Short Stories

कहानी- स्नेह की आवाज़ (Short Story- Sneh Ki Aawaz)

“… भगवान तो मेरे लिए काल्पनिक हैं. तुम तो उसका यथार्थ रूप हो मां. मेरे हृदय में तुम्हारा जो स्थान है, उस पर कभी दूसरे का आधिपत्य हो ही नहीं सकता, फिर तुमने मुझ पर से अधिकार का साया क्यों समेट लिया? क्यों इतना पराया बना दिया, बताओ मां?..”

कड़कड़ाती ठंड ऊपर से कोहरे की पल्लवित काया ने सूर्य की रश्मियों को अपने जिस्म में समेट शीत ऋतु का अति शीतल रूप धरा पर बिखेर रही थी. सुबह के आठ बजने को थे, लेकिन घर के सभी सदस्यों ने स्वयं को रजाई के आगोश में यूं छिपा रखा था जैसे कोई कंजूस अपने ख़ज़ाने को. जाग चुकी थी तो केवल वे दो आंखें, जो पिछले पैंतीस वर्षों से अपने इस घर को पृथ्वी का स्वर्ग बनाने हेतु सदैव लालायित रही हैं और इसी लालसा के चलते कई अवसर ऐसे भी आते, जब उन आंखों को रात्रि में भी विश्राम नसीब नहीं होता, फिर भी वे ख़ुश ही रहतीं, क्योंकि ये घर उसका अपना है. इस घर के लोग भी उसके अपने हैं. उनके लिए इन आंखों या इस शरीर को थोड़ा कष्ट हो भी गया तो क्या? इससे घर में सुख-शांति तो है. घर में सुख-शांति का ध्यान रखने वाली इस शख़्सियत का नाम भी शांति ही है.

रोज़ की तरह आज भी शांति की आंखें अपने नियत समय पर ही खुल चुकी थीं, किंतु पिछले चार दिनों से आ रहे बुखार के कारण शरीर बिस्तर छोड़ने के क़ाबिल नहीं था. शारीरिक कमज़ोरी से कहीं ज़्यादा उसे ख़ुद को असहाय समझने की मानसिक यंत्रणा विचलित कर रही थी. रुखाई पूर्ण स्वर में उसने क़रीब सो रहे पति को आवाज़ दी, “नमन के पापा, ओ नमन के पापा!”

शांति की आवाज़ वापस लौट आई. शारीरिक बेबसी आंसू बन आंखों का सहारा ले गालों पर लुढ़कने लगे. पिछले दो घंटे से चाय पीने की तलब ने अब उग्र रूप धारण कर लिया था. आंखों में आंसुओं के साथ अब अतीत की यादें भी उभरने लगीं.

यह भी पढ़े: ख़ुद अपना ही सम्मान क्यों नहीं करतीं महिलाएं (Women Should Respect Herself)

ऊन-सलाई को हाथ से खींच एक ओर पटकते हुए नमन खीझा था.

“ओह! मां… कितनी बार कहूं आपसे कि इस तरह सुबह से रात ग्यारह बजे तक काम मत किया करो. जब देखो तब काम ही काम, कुछ नहीं मिला तो ऊन-सलाई लेकर बैठ गईं. बाज़ार में ढेर सारे स्वेटर मिलते हैं ख़रीद लाएंगे. कुछ तो अपनी तबियत का ख़याल रखा करो. पहले ही आंखें कमज़ोर, दमा, स्पॉन्डिलाइटिस और न जाने क्या-क्या है?” और स्वयं मां की गोद में सिर रख आराम से लेट गया जैसे कोई चार माह का बच्चा हो.

“चल हट, इतना बड़ा हो गया है तब भी दिनभर छोटे बच्चों की तरह पीछे लगा रहता है. जा अपना काम कर, मुझे भी अपना काम करने दे. काम ज़िंदगी का दूसरा नाम है. बिना काम के क्या ज़िंदगी.”

“आप भी कमाल करती हैं मां! एक तरफ़ तो मुझे यहां से जाने को कह रही हैं, दूसरी तरफ़ सिर पर इतने प्यार से हाथ फेर रही हैं, ऐसे में मैं तो क्या, कोई मच्छर भी नहीं भागेगा.”

आए दिन मां-बेटे में इस तरह की नोक-झोंक होना आम बात थी. देखते ही देखते नमन उच्च शिक्षा हेतु बाहर पढ़ने चला गया. किंतु मां के प्रति उसका अगाध प्रेम यथावत् बरक़रार रहा. वह जब भी घर आता, अधिकांश समय मां के साथ ही गुज़ारता. पिता रिज़र्व नेचर के थे, इसलिए मां से ही अधिक बात करता. संगी-साथी भी कम थे. उसे अपनी मां ही अपने जीवन का आधार स्तम्भ लगती. उसे लगता इस दुनिया में उसकी मां से श्रेष्ठ कोई है ही नहीं.

इस बार हॉस्टल से आते ही इतनी रात गए बर्तनों की आवाज़ सुन अपने बैग को ग़ुस्से में उसने एक ओर पटका व बिना जूते खोले ही किचन में जा मां को बर्तन मांजता देख बिना किसी औपचारिकता के चीख उठा.

“क्या ज़रूरत है इतनी रात गए बर्तन मांजने की?”

“अरे बेटा! तू आ गया? चल बैठ, मैं अभी आयी. कामवाली बाई छुट्टी पर है. बस, इसीलिए थोड़े-से बर्तन थे, वो साफ़ कर रही थी.”

“कुछ भी हो, आप काम नहीं करोगी.”

इतना कह अपने दोनों हाथों से मां को एक ओर खड़ा कर वह ख़ुद बर्तन मांजने में जुट गया.

“अच्छा बाबा, बर्तन नहीं मांजूंगी. तुम पहले हाथ-मुंह धोकर खाना खा लो.”

“नहीं खाना है मुझे खाना-वाना. मैं घर में नहीं रहूं तो तुम्हारे जो जी में आये, वही करती हो. पापा को तो आपके स्वास्थ्य से कोई मतलब नहीं है. उन्हें तो बस समय पर सब चीज़ें तैयार चाहिए. इसी भय से आप व़क़्त-बेव़क़्त जुट जाती हो काम में.”

शांति के लाख मना करने के बावजूद नमन बर्तन मांजता रहा. शांति की आंखें वात्सल्य के आंसुओं से सराबोर हो गईं. बेटे का इस तरह बर्तन मांजना उसे दुखी अवश्य कर गया. किंतु उस कार्य में उसे अपने प्रति नमन के असीम प्रेम की झलक दिखाई पड़ रही थी. इस झलक की लालसा हर मां को होती है, जो मां के हृदय को अपरिमित सुख का एहसास कराती है. भाव-विभोर शांति मन-ही-मन ईश्‍वर से प्रार्थना करने लगी. आज के युग में ऐसा बेटा सभी को कहां नसीब होता है. ईश्‍वर करे हर मां की गोद में ऐसे ही लाल जन्म लें, जिसकी कर्त्तव्यपरायणता, स्नेह व आदर तले हर मां का जीवन महकती बगिया-सा बीते. आज उसे अपने मातृत्व पर बेहद गर्व हो रहा था.

“शांति-शांति ! क्या हो गया ? क्यों रो रही हो?”

शांति की तंद्रा टूटी, सामने देखा नमन के पापा खड़े थे.

“बस यूं ही….”

“यूं भी भला कोई रोता है, क्या कहीं दर्द है?” उम्र के इस पड़ाव में रमाशंकरजी अपनी पत्नी का थोड़ा-बहुत ध्यान तो रखने लगे थे, लेकिन घर के छोटे-मोटे कार्य करना उनके वश की बात नहीं थी. शांति को पिछले दो सालों से दर्द तो है. लेकिन वह दर्द शरीर का नहीं, अंतर्मन का दर्द है. उदार स्वभाव ने उसके दिल को बहुत बड़ा कर दिया था. सब कुछ उसमें समा जाता. किसी से कुछ न कहने की अपनी पुरानी आदत पर वह आज भी कायम थीं. रमाशंकरजी के ज़्यादा ज़ोर देने पर उन्होंने कहा, “मुझे चाय पीनी थी.”

“इतनी-सी बात के लिए रो रही हो. अच्छा बचपना है.” ‘नमन…. ओ नमन..’  की आवाज़ लगाते रमाशंकरजी ने नमन के कमरे की ओर रुख किया.

“क्या है पापा?” एक उनींदी-सी आवाज़ आयी.

“देखता नहीं सुबह के आठ बजे हैं. अभी तक चाय नहीं बनी है.”

नमन ने रजाई हटा घड़ी की ओर देखा. सवा आठ हो रहे थे.

सच में आज बहुत देर हो गयी. मां को तो सुबह छह बजे ही चाय पीने की आदत है. वह मन-ही-मन बुदबुदाया और हाथ-मुंह धो सीधे किचन में जा चाय बनाने लगा. उसे चाय बनाता देख रमाशंकरजी पुन: चीखे, “तू चाय बना रहा है? बहू को क्या हो गया? क्या दस बजे तक सोती ही रहेगी?”

पिता से ज़्यादा बात न करना नमन की पुरानी आदत थी. वह उनसे बिना कुछ कहे एक कप चाय उन्हें पकड़ा एक कप चाय और बिस्किट ले मां के कमरे में पहुंच गया. मां की सूजी हुई आंखें देख उसे एहसास हो गया कि मां बहुत रोई हैं.

“क्या हो गया मां! आज तुम्हारी आंखें बहुत सूजी हुई हैं. लगता है बहुत रोई हो. तबियत ठीक नहीं है क्या?”

“नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है.” कहते हुए शांति की आवाज़ भर्रा गयी. मां का हाथ पकड़ नमन ने अपने सिर पर रखते हुए कहा.

“तुमको मेरी क़सम मां, जो तुमने सच नहीं बोला तो.”

नमन की क़सम से शांति को एहसास हुआ कि छोटी-सी बात के लिए रोकर उसने बहुत बड़ी ग़लती की है. अब वह कैसे कहे कि जब से सुरीना घर में आई है, तब से नमन पहले वाला नमन नहीं रहा. मैं काम करूं या न करूं, समय पर खाऊं या न सोऊं, इसकी उसे अब कोई विशेष चिंता नहीं रही. अब तो वह बड़ा हो गया है. शादी हो गयी. एक बेटा भी है. अब मां की क्या ज़रूरत है? इन्हीं भावनाओं के दोबारा अन्तस में उभरने के कारण शांति की रुलाई पुन: फूट पड़ी. मां को रोता देख नमन भी फूट-फूट कर बच्चों की तरह मां की गोद में सिर रख कर रोने लगा. रुंधे गले से उसने कहना प्रारम्भ किया.

“मां! मत रोओ. मैं सब जानता हूं, तुम क्यों रो रही हो. मुझे ग़लत मत समझो मां. मैं देख रहा हूं जबसे मेरी शादी हुई है, तुम मुझसे खिंची-खिंची रहती हो. न वो प्यार, न वो दुलार, न डांट-फटकार, न पहले जैसी पूछताछ कि मैं कहां जा रहा हूं? क्या कर रहा हूं? इन सबसे तुमको कोई मतलब ही नहीं रहा. तुम्हारे इस व्यवहार ने मुझे अंदर से कितना दुखी कर दिया है, तुम नहीं समझ सकती. भगवान तो मेरे लिए काल्पनिक हैं. तुम तो उसका यथार्थ रूप हो मां. मेरे हृदय में तुम्हारा जो स्थान है, उस पर कभी दूसरे का आधिपत्य हो ही नहीं सकता, फिर तुमने मुझ पर से अधिकार का साया क्यों समेट लिया? क्यों इतना पराया बना दिया, बताओ मां? मुझे मालूम है तुम कुछ नहीं बोलोगी. तुम्हारे मन की व्यथा आज मैं ही बयां कर देता हूं.

यह भी पढ़ें: जानें 9 तरह की मॉम के बारे में, आप इनमें से किस टाइप की मॉम हैं?(Know About 9 Types Of Moms, Which Of These Are You?)

मैं अपनी बढ़ती हुई ज़िम्मेदारियों के कारण तुम्हें पहले जितना समय नहीं दे पा रहा हूं, इसलिए तुमने मुझे बेगाना बना दिया. लेकिन महसूस करके तो देखो, मैं आज भी तुम्हारे इर्द-गिर्द ही हूं. बस मेरा रूप सुरीना और तुम्हारे पोते ने ले लिया है. पापा रिटायर हो गए हैं. घर की व्यवस्था सुचारु रूप से चले, इसलिए मुझे भी अपने काम पर ध्यान व समय देना बहुत ज़रूरी है. तुमने ही तो सिखाया है मां कि ज़िंदगी का दूसरा नाम काम है और मां मैंने दिल पर पत्थर रख कर तुमसे थोड़ी दूरी बनाये रखने की कोशिश की थी, ताकि सुरीना को भी कुछ समय दे सकूं, लेकिन मुझ पर अति स्नेह के कारण तुमको यह बात अच्छी नहीं लगी. ज़रा शांत मन से सोच कर देखो मां, वह भी तो अपना घर-परिवार सब कुछ छोड़ कर हमारे यहां आई है. उसे भी थोड़ा-बहुत समय चाहिए. साथ ही मैं यह चाहता हूं कि आपकी जितनी चिंता मुझे है, उतनी उसे भी हो, ताकि मेरी ग़ैर-मौजूदगी में भी आपकी देखभाल में कोई कमी न आए, इसलिए भी मैंने जान-बूझकर घर में अपना स्थान सुरीना को देने का प्रयास किया है और मैं चाहता हूं कि आप भी उससे उतना ही प्यार करो, जितना मुझसे करती हो.

मां! रात में सुरीना को भी बहुत बुखार था, इसलिए वह सुबह उठ नहीं पायी. मैं भी रातभर जागने के कारण सुबह जल्दी उठ नहीं पाया और समय पर तुम्हें चाय बनाकर नहीं पिला सका. ग़लती मेरी थी मुझे डांट लो, किंतु रो-रोकर अपनी तबियत और ख़राब मत करो. मां, आपके सिर पर से तो मां के आंचल की छांव बचपन में ही छिन गई थी. आप क्या जानो मां क्या होती है? आपने ही तो इस पत्थर को तराश कर हीरा बनाया है. आज मैं जो कुछ भी हूं, आपके ही त्याग और वात्सल्य का प्रतिफल हूं. बचपन से लेकर आज तक ईश्‍वर के सामने मैं रोज़ सुबह आपकी लम्बी उम्र की कामना करता रहा हूं. सच कहता हूं मां, आपकी ममता की छांव सुगंधित करने के लिए एक बार जी भरकर डांट दो मां.”

मां-बेटे दोनों की आंखों से अश्रुओं की अविरल धारा बह रही थी. शांति अब तक अपने बेटे को अल्हड़ तथा नासमझ ही समझती थी, किंतु आज उसे एहसास हो गया कि उससे ज़्यादा उसका बेटा समझदार है, तभी तो उसने उसके मन की व्यथा को जस-का-तस अपने स्वर में प्रगट कर एवं स्वयं की भावनाओं को भी सार्थक आकार प्रदान कर कितने बेहतरीन तरी़के से उसके समक्ष प्रस्तुत किया है. अपने मातृत्व को वह धन्य समझती हुई ख़ुद के सोच पर ग्लानि महसूस कर रही थी. किंतु नमन के आंसुओं व विचारों ने उसके अंतस के सारे अवसाद धो दिए थे. बीमार अवस्था में भी उसे अब नवस्फूर्ति व नवजीवन का आभास हो रहा था. उसने अतीत की तरह नमन के बालों में हाथ फिरा डांटते हुए कहा-

“कर ली ना अपनी बक-बक पूरी, जा पहले सुरीना को डॉक्टर को दिखा ला.”

शांति जो अब तक स्वयं को जीने की कला में पारंगत मानती थी, आज एहसास हुआ कि उससे चूक हुई है. खून के रिश्ते तो सभी को प्यारे होते हैं. वास्तविक ख़ुशी तो पराये को भी अपना बनाने में है. इसी क्षण से उन्होंने प्रण किया कि आज से सुरीना को भी वही स्थान देने का प्रयास करेंगी, जो स्थान नमन का है. इस प्रयास में शांति क़ामयाब रहीं और कुछ ही दिनों में घर में स्वर्गिक सुख व्याप्त हो गया.

कड़कड़ाती ठंड ऊपर से कोहरे की पल्लवित काया ने सूर्य की रश्मियों को अपने जिस्म में समेट शीत ऋतु का अति शीतल रूप धरा पर बिखेर रही थी. सुबह के आठ बजने को थे, लेकिन घर के सभी सदस्यों ने स्वयं को रजाई के आगोश में यूं छिपा रखा था जैसे कोई कंजूस अपने ख़ज़ाने को. जाग चुकी थी तो केवल वे दो आंखें, जो पिछले पैंतीस वर्षों से अपने इस घर को पृथ्वी का स्वर्ग बनाने हेतु सदैव लालायित रही हैं और इसी लालसा के चलते कई अवसर ऐसे भी आते, जब उन आंखों को रात्रि में भी विश्राम नसीब नहीं होता, फिर भी वे ख़ुश ही रहतीं, क्योंकि ये घर उसका अपना है. इस घर के लोग भी उसके अपने हैं. उनके लिए इन आंखों या इस शरीर को थोड़ा कष्ट हो भी गया तो क्या? इससे घर में सुख-शांति तो है. घर में सुख-शांति का ध्यान रखने वाली इस शख़्सियत का नाम भी शांति ही है.

रोज़ की तरह आज भी शांति की आंखें अपने नियत समय पर ही खुल चुकी थीं, किंतु पिछले चार दिनों से आ रहे बुखार के कारण शरीर बिस्तर छोड़ने के क़ाबिल नहीं था. शारीरिक कमज़ोरी से कहीं ़ज़्यादा उसे ख़ुद को असहाय समझने की मानसिक यंत्रणा विचलित कर रही थी. रुखाई पूर्ण स्वर में उसने क़रीब सो रहे पति को आवाज़ दी, “नमन के पापा, ओ नमन के पापा!”

शांति की आवाज़ वापस लौट आई. शारीरिक बेबसी आंसू बन आंखों का सहारा ले गालों पर लुढ़कने लगे. पिछले दो घंटे से चाय पीने की तलब ने अब उग्र रूप धारण कर लिया था. आंखों में आंसुओं के साथ अब अतीत की यादें भी उभरने लगीं.

ऊन-सलाई को हाथ से खींच एक ओर पटकते हुए नमन खीझा था.

“ओह! मां… कितनी बार कहूं आपसे कि इस तरह सुबह से रात ग्यारह बजे तक काम मत किया करो. जब देखो तब काम ही काम, कुछ नहीं मिला तो ऊन-सलाई लेकर बैठ गईं. बाज़ार में ढेर सारे स्वेटर मिलते हैं ख़रीद लाएंगे. कुछ तो अपनी तबियत का ख़याल रखा करो. पहले ही आंखें कमज़ोर, दमा, स्पॉन्डिलाइटिस और न जाने क्या-क्या है?” और स्वयं मां की गोद में सिर रख आराम से लेट गया जैसे कोई चार माह का बच्चा हो.

“चल हट, इतना बड़ा हो गया है तब भी दिनभर छोटे बच्चों की तरह पीछे लगा रहता है. जा अपना काम कर, मुझे भी अपना काम करने दे. काम ज़िंदगी का दूसरा नाम है. बिना काम के क्या ज़िंदगी.”

“आप भी कमाल करती हैं मां! एक तरफ़ तो मुझे यहां से जाने को कह रही हैं, दूसरी तरफ़ सिर पर इतने प्यार से हाथ फेर रही हैं, ऐसे में मैं तो क्या, कोई मच्छर भी नहीं भागेगा.”

आए दिन मां-बेटे में इस तरह की नोक-झोंक होना आम बात थी. देखते-ही-देखते नमन उच्च शिक्षा हेतु बाहर पढ़ने चला गया. किंतु मां के प्रति उसका अगाध प्रेम यथावत् बरक़रार रहा. वह जब भी घर आता, अधिकांश समय मां के साथ ही गुज़ारता. पिता रिज़र्व नेचर के थे, इसलिए मां से ही अधिक बात करता. संगी-साथी भी कम थे. उसे अपनी मां ही अपने जीवन का आधार स्तम्भ लगती. उसे लगता इस दुनिया में उसकी मां से श्रेष्ठ कोई है ही नहीं.

इस बार हॉस्टल से आते ही इतनी रात गए बर्तनों की आवाज़ सुन अपने बैग को ग़ुस्से में उसने एक ओर पटका व बिना जूते खोले ही किचन में जा मां को बर्तन मांजता देख बिना किसी औपचारिकता के चीख उठा.

“क्या ज़रूरत है इतनी रात गए बर्तन मांजने की?”

“अरे बेटा! तू आ गया? चल बैठ, मैं अभी आयी. काम वाली बाई छुट्टी पर है. बस, इसीलिए थोड़े-से बर्तन थे, वो साफ़ कर रही थी.”

“कुछ भी हो, आप काम नहीं करोगी.”

इतना कह अपने दोनों हाथों से मां को एक ओर खड़ा कर वह ख़ुद बर्तन मांजने में जुट गया.

“अच्छा बाबा, बर्तन नहीं मांजूंगी. तुम पहले हाथ-मुंह धोकर खाना खा लो.”

“नहीं खाना है मुझे खाना-वाना. मैं घर में नहीं रहूं तो तुम्हारे जो जी में आये, वही करती हो. पापा को तो आपके स्वास्थ्य से कोई मतलब नहीं है. उन्हें तो बस समय पर सब चीज़ें तैयार चाहिए. इसी भय से आप व़क़्त-बेव़क़्त जुट जाती हो काम में.”

शांति के लाख मना करने के बावजूद नमन बर्तन मांजता रहा. शांति की आंखें वात्सल्य के आंसुओं से सराबोर हो गईं. बेटे का इस तरह बर्तन मांजना उसे दुखी अवश्य कर गया. किंतु उस कार्य में उसे अपने प्रति नमन के असीम प्रेम की झलक दिखाई पड़ रही थी. इस झलक की लालसा हर मां को होती है, जो मां के हृदय को अपरिमित सुख का एहसास कराती है. भाव-विभोर शांति मन-ही-मन ईश्‍वर से प्रार्थना करने लगी. आज के युग में ऐसा बेटा सभी को कहां नसीब होता है. ईश्‍वर करे हर मां की गोद में ऐसे ही लाल जन्म लें, जिसकी कर्त्तव्यपरायणता, स्नेह व आदर तले हर मां का जीवन महकती बगिया-सा बीते. आज उसे अपने मातृत्व पर बेहद गर्व हो रहा था.

“शांति-शांति ! क्या हो गया ? क्यों रो रही हो?”

शांति की तंद्रा टूटी, सामने देखा नमन के पापा खड़े थे.

“बस यूं ही….”

“यूं भी भला कोई रोता है, क्या कहीं दर्द है?” उम्र के इस पड़ाव में रमाशंकरजी अपनी पत्नी का थोड़ा-बहुत ध्यान तो रखने लगे थे, लेकिन घर के छोटे-मोटे कार्य करना  उनके वश की बात नहीं थी. शांति को पिछले दो सालों से दर्द तो है. लेकिन वह दर्द शरीर का नहीं, अंतर्मन का दर्द है. उदार स्वभाव ने उसके दिल को बहुत बड़ा कर दिया था. सब कुछ उसमें समा जाता. किसी से कुछ न कहने की अपनी पुरानी आदत पर वह आज भी कायम थीं. रमाशंकरजी के ़ज़्यादा ज़ोर देने पर उन्होंने कहा-

“मुझे चाय पीनी थी.”

“इतनी-सी बात के लिए रो रही हो. अच्छा बचपना है.” ‘नमन…. ओ नमन..’  की आवाज़ लगाते रमाशंकरजी ने नमन के कमरे की ओर रुख किया.

“क्या है पापा?” एक उनींदी-सी आवाज़ आयी.

“देखता नहीं सुबह के आठ बजे हैं. अभी तक चाय नहीं बनी है.”

नमन ने रजाई हटा घड़ी की ओर देखा. सवा आठ हो रहे थे.

सच में आज बहुत देर हो गयी. मां को तो सुबह छह बजे ही चाय पीने की आदत है. वह मन-ही-मन बुदबुदाया और हाथ-मुंह धो सीधे किचन में जा चाय  बनाने लगा. उसे चाय बनाता देख रमाशंकरजी पुन: चीखे, “तू चाय बना रहा है? बहू को क्या हो गया? क्या दस बजे तक सोती ही रहेगी?”

पिता से ़ज़्यादा बात न करना नमन की पुरानी आदत थी. वह उनसे बिना कुछ कहे एक कप चाय उन्हें पकड़ा एक कप चाय और बिस्किट ले मां के कमरे में पहुंच गया. मां की सूजी हुई आंखें देख उसे एहसास हो गया कि मां बहुत रोई हैं.

“क्या हो गया मां! आज तुम्हारी आंखें बहुत सूजी हुई हैं. लगता है बहुत रोई हो. तबियत ठीक नहीं है क्या?”

“नहीं, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है.” कहते हुए शांति की आवाज़ भर्रा गयी. मां का हाथ पकड़ नमन ने अपने सिर पर रखते हुए कहा.

“तुमको मेरी क़सम मां, जो तुमने सच नहीं बोला तो.”

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नमन की क़सम से शांति को एहसास हुआ कि छोटी-सी बात के लिए रोकर उसने बहुत बड़ी ग़लती की है. अब वह कैसे कहे कि जब से सुरीना घर में आई है, तब से नमन पहले वाला नमन नहीं रहा. मैं काम करूं या न करूं, समय पर खाऊं या न सोऊं, इसकी उसे अब कोई विशेष चिंता नहीं रही. अब तो वह बड़ा हो गया है. शादी हो गयी. एक बेटा भी है. अब मां की क्या ज़रूरत है? इन्हीं भावनाओं के दोबारा अन्तस में उभरने के कारण शांति की रुलाई पुन: फूट पड़ी. मां को रोता देख नमन भी फूट-फूट कर बच्चों की तरह मां की गोद में सिर रख कर रोने लगा. रुंधे गले से उसने कहना प्रारम्भ किया.

“मां! मत रोओ. मैं सब जानता हूं, तुम क्यों रो रही हो. मुझे ग़लत मत समझो मां. मैं देख रहा हूं जबसे मेरी शादी हुई है, तुम मुझसे खिंची-खिंची रहती हो. न वो प्यार, न वो दुलार, न डांट-फटकार, न पहले जैसी पूछताछ कि मैं कहां जा रहा हूं? क्या कर रहा हूं? इन सबसे तुमको कोई मतलब ही नहीं रहा. तुम्हारे इस व्यवहार ने मुझे अंदर से कितना दुखी कर दिया है, तुम नहीं समझ सकती. भगवान तो मेरे लिए काल्पनिक हैं. तुम तो उसका यथार्थ रूप हो मां. मेरे हृदय में तुम्हारा जो स्थान है, उस पर कभी दूसरे का आधिपत्य हो ही नहीं सकता, फिर तुमने मुझ पर से अधिकार का साया क्यों समेट लिया? क्यों इतना पराया बना दिया, बताओ मां? मुझे मालूम है तुम कुछ नहीं बोलोगी. तुम्हारे मन की व्यथा आज मैं ही बयां कर देता हूं.

मैं अपनी बढ़ती हुई ज़िम्मेदारियों के कारण तुम्हें पहले जितना समय नहीं दे पा रहा हूं, इसलिए तुमने मुझे बेगाना बना दिया. लेकिन महसूस करके तो देखो, मैं आज भी तुम्हारे इर्द-गिर्द ही हूं. बस मेरा रूप सुरीना और तुम्हारे पोते ने ले लिया है. पापा रिटायर हो गए हैं. घर की व्यवस्था सुचारु रूप से चले, इसलिए मुझे भी अपने काम पर ध्यान व समय देना बहुत ज़रूरी है. तुमने ही तो सिखाया है मां कि ज़िंदगी का दूसरा नाम काम है और मां मैंने दिल पर पत्थर रख कर तुमसे थोड़ी दूरी बनाये रखने की कोशिश की थी, ताकि सुरीना को भी कुछ समय दे सकूं, लेकिन मुझ पर अति स्नेह के कारण तुमको यह बात अच्छी नहीं लगी. ज़रा शांत मन से सोच कर देखो मां, वह भी तो अपना घर-परिवार सब कुछ छोड़ कर हमारे यहां आई है. उसे भी थोड़ा-बहुत समय चाहिए. साथ ही मैं यह चाहता हूं कि आपकी जितनी चिंता मुझे है, उतनी उसे भी हो, ताकि मेरी ग़ैर-मौजूदगी में भी आपकी देखभाल में कोई कमी न आए, इसलिए भी मैंने जान-बूझकर घर में अपना स्थान सुरीना को देने का प्रयास किया है और मैं चाहता हूं कि आप भी उससे उतना ही प्यार करो, जितना मुझसे करती हो. मां! रात में सुरीना को भी बहुुत बुखार था, इसलिए वह सुबह उठ नहीं पायी. मैं भी रातभर जागने के कारण सुबह जल्दी उठ नहीं पाया और समय पर तुम्हें चाय बनाकर नहीं पिला सका. ग़लती मेरी थी मुझे डांट लो, किंतु रो-रोकर अपनी तबियत और ख़राब मत करो. मां, आपके सिर पर से तो मां के आंचल की छांव बचपन में ही छिन गई थी. आप क्या जानो मां क्या होती है? आपने ही तो इस पत्थर को तराश कर हीरा बनाया है. आज मैं जो कुछ भी हूं, आपके ही त्याग और वात्सल्य का प्रतिफल हूं. बचपन से लेकर आज तक ईश्‍वर के सामने मैं रोज़ सुबह आपकी लम्बी उम्र की कामना करता  रहा हूं. सच कहता हूं मां, आपकी ममता की छांव सुगंधित करने के लिए एक बार जी भरकर डांट दो मां.”

मां-बेटे दोनों की आंखों से अश्रुओं की अविरल धारा बह रही थी. शांति अब तक अपने बेटे को अल्हड़ तथा नासमझ ही समझती थी, किंतु आज उसे एहसास हो गया कि उससे ़ज़्यादा उसका बेटा समझदार है, तभी तो उसने उसके मन की व्यथा को जस-का-तस अपने स्वर में प्रगट कर एवं स्वयं की भावनाओं को भी सार्थक आकार प्रदान कर कितने बेहतरीन तरी़के से उसके समक्ष प्रस्तुत किया है. अपने मातृत्व को वह धन्य समझती हुई ख़ुद के सोच पर ग्लानि महसूस कर रही थी. किंतु नमन के आंसुओं व विचारों ने उसके अंतस के सारे अवसाद धो दिए थे. बीमार अवस्था में भी उसे अब नवस्फूर्ति व नवजीवन का आभास हो रहा था. उसने अतीत की तरह नमन के बालों में हाथ फिरा डांटते हुए कहा-

“कर ली ना अपनी बक-बक पूरी, जा पहले सुरीना को डॉक्टर को दिखा ला.”

शांति जो अब तक स्वयं को जीने की कला में पारंगत मानती थी, आज एहसास हुआ कि उससे चूक हुई है. खून के रिश्ते तो सभी को प्यारे होते हैं. वास्तविक ख़ुशी तो पराये को भी अपना बनाने में है. इसी क्षण से उन्होंने प्रण किया कि आज से सुरीना को भी वही स्थान देने का प्रयास करेंगी, जो स्थान नमन का है. इस प्रयास में शांति क़ामयाब रहीं और कुछ ही दिनों में घर में स्वर्गिक सुख व्याप्त हो गया.

– मीरा जैन

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Usha Gupta

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Usha Gupta

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रामानंद सागर यांच्या 'रामायण'मध्ये श्री रामची भूमिका करून लोकांची मने जिंकणाऱ्या अरुण गोविल (टीव्ही राम…

April 17, 2024
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