अपाला को शाम का व़क़्त पसंद है. सूरज का ताप मंद होते ही वह अपने एक एकड़ वाले परिसर में आ जाती है और लहलहाती वनस्पति की निराई-गोड़ाई करती है. उसे क्यारियों में काम करते देख, न जाने कब से डेरा डाले हुए टिटिहरी का जोड़ा उल्लास से भरकर चहचहाने लगता है और सफेद चूहे, जो संख्या में छह हैं, कूदने-दौड़ने की बंपर छूट लेते हुए अपनी शरारत से अपाला का ध्यान आकृष्ट करते हैं. वनस्पति की हरीतिमा और नन्हें जीवों का हुनर देखते हुए जब शाम स्याह होने लगती है, अपाला घर के भीतर आ जाती है और रसोई में काम करने लगती है.
आज की शाम अलग थी.
अपाला गुड़हल को काट-छांट रही थी, तभी भारी बदन वाली एक स्त्री परिसर का लौह गेट खोलकर घुस आई. तेज़ गति के कारण उसकी कमर थिरक-थिरक जाती थी. आते ही इस तरह बोलने लगी मानो अपाला को ज़माने से जानती हो.
“अरे, यह पार्क नहीं है.”
“घर है.”
“पार्क लगता है.”
महिला को देख मादा टिटिहरी चिल्लाने लगी.
“टिटिहरी पाल रखी है?”
“ये पंछी पता नहीं, कब यहां आकर बस गए. अपरिचित को देख चिल्लाने लगते हैं.”
“कुत्ते का रोल करते हैं.”
“मादा टिटिहरी ने उधर टमाटर की क्यारी के पास ज़मीन में अंडे दिए हैं. इन्हें लगता है आनेवाला इनके अंडों को नुक़सान पहुंचाएगा.”
“टिटिहरी ज़मीन में अंडे देती है?”
“हां.”
“अच्छा, सफेद चूहे भी हैं. सफेद चूहे पहली बार देख रही हूं.”
“हमारा ड्राइवर कहीं से चूहे-चूहिया का जोड़ा ले आया था. मेरी दोनों बेटियों ने इन्हें पाल लिया.”
“पर्यावरण प्रेमी परिवार. वाह! ख़ूबसूरत जगह. तभी मैं पब्लिक पार्क समझ बैठी. कोई बात नहीं, सही जगह आई हूं. मेरा वज़न बहुत बढ़ गया है. डॉक्टर कहते हैं कम करो. कसरत मुझसे होती नहीं. भोर में उठा नहीं जाता कि दूर तक टहल आऊं. शाम को टहलूं तो फेफड़ों में धूल और धुआं भर लूं. तभी इस पार्क पर नज़र पड़ी, पर यह तो घर निकला. शाम को यहां टहलूं तो तुम्हें कष्ट तो न होगा?” पहले परिचय में तुम संबोधित करने वाली महिला गति से ही नहीं, स्वभाव से भी तेज़ जान पड़ती थी.
अपाला असमंजस की स्थिति में कहने लगी, “हां… नहीं…”
“लूट नहीं लूंगी. भले परिवार की हूं. मिथिला काला. मेरे पति गजानन काला डिग्री कॉलेज में दर्शन शास्त्र पढ़ाते हैं. स्वामी चौराहे से आगे, जो मारुति नगर है न, वहां रहती हूं.”
“आपसे मिलकर ख़ुशी हुई.” अपाला को कहना पड़ा.
“वैसे मुझसे मिलकर किसी को ख़ुशी नहीं होती. ससुराल-मायके, अड़ोस-पड़ोस सब जगह बुलेटिन ज़ारी हो चुका है कि मिथिला जैसी तेज़तर्रार मिजाज़ वाली महिला से प्रो़फेसर साहब जैसे ठंडे दिमाग़वाले ही निभा सकते हैं. भाई मुझे तो जगह पसंद आ गई. अब रोज़ आऊंगी.”
मिथिला नियमित आने लगी. आते ही लॉन के कोने में बने चौड़े पटरे वाले झूले पर बैठ जाती. अपाला को उसका आना पसंद नहीं आता था.
“टहल लीजिए. मैं तब तक गमलों में पानी डाल दूं.”
“टहलने कौन आता है जी. हम तो बातें करने आते हैं. अपाला, तुम पूछो मेरा शौक़ क्या है तो मैं कहूंगी बोलना. पर घर के हालात बुरे हैं. तीन बेटे हैं, अब तो बाहर पढ़ते हैं, लेकिन जब यहां पढ़ते थे और जब भी कहीं बाहर से घर पर आते थे तो उन्हें म्यूज़िक, मोबाइल, टीवी, इंटरनेट से फुर्सत ही नहीं मिलती थी. मैं बात करना चाहती तो कहते, ‘मम्मी बोर मत करो, हम लोग बिज़ी हैं.’ आजकल के लड़के या तो बिज़ी होते हैं या बोर. मैं मर जाऊं, पर उन तीनों के हाथ से लैपटॉप नहीं छूटना चाहिए. एक हैं दर्शन शास्त्र के दीवाने हमारे कालाजी. दिन-रात क़िताबों में सिर दिए किस खोज में लगे रहते हैं, सो राम जाने. मैं बात करूं तो चश्मा उतारकर मुझे घूरते हैं, फिर किताब में मगन. मैं फिर भी बात करूं तो कहते हैं, ‘कितना बोलती हो.’
एक बार तो ऐसी इ़ज़्ज़त ख़राब हुई कि पूछो मत. कॉलेज के प्रिंसिपल हमारे घर पर आए थे. कालाजी बरामदे में बैठे पोथी पढ़ रहे थे. प्रिंसिपल को विद्यार्थी समझ इशारे से बैठने को कहकर पोथा पढ़ते रहे. वह तो मेरी नज़र पड़ी और मैंने प्रिंसिपल का आदर-सत्कार किया. तब कालाजी की सनक टूटी. बोले, ‘सर आप हैं, मैं समझा कोई छात्र होगा.’ अपाला, इसीलिए कालाजी का अब तक प्रमोशन नहीं हुआ, वरना प्रिंसिपल होते. तुम्हीं बताओ ऐसे सनकी पति का क्या करूं?”
“कालाजी क्या शुरू से ही ऐसे हैं?”
“मुझे याद नहीं.”
“उन्हें समझाएं कि सामाजिकता का थोड़ा ध्यान रखें.”
“ओजी, सामाजिकता सिखाने में मेरी उम्र गुज़र गई. पहले कालाजी की बड़ी बुरी दशा थी. नहा लेते, स्लीपर बाथरूम में छोड़ देते, साबुन नीचे पड़ा घुल रहा है, गीला तौलिया बिस्तर पर, चाय की प्यालियां दीवान के नीचे, गमलों में पान की पीक, बेसिन में सुपारी के टुकड़े. जूते औंधे पड़े हैं, छेदोंवाली फटी बनियान पहने पान खा रहे हैं. तौबा-तौबा. पतियों में सबसे बुरी बात जानती हो क्या है? इन्हें ऐसी आसुरी नींद आती है कि टीवी देखते या क़िताब पढ़ते हुए लुढ़के और खर्राटे शुरू. और जानती हो इनमें सबसे बड़ी कमी क्या होती है? ये लोग दिमाग़ का इस्तेमाल नहीं करते. इनकी बुद्धि ठीक मौ़के पर निलंबित होती है. कालाजी और बेटों को आदमी बनाने के लिए मैंने कड़ी मेहनत की है. अब तो सबको ऐसा टाइट रखती हूं कि मेरी इच्छा के बिना कोई सांस भी नहीं लेता.”
“तो कालाजी ख़ुश हैं?”
“पति ऐसा जीव है, जो कभी ख़ुश नहीं होता. चलूं. तुमने बातों में ऐसा उलझाया कि टहल ही न सकी.”
इंसान की फ़ितरत विचित्र होती है.
पहले अपाला चाहती थी कि मिथिला न आए. पर अब उसका आना अनायास अच्छा लगने लगा है. मिथिला तेज़ गति से आई और झूले पर बैठ गई, “अपाला, तुमने मुझसे पूछा था कि कालाजी ख़ुश रहते हैं. आज मैं पूछती हूं कि क्या तुम्हारे पति ख़ुश रहते हैं?”
“मैंने कभी सोचा नहीं इस तरह.”
“तुम सुखी हो?”
“सब ठीक है.”
मिथिला हंस पड़ी, “ओजी, छिपाओ मत. स्वीट होम किसी का नहीं होता और हर जोड़ा अनहैपी कपल होता है.”
अपाला को लगा मिथिला गति और स्वभाव से ही नहीं भाव पकड़ने में भी तेज़ है.
“घर का माहौल ठीक रहे, इसलिए मैं जयकर का विरोध कभी नहीं करती.”
“कहो, जयकर की ख़ादिम बनकर रहती हो.”
“जयकर का ग़ुस्सा बेकाबू होता है. ग़ुस्से में चीज़ें पटकने-तोड़ने लगते हैं. कल ही एक फूलदान तोड़ दिया था.”
“क्यों?”
“ये सफेद चूहे आप देख रही हैं न. भीतर-बाहर कूदते-दौड़ते रहते हैं. इनकी कूद-फांद में फूलदान गिरकर टूट गया. जयकर को मालूम हुआ तो कहने लगे, ‘अपाला तुम्हारी लापरवाही बढ़ती जा रही है. इस दूसरे फूलदान का क्या काम?’ उठाया और ज़मीन पर दे मारा.”
“बाप रे! तानाशाह हैं.”
“वे इसे तानाशाही नहीं उसूल कहते हैं. जबसे इस घर में आई हूं उसूल शब्द बहुत सुनती हूं. मुझे आज तक इस घर के उसूल समझ में नहीं आए. गांव में जयकर आज भी ‘छोटे सरकार’ कहे जाते हैं. मेरी सास ने अपनी इस इकलौती औलाद को इतना लाड़-प्यार, दुलार किया कि जयकर ख़ुद को छोटे सरकार ही मानते हैं.”
“मां का लाड़ला बिगड़ गया…”
“मां रही नहीं, लाड़ले को ज़रूर बिगाड़ गईं. मेरी दो बेटियां हैं, पर जयकर ने शायद ही उन्हें पुचकारा हो. जयकर उन्हें पढ़ने के लिए बाहर नहीं भेज रहे थे कि ठाकुरों की लड़कियां पढ़ने के नाम पर अय्याशी करने बाहर जाएं, यह हमारे उसूल के ख़िलाफ़ है. जयकर घर आएं और मैं घर में न मिलूं, यह भी उनके उसूलों के ख़िलाफ़ है कि भली औरतों को घर में रहना चाहिए. उनके आने-जाने का कोई वक़्त नहीं है. तब मैं कैसे जानूंगी उन्हें आना है, मैं घर पर रहूं. कभी पूछ लूं इतनी रात तक कहां रहे तो कहते हैं, ‘मक्खियां नहीं मार रहा था.’ जयकर में ख़राबी यह है कि वे मुझसे ही नहीं, किसी से सहमत नहीं होते हैं. अपने अलावा किसी को सही नहीं मानते.”
“यही होता है. दबकर रहो तो पति पत्नी को पालतू पशु बना लेते हैं. इसीलिए मैं मुकद्दर का सिकंदर बनकर रहती हूं. घर में एकछत्र राज करने का और ही मज़ा है. मैं होती तो जयकर को दुरुस्त कर देती.”
“आप जयकर की ज़िद, ग़ुस्से और उसूलों को नहीं जानतीं.”
“उसूल की बात सुनो. पति तभी तक शेर है, जब तक हम इन्हें बने रहने देते हैं. एक बार झटका दे दो, चूहा बन जाते हैं.”
“मुझे ऐसी कोई कल्पना नहीं है.”
“कल्पना नहीं, कोशिश करो.”
“मां-बेटे की ऐसी किलाबंदी रही कि मुझे ब्रीदिंग स्पेस कभी नहीं मिली. कोशिश कैसे करती?”
“मैं इसे तुम्हारी बेवकूफ़ी कहूंगी. तुम्हारा खाना-पीना, तुम्हारी नींद, तुम्हारा आना-जाना इस बात पर तय हो कि जयकर क्या चाहते हैं, यह सरासर बेवकूफ़ी है. एक व्यक्ति को ख़ुश करने में अपनी पूरी ज़िंदगी लगा देना कहां की अक्लमंदी है? तुम्हें दुख-दर्द नहीं होता?”
“मुझे दुख-दर्द सहने की आदत हो गई है. यह ज़रूर है कि इस घर को मैं कभी अपना घर नहीं समझ पाई. लगता है जयकर के घर की केयर टेकर हूं. घर वह होता है, जहां सबकी मुराद पूरी हो.”
“बताओ, तुम्हें अपनी तरह से जीने का हक़ है. नहीं बताओगी तो जयकर सोचेंगे तुम्हें कोई तकलीफ़ नहीं है. लोगों को अपनी ग़लती समझ में नहीं आती है. यदि कोई उनकी ग़लती न बताए तो उन्हें लगता है कि वे हरदम सही होते हैं. धीरे-धीरे उनमें ख़ुद को सही और दूसरों को ग़लत मानने की आदत हो जाती है. तभी कहती हूं हारो मत, सामने वाले को हराओ. तुम चुप रही, इसलिए जयकर ताक़तवर होते गए. कुछ लोगों को दूसरों को सताने में आनंद मिलता है. इसे ‘सैडिस्टिक प्लेज़र’ कहते हैं. मुझे लगता है जयकर परपीड़क हैं. तो अब तुम अपने मिजाज़ को गरम बनाओ. जयकर सुधर जाएंगे.”
“मुझे नहीं लगता. बेटियां यहां थीं, तब तक फिर भी ठीक था. अब तो बस तनाव, दबाव, घुटन, अकेलापन व कठिनाइयां ही रह गई हैं. मानसिक रोगी बन जाऊंगी या फिर किसी दिन अचानक मर जाऊंगी.”
“तुम मुझे डरा रही हो अपाला. चलूं. अंधेरा हो रहा है.”
आज मिथिला के चेहरे पर अलग भाव थे. लॉन में रखी फ़ाइबर कुर्सी पर इत्मीनान से बैठकर कहने लगी, “आज मेरी तबियत हल्की लग रही है.”
“कोई अच्छी ख़बर?”
“तुम्हें सिखा रही थी, ख़ुद सीख गई. कल घर पहुंची तो देखा बरामदे में ईज़ी चेयर में बैठे कालाजी सो गए थे. किताब नीचे गिरी पड़ी थी, चश्मा खिसककर लटक आया. मुझे बड़ा ग़ुस्सा आया. पूरा घर खुला है, कोई घुसकर वारदात कर गया होगा. पर बातें ज़ेहन में कहीं रह जाती हैं. तुम्हारी बात याद आई कि मानसिक रोगी हो जाऊंगी या किसी दिन अचानक मर जाऊंगी. लगा कालाजी… कभी कुछ कहते नहीं. एकदम शांत रहते हैं. इधर मेरा गरम मिजाज़. मैंने अपनी ग़लती कब समझी? जयकर और मुझमें कितनी समानता है. सच कहती हूं कालाजी मुझे सुस्त, उपेक्षित, बड़े अकेले से लगे. मैंने उनका चश्मा सहेजा, पूछा यह व़क़्त है सोने का? घबराकर जाग गए. मुझे देखा तो बोले, ‘तुम हो? इतनी नरम आवाज़ थी कि लगा पता नहीं कौन है.’ ओजी अनुशासन बनाते-बनाते मैं शासन करने लगी और कालाजी और बच्चों ने मुझसे दूरी बना लेने में ही अपना हित देखा.”
“अजीब बात है. इधर मैंने अपने मिजाज़ को गरम किया, उधर आप नरम पड़ गईं.”
“कुछ हुआ क्या?”
“आपकी बातों में बड़ा हौसला होता है. लगा मैंने परिस्थिति का कभी विरोध नहीं किया, यह सचमुच मेरी ग़लती है. जयकर मुझ पर इस तरह निर्भर हैं कि एक ग्लास पानी लेकर नहीं पीते हैं और प्रदर्शित ऐसा होता है कि मानो मैं उनकी आश्रित हूं. आपने ठीक समझा. मैं बेवकूफ़ हूं. ख़्याल ही न आया कि अनजाने में मैं घरेलू हिंसा का शिकार हूं. आप मुझे ठीक मिल गईं. मैं जोश में आ गई.
जयकर अभी एक दिन बोले, ‘सब्ज़ी में नमक इतना कम है कि गोबर का स्वाद आ रहा है.’ मैंने कहा, ‘स्वास्थ्य को देखते हुए इस उम्र में नमक कम खाना चाहिए.’ फिर कहने लगे, ‘स्वाद बिगाड़कर मेरा स्वास्थ्य बनाने चली हो.’ मैंने कह दिया, ‘स्वाद बिगड़ रहा है तो मत खाओ. तुम्हारा स्वभाव बहुत ख़राब है और तुम मुझे पति नहीं अजनबी लगने लगे हो. अजनबी को क्या पसंद है क्या नहीं, यह फ़िक्र मुझे नहीं है.”
“जयकर ने पलटवार किया?”
“बोले बलवा करोगी? मैंने कहा ज़रूरत हुई तो…”
“कमाल है. फिर क्या बोले?”
अपाला हंसी, “क्या बोलेंगे? थाली उठाकर फेंक दी. आदत धीरे-धीरे जाएगी न, पर मुझे लगा मैंने पहली बार सही काम किया है.”
“कोशिश ज़ारी रखो.”
यह सही व़क़्त था हंसने का. बगीचे में बैठी दोनों स्त्रियां समवेत हंस रही थीं.
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