सालों पहले जब हमारे एम. ए का विदाई समारोह था तब हम सभी सहपाठी बेहद भावुक और उदास थे, क्योंकि सभी एक-दूसरे सेबिछड़ने वाले थे कल, कौन कहां होगा? किसी को भी पता नहीं था. मंच पर मैंने ‘मेरे ख्वाबों में जो आए, आ के मुझे छेड़ जाए...’ गीतगाया था उसके बाद लड़कों ने ‘तुझे देखा तो ये जाना सनम…’ गाने पर ग्रुप डांस किया था. विदाई समारोह समाप्त होते ही भीड़ में किसी ने चुपके से मुझे एक पर्ची पकड़ा दी थी और मैंने जल्दबाज़ी में वह पर्ची अपने पर्स में डालदी थी और उस पर्ची देनेवाले की शक्ल तक नहीं देख पाई थी और फिर भूल गई वह पर्ची. वह छोटी-सी पर्ची पर्स के कोने में पड़ी रहीऔर मुझे पता ही नहीं चला. एम. ए की परीक्षाओं के बाद कुछ महीनों ही बाद मेरी शादी हो गई और वह पर्स चला गया मेरी छोटी बहनके पास और मेरे पास आ गया नया पर्स. पुराना पर्स जब मेरे पास था, तब मैं हर पल एक बेचैनी-सी महसूस करती थी… लगता था जैसे कोई मुझे शिद्दत से याद कर रहा है, मुझसे कुछ कहना चाहता है… शादी के बाद भी मेरा वही हाल था. हर पल ऐसा महसूस होता था जैसे कोई मुझे दिल से याद कर रहा है, मेरी परवाह कर रहा है, मुझसे कुछ कहना चाह रहा है… ऐसा महसूस होता जैसे कोई मेरी रूह में बसा है और मैं उसे चाह कर भी अपने सेजुदा नहीं कर पा रही हूं. एक दिन छोटी बहन की चिट्ठी आई- दीदी, आपके पर्स में यह पर्ची मिली है. माफी चाहूंगी मैंने पढ़ ली है. आप पढ़ तो लेती. पता तो चलजाता आप पर मर मिटने वाला वह पर्चीवाला दीवाना कौन था? …तेरी हर अदा पर फिदा हूं, करीब होकर भी तुझसे जुदा हूं, बस तू महसूस कर मुझे, हर वक्त हर लम्हा तेरी रूह में बसा हूं...साथ हीदिल के आकार में लिखा था- तुझे देखा तो ये जाना सनम, प्यार होता है दीवाना सनम...पर्ची पढ़कर यह तो पता चल गया कि लड़कोंके ग्रुप डांस में से ही कोई होगा. उस पर्ची को दिल से लगाया और सच्चे दिल से दुआ की… …तू जहां भी हो, खुश और आबाद हो, बेहद शिद्दत से मैं भी हर वक्त और हर लम्हा तुझे महसूस करती हूं... और दोस्तों, आज भी मैं उसे महसूस कर रही हूं. जब अपने सहपाठियों से मुझे एल्यूमिनाई मीटिंग का निमंत्रण मिला तो फेसबुक कोदिल से सलाम किया, जिसकी वजह से आज यह कार्यक्रम आयोजित हो रहा है. आज मैं यहां वही विदाई समारोह वाला गाना- मेरेख्वाबों में जो आए आ के मुझे छेड़ जाए... गाऊंगी क्योंकि मुझे पूरा यकीन है वह पर्चीवाला यहां ज़रूर मौजूद होगा. गीत सुनाते वक्त मेरी नज़रें उसी पर्चीवाले को खोजती रहीं. गीत खत्म हो जाने के बाद संचालिका ने मुझे एक पर्ची थमाते हुए कहा, "संगीता, अपने बैच के सहपाठी संजीव ने दी है, जो इसी शहर में हैं. जब हम उसे निमंत्रित करने गए, तो उसने एक पर्ची देते हुए कहाहमारे बैच की संगीता इस कार्यक्रम में ज़रूर आएंगी और वही विदाई समारोह वाला गाना भी गाएंगी, आप उन्हें यह पर्ची दे देना. मैंअस्वस्थ होने की वजह से कार्यक्रम में शरीक नहीं हो पाऊंगा." उस पर्ची को मैंने अपनी मुट्ठी में ऐसे पकड़ लिया, जैसे मुझे कोई अनमोल ख़ज़ाना मिल गया हो. "इस वक्त संजीव कहां है?" "सिटी हॉस्पिटल में." बेतहाशा दौड़ पड़ी मैं हॉस्पिटल की ओर. रिसेप्शन पर संजीव का कमरा नंबर पता कर बदहवास-सी पहुंची तो वहां हंसता-मुस्कुराताज़िंदादिल संजीव सूखकर सिर्फ हड्डी का ढांचा मात्र रह गया था. उसे मैंने सिर्फ उसकी नीली आंखों से ही पहचाना, क्योंकि उसकी नीलीआंखों में वही सालों पुरानी कशिश और आकर्षण था, जिसकी वजह से क्लास की हर लड़की उस पर मिटती थी. "मुझे यकीन था संगीता, तुम ज़रूर आओगी.” फिर एकटक निहारते हुए बोला, "सच-सच बताना बीते सालों में तुमने मुझे कभी एक पलको भी महसूस किया ?” यह सुनकर रो पड़ी मैं और उसके सीने से लग सालों से जो महसूस करने का मौन सिलसिला था, वह पल भर में खत्म हो गया और साथही उसकी सांसों का सफर भी खत्म हो गया, जैसे ही डॉक्टर ने कहा "ही इज़ नो मोर" यह सुनकर बदहवास-सी चीख पड़ी मैं "संजीव, आई लव यू. हमारा पर्चीवाला इश्क हमेशा अमर रहेगा. तुम हमेशा मेरे साथ और पासरहोगे," कहते हुए मैंने उस पर्ची को अपने दिल से लगा लिया. डॉ. अनिता राठौर मंजरी --
जीवन में प्रेम जब दस्तक देता है तो उसका एहसास अत्यंत ख़ूबसूरत होता है और वो भी मेरे जैसे नीरस इंसान के लिएजिसके लिए प्रेम और उसका एहसास मात्र लैला-मजनू, हीर-रांझा वाले किताबों के काल्पनिक क़िस्से थे, पर जब तुम्हें पहली बार देखा तो मैं भी प्रेम के एहसास से रु-ब-रु हो गया. वो काल्पनिक क़िस्से मुझे यथार्थ से लगने लगे थे. मुझे किंचित भी आभास न हुआ कि कब तुम मेनका बन आयी और मेरी विश्वामित्रि तपस्या भंग कर मेरे दिल में समाती चली गईं. उस दिन जब पहली बार तुम्हें मेले में चूड़ियों की दुकान परदेखा था तो मंत्र-मुग्ध-सा तुम्हें देखता ही रह गया. सलोना-सा मासूम चेहरा, कज़रारी आंखें और खुले लम्बे काले बालतुम्हारी सुंदरता में चार चांद लगा रहे थे. तुम्हारे हाथों में ढेर सारी चूड़ियां, उनकी खनखनाहट मेरे कानों में सरगम का रस घोल रहीं थीं. हर बात पर तुम्हारा चूड़ियों का खनखनाना मुझे मंत्रमुग्ध कर रहा था. उस दिन तुम सफ़ेद कलमकारी वाली कढ़ाई वाले सूट में अनछुई चांद की चांदनी लग रही थी. अनिमेश दृष्टि से तुम्हें देखता मैं जड़ चेतन हो गया था. तुम्हारी चूड़ियों की खनक से मैं वापिस यथार्थ के धरातल पर आ गया. मैं भी अपनी बहन के लिए चूड़ियां ख़रीदने आया था, तभी इत्तेफाकन ही हम दोनों ने एक लाल रंग की चूड़ी पर हाथ लगा कर अपनी पसंद दुकानदार को ज़ाहिर कर दी. तुम्हारे कोमल हाथों के स्पर्श से मैं एकदम सिहर-सा गया. तुम तो वहां से चली गईं, साथ में मेरा दिल और चैन भी ले गई. मैं मोहब्बत के अथाह सागर की गहराइयों मेंगोते खाने लगा. मुझे तुम्हारा नाम-पता कुछ भी नहीं मालूम था. मैं बस तुम्हारी एक झलक पाने के लिए बेचैन-सा रहने लगा था. कहते हैं ना मन की गहरियों से ढूंढ़ो तो भगवान भी मिल जाते हैं, अंतत: मैंने तुम्हारे बारे में पता लगा ही लिया. तुम तो मेरे सामने वाले कॉलेज में पढ़ती थीं और रोज़ बस से कॉलेज जाती थी. इतना नज़दीक पता मिलने से मेरी ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा. मैं रोज़ तुम्हारी चूड़ियों की खनखनाहट सुनने के लिए बस स्टॉप पर तुम्हारा इंतज़ार करने लगा… और तुम, तुम तोमुझे देख कर भी अनदेखा करने लगी. तुम्हारी अनदेखी मुझे बहुत तकलीफ़ देती थी, लेकिन फिर एक दिन मैंने किसी तरह हिम्मत जुटाई और अपने दिल की बात बताने की ठानी, लेकिन तब तुमसे बात करने की कोशिश में पता चला ईश्वर ने तुम्हें फ़ुर्सत से गढ़ा था, पर वोतुम्हें आवाज़ देना भूल गया…और यही चूड़ियों की खनक ही तुम्हारी आवाज़ थी…तुम्हारी भाषा थी. तुम्हें डर था कि तुम्हारा यह सचजानकर कहीं मैं तुम्हें छोड़ न दूं, पर कहते हैं न "मोहब्बत कभी अल्फ़ाज़ों की मोहताज नहीं होती, ये तो वो ख़ूबसूरत एहसास है जिसमें आवाज़ की ज़रूरत नहीं होती" मैंने तो तुम्हें मन की गहराइयों से निस्वार्थ प्रेम किया था. और प्रेम तो समर्पण और त्याग की मूरत है और मैं इतना स्वार्थी नहीं था. धीरे -धीरे मैंने भी तुम्हारी और तुम्हारी चूड़ियों की भाषा सीख ली. तुम्हारी इन चूड़ियों की खनक में सम्पूर्ण जीवनगुज़ारने का एक सुंदर सपना संजोने लगा. समय के साथ कब तुम्हारा कॉलेज पूरा हो गया पता ही नहीं चला. तुम आगेपढ़ना चाहती थीं… एक शिक्षिका बन कर अपने जैसे मूक लोगों के लिए प्रेरणा बन उन्हें राह दिखाकर उन्हें उनकी मंज़िल तक पहुंचाना चाहती थीं. बस फिर क्या था, तुम्हारे इसी हौसले और हिम्मत के आगे मैं नतमस्तक हो गया. एक-एक दिन तुम्हारे इंतज़ार और मिलनेकी आस में काट रहा था और आख़िर तुम्हारा सपना पूरा हो गया. मैंने भी अपने सपने को पूरा कर तुम्हें अपना हमसफ़र बना लिया और तुम्हारी इन चूड़ियों की खनक को हमेशा के लिए अपने जीवन की सरगम बना लिया. "मोहब्बत हमसफ़र बने इससे बड़ी ख़ुशनसीबी नहीं, रूह से रूह का बंधन हो तो इससे बड़ी इबादत नहीं" कीर्ति जैन
कंपकपाती ठंड से परेशान होकर नाश्ता करने के बाद मैं छत पर चला आया. बाहर गुनगुनी धूप पसरी हुई थी जो बड़ी भली लग रही थी. मैं मुंडेर के पास दरी बिछाकर उस पर लेट गया. धूप चटक थी लेकिन मुंडेर के कारण हल्की सी छांव के साथ सुहावनी लग रही थी. ठंडसे राहत मिलते ही कंपकपी बंद हो गई. धूप की गर्माहट से कुछ ही समय में आंखें उनींदी होने लगी और मैं पलकें मूंदकर ऊंघने लगा. यूंभी पिछले साल भर से किताबों में सर खपा कर मैं बहुत थक चुका था और कुछ दिनों तक बस आराम से सोना चाहता था, इसलिए लॉकी परीक्षा देने के बाद अपनी मौसी के यहां कानपुर चला आया था. अभी हल्की-सी झपकी लगी ही थी कि अचानक मुंह पर पानी की बूंदे गिरने लगी. मैंने चौक पर आंखें खोली, आसमान साफ था. नीलेआसमान पर रुई जैसे सफेद बादल तैर रहे थे. तब मेरा ध्यान गया कि पानी की बूंदें मुंडेर से झर रही हैं. दो क्षण लगे नींद की खुमारी सेबाहर आकर यह समझने में कि पानी किसी के लंबे, घने काले बालों से टपक रहा है. शायद कोई लड़की बाल धोकर उन्हें सुखाने केलिए मुंडेर पर धूप में बैठी थी. एक दो बार खिड़की से झलक देखी थी. एक बार शायद गैलरी में भी देखा था, वह मौसी के पड़ोस वालेघर में रहती थी. उसके भीगे बालों से शैंपू की भीनी-भीनी सुगंध उठ रही थी. मैं उस सुगंध को सांसों में भरता हुआ अधखुली आंखों से उन काले घने भीगेबालों को निहारता रहा. बूंद-बूंद टपकते पानी में भीगता रहा जैसे प्रेम बरस रहा हो, सद्धयः स्नात प्रेम… कितना अनूठा एहसास था वह. भरी ठंड में भी पानी की वह बूंदें तन में एक गर्म लहर बनकर दौड़ रही थी. मेरे चेहरे के साथ ही मेरा मन भी उन बूंदों में भीग चुका था. तभी उसने अपने बालों को झटकारा और ढेर सारी बूंदें मुझ पर बरस पड़ी. मेरा तन मन एक मीठी-सी सिहरन से भर गया. मैं उठ बैठा. मेरेउठने से उसे मेरे होने का आभास हो गया. वह चौंककर खड़ी हो गई. उसके हाथों में किताब थी. कोई उपन्यास पढ़ रही थी वह धूप मेंबैठी. मुझे अपने इतने नज़दीक देखकर और भीगा हुआ देखकर वह चौंक भी गई और सारी बात समझ कर शरमा भी गई. उसे समझ हीनहीं आ रहा था कि इस अचानक आई स्थिति पर क्या बोले. दो पल वह अचकचाई-सी खड़ी रही और फिर दरवाज़े की ओर भागकरसीढ़ियां उतर नीचे चली गई. पिछले पांच दिनों में पहली बार उसे इतने नज़दीक से देखा था. किशोरावस्था को छोड़ यौवन की ओर बढ़ती उम्र की लुनाई से उसकाचेहरा दमक रहा था. जैसे पारिजात का फूल सावन की बूंदों में भीगा हो वैसा ही भीगा रूप था उसका. रात में मैं खिड़की के पास खड़ा था. इस कमरे की खिड़की के सामने ही पड़ोस के कमरे की खिड़की थी. सामने वाली खिड़की में रोशनीदेखकर मैंने उधर देखा. उसने कमरे में आकर लाइट जलाई थी और अलमारी से कुछ निकाल रही थी. उसने चादर निकाल कर बिस्तर पररखी, तकिया ठीक किया और बत्ती बुझा दी. मैं रोमांचित हो गया, तो यह उसका ही कमरा है, वह मेरे इतने पास है. मैं रात भर एकरूमानी कल्पना में खोया रहा. देखता रहा उसके बालों से बरसते मेह को. एक ताज़ा खुशबूदार एहसास जैसे मेरे तकिए के पास महकतारहा रात भर. मैं सोचता रहा कि क्या उसके मन को भी दोपहर में किसी एहसास ने भिगोया होगा, क्या वह भी मेरे बारे में कुछ सोच रहीहोगी? जवाब मिला दूसरे दिन छत पर. जब मैं छत पर पहुंचा, तो वह पहले से ही छत पर खड़ी इधर ही देख रही थी. हमारी नज़रें मिली औरउसने शरमा कर नज़रें झुका लीं. कभी गैलरी में, कभी खिड़की पर हमारी नज़रें टकरा जाती और वह बड़े जतन से नज़रें झुका लेती. उनझुकी नज़रों में कुछ तो था जो दिल को धड़का देता. नज़रों का यह खेल एक दिन मौसी ने भी ताड़ लिया. मैंने उन्हें सब कुछ सच-सच बता दिया. फिर तो घर में बवाल मच गया और मुझेसज़ा मिली. सज़ा उम्र भर सद्धयः स्नात केशों से झरती बूंदों में भीगने की और मैं भीग रहा हूं पिछले छब्बीस वर्षों से, उसके घने कालेबालों से झरते प्रेम के वे सुगंधित मोती आज भी मेरे तन-मन को सराबोर कर के जीवन को महका रहे हैं और हम दोनों के बीच का प्रेमआज भी उतना ही ताज़ा है, उतना ही खिला-खिला जैसा उस दिन पहली नज़र में था, एकदम सद्धयः स्नात. विनीता राहुरीकर
हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह.. यूट्यूब पर चलती ग़ज़ल और उसके शहर से गुज़रता हुआ मैं… दिल में यादों का सैलाब औरआंखों में नमी अनायास उतर आती है. ऐसा नहीं था कि उसके शहर से मेरा कोई राब्ता था या कोई जान-पहचान थी. मानचित्र में दर्ज वहशहर मेरे लिए नितांत अजनबी था. यह इत्तेफाक ही था कि उससे मुलाकात उसके शहर में उसके घर पर हुई. बात नब्बे के दशक की है. मैं आईएएस में सलेक्शन होने के बाद ट्रेनिंग के लिए हैदराबाद जा रहा था. मैं इतना बेफिक्र और लापरवाह थायह भी नहीं जानता था कि इस हफ्ते मेरी ज़िंदगी एक नया मोड़ लेने जा रही है. नई दुनिया के सतरंगी सपनों की नींद तब टूटी जब ट्रेन नेतेज़ी से हिचकोले खाकर अपनी रफ्तार रोक दी. गहन बीहड जंगल, जहां इंसान दूर-दूर तक नहीं थे, में ट्रेन का रुक जाना दहशत पैदाकर रहा था. भय के इस माहौल में पता चला कि ट्रेन के कुछ पहिये पटरी से उतर गए. कब तक ट्रेन दुरूस्त होगी इसकी जानकारी किसीके पास नहीं थी. एक या दो दिन लग सकते हैं. वक्त काटने के लिए मैं यूं ही टहलता हुआ दूर निकल आया. ढाणियों से आच्छादित यह गांव अपने रंग में रंगा हुआ था. शहर कीआबोहवा से दूर एक ढाणी में ढोल नगाड़े बज रहे थे. मै कौतूहलवश देखने लगा तभी पीछे से पीठ पर थपथपाहट हुई. मुड़कर देखा तो देखता ही रह गया. गुलाबी लहंगा-चुनर ओढ़े, गुलाबी आंखों में गुलाबी चमक लिए और गौर वर्ण हथेलियों में गुलाबीचूड़ियां खनक रही थी. सादगी में सौन्दर्य निखर रहा था. कौन हो बाबू? क्या चाहिए? ऐसे एकटक क्या देख रहे हो… मखमली आवाजेड में वह ढेरों सवाल पूछ रही थी और मैं बेसुध खड़ा सुना रहा था. गांव की लड़कियां शहरी लड़कों के हृदय में प्रेम काअंकुरण करती हैं वैसे ही कुछ मैंने महसूस किया. उसने मुझे झंझोड़ते हुए फिर से अपना सवाल दोहराया, मैं वर्तमान में लौटा. ट्रेन हादसे के बारे में उसे बताया. उसने अपने पिता को मेरीस्थिति समझाई. सरल हृदय के धनी उन लोगों ने मुझे अपने यहां रुकने का आग्रह किया- ‘जब तक ट्रेन ठीक नहीं हो जाती बाबू तबतक आप यहां आराम से रह सकते हैं. घर में शादी है आप शरीक हों, हमें अच्छा लगेगा.’ न जाने क्यों मैंने उनका आमंत्रण स्वीकार करलिया. शादी की रस्मों में गुलाबी लड़की थिरकती उन्मुक्त-सी उछलती-कूदती कुछ न कुछ गुनगुनाती रहती. मेरा दिल उसे देखकर धड़क जाता. यह लड़की कुछ अलग थी. कुछ बात थी जिसके कारण मेरा दिल मेरा नहीं था. रात के समय जब मै गांव के अंधेरे को निहार रहा था, तो वह मेरे पास आ बैठी. हम दोनों देर तक बातें करते रहे. मैं अपने कॉलेज केकिस्से सुनाता रहा. आगे की ट्रेनिंग के बारे में बताया और वह अपनी ज़िंदगी के अनछुए पहलुओं से अवगत करा रही थी. उसकी बातेंजादू थी, मैं डूब रहा था. अचानक उसने मेरा हाथ थाम लिया. ‘जो सितारे रात में तेज चमकते हैं वे प्रेम में चोट खाए हुए प्रेमी हैं. जाने-अनजाने में जब प्रेम किया और उसे पाने में खुद को असमर्थपाया. प्रेम कह देने में नहीं है बाबू. यह देह की भाषा से परिलक्षित हो जाता है. मैं तुम्हारे लिए नहीं बनी हूं. इसलिए अपनी आंखों में कोईख्वाब मत संजोना. कल मेरी शादी है.’ ‘तुम्हारी शादी… तुम तो दुल्हन जैसी नहीं लग रही.’ पूछ बैठा उससे. ‘हां बाबू, मुझे नहीं पता मेरा आने वाला समय कैसा होगा, मैं हर पल को जीना चाहती थी. तुम्हारे मन को पढ़ा तो बता देना ज़रूरीसमझा.’ मै आसमां से सीधे ज़मीं पर आ गिरा. अभी तो प्रेम कहानी शुरू भी नहीं हुई थी कि खत्म होने की बात आ गई. ‘एक सवाल पूछने कीहिमाकत कर सकता हूं? क्या तुम भी मुझसे…’ मेरी बात बीच में काटती हुई बोली- ‘उन प्रश्नों का कोई अर्थ नहीं होता जिनका जवाब देने में एक उम्मीद जग जाए, मैं कोई उम्मीद नहींहूं, दरख़्त हूं, तुम्हारे लिए हरी नहीं हो सकती.’ उसकी आंखें छलछला गई. हारा हुआ दिल लेकर मैं दो क़दम पीछे हटकर मुड़ा ही था कि उसकी आवाज़ गूंजी- ‘बाबू मेरी शादी का उपहार नहीं दोगे?’ ‘क्या चाहिए इस अजनबी से, बोलो?’…
भले ही अब लैला-मजनू, शीरी-फरहाद और कच्चे घड़े पर माहिवाल से मिलने आने वाली सोहनी का ज़माना नहीं रहा, मगर प्यार-मुहब्बत अब भी है, दिल तो आज भी उसी तरह धड़कते हैं और महबूब का इंतजार भी वैसा ही है. मैं अपनी मां और तीन भाई-बहनोंके साथ रहती थी, सामने वाले घर में पहली मंजिल के एक कमरे में वो सलोना-सा किराएदार लड़का आया. कहीं नौकरी करता होगा. अक्सर ही यहां-वहां दिख जाता. कुछ अजीब-सी कशिश थी उसमें, बस आंखें मिलती ही थीं कि मेरी नजरें झुक जातीं. वो हल्का-सा मुस्करा कर निकल जाता. उसकी मुस्कान भी बड़ी मनमोहक थी. दिल तो दिल है और फिर उम्र भी ऐसी. जिम्मेदारियों के बोझ तले दबी मैं इन इश्क-मुहब्बत की बातों से अपने आप को दूर ही रखती, लेकिन उसके सामने आते ही धड़कने इतनी तेज हो जाती कि सामने वाले को भी सुनाई दे जाएं. पिताजी दूसरे शहर में मुनीमगीरी करते थे, कभी-कभार ही आते. उन दिनों हालात और ट्रैफिक आज की तरह नहीं था. बच्चे गलियों में देररात तक खेला करते थे. एक दिन शाम का समय, अंधियारा-सा छा रहा था, बादल छाए हुए थे और ए दम से आंधी चलने लगी और मूसलाधार बारिश शुरू हो गई. मेरा छोटा दस वर्षीय भाई गली में खेल रहा था कि उसी समय किसी बच्चे की गेंद भाई की आंख पर जोरसे लगी और खून बहने लगा. भाई की चीख सुनकर सभी बाहर को भागे. डॉक्टर तक कैसे पहुंचें, हम सब के आंसू रुकने का नाम नहीं लेरहे थे. वो साईकलों का ज़माना था. वो लड़का फुर्ती से साईकल लाया और मैं भाई को लेकर पीछे कैरियर पर बैठ गई. इस जल्दबाज़ीमें मैं अपना दुपट्टा तक लेना भूल गई थी. मौसम की परवाह न करते हुए तेज़ी से साईकल चलाकर डॉक्टर तक पहुंच गए. शुक्र प्रभु काकि आखं बच गई. उसके बाद तो हम जैसे उसके कर्ज़दार ही हो गए. वो अक्सर हमारे घर आता, उसकी आंखों में मुहब्बत का पैगाम मैनें पढ़ लिया था, मगरहमारी और उसकी दुनिया में बहुत फासला था. उसके पहले खत के जवाब में ही मैंने लिख दिया- “मैं न साथ चल सकूंगी तेरे साथ दूरतलक, मुझे फ़कत अपनी ज़िंदगी में ‘किरदार’ ही रहने दे…” उसने भी मेरी मजबूरी समझी और बेहद सम्मान के साथ अपने प्यार की लाज रखने के लिए मुझसे दूरी बना ली. आज ज़िंदगी बढ़िया चल रही, मगर भाई की आंख के पास का निशान मुझे आज भी उस पहले अफेयर की याद दिलाता है. विमला गुगलानी
पहली बार जब मिले थे तब राजी बीस बरस की जवान लड़की और बिंदा दुबला-पतला शर्मिला-सा किशोर. पंद्रह बरस की उम्र में भीवह बारह-तरह बरस का लगता. बिंदा राजी की मां की मुंहबोली बहन का बेटा था. दोनों एक ही शहर की रहने वाली थी. अक्सर अपनीमां के साथ बिंदा राजी के घर आता रहता था. दोनों की मांएं अपने शहर की गलियों की पुरानी बातों में खो जाती और बिंदा अपनी मांकी बातों की उंगली थाम कर थोड़ी देर तक तो अपरिचित गलियों में घूमता-फिरता रहता फिर उकता जाता. तब राजी उसके मन कीस्थिति समझ कर उसे पढ़ने को कहानियों की कोई किताब या कॉमिक्स देती और अपने पास बिठा लेती थी. बिंदा गर्दन झुकाए चुपचापकिताब में सिर घुसा कर बैठा रहता. उसे राजी के पास बैठना न जाने क्यों बहुत अच्छा लगता, क्यों लगता यह तक वह समझ नहीं पाताथा, लेकिन बस इतना ही उसे समझ आता कि राजी के आसपास रहना उसे अच्छा लगता है. एक खुशबू सी मन को मोहती रहती. वहबहुत कम बात करता. बस यदा-कदा गर्दन उठाकर पलभर कमरे में नजर फिराता हुआ राजी को भी देख लेता और फिर सिर नीचा करकेकिताब में खो जाता. फिर साल भर बाद बिंदा के पिता का तबादला दूसरे शहर हो गया और वह लखनऊ चला गया. जाने के पहले उसकी मां बिंदा को लेकरराजी की मां से मिलने आई. राजी की मां ने सामान लाने के लिए उसे पास की दुकानों तक भेजा. राजी अपनी काइनेटिक उठाकर बाजारजाने लगी तो बिंदा से बोली, "चल बिंदे तुझे भी घुमा लाऊं." और बिंदा कुछ सकुचाता हुआ उसके पीछे बैठ गया. गाड़ी जब चली तो राजी का दुपट्टा उड़ता हुआ बिंदा के कंधे और चेहरे को छूते हुएउसके मासूम मन को भी सहला गया. राजी की यही छवि बिंदा के मन पर छप गई तस्वीर बनकर. सालों बीत गए पर बिंदे के मन पर छपीऔरत की यह तस्वीर धुंधली नहीं हो पाई बल्कि उसके रंग और गहरे ही होते गए. उस रोज बिंदा राजी के साथ बाजार से घर लौटा तोउसके हाथ राजी की दी हुई चॉकलेट, बिस्किट, टॉफीओं की सौगात से भरे हुए थे और उसका दिल राजी के दुपट्टे की छुअन की सौगातसे. फिर तेरह साल बाद जब बिंदा राजी से मिला तब वह अट्ठाइस बरस का लंबा-चौड़ा, गोरा-चिट्टा जवान था जो फौज में भर्ती हो चुका थाऔर तैतीस बरस की राजी दो बच्चों की मां थी. राजी अपनी मां के ही घर थी जब बिंदा भरी दोपहरी में उसके दरवाजे पर आ खड़ा हुआ. "हाय रब्बा बिंदा तू...?" राजी बित्ता भर के बिंदे की जगह छह फुट ऊंचे फौजी मेजर बलविंदर को देखकर देखती रह गई. "क्या कद निकाला है रे तूने, वारी जाऊं. पता नहीं होता कि तू आने वाला है तो मैं तो कभी पहचान ही नहीं पाती तुझे." बिंदा मुस्कुरा दिया. उसकी आंखों मे राजी का तेरह बरस पुराना दुपट्टा लहरा गया. बिंदे ने देखा बरामदे में राजी की वही पुरानीकाइनेटिक अब भी खड़ी थी. थोड़ी देर सबसे बातें करने के बाद बिंदा अचानक उठ खड़ा हुआ. "चलो मुझे काइनेटिक पर घुमा लाओ." "चल हट बिंदे मजाक करता है? भला अब तू क्या बच्चा रह गया है? गाड़ी उठा और खुद ही घूम आ. रास्ते तो तेरे पहचाने हुए हैं ही." राजी को हंसी आ गई "फौज में तो तू बड़ी-बड़ी गाड़ियां चलाता होगा. भला अब मैं क्या तुझे अपने पीछे बिठाऊंगी." "पर मुझे तो तुम्हारे ही पीछे बैठना है. चलो न." बलविंदर ने बहुत जिद की तो राजी गाड़ी निकाल लायी. अब उसे चार पहियों वाली गाड़ी में आगे की सीट पर बैठने की आदत हो गईथी. वह डर रही थी कि पता नहीं चला भी पाएगी की नहीं काइनेटिक, लेकिन हिम्मत करके चला ही ली. बिंदा एक बार फिर उसके पीछेबैठा था. एक अनजानी खुशबू से महकता हुआ. आज बिंदे के गालों को फिर से राजी का नारंगी दुपट्टा सहला रहा था. वही दुपट्टा जोफौज की कठिन ट्रेनिंग के बीच जब तब उसे पिछले सालों में नरमाइ से सहलाता रहा है. जो रातों को खुशबू बन ख्वाबों में महकता रहा हैऔर जिसकी खुशबू के बारे में उसके सिवा कोई नहीं जानता, खुद राजी भी नहीं. वह चाहता भी नहीं कि कोई जाने. वह तो बस इसखुशबू में अकेले ही भीगना चाहता है और कुछ नहीं. बिंदे के मुंह पर आज वही किशोरों वाली झिझकी सी मासूम खुशी है और राजी के चेहरे पर वही बीस बरस की उम्र वाली लुनाई औरचमक थी. एक आजाद खुशी. जाने बिंदे ने राजी को उसका अल्हड़ और आजाद कुंवारापन एक बार फिर कुछ पलों के लिए लौटा दियाथा या राजी ने आज बिंदे के दोनों हाथ उसके मासूम किशोरपन की प्यार भरी सौगात से भर दिए थे… नहीं जानता था मेजर बलविंदर. जानना चाहता भी नहीं था. वह तो बस कुछ पलों के लिए राजी के आसपास रहना चाहता था. उसके दुपट्टे की छुवन को महसूस करनाचाहता था जो उसके दिल को छू जाती थी. न जाने क्यों. यह पहले प्यार का अहसास था या कुछ और, नहीं जानता था बलविंदर. जानना चाहता भी नहीं था.…
मीति और मधुर बचपन से एक ही स्कूल में पढते थे, लेकिन मधुर के पिता का अचानक निधन हो गया और उसे मीति का स्कूल छोड़ सरकारी स्कूल में दाख़िला लेना पड़ा. लेकिन आते-जाते अक्सर दोनों के रास्ते मिल ही जाते थे और उनकी नज़रें मिल जातीं, तो दोनों केचेहरे पर अनायास मुस्कुराहट आ जाती. स्कूल ख़त्म हुआ तो दोनों ने कॉलेज में एडमिशन ले लिया था. दोनों उम्र की उस दहलीज़ पर खड़े थे जहां आंखों में हसीन सपने पलने लगते हैं. मधुर भी एक बेहद आकर्षक व्यक्तित्व में ढल चुका थाऔर उसके व्यक्तित्व के आकर्षण में मीति खोती जा रही थी. कई बार मधुर ने उसे आगाह भी किया था कि मीति तुम एक रईस पिता की बेटी हो, मैं तो बिल्कुल साधारण परिवार से हूं, जहां मुश्किल से गुज़र-बसर होती है, लेकिन मीति तो मधुर के प्यार में डूब चुकी थी. वहकब मधुर के ख्यालों में भी बस गई थी वह यह जान ही नहीं पाया. मीति कभी नोट्स, तो कभी असाइनमेंट के बहाने उसके पास आ जाती, फिर कभी कॉफी, तो कभी आइसक्रीम, ये सब तो उसका मधुरके साथ नज़दीकियां बढ़ाने का बहाना था. अब मीति और मधुर क़ा इश्क कॉलेज में भी किसी से छिपा नहीं रह गया था. करोड़पति परिवार की इकलौती लाडली मीति कोपूरा विश्वास था कि मध्यवर्गीय परिवार के मधुर के कैंपस सेलेक्शन के बाद वह पापा को अपने प्यार से मिलवायेगी. मल्टीनेशनल कंपनी के ऊंचे पैकेज का मेल मिलते ही मधुर ने मीति को अपनी आगोश में ले लिया ऒर वह भावुक हो उठा, ”मीति, तुम तो मेरे जीवन मेंकी चांदनी हो, जो शीतलता भी देती है और चारों ओर रोशनी की जगमगाहट भी फैला देती है. जब हंसती हो तो मेरे दिल में न जानेकितनी कलियां खिल उठती हैं. बस अब मेरी जिंदगी में आकर मेरे सपनों में रंग भर दो.” मीति मधुर के प्यार भरे शब्दों में खो गई और लजाते हुए उसने अपनी पलकें झुका लीं और मधुर ने झट से उसकी पलकों को चूम लिया था. इस मीठी-सी छुअन से उसका पोर-पोर खिल उठा. वह छुई मुई सी अपने में सिमट गई. लेकिन इसी बीच मीति के पापा ने उसकी ख्वाहिश को एक पल में नकार दिया और मधुर को इससे दूर रहने का फरमान सुना दिया. मधुर उदास पराजित-सा होकर दूर चला गया. दोनों के सतरंगी सपनों का रंग बदरंग कर दिया गया था. मधुर ने अपना फ़ोन नंबर भी बदल दिया था और अपनी परिस्थिति को समझतेहुए मीति से सारे संबंध तोड़ लिये थे. मीति के करोड़पति पापा ने धूमधाम और बाजे-गाजे के साथ उसे मिसेज़ मेहुल पोद्दार बना दिया. उसका अप्रतिम सौंदर्य पति मेहुल केलिए गर्व का विषय था. समय के साथ वह जुड़वां बच्चों की स्मार्ट मां बन गई थी. पोद्दार परिवार की बहू बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमतीऔर अपने चेहरे पर खिलखिलाहट व मुस्कान का मुखौटा लगाए हुए अपने होने के एहसास और वजूद को हर क्षण तलाशती-सी रहती. उसे किसी भी रिश्ते में उस मीठी-सी छुअन का एहसास न हो पाता और वह तड़प उठती. सब कुछ होने के बाद भी वह खोई-खोई-सी रहती. इतना सब कुछ पाने के बाद भी वह मधुर की उस मीठी-सी छुअन के विचार से ही वह रोमांचित हो उठती थी... पूरे आठ वर्ष बीत गए थे. वह अपने परिवार और बच्चों के साथ संतुष्ट थी, परंतु आज भी सतरंगी सपनों की उड़ान और गुनगुनाती बयार, मधुर की प्यार भरी मीठी छुअन की चाह, उसके मन को आंदोलित करके भटका ही देती. वह सोचती... वह मधुर से माफी भी तो नहीं मांगपाई... आज भी वह उससे नाराज़ ही होगा. एक शाम वह अकेली ही मॉल के कॉफी शॉप में बैठ कर कॉफी का इंतज़ार कर रही थी. वह फोन पर अपनी नज़रें गड़ाए हुए थी, तभी मानो उसके कानों में सुरीला संगीत बज उठा था. मधुर के वजूद में बसी ख़ुशबू उसके चारों ओर फैल गईं थी. उसकी मीठी-सी छुअनकी भावनाएं पायल की मीठी-मीठी रुनझुन की सी संगीत लहरी उसके कानों में गूंज उठी थीं. दोनों की नज़रें मिलीं और उसके दिल कीधड़कनें तेज़ हो गईं. “कैसी हो मीति?” “अच्छी हूं और तुम ?”…
आज फिर उसे देखा… अपने हमसफ़र के साथ, उसकी बाहों में बाहें डाले झूम रही थी… बड़ी हसीन लग रही थी और उतनीही मासूम नज़र आ रही थी… वो खुश थी… कम से कम देखने वालों को तो यही लग रहा था… सब उनको आदर्श कपल, मेड फ़ॉर ईच अदर… वग़ैरह वग़ैरह कहकर बुलाते थे… अक्सर उससे यूं ही दोस्तों की पार्टीज़ में मुलाक़ात हो जाया करतीथी… आज भी कुछ ऐसा ही हुआ. मैं और हिना कॉलेज में एक साथ ही थे. उसे जब पहली बार देखा था तो बस देखता ही रह गया था… नाज़ों से पली काफ़ीपैसे वाली थी वो और मैं एक मिडल क्लास लड़का. ‘’हाय रौनक़, मैं हिना. कुछ रोज़ पहले ही कॉलेज जॉइन किया है, तुम्हारे बारे में काफ़ी सुना है सबसे. तुम कॉलेज में काफ़ीपॉप्युलर हो, पढ़ने में तेज़, बाक़ी एक्टिविटीज़ में भी बहुत आगे हो… मुझे तुम्हारी हेल्प चाहिए थी…’’ “हां, बोलिए ना.” “मेरा गणित बहुत कमजोर है, मैंने सुना है तुम काफ़ी स्टूडेंट्स की हेल्प करते हो, मुझे भी पढ़ा दिया करो… प्लीज़!” “हां, ज़रूर क्यों नहीं…” बस फिर क्या था, हिना से रोज़ बातें-मुलाक़ातें होतीं, उसकी मीठी सी हंसी की खनक, उसके सुर्ख़गाल, उसके गुलाबों से होंठ और उसके रेशम से बाल… कितनी फ़ुर्सत से गढ़ा था ऊपरवाले ने उसे… लेकिन मैं अपनी सीमाजानता था… सो मन की बात मन में ही रखना मुनासिब समझा. “रौनक़, मुझे कुछ कहना है तुमसे.” एक दिन अचानक उसने कहा, तो मुझे लगा कहीं मेरी फ़ीलिंग्स की भनक तो नहीं लगगई इसे, कहीं दोस्ती तो नहीं तोड़ देगी मुझसे… मन में यही सवाल उमड़-घुमड़ रहे थे कि अचानक उसने कहा, “मुझे अपनाहमसफ़र मिल गया है… और वो तुम हो रौनक़, मैं तुमसे प्यार करती हूं!” मेरी हैरानी की सीमा नहीं थी, लेकिन मैंने हिना को अपनी स्थिति से परिचित कराया कि मैं एक साधारण परिवार कालड़का हूं, उसका और मेरा कोई मेल नहीं, पर वो अपनी बात पर अटल थी. बस फिर क्या था, पहले प्यार की रंगीन दुनिया में हम दोनों पूरी तरह डूब चुके थे. कॉलेज ख़त्म हुआ, मैंने अपने पापा केस्मॉल स्केल बिज़नेस से जुड़ने का निश्चय किया जबकि हिना चाहती थी कि मैं बिज़नेस की पढ़ाई के लिए उसके साथविदेश जाऊं, जो मुझे मंज़ूर नहीं था. “रौनक़ तुम पैसों की फ़िक्र मत करो, मेरे पापा हम दिनों की पढ़ाई का खर्च उठाएंगे.” “नहीं हिना, मैं अपने पापा का सहारा बनकर इसी बिज़नेस को ऊंचाई तक के जाना चाहता हूं, तुम्हें यक़ीन है ना मुझ पर? मैं यहीं रहकर तुम्हारा इंतज़ार करूंगा.” ख़ैर भारी मन से हिना को बाय कहा पर कहां पता था कि ये बाय गुडबाय बन जाएगा. हिना से संपर्क धीरे-धीरे कम होनेलगा था. वो फ़ोन भी कम उठाने लगी थी मेरा. मुझे लगा था कोर्स में व्यस्त होगी, लेकिन एक दिन वो लौटी तो देखा उसकीमांग में सिंदूर, गले में मंगलसूत्र था… मेरी आंखें भर आई… “रौनक़, मुझे ग़लत मत समझना, जय से मेरी मुलाक़ात अमेरिका में हुई, उसने मुझे काफ़ी सपोर्ट किया, ये सपोर्ट मुझेतुमसे मिलना चाहिए था पर तुम्हारी सोच अलग है. जय का स्टैंडर्ड भी मुझसे मैच करता है, बस मुझे लगा जय और मैं एकसाथ ज़्यादा बेहतर कपल बनेंगे… पर जब इंडिया आई और ये जाना कि तुम भी एक कामयाब बिज़नेसमैन बन चुके हो, तोथोड़ा अफ़सोस हुआ कि काश, मैंने जल्दबाज़ी न की होती…” वो बोलती जा रही थी और मैं हैरान होता चला जा रहा था… “रौनक़, वैसे अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है, हम मिलते रहेंगे, जय तो अक्सर टूर पर बाहर रहते हैं तो हम एक साथ अच्छाटाइम स्पेंड कर सकते हैं…” “बस करो हिना, वर्ना मेरा हाथ उठ जाएगा… इतनी भोली सूरत के पीछा इतनी घटिया सोच… अच्छा ही हुआ जो वक़्त नेहमें अलग कर दिया वर्ना मैं एक बेहद स्वार्थी और पैसों से लोगों को तोलनेवाली लड़की के चंगुल से नहीं बच पाता… तुममेरी हिना नहीं हो… तुम वो नहीं, जिससे मैंने प्यार किया था, तुमको तो मेरी सोच, मेरी मेहनत और आदर्शों से प्यार हुआकरता था, इतनी बदल गई तुम या फिर नकाब हट गया और तुम्हारी असली सूरत मेरे सामने आ गई, जो बेहद विद्रूप है! तुम मुझे डिज़र्व करती ही नहीं हो… मुझे तो धोखा दिया, जय की तो होकर रहो! और हां, इस ग़लतफ़हमी में मत रहना किमैं तुम जैसी लड़की के प्यार में दीवाना बनकर उम्र भर घुटता रहूंगा, शुक्र है ऊपरवाले ने मुझे तुमसे बचा लिया…” “अरे रौनक़, यार पार्टी तो एंजॉय कर, कहां खोया हुआ है…?” मेरे दोस्त मार्टिन ने टोका तो मैं यादों से वर्तमान में लौटा औरफिर डान्स फ़्लोर पर चला गया, तमाम पिछली यादों को हमेशा के लिए भुलाकर, एक नई सुनहरी सुबह की उम्मीद केसाथ! गीता शर्मा
ऑफिस से निकलते ही मेरी नज़र सामने बैठे एक प्रेमी जोड़े पर पड़ी, जो एक-दूसरे से चिपककर बैठे थें. उस…
रंगों और ख़ुशियों से सराबोर होली का दिन सबके लिए बेहद रंगीन होता है, लेकिन मेरे लिए ये रंग मेरे पुराने ज़ख्मों कोहरा करने के सिवा और कुछ नहीं… मुझे याद है जब अप्रतिम ने होली के रोज़ ही मुझे आकर गुलाबी रंग से रंग डाला था. मैं बस देखती ही रह गई थी, न उसे रोका, न टोका. अगले दिन कॉलेज में मुलाक़ात हुई तो अप्रतिम ने पूछा, “आरोही, तुमको बुरा तो नहीं लगा मेरा इस तरह अचानक आकरतुमको रंग लगाना?” “नहीं, ख़ुशी का दिन था, होली में तो वैसे भी गिले-शिकवे दूर हो जाते हैं…” मैंने जवाब दिया. अप्रतिम ने फिर मेरी आंखों में झांका और कहा, “अगर मैं ये कहूं कि इसी तरह मैं तुम्हें अपने प्यार के रंग में रंगना चाहता हूं, ताउम्र, तब?” मैं उसकी तरफ़ देखती रह गई, आख़िर कॉलेज की कई लड़कियां उसकी दीवानी थीं. बेहद आकर्षक और सुलझा हुआ थाअप्रतिम. “तुम्हारी चुप्पी को हां समझूं?” अप्रतिम ने टोका तो मैं भी मुस्कुराकर चली गई वहां से. पहले प्यार ने मुझे छू लिया था, मेरीज़िंदगी में इस होली ने वाक़ई मुहब्बत के रंग भर दिए थे. कॉलेज पूरा हुआ, अप्रतिम को अच्छी सरकारी नौकरी मिल गई थी और मैं भी अपना पैशन पूरा करने में जुट गई. कमर्शियल पायलेट बनने का बचपन से ही सपना था मेरा. इसी बीच अप्रतिम ने बताया उसकी बहन की शादी तय हो गई है और उसके बाद वो हमारी शादी की बात करेगा घर में. एक रोज़ मैंने अप्रतिम से कहा कि चलो आज दीदी के ऑफ़िस चलकर उनको सर्प्राइज़ देते हैं, तब अप्रतिम ने बताया किदीदी ने जॉब छोड दिया. वजह पूछने पर उसने बताया कि शादी के बाद वो घर सम्भालेंगी, क्योंकि उनके होनेवाले सास-ससुर व पति भी यही चाहते हैं. “लेकिन तुमने या दीदी ने उनको समझाया क्यों नहीं, दीदी इतनी टैलेंटेड हैं. हाइली क्वालिफ़ाइड हैं…” अप्रतिम ने मुझे बीच में ही चुप कराकर कहा कि ये उनका मैटर है और शादी के लिए तो लड़कियों को एडजेस्ट करना हीपड़ता है, इसमें ग़लत क्या है? आगे चलकर उनको ग्रहस्थी ही तो सम्भालनी है. मुझे बेहद अजीब लगा कि इतनी खुली व सुलझी हुई सोच का लड़का ऐसी बात कैसे कर सकता है? ख़ैर, मुझे भी जॉब मिल गया था और अब मैं आसमान से बातें करने लगी थी. तभी घर में मेरी भी शादी की बात चलने लगीऔर मम्मी-पापा ने अप्रतिम से कहा कि वो भी अपने घरवालों को बुलाकर हमसे मिलवा दे. “अप्रतिम, क्या बात है? तुम संडे को आ रहे हो न मॉम-डैड के साथ? इतने परेशान क्यों हो? उनको भी तो हमारे बारे में सबपता है, फिर तुम उलझे हुए से क्यों लग रहे हो?” मैंने सवाल किया तो अप्रतिम ने कहा कि उसकी उलझन की वजह मेराजॉब और करियर है. वो बोला, “आरोही, मैं समझता हूं कि ये तुम्हारे लिए सिर्फ़ एक जॉब नहीं, बल्कि तुम्हारा सपना है, लेकिन मेरे पेरेंट्स इसे नहीं समझेंगे. उनका कहना है कि इतना टफ़ काम तुम क्यों करती हो? लकड़ी होकर इसमें करियरबनाने की बजाय तुम कोई दफ़्तर की पार्ट टाइम नौकरी कर लो, ताकि मेरा भी ख़याल रख सको और घर भी सम्भालसको…” मैंने उसे बीच में टोका, “तुम्हारा ख़याल? तुम कोई बच्चे नहीं हो और न मैं तुम्हारी आया. हम पार्टनर्स हैं, तुमने अपने पेरेंट्सको समझाया नहीं?” “आरोही मैं क्या समझाता, वो भी तो ग़लत नहीं हैं. मैं अच्छा-ख़ासा कमाता हूं. पैसों को वैसे भी कमी नहीं…”…
कॉलेज का वो दौर, वो दिन आज भी याद आते हैं मुझे. 18-19 की उम्र में भला क्या समझ होती है. मैं अपने बिंदास अंदाज़में मस्त रहती थी. कॉलेज में हम चार दोस्तों का ग्रुप था. उसमें मैं अकेली लड़की थी, लेकिन मुझे लड़कों के साथ रहने परभी कभी कुछ अटपटा नहीं लगा. उनमें से सिद्धार्थ तो सीरियस टाइप का था,पर दूसरा था सुबीर, जो कुछ ज़्यादा ही रोमांटिक था. उसे मेरे बाल और कपड़ों की बड़ी चिंता रहती. लेकिन अजीब से रोमांटिक अंदाज़ में उसके बात करने से मुझेबड़ी चिढ़ होती थी. लेकिन इन सबसे अलग था हमारे ग्रुप का वो तीसरा लड़का, नाम नहीं लिखना चाहती, पर हां, सुविधा के लिए अवनि कहसकते हैं. करीब चार साल तक हमारा साथ रहा, लेकिन पढ़ाई और घर के सदस्यों के हाल चाल जानने तक तक ही हमारी बातचीतसीमित थी. आगे भी एक साल ट्रेनिंग के दौरान भी हम साथ थे, लेकिन हमारे डिपार्टमेंट अलग थे और काफ़ी दूर-दूर थे. वो दौर ऐसा था कि लड़के-लड़कियों का आपस में बात करना समाज की नज़रों में बुरा माना जाता था, लेकिन अवनिआधे घंटे के लंच टाइम में भी पांच मिनट निकाल कर मुझसे मिलने ज़रूर आता था, बस थोड़ी इधर-उधर की बातें करके चला जाता. फिर वो समय भी आ गया जब साल भर की ट्रेनिंग भी ख़त्म होने को आई और अवनि को उसके भाई ने नौकरी के लिएअरब कंट्री में बुला लिया था. उसकी कमी खल तो रही थी लेकिन हमारे बीच सिर्फ़ एक दोस्ती का ही तो रिश्ता था. वो जबभी अपने पैरेंट्स से मिलने इंडिया आता तो मुझसे भी ज़रूर मिलकर जाता. मेरे घर में सभी लोग उससे बड़े प्यार से मिलते थे, वो था ही इतना प्यारा. निश्छल आंखें और बिना किसी स्वार्थ के दोस्तीनिभाना- ये खूबी थी उसकी. मैं अक्सर सोचती कि हम दोनों के बीच कुछ तो ख़ास और अलग है, एक लगाव सा तो ज़रूरहै, वही लगाव उसे भारत आते ही मुझ तक खींच लाता था. वो जब भी आता मेरी लिए बहुत सारे गिफ़्ट्स भी लाता. उसे पता था कि मेकअप का शौक़ तो मुझे था नहीं, इसलिए वो मेरे लिए परफ़्यूम्स, चॉक्लेट्स और भी न जाने क्या-क्या लाता. इसी बीच उसकी शादी भी तय हो गई और जल्द ही उसने सात फेरे ले लिए. मैं खुश थी उसके लिए, लेकिन उसकी शादी में मैं नहीं जा पाई. हां, अगले दिन ज़रूर गिफ्ट लेकर अवनि और उसकी पत्नीसे मिली. इसके बाद उससे अगली मुलाकात तब हुई, जब वो अपने एक साल के बेटे को लेकर मुझसे मिलने आया. कुछ समय बाद मेरी भी शादी हो गई. वो भी मेरी शादी में नहीं आ पाया. फिर मैं भी घर-परिवार में इतनी खो गई कि कुछसोचने का वक़्त ही नहीं मिला. लेकिन दिल के किसी कोने में, यादों की धुंधली परतों में उसका एहसास कहीं न कहीं था. मुझे याद आया कि आख़री बार जब उससे मिली थी तो जाते समय उसने एक फिल्मी ग़ज़ल सुनाई, जिसका कुछ-कुछअर्थ था कि मैं अपना वादा पूरा नहीं कर पाया, इसलिए मुझे फिर जन्म लेना होगा… उसे सुनकर मैं भी अनसुलझे से सवालों में घिरी रही. अब घर-गृहस्थी में कुछ राहत पाने के बाद यूं ही अवनि का ख़यालआया और मन में हूक सी उठी. मैंने एक दिन सोशल मीडिया पर अवनि को ढूंढ़ने की कोशिश की और मैं कामयाब भी होगई. हमारे बीच थोड़ी-बहुत बात हुई और जब मैंने उससे पूछा कि इतने वक़्त से कहां ग़ायब थे, न कोई संपर्क, न हाल-चाल पूछा, मेरी इस बात पर उसने कहा, "तुम्हारी याद तो बहुत आई, पर मैंने सोचा तुम अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो, तोबेवजह डिस्टर्ब क्यों करना.” मैं हैरान रह गई उसकी यह बात सुनकर कि अवनि इतनी भावुक बात भी कर सकता है? फिर काफ़ी दिन तक हमारी बातनहीं हुई. एक दिन मैं अपने लैपटॉप पर कुछ देख रही थी कि अचानक अवनि का मैसेंजर पर वीडियो कॉल आया, क्योंकि अरब देशों…
कभी सोचा नही था यूं किसी से प्यार हो जाएगा… ये कहां जानती थी कि खुद का दिल खुद का…