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कहानी- नारी मुक्ति (Story- Nari Mukti)

कितना भोला…
कितना मासूम है मेरा कल्पेश…
मम्मी तो न जाने मन से
क्या-क्या सोच लेती है.
यदि पापा मुझे न समझाते तो न जाने कटी-पतंग सा मेरा क्या हाल होता…

सुबह फ़ोन की घंटी से कृपाली की नींद टूटी- “हैलो कृपाली? मैं कल्पेश…”
“हां बोलो… क्या कहना है?”
“कहना तो बहुत कुछ है कृपी… पहले ये बताओ तुम्हारा गुस्सा ठण्डा हुआ या नहीं, यदि ‘हां’ तो आज की पहली गाड़ी से वापस आ जाओ.. देखो, तुम्हारे बिना पूरी गृह-व्यवस्था चरमरा रही है. रही तुम्हारी नौकरी की बात, तो जो मर्ज़ी आए कर लेना. आय प्रॉमिस, मैं दखल नहीं दूंगा.. पहले घर तो आ जाओ मैडम.”
कल्पेश के अंदाज़ पर कृपाली को हंसी आ गई- “अच्छा ठीक है..” कहकर उसने फ़ोन रख दिया. कितना भोला… कितना मासूम है मेरा कल्पेश… मम्मी तो न जाने मन से क्या-क्या सोच लेती है. यदि पापा मुझे न समझाते तो न जाने कटी-पतंग सा मेरा क्या हाल होता.. मन ही मन कृपी सोचने लगी.
आठ दिन पूर्व कृपी कल्पेश से लड़कर मायके आ गई थी. मसला था ‘नौकरी’. कृपी नौकरी करना चाहती थी और कल्पेश इस पक्ष में नहीं था. वजह थी- घर में कल्पेश की बीमार मां.
कृपी व कल्पेश के विवाह को अभी छः माह ही हुए थे. कल्पेश के टूरींग-जॉब के कारण आए दिन वह शहर से बाहर रहता. आज़ाद ख़याल, घूमने-फिरने की आदी कृपी को ये दिन बड़े नागवार गुज़रते.
“कल्पेश… मैं सोच रही हूं कोई नौकरी कर लूं. समय भी कट जाया करेगा और पैसे भी मिलेंगे. डबल फ़ायदा है.” एक दिन कल्पेश को अच्छे मूड में देख कृपी बोली.
“पर कृपी, मां का क्या होगा? तुम तो जानती हो न कि मां पक्षाघात से लाचार हैं.” कल्पेश ने कहा.
“क्यों… शादी से पहले भी तो मां रहती ही थीं न… अब मेरे आने से ऐसा क्या हो गया?” कृपी अपनी बात का विरोध होते देख उत्तेजित हो उठी.
“तब की बात और थी कृपी… वह तो मेरी मजबूरी थी कि दिनभर आया के भरोसे मां को छोड़ना ही पड़ता था, वरना मैं नौकरी कैसे कर पाता, पर अब जब तुम आ गई हो तो पराए का सहारा क्यों लिया जाए? तुम मां के साथ रहती हो तो मैं निश्‍चिंत होकर काम कर पाता हूं.” कल्पेश ने समझाना चाहा.
“अच्छा तो अब समझ में आया कि मेरे आते ही तुमने निर्मला बाई को क्यों हटा दिया… मेरी हैसियत इस घर में केवल एक आया की है… तुमने शादी इसलिए की, ताकि तुम्हें मु़फ़्त में नौकरानी मिल जाए.” कृपी तमतमा उठी.
“तुम भी हद करती हो यार, घर के लोगों की देखभाल करने से कोई आया बन जाता है क्या? और रहा तुम्हारे समय
काटने का प्रश्‍न, तो घर में रहकर भी कई काम किए जा सकते हैं…. आवश्यकता केवल सोचने-समझने की है…” कल्पेश भी उत्तेजित हो उठा.
पर कृपी ने एक नहीं सुनी. अटैची में कपड़े ठूंस कर तमतमाती हुई मायके पहुंच गई.
बेटी को अचानक आया देख कल्याणी सकपका गई, “बात क्या है बेटी? लड़कर आई हो क्या?” कृपी के तेवर देखकर कल्याणी ने पूछा.
जवाब में रोते-रोते कृपी ने पूरी बात मां को बताई.
नारी-मुक्ति मोर्चा की अध्यक्षा कल्याणी को भला यह बात कहां हजम होनी थी? बेटी के कृत्य की प्रशंसा कर उसकी बहादुरी को बढ़ावा देने का कार्य ज़ारी ही था तभी देवांश भी बाज़ार से लौटे. पूरा वाकया जानकर कुछ क्षण चुप रहे. बेटी का बचपना उन्हें अखर गया. इसके बावजूद चुप्पी साधे रहे, क्योंकि जानते थे कि कल्याणी के समक्ष उनकी हर बात हवा में सूखे पत्ते की तरह उड़ जाएगी. अतः उन्होंने एकांत में कृपी से बात करने का मन बनाया.
एक-दो दिन के पश्‍चात देवांश ने कृपी को अपने पास बुलाया, “बेटी…पता नहीं मैं तुम्हें समझा पाऊंगा या नहीं, पर पहले एक वादा करो कि तुम मेरी बातों को अन्यथा न लोगी.”
“बात क्या है पापा…? आप इस तरह क्यों कह रहे हैं…? बोलिए न प्लीज़…” कृपी बोली.
“देखो कृपी… मेरे कहने-समझाने का आशय यह कतई नहीं है कि तुम्हारे आने या यहां रहने से हमें किसी प्रकार का कष्ट हो रहा है. असल में एक बेटी को घर-परिवार बनाने की, सदभाव, प्यार, सामंजस्य से उसे सींचने की, फलने-फूलने की शिक्षा मां द्वारा ही दी जानी चाहिए. आज मैं उसमें हस्तक्षेप कर रहा हूं या कहना चाहिए कि हस्तक्षेप करना पड़ रहा है. विवश हो गया हूं बेटी, पर अब भी चुप रहा तो जानता हूं तुम्हारे जीवन का भी वही हर्ष होगा, जो तुम्हारी दीपाली दीदी का हुआ है और यदि ऐसा हुआ तो मैं स्वयं को कभी माफ़ नहीं कर सकूंगा.
बेटी मैं यह नहीं कहता कि कल्याणी ने तुम्हें सही शिक्षा नहीं दी या नहीं दे सकती. वास्तविकता तो यह है कि तुम्हारी मां दिल की जितनी साफ़ है, उतनी ही स्वभाव से ज़िद्दी भी. दीपाली का तलाक़ भी उसी ज़िद का नतीज़ा है.
कृपी, मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में जितना योगदान अनुवांशिकता का होता है, उतना ही योगदान परिस्थितियों का तथा घर के परिवेश का भी होता है. तुम्हारी मां ने बचपन से युवा होने तक पुरुष का केवल वीभत्स रूप ही देखा था. आए दिन तुम्हारे नाना जी नानी को डांटते-पीटते रहते थे और नानी चुपचाप सारे ज़ुल्म होंठ सिलकर सहती रहती थी. कल्याणी तब मन ही मन पिता के विरुद्ध आक्रोश से भर उठती, परंतु उनके दबदबे में वह आक्रोश बजाय बाहर निकलने के मन के अंदर ही संचित होता गया.
मुझसे विवाह पश्‍चात मैं देखता कि शुरू-शुरू में तुम्हारी मां हर छोटी-मोटी बात पर बिफरती, बरस पड़ती. पहले तो मुझे कोई कारण समझ में नहीं आया, परंतु जब धीरे-धीरे मैं कल्याणी के अतीत से परिचित हुआ तब मेरे मस्तिष्क में यह बात स्पष्ट हो गई कि अब तक मन में भरा आक्रोश कल्याणी को सामान्य व्यवहार करने ही नहीं देता.
तब शुरू-शुरू में मैंने ही यह रास्ता खोज निकाला व कल्याणी को समाज-सेवा के लिए प्रेरित किया था. सोचा था असहाय, बेसहारा, दुखी, प्रताड़ित महिलाओं की मदद से शायद कल्याणी के मन में भरा आक्रोश बाहर निकल जाएगा, परंतु मेरा अनुमान ग़लत साबित हुआ. यद्यपि कल्याणी भी ख़ुशी से इस कार्य के लिए राज़ी हो गई व धीरे-धीरे इन कार्यों में सक्रिय भी हो गई.
परंतु कृपी मैंने देखा कि धीरे-धीरे तुम्हारी मां का यह व्यवहार स्थायी होता गया व नारी-मुक्ति के कार्य करते-करते उसने इसकी परिभाषा ही ग़लत कर दी. कल्याणी के लिए अब केवल पुरुषों का विरोध ही नारी-मुक्ति का पर्याय रह गया था. मैं जब-जब उसे समझाने का प्रयास करता, वह मुझ पर बरस पड़ती. उसकी ज़िद दिन-ब-दिन और अधिक बढ़ती गई. इसके लिए शायद मेरा अत्यधिक लचीला व्यवहार भी ज़िम्मेदार रहा है, पर मैं भी क्या करता. यह मेरा स्वभाव था. न मैं सख़्ती बरत सका, न तुम्हारी मां ज़िद छोड़ सकी.
जीवन में पति-पत्नी दोनों ही ठन जाएं तो नतीज़ा क्या होता है, यह तुम दीपाली को देखकर समझ सकती हो. दीपाली व रुपेश के बीच कोई बहुत बड़ा विवाद नहीं था. तुम्हारे रुपेश जीजाजी ने केवल यही तो चाहा था न कि उनके बुज़ुर्ग मां-बाप की ख़ुशी के लिए दीपाली को घर में साड़ी पहननी होगी, परदा करना होगा.. दीपाली की छोटी-सी भूल को, तिल का ताड़ बनाने में तुम्हारी मां का हस्तक्षेप ही प्रमुख रहा है.
हां, ठीक है कि हमारी मान्यता अलग है. हम लोग मानते हैं कि केवल सर ढंकने का अर्थ बुज़ुर्गों का सम्मान करना नहीं होता, बल्कि व्यवहार में विनम्रता होनी चाहिए, परंतु यह आवश्यक तो नहीं कि अन्य लोग हमारी तरह ही सोचते हों. किसी के दृष्टिकोण में परिवर्तन विशेषकर बज़ुर्गों के दृष्टिकोण में परिवर्तन हो पाना इतना सहज और त्वरित नहीं होता. इसके लिए पर्याप्त धैर्य की आवश्यकता होती है. स्नेह से, विनम्रतापूर्ण तर्कों से, शालीनता से, स्वयं थोड़ा झुककर, सामंजस्य रखकर प्रयास किए जाएं तो कोई शक नहीं कि बड़े-बुज़ुर्ग हमारी परवाह करेंगे.
यदि दीपाली रूपेश की ये सारी बातें समझती-मानती तो आज एक ख़ुशहाल परिवार की धूरी बन जाती. दीपाली का व्यवहार थोड़ा लचीला व विनम्र होता, तो शायद रुपेश भी उसका सहयोग करते. थोड़े से समर्पण के बदले में प्राप्त ढेर सारी ख़ुशियों का सौदा आख़िर घाटे का सौदा तो नहीं हो सकता न.
पर दीपाली का विरोधात्मक रवैया उसे आज उस मुक़ाम पर ले आया, जहां आत्मसम्मान के नाम पर नौकरी-पैसा, आरामदायक ज़िंदगी सब कुछ होते हुए भी घर खाली है. साथ है तो केवल अकेलापन. घर-परिवार की असली दौलत होती है छोटी-छोटी ख़ुशियां, जो एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करने से ही प्राप्त होती हैं. शायद दीपाली भी इस कमी को महसूस करती होगी, परंतु समय के साथ वह स्वयं ही तो निजी स्वतंत्रता की ख़ातिर सारे अवसर पीछे छोड़ आई है.
मैं यह नहीं कहता कि स्त्री को अपना भविष्य नहीं बनाना चाहिए या केवल घर की चाकरी ही करनी चाहिए, परंतु परिवार की भलाई के लिए अपनी प्राथमिकताएं स्त्री को स्वयं ही तय करनी चाहिए. मेरे विचार से तो पुरुष की अपेक्षा स्त्री को जीवन में ज़्यादा चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. घर-परिवार संभालना यदि एक घरेलू गृहिणी की ज़िम्मेदारी होती है, तो कामकाजी महिला इससे बच नहीं जाती. यदि पति गृहकार्यों में सहयोग भी करें, तब भी गृह व्यवस्था का संचालन स्त्री से बेहतर नहीं कर सकता.
कृपी, अनावश्यक रूप से घर-परिवार को उपेक्षित कर, अपने आधारभूत कर्त्तव्यों को भुलाकर यदि तुम कुछ रुपया कमा कर लाती हो तो यह रुपया तुम्हें आत्मसंतुष्टि दे सकता है, तुम्हारे अहं को तृप्त कर सकता है, परंतु इसके एवज में कौन-कौन से सुखों की तिलांजलि तुम्हें देनी पड़ेगी या कहो स्वतः ही कई सुख तुम्हारी मुट्ठी से फिसलते चले जाएंगे, इसका तुम्हें भान भी न होगा.
मैं तो भुक्तभोगी हूं, उन छोटी-छोटी ख़ुशियों का मूल्य समझता हूं, जो व़क़्त के साथ दरवाज़े तक आकर दस्तक देते-देते चली गईं, परंतु मैं तुम्हारी मां के साथ तालमेल बिठाने के प्रयास में उन ख़ुशियों को घर में प्रविष्ट होने का मौक़ा देने के लिए दरवाज़ा खोलने का यत्न ही न कर सका.
बेटी तुम्हें याद होगा… बचपन में कई-कई बार तुम और दीपाली जब स्कूल से घर आती थीं तब कल्याणी की अनुपस्थिति में तुम्हें तैयार करने से लेकर नाश्ता बनाने तक का काम मैं ही करता था. तुम्हारी मां को तो कभी अपने नारी-मुक्ति आंदोलनों से फुर्सत ही नहीं मिल पाई. घर में बैठकर थके-हारे पति की प्रतीक्षा करना, उनके साथ चाय की चुस्कियां लेते हुए भविष्य के सपने बुनना, स्कूल से लौटते बच्चों के हाथों से भारी-भारी बस्तों को दौड़कर उठाना, बच्चों को गर्म दूध-नाश्ता देना… पति व बच्चों की पसंद-नापसंद के प्रति जागरुकता दिखाना.., उनकी छोटी-छोटी ज़रूरतों को अपने हाथों से पूरी करना, बच्चों व पति को घर से बाहर निकलते व़क़्त बाहर दरवाज़े तक छोड़ने आना… उन्हें मुस्कान के साथ विदा करना… न जाने कितने अनगिनत क्षण होते हैं, जिन्हें जीने में असीम सुख छिपे होते हैं. जीवन का इतना लंबा अरसा गुज़ार देने के बाद भी कल्याणी तो इन सुखों से वंचित ही रही और हम भी उसके उस लावण्यमयी रूप को देखने से वंचित रह गए.
कृपी कभी-कभी अपनों की ज़्यादतियों को ख़ुशी-ख़ुशी बर्दाश्त करना भी उनके प्रति अपने हृदय में छिपे प्रेम के एहसास को प्रदर्शित करना होता है और बदले में जब कभी किसी अपने के चेहरे पर स्नेह झलकता है व अपने लिए कृतज्ञता के भाव उभरते हैं तो उस अनुभूति को महसूस करने में भी अपार सुख होता है.
कृपी, अपने परिवार की प्राथमिकताओं को जानकर व्यवहार करने में ही समझदारी होती है. यदि कल्पेश चाहता है कि तुम नौकरी न करो या मांजी को तुम्हारा नौकरी करना पसंद नहीं है तो इसका अर्थ यह नहीं कि वे तुम्हारे दुश्मन हैं… उम्मीद तो अपनों से ही की जाती है न. ग़लत तो तुम सोच रही हो कृपी… अपनों की सेवा करने से कोई नौकर नहीं कहलाता. मान लो कल्पेश की मां के स्थान पर तुम्हारी अपनी मां होती, तब भी क्या तुम ऐसा ही सोचती?”
कृपी को अपनी?भूल पर पछतावा होने लगा. आज पापा ने जीवन की कितनी सूक्ष्म वास्तविकता से परिचित करा दिया… वाकई मैं ग़लत थी.
“पापा, प्लीज़ मुझे माफ़ कर दीजिए…” कहते हुए कृपी रो पड़ी.
देवांश ने हौले से कृपी के बालों को सहलाते हुए गालों पर थपकी दी, “अरे पगली, तुम रो रही हो… यह तो ख़ुशी की बात है कि तुम्हें अपनी ग़लती का एहसास समय पर हो गया, वरना तुम भी जीवन के सच्चे सुख से वंचित हो सकती थी. जाओ, जाकर मुंह धो लो और घर जाने की तैयारी कर लो, मैं स्वयं चलूंगा तुम्हें छोड़ने.”
कृपी अपना सामान अटैची में जमा रही थी तभी कल्याणी नारी-मुक्ति समिति की बैठक से वापस लौटी. कृपी को सामान जमाते देख आश्‍चर्य से बोली, “ये क्या… कहां जाने की तैयारी कर रही हो… कल्पेश का फ़ोन आया था क्या?”
“हां मां फ़ोन आया था… घर ही जा रही हूं.” कृपी ने अपना कार्य ज़ारी रखते हुए उत्तर दिया.
“बस एक फ़ोन आया और पिघल गई हमारी कृपी… क्यों?” कल्याणी ने तमतमाते हुए कहा.
कृपी ने अटैची बंद की व कल्याणी के गले में बांहें डाल दीं और मुस्कराकर बोली, “मम्मा नाराज़ क्यों होती हो…? कल्पेश मेरी ख़ुशी के लिए मेरी ज़िद मान गए, तो क्या मैं कल्पेश का दिल रखने के लिए अपनी ज़िद्द नहीं छोड़ सकती?”
कृपी ने देवांश की ओर मुख़ातिब होकर कहा, “पापा, आप नहीं चलेंगे मुझे घर छोड़ने?”
देवांश सो़फे पर बैठे अख़बार पढ़ रहे थे. शायद मां-बेटी का वार्तालाप सुनते हुए अख़बार पढ़ने का नाटक कर रहे थे. कृपी की बात पर तत्काल अख़बार को सेंटर टेबल पर फेंक मुस्कराते हुए उठ खड़े हुए और कृपी की अटैची उठाते हुए बोले- “भई मैं तो कब से तैयार बैठा हूं… तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ने के इंतज़ार में.”
कल्याणी कृपी के इस अप्रत्याशित परिवर्तन के कारण को समझ पाती, इससे पूर्व कृपी और देवांश एक-दूसरे को देख एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ घर से निकल पड़े.

     स्निग्धा श्रीवास्तव
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