कहानी- टैन्ट्रम (Short Story- Tantrum)

“पापा आप भी न… बस तंग करते रहते हो मुझे. ऑफिस जाते समय तो ज़रूर… कभी ख़ुद छिप जाते हो, कभी मेरा सामान छिपा देते हो, शादी कर आपकी होनेवाली बहू किरन को ब्याहकर ले आया, तो वो क्या कहेगी?” वह उनके बालों में उंगलियां फिराकर मुस्कुराया.

“ठीक है पापा, लीजिए कैप्सूल तोड़कर शहद में मिला दी, अब तो खाइए… बिल्कुल बच्चों जैसे टैन्ट्रम हैं आपके भी…”
“अब पता चला तुझे मैं और मीना तेरी मां भी ऑफिस जाते समय अपने नन्हे दीपू-ज्योति के नखरों से कितने परेशान होते होंगे… जा.. जा.. मै खा लूंगा. मैं तो मज़ाक कर रहा था तुझे सताने के लिए.” दीप के पिता सूर्यमणि हंसने लगे.
“चल अब मेरा मैचिंग शर्ट-पैंट निकाल दे जल्दी. मौसम बढ़िया हो रहा है, मोहना मुझे पार्क घुमा लाएगा. घबरा मत स्टिक के सहारे चलकर नहीं जाऊंगा.” उन्होंने दीप टोके इससे पहले ही व्हीलचेयर की ओर इशारा किया, जिसे वह अपने ठीक हो रहे पक्षाघात के कारण कम ही इस्तेमाल करना चाहते थे. सोफे से बाहर का नज़ारा लेते हुए वह तलत महमूद का कोई पुराना गीत गुनगुनाने लगे, “जलते हैं जिसके लिए तेरी आंखों के दीये…” और साइड टेबल पर पड़ा दीपक का मोबाइल झट अपनी जांघ के नीचे छिपा लिया, फिर बोले, “तू तो कर नहीं रहा शादी, क्या पता मेरी ही किसी से सेटिंग हो जाए… वो तेरी गायत्री आंटी भली लगती है… हां.. हां…” उन्होंने दीप को छेड़ा था.
“ये लीजिए मैचिंग.. मैचिंग…” कपड़े निकालकर ऑफिस जाने के लिए दीप ने ब्रीफकेस उठाया और मोबाइल ढूंढ़ने लगा.
“अभी यहीं तो था ज़रूर आपने छिपाया होगा… मैं फिर अच्छे से गुदगुदाउंगा…” वह मुस्कुराते हुए उनकी ओर बढ़ा, “वन टू थ्र…”
“अरे रुक रुक…” बच्चों जैसे हंसते सूर्यमणि ने मोबाइल उसके हाथ में रख दिया.
“पापा आप भी न… बस तंग करते रहते हो मुझे. ऑफिस जाते समय तो ज़रूर… कभी ख़ुद छिप जाते हो, कभी मेरा सामान छिपा देते हो, शादी कर आपकी होनेवाली बहू किरन को ब्याहकर ले आया, तो वो क्या कहेगी?” वह उनके बालों में उंगलियां फिराकर मुस्कुराया. मां के निधन के इतने दिनों बाद पापा को फिर से हंसता और ख़ुश होता देखना उसके लिए कितना सुखद था ये वही जान सकता था. जानता था, उसके पापा उसे ख़ुश रखने के लिए अपना सारा दर्द छिपाकर इतना बदल लिया है अपने को.
“उसे थोड़ा-थोड़ा मालूम हो चला है मेरा स्वभाव. घबरा मत बहू आएगी न, तो तुम दोनो को ही सताऊंगा… मीना वरना ग़ुस्सा नहीं होगी… उसका बदला भी तो लेना है. उसे जल्दी ला तो सही, दोनों इस डर से कब से शादी टाले ही जा रहे हो, बस मंगनी करके बैठ गए. बाहर से आ आकर ठीक से सेवा कैसे करेगी वो मेरी?” वह मुस्कुराए.
ज़िन्दादिल सूर्यमणि पत्नी के निधन के बाद छटे छमासे यूं ही हंसते-मुस्कुराते बेटी के घर भी चले जाते. वहां भी नन्हे नाती-नातिन से छेड़खानी, शरारतें करते, खेलते रौनक़ कर आते. सबसे मिल भी आते या घर पर दीप के लाए हुए गानों का कारवां सुनते, गाते, गुनगुनाते हुए ताश में पेशेन्स गेम खेलकर मस्त रहते.
पर कुछ दिनों से…
“तू रहने ही दे, ढंग से तो तुझसे कुछ नहीं होगा. ऑफिस का काम ही ढंग से किया कर, सबके लड़के तरक्की कर कहां से कहां पहुंच गए, असाइन्मेंट लेकर कितनी बार विदेश भी हो आए, पर तू तो यहीं चिपका बैठा है. खाली इस मकान के लिए, मैं ज्योति को न दे दूं या किसी ट्रस्ट को या तेरी गायत्री आंटी को… डरता है क्या? हर बात में टोका-टाकी से तेरी तंग आ चुका हूं मैं… चैन से जीने क्यूं नहीं देता मुझे? चल अब दो दिन मैं खाना ही नहीं खाऊंगा.”
‘पापा चिड़चिड़े से हो गए हैं. ज्योति के यहां भी नहीं जाते. उससे भी ग़ुस्सा होकर दामाद शशांक व बच्चों को डांटकर चले आए. आजकल बात-बात पर ग़ुस्सा होना…’ उसे कुछ-कुछ समझ आ रहा था क्यूं.
‘ज़रूर पापा ने मेरा फ्रांस जाने का एसाइनमेंट लेटर पढ़ लिया और किरन का भी. वह भी तो अजीब है मेरे बिना नहीं जाएगी, मुझे ही थमा दिया अपना लेटर… इतना छिपा के रखा था.’ वह ढूंढ़ने लगा जगह पर नहींं मिला. ‘ये मिला… मैं दराज़ में सबसे नीचे बिल्स की फाइल में छिपा के नीचे रखा था कल कैसे इसे मैं ऊपर ही भूल गया… पापा ने ज़रूर ही पढ़ लिया है. लास्ट डेट भी देख ली होगी, इसीलिए तो… कितना भी नाटक टैन्ट्रम कर लें. इस हालत में मैं इन्हें छोड़कर कहीं नहीं जानेवाला. बचपन से जवानी तक का जो उनका निश्छल लाड़ -प्यार, सीख-सेवा, दुलार ही देखा… एक जीवन तो क्या कई जन्म न्योछावर!
पर एक दिन पापा ने मां की कसम देते हुए खीजकर ग़ुस्से से कहा, “तू मेरा भला चाहता है, तो किरन से झट शादी कर और निकल जा मेरे घर से… मैं और गायत्री अच्छे दोस्त हो गए हैं, विवाह कर चैन से रहेंगे घर में, वो मेरी अच्छे से देखभाल भी करेगी और मुझे कंपनी भी देगी.”

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“पापा आप झूठ बोल रहे हैं न? कह दीजिए हां…” वह सिसक उठा. वह टस से मस न हुए. जल्दी-जल्दी में शादी कर चरण छूकर दीप व किरन ने विदा ली.
आज छह महीनों बाद भी दीप और किरन का हर हफ़्ते रात में पापा से एक ही प्रश्न होता, “आप हमसे झूठ बोल रहे थे न पापा? हम जानते हैं आप मां की यादों के साथ वहीं उसी घर में रहना चाहते थे और आपको छोड़ के हम जाते नहीं, इसीलिए आपने ऐसा टैन्ट्रम दिखाया, ज़िद पकड़ ली और हमारे बेहतर भविष्य के लिए यहां भेज दिया… कर ली शादी आपने? कराइए गायत्री आंटी से बात… चलिए, मोहना को ही दीजिए फोन… ज्योति भी ज़्यादा कुछ नहीं बताती, आपने उसे भी मां की कसम दे दी होगी…” परन्तु हर बार सूर्यमणि का वही उत्तर होता,
“हम बहुत मज़े में हैं ,गायत्री और मैं रोज़ मोहना को लेकर पार्क जाते हैं. दोंनो मेरा पूरा ध्यान रखते हैं. अभी भी वो मेरे लिए किचन में मोहना के साथ खाना बना रही है. सब खाने देती है. तेरी तरह रोकती-टोकती नहीं हर बात में. अब तुम उसके सौतेले बच्चे हो गए हो, वो बात नहीं करेगी… हा हा.. तू मेरी फ़िक्र छोड़, अपने काम में दिल लगा. फ़ालतू में बहू का भी दिमाग़ ख़राब करता है. हर हफ़्ते ही तो तुम दोनों बात करते हो. ठीक हूं.. ठीक हूं.. चल अब रख…” और फोन कट जाता.
पापा का स्वर अब नर्म होने के साथ धीमा भी होता जा रहा है उसने महसूस किया… इधर दो हफ़्तों से फोन नहीं लगा फिर अचानक एक दिन ख़ुद पापा का फोन था.
“दीप, तेरा फ्रांस का एसाइन्मेंट देखा. उसके दो दिन पहले तेरी गायत्री आंटी… तू सोच भी कैसे सकता है कि तेरी मां की जगह कोई लेगा. वो अब भी आंटी ही है तेरी… उसके भाई तरुन अंकल ने बात-बात में हॉस्पिटल ले जाकर मेरा सारा टेस्ट फ्री में करवा दिया. रिपोर्ट मिली, पता चला, बस छह महीने का मेहमान हूं मैं. मुझे लास्ट स्टेज का कैंसर था. तुझसे छिपाया, सबसे छिपाया… किसी तरह इतने दिन खिंच गए… पर अब लग रहा है मेरे पास समय बहुत कम है. एक बार तुझे गले से लगाना चाहता हूं. पगले मैं तुझसे कभी नाराज़ हो सकता हूं भला. ये न करता तो तू जाता नहीं… तेरा सुन्दर भविष्य बाहर केलिफोर्निया ही था दीप…
मकान तो तब भी तेरा और ज्योति दोनों का ही था और अब भी है… प्रॉपर्टी के पेपर्स ऊपरवाली दराज़ में ही हैं. ज्योति को भी अभी नहीं मालूम मेरी बीमारी के बारे में, उसको सम्भालना…” उनकी आवाज़ क्षीण होती जा रही थी… फोन कट गया.
“हमें तुरन्त इन्डिया जाना होगा किरन, पापा… लास्ट स्टेज कैंसर से…” वह रो पड़ा.
“… मैं जानता था पापा ने मेरे सुनहरे भविष्य के लिए सारा नाटक किया था… और जानते हुए कि इसी में उनकी ज़्यादा ख़ुशी थी मैं मान गया किरन, पर एक बार को भी, उनकी इस बीमारी की ज़रा सी भी भनक लग गई होती, तो हम उन्हें छोड़कर कभी न आते किरन है न?… उन्हें कुछ नहीं होने देंगे किरन हम उन्हें यहां ले आएंगे… इलाज से वो बिल्कुल ठीक हो जाएंगे. उन्हें कुछ नहीं होगा.” वह आंसुओं से भरा चेहरा किरन की गोद में छिपा हिचकियों से रो पड़ा. दो दिन बाद ही दीप और किरन पापा पास पहुंचने के लिए फ्लाइट में सवार थे.

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“आ गए तुम दोनों दीप. दूर क्यों खड़ा है. नाराज़ है, गले नहीं लगेगा? तेरे लिए ही तो प्राण रुके हुए हैं…”
“क्यों किया पापा ऐसा धोखा हमसे आपने?” दीप उनके गले लगकर फफककर रो पड़ा.
“आपको कुछ न होने देंगे आप वहीं चल रहे हैं हमारे साथ… आपका वहां सही इलाज हो जाएगा. आप बिल्कुल ठीक हो जाएंगे पापा…”
“पापा…” ज्योति को दीप ने बता दिया था, वह आकर बिलख उठी.
“… क्यों नहीं बताया हमें कुछ भी पापा. हमसे झूठा नाटक क्यों किया…” वह पापा से लिपटकर बच्चों जैसे रो पड़ी.
“तू इसे सम्भाल किरन बेटा… इसे पानी ला दे मोहना… ज्योति मोहना को अब अपने साथ रखना, वरना ये जी नहीं पाएगा. हमारे सिवाय कोई नहीं इसका… और दीप नहीं, दीप बेटा अब वक़्त नहीं मेरे पास. तुम सब प्यार से रहना.. ख़ुश रहना.. मीना यहीं कहीं है, मुझे बुला रही है. तू मेरा वो मनपसंद गाना लगा दे ‘जलते हैं जिसके लिए…’ दीप ने गाना लगा दिया था. गोद में उनका सिर रखकर हथेलियां सहलाने लगा. उसकी गोद में ही देखते हुए उनकी आंखें मीना की तस्वीर पर सदा के लिए ठहर गईं…

डॉ. नीरजा श्रीवास्तव ‘नीरू’

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Usha Gupta

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