‘’एक बार फिर सोच लो मोनी. हम अब भी साथ-साथ रह सकते हैं.” उदय ने आख़िरी बार मोनिका को समझाने का प्रयास किया.
मोनिका खिड़की के पास ख़ामोश बैठी शून्य में कुछ निहार रही थी. उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. शायद वह सड़क के पार ग़िफ़्ट हाउस में आते-जाते ग्राहकों को देख रही थी. उसने एक बार कहा भी था, “जानते हो उदय, जब कभी मैं डिप्रेशन में होती हूं तो सामनेवाली शॉप की तरफ़ देखती हूं और सोचती हूं कि इसमें आने-जाने वाले लोग किसी न किसी के लिए कोई उपहार ख़रीद रहे हैं… और तब मुझे लगता है कि दुनिया में आज भी प्यार भरा हुआ है.”
कमरे में बोझिल सन्नाटा पसरा हुआ था. उदय ने एक बार फिर अपनी बात दोहराई. इस बार मोनिका ने अपना सिर उदय की तरफ़ घुमाया और उसकी आंखों से आंसू की बूंदें निकल कर गालों पर लुढ़क गईं.
बिना कहे भी उदय ने बहुत कुछ समझ लिया था. लेकिन मोनिका के होंठ हिले, “क्या चाहते हो उदय? मैं अपने पैरेंट्स को यह बताऊं कि मैं पिछले पांच साल से एक आदमी के साथ उसके फ्लैट में रहती हूं. क्या वो इस बात को सह पाएंगे? नहीं, कभी नहीं. वो अपने बेटे-बहू से निराश, अपने जीवन का अंतिम समय अपनी उस बेटी के साथ बिताना चाहते हैं, जो उनके लाख मनाने पर भी आज तक शादी नहीं कर सकी. नहीं, हम अब साथ नहीं रह सकते. मैं उनके आने से पहले यह फ्लैट छोड़ दूंगी.”
उदय को लगा कि मोनिका की बातों में दम तो है ही. इस महानगरीय व्यवस्था के लिए ऐसे रिश्ते को भला कौन माता-पिता पसंद करेंगे. यह तो बस इस महानगर की दौड़ती-भागती ज़िंदगी का एक सुविधाजनक रास्ता है.
उदय जब पहली बार दिल्ली आया था तो कई दिनों तक उसे नींद ही नहीं आई थी. हर समय सहमा-सहमा-सा रहता था. तब वह मात्र बीस साल का था. कॉलेज से निकला हुआ ताज़ा-ताज़ा रंगरूट. कहां मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिव की नौकरी और कहां उसका गंवई टोन?
“किसके जुगाड़ से आए हो गुरु?” सहकर्मियों ने उसके हाव-भाव को देखकर पूछा था.
वह क्या बोलता कि वह कॉलेज ही नहीं, विश्वविद्यालय टॉपर है. उसे अपनी आर्थिक मजबूरी के कारण यहां ज्वाइन करना पड़ा है. वह तो आईएएस बनना चाहता था.
धीरे-धीरे दिल्ली उसे रास आने लगी थी. वह भी रेस के घोड़े की तरह सबसे आगे निकलने की चाहत में दौड़ने लगा था. एम.आर. से एरिया मैनेजर… ज़ोनल मैनेजर… सी.ई…. दिल्ली से मुंबई, दो साल अमेरिका… उसके बाद बैंगलोर. कंपनी बदलती गयी, ओहदा बढ़ता गया था और ज़िंदगी पूरी तरह व्यावसायिक होती चली गई.
ज़िंदगी की सारी मिठास मुट्ठी में बंद रेत की तरह फिसलती चली गई. तभी उसकी ज़िंदगी में मोनिका आई थी. उसका अतीत भी उदय जैसा ही था. इलाहाबाद जैसे छोटे-से शहर से एम.बी.ए. किया था उसने.
वह भी दिल्ली होते हुए बैंगलोर पहुंच गई थी, उसी की कंपनी के फ़ायनेंस विभाग में. लंच के दौरान कैंटीन में पहली बार मिला था वह. “हैलो, मैं मार्केटिंग में हूं.”
मोनिका के होंठों पर एक मासूम मुस्कुराहट नाच गई थी, “सर, मोनिका- फ़ायनेंस में हूं.”
उसकी मुस्कुराहट में अभी भी कस्बाई ख़ुशबू बरक़रार थी. उदय को पहली नज़र में ही मोनिका भा गई थी. फिर तो वे अक्सर मिलने लगे. कैंटीन के लंच से शुरू हुई यह मुलाक़ात धीरे-धीरे दोस्ती में बदल गई. भागती ज़िंदगी से चुराए गए फुर्सत के पलों में ऑफ़िस के बाहर भी मिलने लगे. मोनिका बहुत बातूनी थी. जब तक उसके साथ होती, लगातार बोलती ही रहती.
“जानते हो उदय, बारहवीं पास होने के बाद पापा मुझे कॉलेज में दाख़िले के लिए ले गए तो रास्ते में उन्होंने क्या कहा, ‘मोनिका, मैंने तुम्हें राक्षस और हीरामन तोते की कहानी सुनाई थी न? जिस प्रकार राक्षस की जान हीरामन तोते में थी, वैसे ही हम सब की जान तेरे में है. बेटा, ऐसा कोई काम न करना कि हम सब मर जाएं. हमारे यहां तो हाईस्कूल में आते-आते बेटियों के हाथ पीले कर दिए जाते हैं. मैं तुम्हें पढ़ाना चाहता हूं. तुम्हें ऐसे पंख देना चाहता हूं कि तुम खुले आकाश में उड़ सको. लेकिन बेटे, ऐसा कोई काम नहीं करना कि तेरे पापा का सिर नीचा हो जाए.’ पापा बोलते-बोलते भावुक हो गए थे. मां तो कभी नहीं चाहती थीं कि मैं एम.बी.ए. करूं. ‘सारा पैसा इसकी पढ़ाई में ही ख़र्च कर देंगे, तो शादी के लिए किसके आगे हाथ फैलाएंगे? आप चाहे जितना पढ़ा-लिखा दें, बिना दहेज़ लिए कोई नहीं हाथ थामेगा.’ अम्मा समझाती रहीं, लेकिन पापा ने मेरा दाख़िला करा ही दिया.
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नोएडा में विमेन हॉस्टल के गेट पर मुझे छोड़ते समय पापा की आंखों में आंसू थे. ‘मोनी, मैंने तुझे पंख दे दिए हैं बेटा. तू ख़ूब ऊंचा उड़, लेकिन अपनी ज़मीन न भूलना बेटा. जिस दिन ऐसा हो गया समझ लेना सब ख़त्म हो जाएगा. ज़मीन याद रखेगी तो मेरे दिए हुए संस्कार भी याद रहेंगे और तब भावनाएं भी होंगी और तुम्हारा वजूद भी.’ मैंने पापा की सीख को सदा साथ रखा. शायद तभी मैं आज भी ज़िंदा हूं. ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में भी, जहां भावनात्मक कुछ भी नहीं रह जाता, जहां आदमी धीरे-धीरे मशीन बनता चला जाता है-नोट कमाने वाली मशीन.”
फिर एक दिन ऐसा भी आया, जब मोनिका विमेन हॉस्टल छोड़कर उसके साथ रहने के लिए आ गई. उसके दो बेडरूम वाले फ्लैट में.
मोनिका चाहकर भी अपनी लोअर मिडिल क्लास फैमिली को उदय के बारे में नहीं बता पाई. भला कैसे बता पाती कि वह एक ऐसे आदमी के साथ एक ही छत के नीचे रहती है, जिससे उसके विचार मिलते हैं, जो इस विशाल समंदर में उस जैसी नन्हीं मछली की सुरक्षा में अपनी हथेलियों का सहारा देने के लिए तत्पर रहता है. पिता और मां के लिए तो वह तब भी हीरामन तोता थी और आज भी है. उनके प्राण तो उसी में बसते हैं. हां, अब मनीष ज़रूर उससे अलग हो गया था.
मनीष! उसका भाई!! उससे पांच साल छोटा था, जो आज की तारीख़ में गुड़गांव के एक मल्टी नेशनल कंपनी में इंजीनियर था, जो चार लाख सालाना पैकेज के बावजूद अपने बूढ़े माता-पिता को नहीं रख पा रहा था. थके-हारे माता-पिता अपने जीवन का अंतिम पड़ाव अपनी लाड़ली बेटी के सान्निध्य में बिताना चाहते थे.
उदय का फ्लैट तीसरे फ्लोर पर था. खिड़की पर बैठी मोनिका अभी भी बाहर कुछ खोजने का प्रयास कर रही थी. ग़िफ़्ट शॉप कब का बंद हो चुका था. उसके सामने ही लगे पोल का मरकरी बल्ब भुक-भुक कर शाम से जलने की कोशिश कर रहा था. लेकिन एक घड़ी रात के बाद भी वह सफल नहीं हो पाया था.
मोनिका को लगने लगा था कि उदय उससे प्यार नहीं करता, स़िर्फ अकेलेपन का डर उसे साथ रहने पर मजबूर किए हुए है. नहीं तो वह अपने इस संबंध को सामाजिक मान्यता तो दिला ही सकता था. यदि आज वह पति-पत्नी होते तो उसके पिता को भला क्या आपत्ति होती? लेकिन उदय को तो विवाह एक बंधन लगता है. वह अक्सर कहता, ‘प्यार की हत्या करनी हो, तो शादी कर लो.’
उदय किसी भी हालत में मोनिका को नहीं खोना चाहता था. वह छत्तीस को पार कर चुका था. सिर के आगे के बाल साथ छोड़ चुके थे. धीरे-धीरे वह गंज़ेपन की तरफ़ बढ़ रहा था. मोनिका भी तो बत्तीस की हो चुकी थी. उसके घुंघराले बालों के बीच इक्का-दुक्का स़फेद बालों ने झांकना शुरू कर दिया था. अभी पिछले साल ही डॉक्टर ने उसे डायबिटिक घोषित कर दिया था. एकाएक उसकी भागती ज़िंदगी में
ब्रेक लग गया था. खाने-पीने, उठने-बैठने… सब पर प्रतिबंध. मोनिका अपने स्वास्थ्य के प्रति बहुत सजग हो गई थी.
सब कुछ तो ठीक ही चल रहा था. पांच सालों में कभी आपस में नहीं लड़े. कोई मतभेद नहीं था दोनों के बीच. एक-दूसरे से अलग होने का विचार तो कभी दोनों के बीच आया ही नहीं. फिर अचानक मोनिका के पैरेंट्स को उसके साथ स्थाई रूप से रहने का विचार… ऐसा नहीं था कि मोनिका के पिता पहले उसके पास न आते हों. तब वह एक-दो दिन के लिए ही आते थे और इतने समय के लिए उदय अपने किसी दोस्त के पास चला जाता था.
रात आधी बीत चुकी थी. बाहर तेज़ हवा बहने लगी थी. खुली खिड़की से अंदर आती हवा दीवार पर लगे कैलेंडर से खेलने लगी थी. तिपाई पर रखी पत्रिका के पन्ने फड़फड़ाने लगे. उदय की नज़र पत्रिका पर पड़ी. उसने उसके ऊपर एश ट्रे रख दिया. मुख्य पृष्ठ पर एक युवा दंपति ट्रॉली में बैठे अपने मासूम बच्चे को देखकर भाव-विभोर हो रहे थे और वह मासूम ट्रॉली में लटके खिलौने को पकड़ने में व्यस्त था.
उस उदास माहौल में भी उदय मुस्कुरा दिया.
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हवा तेज़ होती जा रही थी. मोनिका ने खिड़की बंद कर दी. उदय से उसकी नज़रें टकराईं. उदय अपने स्थान से उठा और मोनिका के बिल्कुल पास पहुंच गया, “मोनी, मैं शादी करने जा रहा हूं. मुझे सिर्फ़ दोस्त नहीं, अब एक पत्नी भी चाहिए.”
इतना बोलते ही उदय हांफने लगा था, मानो मीलों पैदल चल कर आया हो. मोनिका हतप्रभ उसे एकटक देख रही थी.
“सुनो मोनी! क्या तुम मेरी पत्नी बनना पसंद करोगी?”
कमरे में कुछ पल के लिए सन्नाटा छा गया. मोनिका को सहसा अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. कुछ क्षण इंतज़ार के बाद उदय निढाल-सा सोफ़े पर पसर गया, “मैं जानता हूं, तुम मुझसे नाराज़ हो. लेकिन मैंने अपने कई साथियों का हश्र देखा है. मोनी, मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता था.”
मोनिका भी सो़फे के पास आ गई, “हम शादी कब कर रहे हैं?”
“कल ही…”
– गोविंद उपाध्याय
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