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कहानी- पीड़ा की मुक्ति (Story- Peeda ki mukti)

नारी होकर भी तुम नारी के मन की व्यथा को समझ नहीं पा रही थीं. हां, शायद इसमें बाबूजी की ही महानता है, जो तुम्हारे जैसे रूखे, कठोर, असामाजिक स्वभाव को तमाम उम्र झेलते रहे हैं.

 

कितने दिन, कितने महीने, कितने वर्षों तक इस पीड़ा को सहा है मैंने. कई बार लगा कि यह दर्द मेरी जान लेकर ही रहेगा. शायद मैं मुक्त होना चाहती थी, पर आज लगता है- नहीं, मैं मुक्त नहीं होना चाहती थी?
बाबूजी ने अस्पताल से लौटकर जब बताया कि अर्जुन की हालत ठीक नहीं है, तो मिलने की चाह से कराह उठी थी मैं. मन चाह रहा था कि अभी बाबूजी से कहूं कि चलो, मुझे और बच्चों को उस वार्ड तक ले चलो, जहां अर्जुन को भर्ती किया गया है, पर नहीं कह पाई. उस पर मां की बद्दुआ सुनकर हिम्मत ही नहीं हुई अपने पति से मिलने की. भाभी ने खाना खाते व़क़्त कहा भी था, “जीजी, तुमको भी जाना चाहिए था. अरे, एक बार झगड़े में कोई इस तरह अपना पति, अपना संसार छोड़ देता है क्या?” पर वहीं मां की तेज़ आवाज़ ने भाभी की सीख को दबा दिया था. मां भाभी को डांटते हुए बोली थीं, “कोई ज़रूरत नहीं है- कल तबीयत देख आना और बच्चे अस्पताल में क्या करेंगे? तू तेरे बाबूजी के साथ थोड़ी देर के लिए चली जाना.”
ऐसा लग रहा था मानो मेरी ख़ुशियों को किसी की नज़र लग गई हो. मेरे जीवन में इतना अंधेरा छा गया था कि दूर-दूर तक कहीं भी रोशनी का नामोनिशान तक नहीं था. इतना स्याह अंधकार था और ऊपर से मैं ख़ुद रोशनी की किरण ले जाने के बजाय काली अमावसी रात का अंधेरा बटोरकर अपने जीवन में भरती चली गयी. काश! मैं हिम्मत कर उस घुटन भरे अंधेरे को काटते हुए उस चेहरे तक पहुंच जाती, जो मेरी प्रतीक्षा कर रहा था- मेरा प्यार, मेरा सुहाग, मेरा संसार, मेरा सर्वस्व था वह.
रात के दो बज रहे होंगे. सब गहरी निद्रा में थे, पर मेरी आंखों को सुबह का इंतज़ार था. आकाश भी मेरे पास ही सोया था, पर वह भी बीच-बीच में डरकर जाग जा रहा था. शायद उसे उसके पापा याद आ रहे होंगे. अचानक आंगन में बिल्ली के रोने की आवाज़ ने सभी को जगा दिया. मन बार-बार डर भी रहा था. पता नहीं क्या अनहोनी होनेवाली है? बिल्ली की आवाज़ ने बाबूजी को भी जगा दिया था. वे पानी मांग रहे थे. अनहोनी का आभास उन्हें भी हो गया था. उनका गला सूख रहा था और आंखें नम हो रही थीं. एक घंटा गुज़रा होगा कि स्कूटर की आवाज़ आई और रुक गई. फिर कॉलबेल के बजते ही सब डर गए. बाबूजी ने उठकर दरवाज़ा खोला, ननद का लड़का रो रहा था और रोते-रोते ही बोला, “मामा नहीं रहे.” मैं न कुछ कह सकी, न रो सकी, पर बाबूजी रो रहे थे. मां निर्विकार भाव से बैठ गई थीं बाबूजी के पास. बाबूजी मां से कह रहे थे, “ले अब तो हो गई शांति. बेटी का तो सारा संसार ही उजाड़ दिया तूने.”
मेरा मन भी यही कहना चाह रहा था- हां मां, तुम दोषी हो. हर बार तुमने अपने रूखे स्वभाव से, अपने घमंड से मुझे रोके रखा. कई बार तो मैं चाहकर भी नहीं जा पाई स़िर्फ तुम्हारे डर से.
नारी होकर भी तुम नारी के मन की व्यथा को समझ नहीं पा रही थीं. हां, शायद इसमें बाबूजी की ही महानता है, जो तुम्हारे जैसे रूखे, कठोर, असामाजिक स्वभाव को तमाम उम्र झेलते रहे हैं.
मां, तुम मेरे घर-संसार को लेकर इतनी निष्ठुर कैसे हो गई थीं? भाभी को मायके न जाने देनेवाली तुम, अपनी बेटी को क्यों मायके में रोके रहीं मां? आज जब अर्जुन के मरने की ख़बर मिली है, तो तुम जैसी गरम मिज़ाज मां, अब ब़र्फ सरीखी हो गईं? मगर अब क्या रखा है इन बातों में? एक आस, एक उम्मीद थी जीवन में, शायद हमारी गाड़ी फिर चलने लगेगी, हमारा मिलन फिर हो जाएगा, पर नौ साल की इस लंबी यात्रा में जब भी अर्जुन मुझे लेने आए, तुम मेरे सामने दीवार बन खड़ी हो जाती थीं. शर्तों के जाल में फंसे गांव के सीधे-सरल दामाद पर न जाने कौन से मंत्र फूंक दिए थे कि वह चाहकर भी पत्नी पर हक़ जता नहीं पाता था. हां मां, तुम तो दोषी हो ही, पर मैं भी कम दोषी नहीं हूं. अगर मैं तुम्हारे विरोध का बंधन तोड़कर चली जाती, तो आज यह सब न होता.
पर नियति का लिखा कौन मिटा सकता है? सच ही तो कहती रहीं सासू मां- घर की दहलीज़ लांघते व़क़्त औरत को बहुत सोचना चाहिए. बाहर गया पैर कई बार चाहकर भी अंदर नहीं आ पाता. पर तब मां तुम्हारे रूखे स्वभाव की आदी मैं, उसे उपदेश समझ ग्रहण नहीं कर पाई थी. एक अकेली सासू मां से तंग आ पति से रोज़ ही लड़ना और ताने देना मेरी आदत बनती जा रही थी. मायके का सब पैसा-रुपया आज मुझे अर्थहीन लग रहा है, जिसके घमंड में मैं चूर रही थी और मध्यमवर्गीय खाते-कमाते पति से झगड़कर मायके भाग आई थी. उसने अगर मेरी बेवकूफ़ी और नादानी पर एक थप्पड़ मार भी दिया था, तो कोई ऐसा अपराध नहीं किया था, जिसके दंड के रूप में मैंने उसे मौत दे दी.
अर्जुन नौ वर्ष के वियोग में जितना तड़पे होंगे, जितना अपमानित हुए होंगे, उसका एहसास मुझे आज हो रहा है, जबकि मेरी नैया किनारा छोड़ डूब चुकी है. हां अर्जुन, तुम्हारी लायब्रेरी में फ्रांस के लेखक और महान् समाजशास्त्री इमाइल दुर्खिम की पुस्तक में आत्महत्या को एक सामाजिक घटना बताया गया है. मैंने जिज्ञासावश उस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद करते हुए पढ़ने-समझने का जो प्रयास किया था, उसका सारांश यही था कि आदमी आत्महत्या के लिए तभी विवश होता है, जब उसके प्रियजन ने उसे कोई गहरी पीड़ा दी हो. पर यह बात मुझे पहले याद आ जाती, तो मैं आज शायद अपने सुंदर संसार में होती, पर भाग्य का चक्र उल्टा ही हो गया.
ननद का बेटा मेरे पास आकर बैठ गया था. बोला, “मामीजी, मामा पूरे समय टकटकी लगाकर आपकी और बच्चों की राह देखते रहे थे. उन्हें पूरी उम्मीद थी कि आप उन्हें क्षमा कर देंगी और ज़हर खाने की ख़बर सुनकर लौट आएंगी, पर ऐसा नहीं हो पाया. काश! आप अस्पताल तक आ जातीं तो मेरे मामा की आत्मा शांत हो जाती.”
कालचक्र घूमते देर नहीं लगती. देखते-देखते अर्जुन को गए दस वर्ष हो गए. बेटा आकाश बिल्कुल अर्जुन की तरह ही सुंदर नाक-नक्श का है, पर स्वभाव से ख़ामोश, अंतर्मुखी हो गया है. मेरे साथ उसका व्यवहार तो सामान्य है, पर फिर भी लगता है मन ही मन वह मुझे पिता की हत्या का दोषी समझता है. आकाश ने तो अपनी बहन की शादी भी अपने बलबूते पर अपने दोस्त से तय करवाकर मुझे इस ज़िम्मेदारी से भी मुक्त कर दिया. पर जब मैंने विवाह के निमंत्रण कार्ड पर पिता के नाम को न देखकर विरोध किया, तो उससे रहा नहीं गया. उसके अंदर का लावा ज्वालामुखी की तरह फूटकर बाहर आ गया था. उसका कहना था, “किसके नाम की बात करती हो? जिसे तुमने जीते-जी मरने को मजबूर कर दिया? उस पिता के नाम की बात कर रही हो, जो तुम्हारी याद में नौ साल तक मर-मरकर जिया? औरत द्वारा ठुकराए गए पति की उलाहना लेकर ज़िंदा रहा? किस पिता की बात करती हो, जिसके सुख-चैन में तुम दीमक बन बैठी थीं? आज तुम्हारे मुंह से उनका ज़िक्र अच्छा नहीं लगता और पिता ने हमारे बारे में सोचे बगैर आत्महत्या कर हमें अनाथ कर दिया. वह कुछ अंश तक हम भाई-बहन के दुर्भाग्य के दोषी हैं. रहा सवाल तुम्हारे नाम का तो तुमने हमें पाल-पोसकर बड़ा किया, इसलिए… पर मां, मेरे पिता ने मरकर तुम्हें नौकरी का हक़दार बनाया था, अतः एक तरह से तो हम पिता की कमाई से ही पले हैं, वरना तमाम उम्र यह एहसास हमें खाए जाता कि हम नाना और मामा के टुकड़ों पर पले हैं.
नाना-नानी का नाम न लिखने का कारण भी सुन लो. वे नाम ऐसे ही हैं, जिनकी छाया सघन रही है, पर वे उस वटवृक्ष की तरह हैं, जिसके तले में पौधा उगे, तो वो पनप नहीं पाता. हां मां, तुम ऐसा ही पौधा रही हो, जो अपना अस्तित्व बना ही नहीं पाई. नहीं… हमें ऐसे किसी नाम की आवश्यकता नहीं है.”
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     स्वाति तिवारी
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