या कहता रहा और मैं सुनती रही. मैं जिस विभोर को जानती थी, यह तो वह बिल्कुल न था. मेरे लिए वह पत्थर का नहीं, जीता-जागता देवता का रूप था. लेकिन आज मुझे वह पत्थर से भी ज़्यादा कठोर लग रहा था. मुझे आज पहली बार अपनी पसंद पर दुख हुआ. सोचा, क्या मेरा चुनाव सही था?
मुझे अपने चारों ओर अंधा गहरा जंगल-सा महसूस हुआ, जिसकी सभी राहें मानो गुम हों और मैं जिन संभावनाओं से जुड़ी हुई थी, उसमें मुझे अपना अस्तित्व हवा में झूलते हुए जालों की मानिंद महसूस हुआ. मुझे मेरी ही निराशा लहूलुहान कर रही थी. प्यार का सागर कुछ पलों में ही सूख गया था.
विभोर बहुत देर तक कुछ सोचता रहा, फिर जल्दी से बोला, “सुनो सोनिया, मैं बिना पैसे के इस शहर से एक क़दम भी बाहर नहीं रख सकता हूं. यदि तुम मेरा प्यार और जीवनभर साथ चाहती हो, तो कल इसी समय इसी ट्रेन से चलेंगे. पर इस बार पूरी तैयारी से आना. मैं टिकट कैंसल करवाकर कल का रिज़र्वेशन करवा लेता हूं.” विभोर की पोल खुल चुकी थी. मैं समझ चुकी थी कि उसके लिए पैसा ही सब कुछ है. अब मैं उसकी बातों के सम्मोहन से पूरी तरह मुक्त हो चुकी थी.
मैं भी विभोर को बहुत कुछ कहना चाहती थी. लेकिन मैं ख़ामोशी के दामन को ओढ़कर अपने में ही दुबक कर रह गई. मैंने सोच लिया कि ऐसे जीवनसाथी के साथ जीवन काटना मुश्किल ही नहीं, असंभव होगा.
वह न जाने क्या-क्या बड़बड़ाता रहा और अचानक झुंझलाकर तेज़ी से चला गया. उसके जाते ही मैंने एक गहरी सुख की सांस ली. अब मेरा मन शांत होकर एक तूफ़ान के गुज़रने के बाद की शांति महसूस कर रहा था. मुझे लगा कि दुनिया में कहीं जगह हो न हो, लेकिन अभी भी मेरे लिए एक ऐसी छत है, जिसके नीचे मेरा एक कमरा और उस कमरे में मेरा बिस्तर है जो अभी भी मेरा इंतज़ार कर रहा है. मैं अभी इतनी दूर भी नहीं आई थी कि मेरा लौटना असंभव होता.
मैं मन ही मन हंसी और सधे हुए कदमों से रेलवे स्टेशन से बाहर आई. कब मैंने ऑटो किया, कब बैठी और कब घर आई मुझे बिल्कुल याद नहीं. हां, मुझे इतना अवश्य याद है कि मां के तकिए के नीचे से धीरे-से चाबी निकालकर लॉकर में सारे जेवर और रुपए यथास्थान रखकर मैं अपने बिस्तर पर चली गई. मुझे अब प्रतीक्षा थी आगामी रविवार की और आनेवाले उस नवयुवक की, जो निश्‍चित रूप से मेरा जीवनसाथी होगा, ऐसा मुझे विश्‍वास है.

प्रभात दुबे

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