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कहानी- सौग़ात (Story- Saugat)

उसकी तोतली बोली पहली बार साम्या के कानों में मिश्री घोल रही थी. उसकी उजली हंसी साम्या की आत्मा पर सालों से छाए अंधकार को मिटा रही थी. उसकी वो निश्छल आंखें ईश्‍वर के दर्शन करा रही थीं. साम्या के ममत्व की धार जो अब तक सूखी थी, आज फूट-फूटकर बहना चाहती थी. पिता की व्यस्तता ने उस मासूम से पिता का प्यार छीना, तो मां की बेरुखी ने ममता का अधिकार.

साम्या! जनता स्टोर से बाहर निकलते हुए सहसा अपना नाम सुनकर वह सकपका गई. यहां ट्रांसफर हुए अभी एक हफ़्ता ही हुआ है. यहां कौन जानता है? शायद वहम् हुआ होगा, यही सोचकर वह तेज़ क़दमों से आगे बढ़ गई, लेकिन वहम् सच बनकर सामने आ खड़ा हुआ. उसे यूं अचानक सामने पाकर वह जड़वत् हो गई और अतीत जैसे वर्तमान बनकर उभर आया.
वह नियत की आर्ट क्लासेस में पेंटिंग सीखने जाती थी. पेंटिंग सीखते-सीखते कब वह नियत से प्यार करने लगी, पता ही नहीं चला. उसकी इस चाहत को पढ़कर ही नियत ने उसे प्रपोज़ किया था, लेकिन ‘हां’ कहने से पहले उसने अपने माता-पिता की रज़ामंदी लेना ज़रूरी समझा.
“क्या? एक पेंटर से शादी? सपने में भी नहीं सोचना कि हम ऐसा होने देंगे. तुम्हें पेंटिंग का शौक़ था, इसलिए क्लासेस में भेज दिया, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि क़लम-कूंचीवाले से शादी कर लोगी. तुम इस राज्य के चीफ सेक्रेटरी की बेटी हो. तुम्हारी शादी होगी, तो किसी आईएएस या आईपीएस से.” मां ने तर्क दिया.
“…मगर मां, वो बहुत अच्छा इंसान है. मुझे बहुत चाहता है और फिर पेंटर होने में बुराई क्या है? वो इतनी अच्छी पेंटिंग करता है कि एक दिन ज़रूर क़ामयाब होगा. और नहीं करनी है मुझे आप लोगों की पसंद से किसी ब्यूरोक्रेट से शादी.” साम्या ने क्रोधपूर्वक कहा.
“समू बेटा, हम समझते हैं यह सब. लेकिन प्यार से पेट नहीं भरता और क्या गारंटी है उसकी सफलता की? आज क्या दे सकता है वो तुम्हें- बेकारी और ग़रीबी के सिवा.
ज़िंदगी चित्रकार के कैनवास पर नहीं, यथार्थ के धरातल पर रंग बिखेरती है, इसलिए मेरा भी यही फैसला है कि तुम्हारी शादी हमारे रुतबे के अनुसार होगी.” ब्यूरोक्रेट पिता ने आदेश सुनाया.
माता-पिता का अंतिम निर्णय आ चुका था, मगर वो अपने दिल को कैसे समझाती, जो हर पल नियत के लिए धड़कता था. उसकी पेंटिंग क्लासेस बंद कर दी गईं. बाद में पता चला कि नियत अपनी आर्ट गैलरी बंद कर कहीं चला गया था. साम्या जानती थी कि इसके पीछे उसके रसूख़दार पिता का हाथ था.
महीनों तक साम्या के चेहरे से उदासी के बादल नहीं छंटे. उसने अपनी पढ़ाई, पेंटिंग सब कुछ छोड़ दिया था. दिन-ब-दिन एक गहरे अंधेरे गड्ढे में धंसती जा रही थी वो. एक दिन नियत घर आया, “साम्या, मां ने गांव बुला लिया था और वहीं मेरी शादी भी तय कर दी. शादी की तैयारियों में इतना व्यस्त था कि बता नहीं पाया. अगले हफ़्ते मेरी शादी है. तुम ज़रूर आना.” उसने कहा.
साम्या को अपने कानों पर यक़ीन ही नहीं हो रहा था. जिस इंसान की चाहत में वो एक ज़िंदा लाश बन गई है, वो इतने दिनों अपनी शादी की तैयारियों में लगा था. उसने जी भर कर नियत को खरी-खोटी सुनाई, मगर उस कलाप्रेमी का हृदय नहीं पिघला. बिना कुछ कहे वो शादी का कार्ड रखकर चला गया.
बाद में न चाहते हुए भी साम्या ने पिता की इच्छा से एक ब्यूरोक्रेट से शादी कर ली. बात-बात में होनेवाली सरकारी, ग़ैर सरकारी पार्टियों में सज-संवरकर नकली मुस्कान ओढ़े जाना होता था उसे. लेकिन वह ख़ुश नहीं थी वहां. चाहकर भी उसकी आंखों से आंसू नहीं निकलते थे. घुटती ही जा रही थी भीतर ही भीतर.
इसी बीच उसने एक बेटी को जन्म दिया. जब उसका नाम नियति रखा, तो साम्या के माता-पिता की आंखें पथरा गईं. उन्हें लगता था कि शादी और संतान के बाद साम्या ख़ुश होगी, मगर आज साम्या की ज़िंदगी की
कड़वाहट उनकी आंखों में आंसू बनकर बह रही थी. साम्या विरह की आंच को कम करती, तभी तो ममता की शीतलता महसूस कर पाती. अपनी बेटी की ज़िंदगी की घुटन साम्या के पिता की ग्लानि बनकर उन्हें अंदर ही अंदर खोखला करती गई.
एक दिन बीमार पिता ने साम्या को अपने पास बुलाया.
“समू बेटा, मुझे माफ़ कर दो. मैंने तुमसे एक बहुत बड़ा सच छिपाया है. नियत ने शादी नहीं की है. मैंने उसके रिटायर्ड पिता की पेंशन बंद करवा दी थी, उसकी आर्ट गैलरी का रजिस्ट्रेशन रद्द कर दिया था. उसके घरवालों के लिए रोटी के भी लाले पड़ गए थे. उस पर बीमार मां का इलाज बंद हो गया था. उसे इतना मजबूर कर दिया कि वो उस दिन घर आकर तुम्हारे सामने झूठ बोलकर चला गया. वो शादी का कार्ड भी मैंने ही छपवा कर दिया था, ताकि तुम उसकी बात पर यक़ीन कर लो. शायद आज भी इंतज़ार है उसे तुम्हारा…” कहकर पिता ने अंतिम सांस ली.
आज तक साम्या समझ नहीं पाई थी कि नियत की बेवफ़ाई के बावजूद वह क्यों नहीं भुला पा रही है उसे? आज मालूम हुआ कि नियत तो आज भी उसी मोड़ पर खड़ा है, जहां साम्या ने उसे छोड़ा था.
मगर क्या साम्या में हिम्मत थी अपने पति और बेटी को छोड़ नियत की तलाश में निकल जाने की? विरह की अग्नि में झुलसना तो उसे मंज़ूर था, मगर क्या विवाह की अग्नि से बाहर निकलना उसके लिए संभव था- वो भी शादी के इतने सालों बाद? इसी उधेड़बुन में रहती थी कि तभी पति का डेपुटेशन पर जयपुर आना हुआ. साथ में साम्या और नियति भी आए. वह हमेशा सोचती थी कि यदि नियत उसके सामने आ गया तो क्या कहेगी, क्या करेगी, क्या संभाल पाएगी ख़ुद को, क्या उसके कांधे पर सिर रखकर अपने दुख उसे बता पाएगी?
“साम्या, तुम इसी तरह ख़ामोश खड़ी रही तो मुझे लगेगा कि तुमने मुझे माफ़ नहीं किया. मैंने जो भी किया था, मजबूरी में किया था. अंकल मेरे पास आए थे. उन्होंने बताया था कि वो तुम्हें सब कुछ सच-सच बतानेवाले हैं. आशा करता हूं कि तुम अब वो सारी बातें भुलाकर अपने परिवार में ख़ुश होगी.” नियत ने साम्या को झकझोरकर पूछा और वह अपने वर्तमान में लौटी.
“हं… हां नियत, ख़ुश हूं. बहुत ख़ुश हूं. तुम घर क्यों नहीं चलते? मेरी बेटी से भी…” मेरे शब्द मेरे कंठ में ही अटक गए.
“अरे हां. क्यों नहीं? अच्छा बताओ बेटी का नाम क्या रखा तुमने?” उसने पूछा.
“नाम… न… न…”
“क्या हुआ? अभी तक नाम नहीं रखा?”

“तुम घर चलो. उसी से पूछना.” कहकर साम्या ने लंबी आह भरी, मगर मन में तूफ़ान उमड़ रहे थे कि जब उसका नाम पता चलेगा, तो क्या सोचेगा नियत?
घर की दहलीज पर बैठी नियति उसे देखते ही ‘ममा, ममा’ कहते हुए दौड़कर आई. वो अपने दोनों हाथ ऊपर किए उसे गोद में लेने को कह रही थी. यह उसका रोज़ का नित्यक्रम था और रोज़ साम्या आया को देखकर कह देती, इसे संभालो, मैं बहुत थकी हुई हूं. मगर आज ये शब्द भी गले में ख़राश बनकर अटक गए थे. इससे पहले कि साम्या उसे गोद में उठाती, नियत उसे गोद में उठा चुका था.
“हैलो अंटल, आपटा माम टा है.” नियति ने तुतलाती आवाज़ में कहा.
“मेला माम नियट है. आपका नाम क्या है?”
“अले वाह, आपटा माम नियट औल मेला माम निअटि है.” नियति का इतना कहना था कि नियत की आंखें साम्या से टकराईं और जैसे पराजित सिपाही शत्रु से बचता यहां-वहां भागता है, वैसे ही साम्या की निगाहें पल भर में कितनी ही वस्तुओं से जा टकराईं. तेज़ क़दमों से वह रसोई की ओर चल दी, मगर रह-रहकर आंखें नियत के साथ खेलती अपनी बेटी पर जा पड़तीं. उसकी तोतली बोली पहली बार साम्या के कानों में मिश्री घोल रही थी. उसकी उजली हंसी साम्या की आत्मा पर सालों से छाए अंधकार को मिटा रही थी. उसकी वो निश्छल आंखें ईश्‍वर के दर्शन करा रही थीं. साम्या के ममत्व की धार जो अब तक सूखी थी, आज फूट-फूटकर बहना चाहती थी. पिता की व्यस्तता ने उस मासूम से पिता का प्यार छीना, तो मां की बेरुखी ने ममता का अधिकार.
खाना बनाकर साम्या ने मेज़ पर लगाया और नियत को खाना खाने के लिए कहा. वह नियति की बातों में इतना खो गया था कि उसने आंगन में ही बैठकर खाने को कहा, ताकि वो उसके साथ खेलते-खेलते खाना खा सके. साम्या भी दोनों के साथ आंगन में ही बैठ गई. आज नियत के साथ नियति की ख़ुशी में शामिल होकर साम्या की सारी घुटन दूर हो गई. ऐसा लग रहा था कि सांसों को नई ऑक्सीजन मिल गई थी.
मालूम ही नहीं चला कब साम्या के पति अवकाश आ गए और उन तीनों को आंगन में बैठे खेलते और खाते देखने लगे. सहसा साम्या की नज़र अवकाश पर पड़ी. उसकी नज़रें आत्मग्लानि से झुक गईं. क्या सोच रहे होंगे अवकाश? और फिर क्यों उसके दिमाग़ में नहीं आया कि उसे फोन करके अवकाश को बता देना चाहिए था कि नियत घर पर आया है? फिर भी अपनी ग्लानि को दूरकर उसने अवकाश से कहा, “आप कब आए, पता ही नहीं चला. ये नियत हैं, मेरे पुराने दोस्त. मैं फोन करके आपको बताने ही वाली थी.”
“अरे, कोई बात नहीं. आप लोग डिनर जारी रखो. मैं हाथ-मुंह धोकर जॉइन करता हूं.” अवकाश ने नियत से हाथ मिलाकर कहा.
खाने के बाद अवकाश और नियत कुछ देर लॉन में टहलते रहे और फिर उसने हम सबसे विदा ली. एक हफ़्ता होने को आया है नियत को आए, ऐसे में साम्या की ख़ुशी, ज़िंदादिली तो जैसे फिर लौट आई थी. आज अचानक दोपहर में नियत आया.
उसने साम्या को एक तस्वीर थमाई और कहने लगा, “तुम्हें मालूम है, तुम्हारी बेरुखी और विरह में सबसे ज़्यादा किसने खोया है? तुम सोचती होगी कि तुमने अपनी मुहब्बत खोई है, अपने परिवार के रुतबे की वेदी पर. लेकिन नहीं साम्या, तुमसे कहीं ज़्यादा खोया है अवकाश ने.
उस दिन अवकाश मुझे लॉन में टहलने के लिए इसलिए ले गया, ताकि वो मुझसे तुम्हें और नियति को अपनाने की विनती कर सके. उसके चेहरे पर तुम्हारी तड़प और नियति के साथ हुआ अन्याय साफ़ झलक रहा था. उसने बताया कि किस तरह शादी की पहली रात ही तुम्हारे मन के घाव मृत जैसे तुम्हारे शरीर ने उसे बता दिए थे. बाद में उसने ऑफिस और घर-परिवार की पार्टी इत्यादि में तुम्हें ले जाकर तुम्हारा मन बदलने की कोशिश भी की, लेकिन हर बार तुम्हारी घुटन और बढ़ती जाती. अंततः अवकाश ने तय किया कि वो ख़ुद को काम में इतना झोंक लेगा कि चाहकर भी वो तुम्हें न चाहे और व़क्त आने पर वो तुम्हें उस व्यक्ति को सौंप सके, जिसकी विरह में तुम हर पल जल रही थी. नियति के जन्म पर हर बाप की तरह अवकाश भी बहुत ख़ुश था, लेकिन जब तुमने उसका नाम नियति रखा और तुम्हारे मम्मी-पापा के चेहरे से ख़ुशी ग़ायब हो गई, तो वह समझ गया कि इस नाम का तुम्हारे अतीत से कुछ संबंध है. तभी उसने अंकल से तुम्हारे अतीत के बारे में पूछा. अवकाश के कहने पर ही अंकल ने तुम्हें सब कुछ सच-सच बताया.
जब अवकाश को पता चला कि मैं यहां जयपुर में हूं, तो उसने डेपुटेशन के बहाने यहां ट्रांसफर करवा लिया, ताकि किसी बहाने से हम दोनों एक-दूसरे के सामने आ जाएं. उस दिन अवकाश ने मुझसे विनती की थी कि मैं तुम्हें और नियति को अपना लूं. लेकिन मैं यह नहीं कर सकता, क्योंकि तुम दोनों पर यदि किसी का सबसे ज़्यादा अधिकार है, तो वह है- अवकाश. मैंने तुम्हें जो तस्वीर दी है, उसमें तुम तीनों साथ हो. आशा करता हूं कि तुम्हारा निर्णय इस कल्पना को यथार्थ बना देगा.”
इतना कहकर नियत चला गया, लेकिन साम्या ने निर्णय लिया कि उसकी यह तस्वीर साम्या के परिवार के लिए सबसे अनमोल सौग़ात
बनकर रहेगी.

      निधि चौधरी

 

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