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कहानी- एक मुट्ठी धूप (Story- Ek Mutthi Dhoop)

“पता है अभिमन्यु, अक्सर लोग हमारा आज नहीं देखना चाहते, लोगों को तो केवल हमारे अतीत में दिलचस्पी होती है. मुझे और रिया को कुरेदकर, वे हमारे पीछे खड़े अतीत को देख लेना चाहते हैं.
अभिमन्यु मैं बचपन से ही ऐसी हूं. बहुत बोलनेवाली, हंसनेवाली और ख़ुश रहनेवाली.”

 

देखो-देखो मेरे हाथों में क्या है?” रिया की ख़ुशी में डूबी आवाज़ कानों से टकरायी.
मैं उसके भोलेपन पर मुस्कुरा उठी. वह बस के पर्दे के छेद से आती हुई धूप की लकीर को जबरन अपनी मुट्ठी में कैद करने की कोशिश कर रही थी.
“क्या है?” मैंने अनजान बनते हुए पूछा.
“देखो न मां मेरी मुट्ठी में धूप.” उसने इस बार बताने के साथ-साथ अपने नन्हें हाथों की तरफ़ भी इशारा किया. “चल पागल, धूप को भी क्या कभी मुट्ठी में कैद कर सकते हैं? वह तो आपकी उंगलियों के ऊपर है.” मैं बच्ची की ख़ुशियां नहीं बिखेरना चाहती, पर न जाने क्यों सच्चाई मुंह से निकल ही गई. एक पल को उदास होता रिया का चेहरा न जाने क्यों फिर खिल उठा. रिया से कुछ पूछती इससे पहले ही एक नई आवाज़ ने ध्यान अपनी तरफ़ खींच लिया.
“आपकी बच्ची तो बहुत सुंदर है.”
आवाज़ की तरफ़ एक झलक देखकर मैंने रिया को अपनी गोद में बिठा लिया और ख़ुद खिड़की के पास खिसक गई. मन में मुस्कुराहट फैल गई, जिसे मैंने जबरदस्ती होंठों पर आने से रोक लिया. अच्छा तरीक़ा है दिल्लीवालों का सीट मांगने का. रिया गोद में आकर थोड़ी देर तो कसमसायी, फिर खिड़की के बाहर गाड़ियों की भीड़ में खो गई.
“आपका द़फ़्तर में आज पहला दिन कैसा रहा?” साथ वाली सीट से फिर आवाज़ उभरी.
“बहुत अच्छा.” संक्षिप्त-सा उत्तर देकर मैंने भी रिया के लक्ष्य की तरफ़ आंखें लगा दीं. बस के अंदर से धीरे-धीरे हंसने-बोलने की आवाज़ें आ रही थीं. जब मुंबई में थी, तब तो लोकन ट्रेन में ही सफ़र करती थी. वहां की स्थिति यहां से अलग थी. दिल्ली आए हुए पूरा ह़फ़्ता हो गया, पर अभी तक रिया के लिए कोई भी स्थायी इंतज़ाम नहीं कर सकी. मकान मालकिन ने मोहल्ले के प्ले स्कूल में रखने की सलाह तो दी थी, पर मैं ही अभी तक कोई फैसला नहीं कर पाई. आज द़फ़्तर में इस विषय पर अधिकारी महोदय से बात की, तो उन्होंने कुछ दिनों तक रिया को अपने साथ द़फ़्तर ले आने की इज़ाज़त दे दी. इस दृष्टि से तो अधिकारी महोदय काफ़ी उदार लगे.
अगली सुबह बस में चढ़ी ही थी कि पिछली शाम वाला वही मुस्कुराता चेहरा.
“गुड मॉर्निंग मिसेज…” आगे के शब्द अधूरे परिचय की कैद में बंद हो गए.
“सौम्या-सौम्या करमाकर.” मुझे भी इसी अंदाज़ में अपने परिचय के साथ जवाब देना पड़ा. “मैं अभिमन्यु शर्मा, आपके द़फ़्तर में ही आर्ट डिपार्टमेंट में हूं.” बोलते-बोलते वह रिया की तरफ़ मुख़ातिब हो गया.
“और बेटा आप?”
“रिया करमाकर.”
बस की सुबह-शाम की सवारी, अभिमन्यु का साथ, द़फ़्तर में काम का बोझ, घर में रिया की देखभाल, शाम को कभी-कभी ऑफ़िस की पार्टियां या फिर रिया को लेकर घूमने निकल पड़ती, बस इसी तरह दिल्ली में मेरा एक ह़फ़्ता न जाने कब बीत गया, पता ही नहीं चला. अपरिचित लोग कब दोस्त बन गए, इस बात पर भी कभी ध्यान नहीं दिया.
मुंबई से जब चली थी तो कितना सोचा था, कितनी क़समें खायी थीं. अपनी जीवन-शैली भी इसी तरह बदल दूंगी, जिस तरह शहर बदल रही हूं, पर कहां बदल पाई मैं ख़ुद को? वही पुराना ढंग, उसी तरह ज़ोर-ज़ोर से हंसना, दोस्तों के साथ ऊंची आवाज़ में बातें करना और बहुत जल्द दूसरों को दोस्त बनाकर उन पर विश्‍वास करना. कुछ भी तो नहीं बदला सिवाय एक शहर के. काश! शहर भी न बदलना पड़ता.
सच है, एक शहर बदलने से ही कुछ नहीं बदला. न मैं बदली और न मेरी सारी परेशानियां, जिनसे छुटकारा पाने के लिए मैंने मुंबई छोड़ा था. सबसे बड़ा सवाल जो फिर मेरे सामने खड़ा हो गया- वह था रिया के पिता का अस्तित्व, जिसका मेरे पास कोई जवाब नहीं था. धीरे-धीरे सबकी नज़रों में सवाल तैरने लगे. मेरे द़फ़्तर में मेरा स्वभाव और मेरा निजी जीवन आकर्षण का विषय हो उठे हैं, फिर चाहे वे पुरुष सहकर्मी हों या फिर स्त्री सहकर्मी.
बस एक ही सच्चा दोस्त था इन तमाम तथाकथित दोस्तों की भीड़ में- अभिमन्यु, हां वही अभिमन्यु शर्मा, जो बस में मिला था. लखनऊ का रहनेवाला है, दिल्ली में दीदी-जीजाजी के पास रहता है. घर पर मां और पिताजी हैं. बस! इतना ही! मेरे लिए इतना ही काफ़ी है. इतना भी न बताता तो भी चल जाता. जिस तरह मेरे लिए चलता है शायद उसके लिए भी, तभी तो उसने आज तक मुझसे कुछ नहीं पूछा.
कहते हैं बड़े शहरों में कोई किसी के निजी जीवन के विषय में रुचि नहीं रखता, पर शायद यह बात बड़े शहरों के बड़े लोगों पर लागू होती होगी, क्योंकि न केवल द़फ़्तर में, बल्कि जिस मध्यमवर्गीय परिवेश में मैं रह रही हूं वहां पर निजी बातें तो अवश्य हो सकती हैं, पर इन निजी बातों पर पड़ोसियों की भौंहें न चढ़ें, ऐसा नहीं हो सकता. शाम को रिया पार्क में जिन बच्चों के साथ खेलने जाती है, उन बच्चों को तो नहीं, हां, अलबता इन बच्चों की माताओं को रिया के पिता में दिलचस्पी दिखाई देती है. अक्सर रिया घर आकर इन आंटियों द्वारा पूछे गए सवालों की पुनरावृत्ति करती है. फिर से सवालों के घेरे में खड़े हैं मैं और मेरी नन्हीं रिया. मुंबई में केवल घर पर समस्या थी, यहां पर बाहर भी है. घरवालों से तो आदमी लड़ सकता है, पर बाहर किस-किससे लड़े और क्यों लड़े? मैं तो ख़ुश हूं अपनी छोटी-सी दुनिया में, क्यों लोग मुझे ख़ुश नहीं देख सकते? आख़िर मेरे और रिया के बारे में जानकर लोगों को मिल भी क्या जाएगा सिवाय कर्ण संतुष्टि के.
सोचा था, अकेली रहूंगी तो आज़ाद रह सकूंगी, किसी को किसी बात का जवाब नहीं देना पड़ेगा. पर हाय रे आज़ादी, ऊपर से दिखाई देती आधुनिकता के मस्तिष्क में सदियों पुरानी जंज़ीरें हैं.

ज़्यादा नहीं सोचूंगी, सोच भी नहीं सकती, क्योंकि आदत ही ऐसी है. ज़्यादा देर तक उदास नहीं रहा जाता मुझसे और उदास हों मेरे दुश्मन. आज का दिन तो मेरे लिए ख़ुशियों का, मौज-मस्तियों का दिन है. अरे भई! आज रिया का जन्मदिन है न. आज का दिन मेरे जीवन का सबसे ख़ास दिन है, क्योंकि अगर आज का दिन न होता, तो शायद मेरा जीवन कुछ और होता. आज मैं और रिया ढेरों मस्ती करनेवाले हैं. मैं रिया को तैयार ही कर रही थी कि इतने में दरवाज़े की घंटी बज उठी. दरवाज़ा खोलकर जिसे सामने खड़ा पाया न तो उसकी उम्मीद थी, न इच्छा. अब तक अभिमन्यु मुझे दरवाज़े पर तकरीबन धकियाता अंदर घुस आया और रिया के हाथों में एक बड़ा-सा उपहार का पैकेट पकड़ाते हुए उसे जन्मदिन की शुभकामनाएं दे डालीं.
“पर तुम्हें कैसे पता चला?” मैं हैरान थी.
“पता करनेवाले सब कुछ पता कर लेते हैं.” अभिमन्यु हंस रहा था.
“मां! अभिमन्यु अंकल को भी अपने साथ चिड़ियाघर दिखाने ले चलें?” रिया चहकी.
अभिमन्यु तो तैयार ही था. मेरे ज़रा पूछने भर की देर थी और हम तीनों चिड़ियाघर जाने के लिए निकल पड़े.
“तुम्हारी बेटी बड़ी ख़ूबसूरत है.” सामने रिया को एक चिड़िया के पीछे दौड़ता देख अभिमन्यु मेरी ओर घूम गया. वो एकटक मुझे देख रहा था.
“एक बात कहूं तुमसे.” अभिमन्यु की आवाज़ में ज़रूरत से ज़्यादा संजीदगी थी.
मेरे होंठों पर मुस्कुराहट फैल गई. मां हमेशा कहती हैं कि मेरा जब-तब बेवजह मुस्कुराना, छोटी-छोटी बातों पर ठहाके लगाना, बस! इतना ही काफ़ी है दूसरों को चिढ़ाने के लिए.
“मैं तुमसे बात कर रहा हूं और तुम हो कि सूरज देवता को अपना मुस्कुराता पोज़ दे रही हो.”
“तो क्या करूं? मुझे पता है तुम कुछ पूछना चाहते हो, न कि कुछ कहना. मेरे बारे में जानना चाहते हो, है न! पता नहीं है तो लो सुनो- मैं सौम्या करमाकर, पांच फुट पांच इंच, एम.कॉम, पी.जी. डिप्लोमा कम्प्यूटर, उम्र… लो उम्र भी बता रही हूं सत्ताइस साल, दो महीने, सात दिन, मुंबई की रहनेवाली और एक बच्ची की मां…पता है अभिमन्यु, अक्सर लोग हमारा आज नहीं देखना चाहते, लोगों को तो केवल हमारे अतीत में दिलचस्पी होती है. मुझे और रिया को कुरेदकर, वे हमारे पीछे खड़े अतीत को देख लेना चाहते हैं.
अभिमन्यु मैं बचपन से ही ऐसी हूं. बहुत बोलनेवाली, हंसनेवाली और ख़ुश रहनेवाली. घर में मां हैं, बड़ा भाई-भाभी और उनके दो बेटे. एक मध्यमवर्गीय परिवार की लड़कियों की तरह मैंने भी निश्‍चित समय में अपनी पढ़ाई पूरी की और एक अच्छी नौकरी भी हासिल की. मां-भाई भी अपने कर्त्तव्य के प्रति सचेत थे. मेरे लिए लड़का ढूंढ़ा गया और सगाई की तारीख़ भी तय कर दी गई. सब कुछ ठीक हो रहा था, पर अचानक ही सब कुछ बदल गया.
उस दिन शाम द़फ़्तर से घर लौटी तो घर का माहौल अजीब-सा था. गौरी, जो हमारे घर में पिछले दो सालों से काम कर रही थी, वह एक कोने में खड़ी होकर लगातार आंसू बहा रही थी. भाभी का तमतमाया चेहरा और मां के मुंह से निकलता एक ही वाक्य, “गौरी, भगवान के लिए इस होनेवाले बच्चे के बाप का नाम बता.” मेरे पैरों के नीचे से धरती खिसक गई. गौरी, अपनी गौरी मां बनने वाली है! सोलह साल की कुंआरी गौरी, चुपचाप रहनेवाली गौरी, मां बननेवाली है!!
गौरी को मां ने तरह-तरह से समझाया, डराया, धमकाया, पर गौरी ने मुंह नहीं खोला. उसकी सहमी-सहमी सी आंखें बहुत कुछ बताना चाह रही थीं. उसकी आंखें ही क्यों, घर का माहौल भी मानो दास्तान बयान कर रहा था. भाई-भाभी के बीच अचानक भयंकर रूप लेता तनाव, भाई की शर्म से झुकी गर्दन और किसी से कुछ न कहना, न चाहते हुए भी बहुत कुछ कह गया.
मुझे किसी भी तरह यक़ीन नहीं हो रहा था. जो बातें आज तक पेपरों में पढ़ीं या टीवी पर देखी थीं, वही आज हक़ीक़त का रूप धर कर हमारे घर में खड़ी थीं.
मां गौरी को लेकर डॉक्टर के पास गई, पर बहुत देर हो जाने के कारण सारे रास्ते बंद हो चुके थे. अब मां के पास केवल एक ही उपाय बचा था- गौरी को घर से निकाल देना, लेकिन मैं बीच में आ गई. इतना बड़ा प्रसंग चल रहा था और मैं पहली बार बोली थी, “गौरी कहीं नहीं जाएगी.” मेरी बात में, इस मामूली बात में पता नहीं ऐसा क्या था कि मां और भाभी कुछ न कह पाईं, भाई की झुकी गर्दन तो पहले से ही कुछ कहने लायक नहीं थी.
फिर एक दिन गौरी ने सरकारी अस्पताल में एक बच्चे को जन्म दिया. उसके पास कोई नहीं था. सगे-संबंधी तो उसके पहले से ही नहीं थे और जिनके भरोसे वह रह रही थी, उन्होंने ही तो… मेरे अस्पताल पहुंचने पर डॉक्टर ने गौरी के संदर्भ में साफ़ जवाब दे दिया था. पहली बार जब नर्स ने मुझे गौरी का बच्चा दिखाया तो उससे नज़रें ही नहीं हटा पाई. इस निष्पाप शिशु ने किसी का क्या बिगाड़ा है? इसे क्यों इस जन्म के लिए, जो इसके वश में नहीं तमाम उम्र पाप का बोझ अपने कंधों पर लेकर चलना पड़ेगा?
रातभर इन ख़यालात ने पीछा किया, पर सुबह सब ठीक हो गया, क्योंकि मैं फैसला कर चुकी थी. दो दिनों में सारी औपचारिकताएं पूरी कर लीं और गौरी के अंतिम सांस लेने से पहले ही अस्पतालवालों ने उसकी बच्ची को मेरी गोद में दे दिया.
घर में बवंडर मच गया. जहां सगाई तय हुई थी, वहां भी बात पहुंच गई और होने से पहले ही सगाई टूट गई. घरवालों ने, रिश्तेदारों ने, आस-पड़ोस के लोगों ने बहुत समझाया, पर मैं अपने फैसले पर अडिग थी. सगाई क्या टूटी, मां ही टूट गई. पहले बेटे ने दुख दिया और अब बेटी भी. सगाई टूटने का जितना दुख नहीं हुआ, उतना दुख मुझे समाज का रवैया देखकर हुआ. इतने बड़े समाज से, यहां तक कि मेरे दोस्तों में से भी कोई आकर मेरे साथ खड़ा नहीं हुआ.
घर पर रहना भी दिनोंदिन कठिन हुआ जा रहा था. इस नन्हीं-सी बच्ची को देखते ही किसी को पाप का एहसास होता, तो किसी को अपने अपमान का. किसी तरह तीन साल गुज़ारे. इस बीच मां ने कई जगह शादी की बात भी चलाई, पर एक बच्ची की बिनब्याही मां से भला कौन करता शादी. इधर मैं लगातार तबादले की कोशिशें करती रही, क्योंकि बिना तबादला लिए घर छोड़ना संभव न था. आख़िर तबादला मिला और मैं रिया को लेकर दिल्ली आ गई. मां ख़ूब रोयी, अपना वास्ता दिया. भाई-भाभी कुछ भी न बोले.”
एक साथ इतना बोलने के कारण ही शायद गला सूख कर काठ हो रहा है. सूरज डूब चुका है, पर अंधेरा नहीं है. अभिमन्यु कुछ नहीं बोल रहा. उससे कुछ सुनने की आशा भी नहीं है. रिया कब गोद में सिर रखकर सो गई पता ही नहीं चला. आज से चार साल पहले इसी दिन तो रिया ने… सोच पर अंकुश लग गए, क्योंकि अभिमन्यु की आवाज़ सुनाई दी.
“तुम्हें किसी साथी की ज़रूरत नहीं?”
“अभी तक तो नहीं, पर कौन कह सकता है आज से चार-पांच साल बाद भी न पड़े, पर तब की तब देखेंगे.”
“कुछ सोचकर तो इतना बड़ा फैसला किया होगा तुमने?”
“स़िर्फ इतना कि कोई और गौरी न बने या कोई और रिया पैदा न हो. जानती हूं इस दुनिया में न जाने कितनी रिया होंगी, पर सबको तो नहीं बचा सकती, हां एक जीवन तो बचाया जा ही सकता है, है न!”
“तुम्हारे लिए कौन है?”
“क्यों रिया है न.”
“और रिया के लिए?”
“जनाब रिया की यह मां, शायद दुनिया की सबसे अच्छी मां.” और आदतन खिलखिलाने के साथ ही मैं रिया को गोद में लेकर उठ खड़ी होती हूं, साथ में अभिमन्यु भी.
घर आकर रात को अच्छी नींद आई. चार सालों का जमा बोझ मानो उतर गया. किसी को तो अपना पक्ष समझा पाई. शायद मां थोड़ा-बहुत समझती, पर अपने बेटे का मुंह देखकर उसने भी तो कुछ न समझने की कसम खा ली है. एक बात तो है, इतने लोगों के रहते अभिमन्यु से ही क्यों कही सारी बातें, यह ख़ुद मेरे लिए हैरानी का विषय है. वह एक सहकर्मी और मित्र के सिवाय और कुछ भी तो नहीं, शायद यही सच्ची मित्रता है.
अगले दिन द़फ़्तर पहुंची तो टेबल पर एक लिफ़ाफ़ा पड़ा मिला. उसके अंदर से निकले स़फेद काग़ज़ पर कुछ लाइनें थीं-
“आज के बाद अगर कोई तुम्हारे और रिया के अतीत में झांकेगा, तुम लोगों के ऊपर चढ़कर कुछ देखना चाहेगा, तो वहां पर मैं दिखाई दूंगा. माना कि रिया के पास दुनिया की सबसे अच्छी मां है, लेकिन तुम देखना उसका पापा भी दुनिया का सबसे अच्छा पापा साबित होगा.”
– अभिमन्यु

ख़त ख़त्म हुआ ही था कि पीछे से आवाज़ आई, “मां.”
रिया और द़फ़्तर में. पीछे मुड़कर देखा, तो रिया अभिमन्यु की गोद में खेल रही थी. उसने अपनी दोनों हथेलियों से अभिमन्यु की कलाई घड़ी को घेरा हुआ है, जिसमें धूप की सीधी लकीर पड़ रही है.
“मां, देखो मैंने धूप पकड़ ली.” रिया और अभिमन्यु दोनों मुस्कुरा रहे हैं.
हां! मेरी बच्ची ने एक मुट्ठी धूप पकड़ ही ली.

– नीता सरकार

 

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Meri Saheli Team

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