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कहानी- सर्पदंश (Short Story- Sarpdansh)


“मुझे किस बात की सज़ा मिल रही है अनु, ऐसी क्या चीज़ है जो मैंने तुम्हें नहीं दी. मैंने तो तुम्हें टूट कर चाहा.” मैंने तुम्हारा हाथ थाम लिया. आज मेरा अभिमान चूर-चूर हो गया था.
“तुमने मुझे सब कुछ दिया मीतू- प्यार, घर, कार, नौकर-चाकर, केवल तुमने नहीं दिया तो विश्‍वास. अगर तुमने मुझ पर विश्‍वास किया होता, तो मैं आज भी तुम्हारी थी, पर अब तो बहुत देर हो चुकी है.” यह कहकर तुम मेरा हाथ झटक कर तेज़ी से चली गयीं.
यह मेरी आख़िरी हार थी. तुम्हारे मुंह से ‘मीतू’ संबोधन सुनकर मुझे लगा कि तुम्हारे दिल में आज भी मेरे लिए जगह है.


आकाश पर काले गहरे बादल छाए हुए हैं. हालांकि इस पहाड़ी इलाके में मौसम साफ़ कम ही रहता है, फिर भी आज आकाश और दिनों से ज़्यादा ही गहरा दिख रहा है. दूर झील का पानी भी ऐसे मौसम में शांत और मटमैला दिखायी दे रहा है. यह जगह तुम्हें भी तो बहुत पसंद थी. ख़ासकर ऐसे मौसम में तो तुम ख़ुद को रोक ही नहीं पाती थीं. ऐसे मौसम में हम-तुम घंटों कार लेकर ऊंची-नीची पहाड़ी ढलानों पर फिसला करते थे. होटल की पांचवीं मंज़िल की इस बालकनी से हमने कई ख़ूबसूरत लम्हों को साथ-साथ जिया है.
पानी काफ़ी तेज़ी से बरस रहा है. रह-रहकर बादल गरज रहे हैं, पर आज तुम्हारी अनुपस्थिति में मुझे ये सब असह्य लग रहा है. यह जगह तुम्हें किस कदर पसंद थी? तुम कहा भी करती थीं कि भारत में अगर कहीं भी ख़ूबसूरती है तो कश्मीर में. यहां के एक-एक दृश्य को आंखों में बसा लेने का मन करता है.’ तभी तो साल के छः महीने हम यहां श्रीनगर के होटल ‘मूनलाइट’ के इस कमरे में बिताया करते थे. होटल ‘मूनलाइट’ की पांचवीं मंज़िल की इस बालकनी से पूरा श्रीनगर तस्वीर की तरह आंखों के सामने घूमता है.
और तस्वीर की तरह घूमता है वह दृश्य, जब मैंने अचानक तुम्हारे सामने अपने दिल की बात रख दी थी. साथ-साथ पढ़ते, घूमते-फिरते पता नहीं कब मुझे यह महसूस होने लगा कि मैं जीवनसाथी के रूप में तुम्हीं को पाऊं और पता नहीं कैसे यह कहने की हिम्मत कर बैठा, “अनु, आई लव यू, आई वांट टू मैरी यू.” जवाब में तुमने कुछ नहीं कहा, बस अपना सर्द हाथ मेरे हाथों पर रख दिया और बिना कहे ही तुम बहुत कुछ कह गयी थीं. तुम्हारी बन्द पलकों पर वो सपने मैंने देख लिए थे, जो मेरी बात सुनकर तुम्हारी आंखों में तैर गए थे. बस उस दिन हम एक हो गये थे.
मेरा बिज़नेस भी काफ़ी अच्छा था. हमारे परिवारवालों को हमारे विवाह पर कोई अपत्ति नहीं हुई और जल्द ही तुम दुल्हन बनकर अपने अरमानों का महल सजाए मेरे घर आ गयी थीं. मैंने भी कोई कसर न छोड़ी थी तुम्हारे स्वागत में. घर में केवल मां थीं. उनकी तो एक ही इच्छा थी कि घर में बहू आ जाये, पर मेरे लिए तो जैसे सारे संसार की ख़ुशियां ही मेरे घर में आ गयी थीं.

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शादी की पहली ही रात तुमने मेरे हाथ थाम कर कहा, “मुझे कश्मीर बहुत पसंद है मीतू, मुझे कश्मीर ले चलो.” बस उसी सुबह नई कार लेकर हम-तुम चल दिए थे. श्रीनगर आकर तो वैसे तुम उड़ने ही लगी थीं. बहुत से होटल हमने देखे, पर तुम्हें होटल ‘मूनलाइट’ बहुत पसंद आया, ख़ासकर उसका ये कमरा जहां से आज भी मैं वह नज़ारा देख रहा हूं. आज तुम नहीं हो, बाकी सब कुछ है. यह कमरा मैंने हमेशा के लिए ले लिया है, जिसमें तुम्हारा बड़ा-सा एक तैल-चित्र टंगा है.
याद है वह दिन जब मैं बिज़नेस के सिलसिले में चार दिन के लिए बाहर जा रहा था. मां भी घर की चिन्ता छोड़कर छः महीने के लिए हरिद्वार गयी थीं. चलते समय तुम मुझसे लिपट गयी और कहा, “मीतू जल्दी लौट आना, तुम्हारे बिना ये चार दिन कैसे काटूंगी? अकेला घर खाने को दौड़ेगा.”
“पगली, मैं हमेशा के लिए थोड़े ही जा रहा हूं. अगर तुम ऐसे धीरज खोओगी तो मैं भी नहीं जा सकूंगा.” मन तो हुआ कि सब कुछ छोड़कर तुम्हारे पास रुक जाऊं, पर जाना तो था ही. बड़ी मुश्किल से तुम्हें धीरज बंधा कर मैं जा पाया था. उस समय वे चार दिन तुम मेरे बिना नहीं काट पा रही थीं, पर आज ये चार साल तुमने मेरे बिना कैसे बिता लिया?
आंखों में कुछ तरल पदार्थ आ गया था. तौलिया से पोंछ लिया मैंने. कितने ख़ुशी-ख़ुशी बीत रहे थे हमारे दिन. तुम और हम, हम और तुम- जैसे एक-दूसरे के बिना दुनिया अधूरी थी. तभी बिज़नेस के सिलसिले में मेरी मुलाक़ात विश्‍वास से हुई. हां, विश्‍वास सेन. मेरी फैक्टरी का नया मैनेजर. काफ़ी हंसमुख इंसान. पहली बार वह हमारी मैरिज एनिवर्सरी पर आया था. उसके हंसमुख स्वभाव से तुम भी काफ़ी प्रभावित हुई थी. तुम लोगों ने काफ़ी जोक्स सुनाये एक-दूसरे को.
फिर तो वह अक्सर ही हमारे घर आने लगा था. उसकी मां दिल्ली में रहती थी. वह अभी कुंआरा था और मुंबई में अकेला ही रहता था. अक्सर हम लोगों की शामें विश्‍वास के साथ बीतने लगीं. तुम तो ख़ुश थीं, पर धीरे-धीरे मैं ही हीनभावना से ग्रसित होता चला गया. अब तुम्हें मेरे न होने पर अकेलापन भी नहीं सताता था. यहां तक कि जब मैं एक ह़फ़्ते के लिए बैंगलोर चला गया, तुमने वह समय भी विश्‍वास के साथ मज़े में काट लिया. तुम विश्‍वास को पसंद करती थी, पर मैं मानसिक रूप से बीमार होता गया. यहां तक कि मुझे तुम्हारे और विश्‍वास के संबंधों पर भी शक़ होने लगा. अब मुझे विश्‍वास का तुम्हारे साथ उठना-बैठना बहुत असह्य लगने लगा.

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उस दिन जब मैं फैक्टरी से लौट कर कार पोर्च में रख रहा था, तो मैंने तुम दोनों को गेट से बाहर निकलते हुए देखा. मैं तुमसे देर से आने के लिए कह गया था, पर जल्दी आ गया था. शायद उसी का फ़ायदा उठाकर तुम विश्‍वास के साथ कहीं घूमने जा रही थीं. यह सोचकर मैं ग़ुस्से से पागल हो गया और ऊपर जाकर बालकनी में आराम कुर्सी पर बैठ कर तुम्हारा इंतज़ार करने लगा.
उस दिन भी काफ़ी तेज़ बारिश हो रही थी. थोड़ी देर में तुम कुछ पैकेट्स से लदी हुई पानी में तर-बतर घर में दाख़िल हुईं. अपने कमरे में जाते-जाते तुमने बालकनी की लाइट ऑन कर दी और मुझे देखकर हैरान हो गयी.
“अरे आप तो देर से आने के लिये कह गये थे.” और उसके जवाब में मैं तुम्हारे ऊपर बरस पड़ा था, “हां, ताकि तुम आराम से विश्‍वास के साथ रंगरेलियां मना सको.” तुम एकदम हैरान रह गयीं.
“हां, हां, बन तो ऐसे रही हो जैसे कुछ जानती ही नहीं. तुम्हारे और विश्‍वास के बीच जो कुछ चल रहा है, मैं सब जानता हूं.”
“सुमित तुम होश में नहीं हो.”
“होश में था नहीं, अब आ गया हूं. मैं सब देख रहा हूं. तुम और विश्‍वास खुलकर मेरी दौलत पर मज़े उड़ा रहे हो.”
“सुमित, बस बहुत हो चुका. सहने की भी एक सीमा होती है.”
यह कहकर तुम रोते हुए तेज़ी से अपने कमरे की ओर दौड़ गयीं और जाते-जाते तुम्हारे हाथ के पैकेट्स बदहवासी में वहीं गिर गये, जिनमें से कुछ दवा की शीशियां ज़मीन पर गिर कर टूट गयी थीं और उनमें का तरल पदार्थ ज़मीन पर ऐसे रो रहा था जैसे हम दोनों के हालात पर रो रहा हो. हां, कुछ दिनों से तुम बीमार रहने लगी थीं. अपने पागलपन में मैं यह देख ही न पाया था. उस दिन तीन-चार दिन तक मेरा इंतज़ार करने के बाद ही तुम विश्‍वास के साथ दवा लेने गयी थीं. खैर, उस रात हम दोनों में से किसी ने भी खाना नहीं खाया था. तुम स्वाभिमानी और मैं शक के नशे में अंधा.
विचारों में बहकर मुझे समय का आभास नहीं रहा. रात के नौ बज रहे थे. वेटर रात का खाना लेकर आ चुका था. सर्दी के कारण सभी लोगों ने अपने-अपने कमरे अंदर से बन्द कर लिये थे. पर मुझे तो जैसे आभास ही न हुआ कि मैं केवल एक शर्ट में बालकनी में खड़ा हूं. भूख तो जैसे मर चुकी थी. खाना मुझसे खाया न गया. कमरे में आकर मैं बिस्तर पर लेट गया. बारिश रुक गयी. तूफ़ान थम चुका था. पर क्या मेरे जीवन का तूफ़ान कभी थमा?
तूफ़ान-सा ही तो मच गया था. दूसरे दिन जब इस घटना से बेख़बर विश्‍वास घर चला आया था, मैं अपने कमरे में था. जब बाहर निकला, तो तुम विश्‍वास से कह रही थीं, “कोई किसी को टूट कर चाहे तो उसका जवाब नफ़रत से क्यों मिलता है?” मैंने उस ‘कोई’ का अर्थ विश्‍वास से लगाया. अब तो मैं पागल हो गया था. न मेरा मन घर में लगता था, न फैक्टरी में. तुम्हारे बिना भी मुझे अच्छा नहीं लगता था और तुम्हें देखते ही ग़ुस्सा चढ़ जाता था. समझ में नहीं आता था कि क्या करूं, कहां जाऊं. बिल्कुल पागलों जैसी हालत हो गयी थी मेरी. काश… उस दिन मैं समझ गया होता कि उस ‘कोई’ का आशय मुझसे था तो आज मेरा यह हाल न होता.
उसी दिन विश्‍वास तुम्हारा हाथ पकड़ कर बोला, “आज तो गरम-गरम कॉफी पीने का मौसम है भाभी. फिर तुम्हारे हाथों से बनी कॉफी का तो कहना ही क्या.” तुमने मेरी इ़ज़्ज़त बचाने के लिए विश्‍वास को कुछ नहीं बताया, ताकि मुझे नीचा न देखना पड़े, पर मैं समझा कि तुम विश्‍वास के साथ मिलकर मुझसे बगावत करना चाहती हो. मैं आपे से बाहर हो गया तथा पागलों की तरह नीचे दौड़ा तब तक तुम हाथ में एस्प्रेसो कॉफी का प्याला ला चुकी थी. और आवेश में मैंने वह प्याला तुम्हारे हाथ से उछाल दिया था.
“बस बहुत नाटक हो चुका.” मैं चीखा.
“मेरे घर में अब यह सब नहीं चलेगा.” विश्‍वास तो एकदम हतप्रभ रह गया था और इससे पहले कि वह कुछ बोले, मैंने बेइ़ज़्ज़त करके उसे घर से निकाल दिया. बस जाते-जाते उसने इतना ही कहा था, “आपने कुछ कहने से पहले सच्चाई का पता लगा लिया होता, तो अच्छा रहता.”
उसके जाते ही तुम भी अपना आपा खो बैठीं, “सुमित, मैं बहुत दिनों से सह रही हूं और उसे तुम्हारी नादानी समझ कर माफ़ करती रही, पर आज तो हद हो गयी है.”
और मैं चीखा, “निकल जाओ मेरे घर से, जिसके साथ ऐश करती रही, उस के घर जाकर रहो.” और इससे पहले कि तुम कुछ बोलो मैं तेज़ी से बाहर निकल गया. रात को जब काफ़ी थक गया तो वापस घर आया. कार को पोर्च में खड़ी करके जब अंदर आया तो घर खाली था. तुम मुझे कहीं न दिखीं. नौकर ने बताया कि मेमसाहब सामान लेकर कहीं चली गयी हैं. आपके लिए यह काग़ज़ छोड़ गयी हैं. मैंने काग़ज़ खोला और तुम्हारे शब्दों के मोती मेरी आंखों के सामने बिखर गए.

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प्रिय सौमित्र,
मैं बहुत आशा और विश्‍वास के साथ बहुत से अरमानों को लेकर तुम्हारे घर आयी थी. तुमने मुझे वह प्यार व सम्मान दिया भी था, पर अभी मैं वह ख़ुशियां समेट भी न पायी थी कि तुमने मेरी ख़ुशियां छीन लीं. तुम्हें क्या मालूम कि तीन साल के इस अन्तराल में मां न बन पाने का दुख किस कदर मुझ पर छाया था. एक औरत शारीरिक सुख के अलावा मानसिक सुख भी चाहती है. वह एक बच्चा चाहती है, जो उसके प्यार को बांट ले. मैंने अपना एकाकीपन किसी से बांटना चाहा तो तुमने मुझ पर शक़ किया. तुम तो मुझे समझ न पाये, पर मैंने तुम्हें समझने की बहुत कोशिश की, लेकिन अब तो हद हो गयी है. तुम्हें मुझ पर ग़ुस्सा करने का अधिकार तो था, पर इल्ज़ाम लगाने का नहीं. मुझे खोकर तुम बहुत पछताओगे. मुझे ढूंढने की कोशिश मत करना.
अनुराधा
पत्र पढ़ कर मेरा मन हाहाकार कर उठा. तुमने मेरा ग़ुस्सा तो देखा, पर उसमें छिपी हुई ईर्ष्या की बू तुम्हें नहीं आ सकी. मैं तो तुम पर अपना एकाधिकार चाहता था, तुम्हें खोना नहीं. मन किया कि दौड़ कर तुमको वापस बुला लाऊं, माफ़ी मांग लूं तुमसे और कहूं, अनु, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता. यह सब तो मैंने तुम्हारे प्यार की ख़ातिर ही किया था, पर मेरा स्वाभिमान आड़े आ गया.
उसके बाद दो साल बीत गये… मुझे तुम्हारी ख़बर मिलती रहती थी. पता चला कि उस अन्तराल में तुम्हारे डैडी का भी देहान्त हो गया था. मां तो तुम्हारी पहले ही न थीं.
यह सोचकर मेरा मन बड़ा घबराता था कि अब तुम इस दुनिया में बिल्कुल अकेली रह गयीं, पर तुमसे मिलने की हिम्मत न होती थी. न तुमने ही कभी सहारे का कोई पत्र लिखा. मां ने कई बार कहा कि बेटा इतना हठ अच्छा नहीं, जाकर बहू को ले आ. पर मैंने भी ज़िद न छोड़ी. हालांकि अन्दर-ही-अन्दर घुटता रहा और फिर एक दिन तुमने अपने सम्बन्धियों के कहने पर तलाक़नामा भेज दिया. दो साल तक कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने के बाद हम दोनों में तलाक़ हो गया.
मुझे आज भी तुम्हारा वह चेहरा याद है, जब तुम कोर्ट से बाहर जा रही थीं. तुम्हारी आंखों में आंसू थे. विश्‍वास ने इन परेशानियों के दिनों में बराबर तुम्हारा साथ दिया था. तुम्हारे पिता के देहांत पर, उसके बाद आर्थिक रूप से व मानसिक रूप से वह हमेशा तुम्हारे साथ रहा और इसी कारण तुम्हारे सम्बन्धियों की नज़रों में बसता चला गया और मैं गिरता. फिर तुम्हें भी अपने भविष्य के लिए किसी सहारे की ज़रूरत थी और तुमने विश्‍वास का हाथ थामने का फैसला कर लिया.
मुझे ख़बर हुई उस दिन जब लाल रंग का एक सुगंधित लिफ़ाफ़ा मेरे घर आ पहुंचा- ‘विश्‍वास वेड्स अनुराधा’ और मैं तो जैसे जड़ हो गया. मैं तुमसे अलग हो चुका था, फिर भी मुझे तुम्हारा नाम किसी और के साथ जुड़ता अच्छा न लगा. मां भी सन्न रह गयीं.
“पगले, तूने नादानी में एक सुशील बहू खो दी.” मां को अपनी बहू खोने का ग़म था और मुझे अपनी ज़िन्दगी खोने का. उसके बाद तो मैं जैसे पागल हो गया था. मेरी ज़िन्दगी का कोई रुख न रहा. फैक्टरी में क्या हो रहा है, मुझे नहीं मालूम. मैं तो बस तुम्हारे ख़यालों में खोया रहता.
एक दिन मैं ऐसी ही बदहवासी में कार चला रहा था कि मुझे सामने से तुम आती दिख गयीं. मैंने जल्दी से कार रोकी और दरवाज़ा खोलकर मैं तुम्हारे सामने आ गया था.
“मुझे किस बात की सज़ा मिल रही है अनु, ऐसी क्या चीज़ है जो मैंने तुम्हें नहीं दी. मैंने तो तुम्हें टूट कर चाहा.” मैंने तुम्हारा हाथ थाम लिया. आज मेरा अभिमान चूर-चूर हो गया था.
“तुमने मुझे सब कुछ दिया मीतू- प्यार, घर, कार, नौकर-चाकर, केवल तुमने नहीं दिया तो विश्‍वास. अगर तुमने मुझ पर विश्‍वास किया होता, तो मैं आज भी तुम्हारी थी, पर अब तो बहुत देर हो चुकी है.” यह कहकर तुम मेरा हाथ झटक कर तेज़ी से चली गयीं.
यह मेरी आख़िरी हार थी. तुम्हारे मुंह से ‘मीतू’ संबोधन सुनकर मुझे लगा कि तुम्हारे दिल में आज भी मेरे लिए जगह है. पर नादानी में हम दोनों ने एक-दूसरे को खो दिया था. तुम्हारी और मेरी दोनों की ज़िन्दगी बदल चुकी थी, पर दोनों की बदली हुई ज़िन्दगी में बड़ा फ़र्क था. मेरी ज़िन्दगी में अभाव था तुम्हारा और तुम्हारी ज़िन्दगी में प्राप्ति थी एक नये घर की, पति की, विश्‍वास की.
मेरी ज़िन्दगी में अब तुम्हारी यादों को समेटने के सिवा कुछ न था. तभी तो मैं एक-एक चीज़ जिससे तुम्हारी यादें जुड़ी हुई हैं, सहेज रहा हूं. यह कमरा भी तो तुम्हारी याद का ही एक अंश है, जहां मैं साल के आठ महीने गुज़ारता हूं. तुम्हारी ज़िन्दगी से तो मैं निकल गया हूं, पर मेरी ज़िन्दगी में तुम उसी तरह छायी हुई हो. इसका सबूत है इस कमरे में मुस्कराता तुम्हारा यह तैलचित्र, वह अलबम, जिसमें तुम्हारी फ़ोटोज़ का संग्रह है और जिसे मैं सुबह उठकर सबसे पहले देखता हूं. यह मेरे रुटीन का एक अंग बन गया है. साल में आठ महीने मेरा यहां श्रीनगर के इस होटल में रहना भी तो उसी पागलपन का एक अंश है. कल सुबह मुझे वापस मुंबई जाना है. वहां जाकर मां बस फिर रोज़ की तरह कहना शुरू कर देंगी, “बेटा दूसरी शादी कर ले, घर में बहू आ जाये तो लड़के-बच्चे हो जाएं. कभी यह भी सोचा है कि तेरा वंश कैसे चलेगा?” मैं यह नहीं जानता कि मेरा वंश कैसे चलेगा. मैं तो यह सोचता हूं कि मेरी ज़िन्दगी कैसे चलेगी, तुम्हारे बिना. शायद ऐसे ही श्रीनगर-मुंबई दौड़ते-दौड़ते. यहां आकर तुम्हारी यादें सर्पदंश-सी चुभने लगती हैं. और मुझे अच्छी भी लगती हैं. मैं तो तुम्हारी यादों को समेट लेना चाहता हूं. सहेज लेना चाहता हूं. शायद यही मेरे जीने का सहारा हो जाए.

अर्चना प्रियंवदा जौहरी

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