कहानी- स्त्री की जीत (Short Story- Stri Ki Jeet)

मेरी आंखों से आंसुओं का झरना बह रहा था और मन सोच रहा था, ‘ये स्त्री का कौन सा रूप है, जो मैं आज देख रही हूं और दस साल पहले भी देखा था.’

शाम अपनी धुन में मस्त मदमाती, इठलाती ढलते सूरज उगते चांद के साथ सुंदर लग रही थी.
खुली खिड़की से अंदर आती शाम की हवा मुझे सुकून नहीं दे रही थी.
ऐसा लग रहा था मानो जैसे सूरज आती सांझ के साथ ढल रहा है, मैं भी ढल रही हूं.
उम्र के पैंतालीस वर्ष ज़िंदगी को ढूंढ़ने में ही बिता दिए और आज भी तलाश जारी है.
मैं अपने ही ख़्यालों में खोई थी की दरवाज़े की घंटी ने अपनी ओर मेरा ध्यान आकर्षित किया.
मेरी बगिया में शाम किसी आगमन की दस्तक कम ही लाती थी.
थोड़ी आतुरता के साथ मैंने दरवाज़ा खोला और सामने मुरझाया चेहरा उम्र से पहले बूढ़ा हुआ शरीर लिए जिसे मैंने खड़ा देखा मैं स्तब्ध-सी एक बुत बनी रह गई.
उसकी आवाज़ ने मेरी तंद्रा भंग की.
“अंदर नहीं बुलाओगी क्या?”
मैं समझ नहीं पा रही थी क्या करूं क्या ना करूं?
बिना कुछ बोले मैं एक तरफ़ हो गई और अंदर आने का एक मौन निमंत्रण मैंने दे दिया.
भारी कदमों से सलिल अंदर आया.
मैं भी दरवाज़ा बंद करके आ गई.
अचानक दस साल पहले का सारा चलचित्र मेरी आंखों के सामने था. जब सलिल किसी और के लिए मेरा प्रेम छोड़कर, मेरे सब सपने तोड़कर मुझे अकेला छोड़कर चले गए थे.
आज फिर ऐसी कौन-सी लालसा उन्हें मेरे पास लाई है.
मेरे सूखे हुए घाव फिर से हरे हो गए.

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मैंने तल्ख़ आवाज़ में पूछा, “आज इतने सालों बाद ये देखने आए हो कि मैं ज़िंदा हूं या मर गई.”
मेरी आवाज़ सुनकर व्हील चेयर के साथ मां बाहर आ गई.
सलिल को देखते ही उनकी पथराई आंखों से अश्रुधारा बहने लगी.
मां का पिघला रूप देख सलिल उनके पास जाने लगा.
तभी उन्होंने अपने आपको संयत करते हुए कड़क आवाज़ में कहा,
“वर्षों बाद यहां क्या लेने आए हो. तुम तो हमारे लिए उसी दिन मर गए थे, जिस दिन उमा को ज़िंदगीभर के घाव देकर चले गए थे. ना मैं तब तुम्हारे साथ थी ना अब हूं.
कोई भी मजबूरी तुम्हें यहां लाई हो, मैं नहीं सुनना चाहती. मां से पहले मैं एक स्त्री हूं. जिस दिन बहू को घर लाई थी, उसे बेटी माना था. उसके हर सुख-दुख को मैंने अपने गले लगाया था. सलिल मैं तुम्हारी कोई बात नहीं सुनना चाहती. जिन कदमों से आए हो बिना कुछ बोले वापस लौट जाओ.”
मैं एकटक सासू मां को देख रही थी.
मेरी आंखों से आंसुओं का झरना बह रहा था और मन सोच रहा था, ‘ये स्त्री का कौन सा रूप है, जो मैं आज देख रही हूं और दस साल पहले भी देखा था.’
अपने ही बेटे के अन्याय के ख़िलाफ़ अपनी बहू का साथ देनेवाली एक ऐसी स्त्री, जिसने अपनी ममता अपनी भावनाओं को ताक पर रख दिया.

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मैं मां के गले लग गई और न जाने कब तक हम एक-दूसरे के गले लग कर रोते रहे.
सलिल लौट गए और एक बार फिर मां की ममता के आगे एक स्त्री का स्त्रीत्व जीत गया.

सारिका फलोर

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Usha Gupta

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