प्रेम त्वरित आनंद देता है.. उसका रिसाव धमनियों का प्रवाह जीवंत बनाए रखता है. प्रेम, सृष्टि का सबसे महंगा सुख है… बेशक़ीमती भी.. शायद अमूल्य… जिसका अंकन दुनियां की कोई मुद्रा नहीं कर सकती. कुछ हाथ विवशता वश छूट जाते हैं, लेकिन उनका प्रेमिल स्पर्श सदैव साथ रहता है.
कुछ स्मृतियों के वसंत जीवन बगिया को सदैव महकाए रखते हैं. उनकी मंद बयार शुष्क ह्रदय को मानो सींच देती है. ऐसा ही एक सुखद एहसास मेरे जीवन से भी जुड़ा है, जो पतझड़ में भी मुझे वसंत का एहसास दे जाता है.
वसंत का आगमन हो चुका था. फ़रवरी का महीना था… फ़रवरी को प्रकृति के जूड़े में लगाया हुआ गुलाब भी कहते हैं, जो माह ए इश्क़ भी कहा जाता है. वसंत पंचमी आने वाली थी, बाज़ार पीले परिधान और वस्तुओं से सुसज्जित था. मैं नवयौवना अपने पति के साथ मंदिर जा रही थी. एक चूड़ियों का ठेला सामने दिखा, तो मेरा स्त्री सुलभ मन पीली चूड़ियां लेने को आतुर हुआ. चूंकि पति का ख़ासा नाम था शहर में, इसलिए लगा कि ठेले से चूड़ी ख़रीदना शोभा नहीं देगा. मैंने अपने पति से कहा- ‘मुझे तो इसकी पीली चूड़ी बहुत अच्छी लग रही हैं लेकिन यहां से लेना सही नहीं, किसी दुकान से ले लेंगे.’ अगले दिन कागज़ में लिपटी पीली कांच की चूड़ियां मुस्कान के साथ मुझे दी गईं… मेरा दिल गदगद हो गया… उन चूड़ियों ने मुझे प्यार की असीम खनक दी… एक एहसास जो मेरे दिल की अन्तरतम गहराइयों को छू गया.
ऐसा नहीं कि मेरे पति मेरे लिए पहली बार चूड़ी लाए, उन्होंने मुझे हीरे तक की चूड़ियां दिलवाई और बहुत बार वो चूड़ी भी लाए, लेकिन एक एहसास जो उन चूड़ियों में था…चूंकि वो स्वयं एक प्रोफ़ेसर, एक नामी कोचिंग क्लास के संचालक थे और शहर में अच्छा नाम था उनका, उसके बावजूद उन्होंने एक छोटे-से एहसास को जीवंत किया. उन्होंने मेरी भावनाओं को नया आयाम दिया.
आज जब भी कांच कि चूड़ियों का ठेला देखती हूं, उन चूड़ियों की खनक महसूस करती हूं… वो वसंती चूड़ियां मुझे हर वसंत पर याद आती हैं, साथ में उनमें लिपटा हुआ मधुर एहसास भी… सोचती हूं… फिर मिलेंगे… अगले जनम में…
कुछ स्मृतियां विस्मृत नहीं होतीं, लाख लगा दो पलकों पर पहरे, कुछ यादों के याद आने पर… आंख नम हुए बिना नहीं रहती…
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