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कहानी- देवदूत (Story- Devdoot)

“मैं सेवानिवृत्त शिक्षक हूं. शिक्षा देने की आदत अब भी नहीं छूटी है. बुरा न मानें, एक बात कहना चाहता हूं. इतने लोगों को लेकर रेलवे स्टेशन न आया करें. अव्यवस्था फैलती है. क़ानून और व्यवस्था बनाए रखना पुलिस और प्रशासन की ही नहीं, हम नागरिकों की भी ज़िम्मेदारी है. हम चाहें, तो बढ़ती अव्यवस्था को एक सीमा तक कम कर सकते हैं. हमें ख़ुद को थोड़ा-सा सुधारना होगा.”

गर्मी की छुट्टियां और ट्रेन की टिकट के लिए चल रही लंबी वेटिंग, लेकिन कभी-कभी यात्रा करना भी कितना ज़रूरी हो जाता है. हर साल की तरह मधुमती आने-जाने का स्लीपर कोच का आरक्षण लेकर अपने बच्चों- संवेग और संवेदना के साथ गर्मी की छुट्टी बिताने मायके आ गई. 15 दिन हुए थे कि
मुंबई में नौकरी करनेवाले उसके पति संदेश की तबीयत ख़राब हो गई. एक हफ़्ते से आ रहा बुख़ार टेस्ट रिपोर्ट से स्वाइन फ्लू साबित हुआ.
संदेश ने मधुमती को फोन करके स्थिति बताई. स्वाइन फ्लू जैसी डरानेवाली बीमारी ने मधुमती और संयुक्त परिवार में रहनेवाले उसके परिजनों के होश उड़ा दिए. मधुमती का लौटना ज़रूरी हो गया. तत्काल में आरक्षण की कोशिश की गई, जो नहीं मिला.
मधुमती ने तेज़ी से सामान समेट लिया, “रिज़र्वेशन की फ़िक्र नहीं करूंगी. शाम चार बजे महानगरी आती है. आज ही जाना ज़रूरी है.”
ट्रेनों में इन दिनों बहुत भीड़ है और विलंब से भी चल रही हैं. मधुमती के बड़े भाई एकनाथ ने लैपटॉप पर महानगरी की पोज़ीशन मालूम की. दो घंटे देरी से चल रही है.
मधुमती के बाबूजी उतावले क़िस्म के हैं. मधुमती जिस चिंता को लेकर इस तरह अचानक यात्रा पर निकल रही थी, इस स्थिति ने बाबूजी का उतावलापन बढ़ा दिया. एक घंटा बीतते ही वे अधीर हो गए, “हम लोगों को स्टेशन चलना चाहिए. कभी-कभी ट्रेन के देरी से चलने की ग़लत सूचना मिल जाती है. कई बार सूचना सही रहती है, पर बीच में कहीं ट्रेन कवर कर लेती है. जाना तो है ही. अरे भाई थोड़ा पहले स्टेशन पहुंच जाएंगे, तो तबीयत नासाज़ न हो जाएगी.
मधुमती के पास रिज़र्वेशन नहीं है. यदि संभव हुआ, तो टी.सी. से बात कर लेंगे. एक भी बर्थ मिल जाए, तो काम चल जाएगा.”
बाबूजी का यह संयुक्त परिवार काफ़ी बड़े जत्थे की तरह जान पड़ता है. अम्मा, बाबूजी, बड़ा पुत्र एकनाथ, छोटा एकाग्र, बड़ी बहू स्नेहा व उसकी तीन बेटियां, मझली बहू रमा व उसकी बेटी बबली, बेटा बालू, छोटी बहू सोनी व उसका सालभर का पुत्र आयुष, मधुमती, संवेग, संवेदना दो कारों में भर स्टेशन की तरफ़ चल दिए. मझला पुत्र एकांत शहर से बाहर गया है, वरना वह भी चलता. मधुमती को स्टेशन पहुंचाने पूरा कुटुंब न जाए, तो अम्मा रिसा जाती हैं कि बेटे-बहुओं को मधुमती की ज़रा भी कद्र नहीं है. जबकि बेचारी तीन भाइयों में इकलौती बहन है और साल में स़िर्फ एक बार आती है.
प्लेटफॉर्म नंबर एक पर पहुंचकर अम्मा ने सामान की गिनती की, “पूरे नौ नग हैं. मधु, ध्यान रखना कोई सामान छूट न जाए. इस थैले में खाने का सामान है, सीधे पकड़ना, वरना उलट-पुलट जाएगा.”
एकाग्र को अम्मा का व्यवहार अति रंजित लगा, “अम्मा, भीड़ देख रही हो? ट्रेन में इतना सामान चढ़ाना कठिन है. तुम आटा, चावल, दाल की बोरियां बांध लाई हो.”
मधुमती एक हफ़्ते पहले, वह भी बिना आरक्षण के पूरे बाइस घंटे के सफ़र पर जा रही है, अम्मा इस बात से दुखी हैं, ऊपर से यह पापी एकाग्र और दुखी किए देता है. बोलीं, “हमारे यहां इतनी खेती होती है. वहां मधु पालिस वाला अनाज ख़रीदती खाती है. बोरियां तुम्हें सिर पर धरकर नहीं ले जाना है.”
बाबूजी स्टेशन की भीड़ देखकर हौसला खो रहे हैं, “लगता है पूरा शहर आज ही मुंबई जाएगा. इतनी भीड़ है जैसे आने-जाने के अलावा लोगों को कोई काम नहीं है. पता नहीं चल रहा है भीड़ में कौन भला आदमी है, कौन गिरहकट. मधु, तुम रात में सो न जाना. सामान बहुत है. साथ में एकाग्र जा रहा है, पर ट्रेन चली कि ये कुंभकर्णी नींद में डूबा. तुम्हें सावधान रहना है.”
मधुमती का चित्त संदेश की ओर लगा है, “बाबूजी, ट्रेन तो आने दो. मुझे नहीं लगता बर्थ मिलेगी. एकाग्र भाई क्या खड़े-खड़े सो जाएंगे.”
जवाब में बाबूजी ने एकनाथ को लक्ष्य किया, “एकनाथ, कोशिश करो शायद एक बर्थ मिल जाए.”
एकनाथ ने बाबूजी को इस तरह देखा जैसे मूर्ख को देख रहा है. “ट्रेन आने पर टी.सी. से बात हो पाएगी. देखें क्या होता है? सामान के लिए कुली तय कर लेते हैं. कुली भीड़ में जगह बनाकर किसी तरह सामान ट्रेन में लदवा देगा.”
एकाग्र बोला, “भैया, ठीक कहते हो. ये बोरियां मुझे लादनी पड़ें, तो मुझे आज ही दमा हो जाएगा.”
दो कुली आए. ज़बर्दस्त मोल-भाव हुआ. महानगरी के आने पर आ जाएंगे, कहकर दोनों कुली चले गए.
महानगरी अब दो घंटे नहीं, तीन घंटे लेट बताई जा रही है. इस बीच दो अन्य ट्रेन ज़रूर आईं, जिनसे जाने का इस जत्थे का कोई प्रयोजन न था. दोनों ट्रेनें, तिल रखने की जगह नहीं है, जैसी कहावत को चरितार्थ कर रही थीं. ट्रेन की भीड़ बाबूजी की व्यग्रता को बढ़ाती जा रही है. बच्चों को उनकी व्यग्रता से मतलब नहीं, वे वहां से खाने-पीने की वस्तुएं लिए गुज़र रहे वेंडर्स को देखकर ललचा रहे हैं. उनका लालच देख अम्मा ने निंदा की, “घर से गले तक खाकर चले हैं, लेकिन समोसा खाना है. ऐसे नालायक बच्चे कहीं लाने लायक नहीं हैं.”
रमा ने चेतावनी दी, “शांत रहो, वरना घर भेज देंगे.”
सोनी ने समाधान निकाला, “बुक स्टॉल से कॉमिक्स दिला दो. समोसे से बेहतर है. कुछ देर बच्चे शांति से पढ़ते रहेंगे.” एकनाथ तीन कॉमिक्स ले आया. एक बाबूजी ने झपट ली और बिजना (हाथ पंखा) की तरह हिला-डुलाकर कनपटियों से बहता पसीना सुखाने लगे.
आख़िर महानगरी एक्सप्रेस के आने की उद्घोषणा हुई. महानगरी एक्सप्रेस प्लेटफॉर्म नंबर दो पर आ रही है. इतना सुनते ही बाबूजी तमतमा गए. उनका वश चलता, तो महानगरी को प्लेटफॉर्म नंबर एक पर लाकर ही शांति पाते, “यह तो एक पर आती है. अब प्लेटफॉर्म दो पर जाएं. हे भगवान, आज सुबह मैंने किसका मुंह देखा था? कुली कहां हैं?”
“इधर.” सूचना सुनकर दोनों कुली आ गए थे. “किस बोगी में बैठना है?”
बाबूजी को लगा कुली छेड़ रहा है कि बोगी का पता नहीं है, लेकिन चले हैं क्विंटलों सामान लेकर. बोले, “वेटिंग है. जिस स्लीपर कोच में भीड़ कम दिखे, सामान चढ़ा देना. बाद में टी.सी. से बात कर लेंगे.”
दोनों कुलियों ने बिजली की-सी तेज़ी से काफ़ी सामान सिर और बाज़ुओं में लादा और बाबूजी को चौंकाते हुए तेज़ गति से चलने लगे. बाबूजी सतर्क हो गए. गति बताती है ये सामान लेकर ऱफूचक्कर हो सकते हैं. बाबूजी क्षमता से अधिक तेज़ी से चलने, बल्कि भागने लगे. इस उपक्रम में दूसरे प्लेटफॉर्म की ओर भाग रहे कई लोगों से टकराए और अंधे होने की उपाधि पाई. घुटनों के दर्द के कारण अम्मा चल कम रही हैं, चिल्ला अधिक रही हैं, “बच्चों के हाथ पकड़ो. गुम हो जाएंगे.”
बच्चों को हांकते-घसीटते यह विशाल कुटुंब दूसरे प्लेटफॉर्म पर ठीक से न पहुंचा था कि महानगरी आ गई. अपेक्षित कोच तक पहुंचने के लिए लोग भाग रहे हैं. अपना सामान बेचने के लिए वेंडर्स चिल्ला रहे हैं. विदेश जा रहे एक सज्जन को मुंबई से फ्लाइट पकड़नी है. सज्जन को विदा करने आए बहुत बड़े समूह ने एसी कोच के सामने इतनी जगह घेर रखी है कि लोग कठिनाई से जगह बनाकर आगे जा पा रहे हैं. बाबूजी की चौकस नज़र ने तभी देखा, एक जेबकतरा, समूह में खड़े एक व्यक्ति की जेब साफ़ कर भागा है. उन्होंने पीछे आती बहुओं को सावधान किया, “जेबकतरे घूम रहे हैं. पर्स-गहने संभालो.”
अपनी चेन, बालियां, अंगूठी टटोलते हुए स्तब्ध हुई बहुएं आपस में फुसफुसाने लगीं, “बाबूजी स्टेशन चलने के लिए ऐसा तूफ़ान मचाए थे कि गहने उतारने का होश नहीं रहा.”
महानगरी की दशा दहशत पैदा कर रही है. दोनों गेट पर डंडा पकड़े, खड़े, लटके, खींचतान करते, चीखते-चिल्लाते लोग. कुलियों की समझ में न आता था नौ नग सामानवाला यह जत्था कोच में किस तरह चढ़ेगा. एक कुली ने निर्देशित किया, “सामने यह एस छह है. इसमें घुस जाते हैं. बाद में टी.सी. से आप समझ लेना. ट्रेन यहां पांच मिनट ही रुकती है.”
कुली एस छह में इस तरह घुस गया मानो किसी के रोके न रुकेगा. बाबूजी ने एकाग्र को हड़काया, “कुली के पीछे-पीछे चढ़ जाओ. वह सामान लेकर चंपत हो सकता है.”
चढ़नेवाले चढ़ने के जुनून में उतरनेवालों को उतरने नहीं दे रहे हैं. उतरनेवाले चढ़ने नहीं दे रहे हैं. एकाग्र को ट्रेन में घुसना, पड़ोसी देश की सीमा में घुसपैठ करने की तरह लग रहा है. बोला, “बाबूजी आप ही इस भीड़ में घुसकर दिखा दो?”
एकाग्र चढ़ने की कोशिश करने लगा. ठीक तभी एक उतरनेवाले ने कटाक्ष कर दिया, “उतरने दोगे, तभी न तुम्हें जगह मिलेगी.”
“आओ, मैं उतारता हूं.” कहते हुए एकाग्र ने उसे खींचा और कठिनाई से ही सही पर ट्रेन में चढ़ने में सफल हो गया. चढ़नेवालों में एक दुर्बल वृद्ध है. लोगों की धक्का-मुक्की और कोंचती कोहनियों के वार से इस तरह गेट तक पहुंचता और पीछे ठेल दिया जा रहा है, जैसे लहर में बहती नाव हवा के तेज़ झोंके से इधर-उधर डगमगा रही है. एकाग्र को ट्रेन में चढ़ते देख वृद्ध ने अपना हाथ बढ़ाया, “मदद करो बेटा. ज़रूरी काम से जा रहा हूं.” एकाग्र ने भरपूर उपेक्षा दिखाई, “सभी ज़रूरी काम से जाते हैं अंकल. मैं घास छीलने नहीं जा रहा हूं. भैया, संवेग को इधर लाओ.”
छह साल के संवेग को कंधे पर लादे हुए एकनाथ आगे बढ़ा. एकाग्र ने संवेग की बांहें पकड़कर अपनी ओर खींचा. इस उपक्रम में किसी के संदूक का कोना संवेग के माथे पर लग गया. खरोंच के लाल, लंबे निशान पर हाथ रख संवेग ज़ोर से रोने लगा, “बेटा मुझे भी…”
“अंकल रुको न.”
एकनाथ ने वृद्ध को कुर्ता पकड़कर पीछे खींचा और मधुमती को आगे ठेल दिया. भीड़ में ख़ुद के पहचाने जाने का संकोच और भय नहीं होता, शायद इसलिए व्यक्ति से भीड़ बनते ही लोग संस्कार, सभ्यता ख़त्म कर लेते हैं. कोच में चढ़ते हुए मधुमती ने वृद्ध को गुनहगार की तरह देखा और कहा, “आपकी उम्र यात्रा करने की नहीं है. किसी को साथ ले लेते.”
“जाना ज़रूरी है इसलिए…” ट्रेन ने सायरन दे दिया. संवेदना यहीं न रह जाए. एकनाथ ने चार साल की संवेदना को गोद में लिया और पूरा दमखम लगाकर कोच में चढ़ गया. उसे मधुमती के सुपुर्द कर उतरता तब तक ट्रेन सरकने लगी.
यात्रा की सफलता के लिए बाबूजी सस्वर गाने लगे- प्रबिसि नगर कीजै सब काजा, हृदय राख कोसलपुर राजा. महानगरी रोज़ ही पलक झपकते गति पकड़ लेती है, पर आज ही यूं पकड़ी कि संवेदना को लिए एकनाथ कोच में रह गया. भीड़ से निकलकर बाबूजी वहां आए, जहां कुटुंब खड़ा था. अम्मा मधुमती के जाने से अत्यंत भावुक हैं. बाबूजी से कहने लगीं, “दो बोरियां यहीं रह गईं.”
कुलियों ने ग़ज़ब की फुर्ती दिखाते हुए किसी तरह काफ़ी सामान ट्रेन में चढ़ा दिया था. फिर भी बोरियां सचमुच छूट गई हैं. बाबूजी ने बोरियों को यूं देखा, जैसे पहले नहीं देखा था. “मैं इन्हें सिर पर लादकर कार में पटकूं या फिर कुली करूं या यहीं खैरात बांट दूं?”
बाबूजी ठीक से क्षोभ व्यक्त न कर पाए कि मोबाइल पर एकनाथ का कॉल आ गया, “बाबूजी, उतर नहीं पाया हूं. ट्रेन में हूं. अगले स्टेशन पर उतरकर बस से आऊंगा.”
“बोरियों के बदले तुम चढ़े चले गए? हे भगवान! आज किसका मुंह देखा था?” भगवान बिगाड़ने पर आ जाते हैं, तो बिगाड़ते चले जाते हैं.
बाबूजी ने देखा और सबने देखा अम्मा चारों ओर निगरानी कर रही हैं और चिल्ला रही हैं, “बालू नहीं दिख रहा है.”
बाबूजी ज़ोर से बोले, “कहीं एकनाथ के साथ ट्रेन में तो नहीं चला गया?”
अम्मा वैसे तो उन्हें परमेश्‍वर का दर्जा देती हैं, बौखलाहट में कह गईर्ं, “पागल हो गए हो. ट्रेन में होता, तो एकनाथ बताता बालू उसके साथ है.”
बाबूजी ने ख़ुद को निहत्था और निसहाय पाया. एकाग्र और एकनाथ महानगरी की हवा खा रहे होंगे. इधर मर्द के नाम पर वे हैं, बुद्धिहीन दिखती महिलाएं और उपद्रवी बच्चे हैं. एकाएक उनकी समझ में नहीं आया कि क्या करें? उन्होंने पुत्रवधुओं को डांटा, “यही करने आई हो तुम लोग? एक बच्चा नहीं संभाला जाता. गहना-गुरिया संभालो, वरना कोई छीन लेगा.” उत्तेजना और घबराहट में बहुओं ने अपने गहने टटोले. सलामत हैं, पर बालू सचमुच नहीं दिख रहा है. सोनी की गोद में रोते-रोते आयुष सो गया है.
स्वाभाविक है आयुष को कंधे से चिपकाए वह बालू की खोज में इधर-उधर नहीं दौड़ पाएगी. रमा को दौरा-सा पड़ रहा है. बबली और स्नेहा की दोनों लड़कियां अपेक्षाकृत छोटी हैं. उनके खोने की आशंका के मद्देनज़र उन्हें सोनी के पास रहने का
निर्देश दे बाबूजी, अम्मा, स्नेहा, उसकी बड़ी बेटी लहर तेज़ गति से चारों दिशाओं में यूं छितरा गए, जैसे नाकाबंदी करने निकले हैं. बालू जिस दिशा में गया होगा, दूर नहीं गया होगा. रेलवे ट्रैक, शौचालय, प्लेटफॉर्म जहां ख़त्म होता है, वहां लहलहा रही झाड़ियों में छानबीन की गई. बालू कहीं नहीं है.
प्लेटफॉर्म नंबर 2 का चप्पा-चप्पा देखकर सब वहीं लौट आए, जहां सोनी बच्चों को समेटे हुए खड़ी थी. सभी सदस्य समान रूप से भयभीत और व्यथित हैं. रमा का रोना थम नहीं रहा है. कोई उसे या किसी को सांत्वना देने की स्थिति में नहीं है, क्योंकि यह समान रूप से सबकी क्षति है. स्नेहा को सहसा एक अच्छी बात सूझ गई, “बाबूजी, प्लेटफार्म नंबर 1 पर चलते हैं. हो सकता है बालू उधर चला गया हो. उसके गुम होने की जानकारी पूछताछ दफ़्तर को देनी चाहिए. कुछ मदद मिलेगी.”
अम्मा से अब भागदौड़ नहीं हो सकती थी, बोलीं, “बालू यहां से गुम हुआ है. सोनी के साथ मैं यहां रहूंगी. बालू आ गया, तो हम लोगों को न पाकर घबरा जाएगा. रमा, रोओ नहीं. स्नेहा के साथ जाओ.”
बाबूजी ने अनुमोदन किया, “ठीक कहती हो.”
बाबूजी की अगुवाई में स्नेहा, रमा, लहर प्लेटफॉर्म नंबर 1 की ओर चलीं.
चलते-चलते लहर ने अनभिज्ञता में कह दिया, “मैं हमेशा कहती हूं इतने लोगों को, ख़ासकर बच्चों को स्टेशन नहीं लाना चाहिए. बालू वैसे भी चंचल है.”
बाबूजी को लगा आरोपी बनाए जा रहे हैं. उन्होंने लहर की निंदा की, “ज्ञान न दो. बालू को ढूंढ़ो.”
प्लेटफॉर्म नंबर 1 पर बाबूजी ने पूछताछ दफ़्तर में संपर्क किया. बुक स्टॉल के समीप खड़े पुलिस के दो सिपाहियों से सहायता
मांगी. सिपाहियों ने आश्‍वासन दिया, “देखते हैं, पता करते हैं.”
आश्‍वासन पर निर्भर नहीं रहा जा सकता था. बाबूजी आते-जाते लोगों से पूछते रहे, “पांच-छह साल के एक गोरे-से बच्चे को देखा है?” लोग ना में इस तरह सिर हिला देते हैं, मानो बच्चा खोना हादसा नहीं है. बाबूजी एग्ज़िट की ओर चले जा रहे हैं, साथ में तेज़ चाल से चलती लहर से पुलिस, प्रशासन, क़ानून व्यवस्था, नागरिकों की तेज़ स्वर में आलोचना करते जा रहे हैं, “देखो तो कैसी अव्यवस्था, अराजकता, अंधेर फैला है. दिन दहाड़े बालू गुम हो गया, लेकिन किसी को फ़िक्र नहीं है. यहां इतने लोग हैं. यदि सब मिलकर मदद करें, तो बालू मिल सकता है. लोगों में बिल्कुल इंसानियत नहीं रही.”
समय बीत रहा है. पूरा परिवार बालू को ढूंढ़ रहा है. उसके न मिलने की आशंका बनती जा रही है.
और एकाएक उद्धघोषणा होने लगी, “पांच-छह साल का बालक, नीली धारीदार शर्ट और स़फेद पैंट पहने है. अपना नाम बालकिशन, पिता का नाम एकाग्र बता रहा है. घरवाले पूछताछ दफ़्तर में संपर्क करें.”
बाबूजी को विश्‍वास नहीं हो रहा है, लेकिन देह में जैसे दो पंख निकल आए हैं. भगवान का चमत्कार मान सब तेज़ी से पूछताछ कार्यालय में पहुंचे. करुण दृश्य. अत्यधिक डरा हुआ बालू इतना रो चुका है कि हिचकियां उसके गले में नहीं समा रही हैं. वह जोंक की तरह रमा से लिपट गया. बाबूजी, रमा, स्नेहा, लहर उसे पुचकारने लगे. बाबूजी की नज़र वहां मौजूद वृद्ध पर पड़ी. उन्हें ध्यान आ गया, पता नहीं किस ज़रूरी काम से इस उम्र में अकेले सफ़र पर निकला था, लेकिन ट्रेन में नहीं चढ़ पाया था. एकाग्र और एकनाथ थोड़ा-सा सहारा दे देते, तो… ओह!… लेकिन यह यहां क्या कर रहा है? शायद अगली ट्रेन की जानकारी ले रहा होगा. बाबूजी वृद्ध को देख रहे थे. क्लर्क ने उनका ध्यान अपनी ओर खींचा, “लापरवाह हैं आप लोग. आज यह गिरोह के हत्थे चढ़ गया होता.”
क्लर्क ने सख़्त लहज़े में इस परिवार को बता देना चाहा कि वो अव्यवस्था फैलाने के लिए इन जैसे लोगों को ज़िम्मेदार मानता है. आशय समझ बाबूजी अत्यंत लज्जित हो गए. विनम्र होकर क्लर्क से बोले, “पता नहीं क्या हो जाता, पर आपने मदद की. किस तरह धन्यवाद दूं.”
“धन्यवाद इन बाबूजी को दीजिए. ये बच्चे को यहां लाए हैं.”
वृद्ध से आंख मिलाने का बाबूजी साहस नहीं कर पा रहे हैं. यही पूछा, “आपको बालू कहां मिला?”
वृद्ध के लहजे में थकान थी, जो बताती थी कि वे काफ़ी परेशान हो चुके हैं, “मैं महानगरी में नहीं चढ़ पाया. दूसरी ट्रेन रात दस बजे आएगी. समझ में नहीं आ रहा था क्या करूं? सोचा पार्किंग के पीछे बने हनुमानजी के मंदिर में बैठकर समय बिताऊंगा. मंदिर पहुंचा, तो देखता हूं एक आदमी इस बच्चे को साइकिल पर बैठाने की कोशिश कर रहा था और यह रो रहा था. प्लेटफॉर्म पर मैंने आप लोगों के साथ इसे देखा था. मैं समझ गया इसे अगुवा किया जा रहा है. मैंने इसे पुचकारा और उस आदमी को फटकारा. आदमी ज़िद्दी और निडर था. इसे नहीं छोड़ रहा था. हम दोनों को बहस करते देख मंदिर का पुजारी वहां आ गया. उसने पुलिस को बुलाने की धमकी दी. तब वह आदमी साइकिल पर चढ़कर भाग गया. मैंने बालकिशन से पूछा यहां कैसे आ गए. यह डरा हुआ था. कुछ नहीं बोल रहा था. मेरे साथ चलने को भी तैयार नहीं हुआ. सोचा होगा कि मैं भी उस आदमी की तरह पकड़कर ले जाऊंगा. तब मैंने कहा कि तुम्हारी मां तुम्हें बुला रही है. मां के पास चले जाओ. यह अकेला स्टेशन के भीतर जाने लगा. मैं पीछे था. पूछताछ दफ़्तर के सामने मैंने कहा तुम्हारी मां इस रूम में है. यह दफ़्तर के भीतर आ गया, तब इन सज्जन ने एनाउंसमेंट कराया.”
इन सब बातों को सुन बाबूजी ऐसे स्तब्ध हैं, मानो बालू अब भी गुमशुदा है, “आज आप न होते तो…!”
“मैं निराश था. ट्रेन में नहीं चढ़ पाया. अब सोचता हूं बच्चे को बचाने के लिए ही ट्रेन छूट गई.”
“कहां जाना है?”
“मुंबई. सुबह बहू ने मोबाइल पर बताया मेरा बेटा रोड एक्सीडेंट में बुरी तरह घायल हो गया है. अस्पताल में है. मेरा एक ही बेटा है, पर ट्रेन…” बाबूजी न समझ सके क्या कहना चाहिए.
“मैं आपकी कुछ मदद…”
“घर जाइए, आप लोग परेशान हैं. बच्चों से इतना ज़रूर कह दें कि कोई बूढ़ा मिले, तो उसकी थोड़ी-सी मदद कर दें. हम बूढ़े अपनी ताक़त खो चुके हैं, पर इसी समाज का हिस्सा हैं. मैं सेवानिवृत्त शिक्षक हूं. शिक्षा देने की आदत अब भी नहीं छूटी है. बुरा न मानें, एक बात कहना चाहता हूं, इतने लोगों को लेकर रेलवे स्टेशन न आया करें. अव्यवस्था फैलती है. क़ानून और व्यवस्था बनाए रखना पुलिस और प्रशासन की ही नहीं, हम नागरिकों की भी ज़िम्मेदारी है. हम चाहें, तो बढ़ती अव्यवस्था को एक सीमा तक कम कर सकते हैं. हमें ख़ुद को थोड़ा-सा सुधारना होगा.”
“आपकी बातें मुझे याद रहेंगी. आप हमारे लिए देवदूत बनकर आए हैं.”
“इतना सम्मान न दें. हम सब मनुष्य हैं. मनुष्य बने रहने में ही हमारी शोभा है. एक-दूसरे की थोड़ी-सी मदद कर हम मनुष्य बने रह सकते हैं.”
वृद्ध पूछताछ रूम से बाहर चला गया. उसके लड़खड़ाते बदहवास कहीं के कहीं पड़ते पैर बताते थे कि वह कितना थक चुका था.

 
 
 
 
 
 
सुषमा मुनींद्र
 
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