गाड़ी के दो चक्के जो निरंतर घूमते रहते हैं, जिससे गाड़ी की रफ़्तार बनी रहती है, पर एक समय आता है, जब गाड़ी थक जाती है और चक्के घूमना बंद कर देते हैं. अचानक सब कुछ थम-सा जाता है. ना कहीं जाने की जल्दी और ना ही कहीं से घर लौटने की ख़ुशी. ऐसा ही कुछ होता है, जब आप रिटायर्ड या सेवानिवृत होती हैं. जी हां, यहां हम बात कर रहे हैं, उन स्त्रियों की, जो एक लंबी अवधि की नौकरी के बाद रिटायर हो जाती हैं.
क्या है रिटायरमेंट ब्लूज़?
जब आप काम करती हैं, तो अक्सर ही यह कहती हैं कि मैं तो इस काम से तंग आ गई हूं, पता नहीं कब इससे छुट्टी मिलेगी, पर क्या अब आपको ऐसा लगता है कि आपको यही छुट्टी चाहिए थी? कहीं रिटायरमेंट ने आपको अकेला तो नहीं कर दिया है? ऐसे कई सवाल आपके ज़ेहन में भी आते होंगे. तो आइए जानें, आपके रिटायरमेंट ब्लूज़ को. जब आप रिटायर होती हैं, तो अचानक आपको लगता है कि-
अगर आप भी ऐसा ही महसूस कर रही हैं, तो चिंता की कोई बात नहीं है. हर रिटायर होती स्त्री ऐसी ही कशमकश में होती है. इसे ट्रांज़िशन पीरियड कहा जाता है, मतलब आप इस समय अपने जीवन के बहुत बड़े बदलाव के दौर से गुज़र रही होती हैं. ऐसा नहीं है कि स़िर्फ स्त्रियां ही इससे गुज़रती हैं, पुरुष भी इस कठिन समय का सामना करते हैं, पर यह समय स्त्रियों के लिए अधिक संवेदनशील इसलिए हो जाता है, क्योंकि उम्र का यह वही पड़ाव है, जिसमें वे मेनोपॉज़ से भी जूझ रही होती हैं. मानसिक और शारीरिक दोनों ही आक्षेपों में यह समय काफ़ी नाज़ुक और कठिन होता है.
मनोवैज्ञानिक डॉ. केहाली बताती हैं कि चाहे कोई स्त्री ऐच्छिक सेवानिवृत्ति ले या फिर अपनी सेवाएं पूरी करने के बाद रिटायर हो, ङ्गएंप्टीनेस सिंड्रोमम दोनों ही जगहों पर देखने को मिलता है. इसका मतलब है, अचानक अकेलेपन का एहसास होना. ऐसा लगता है, जैसे अब किसी को आपकी ज़रूरत नहीं है. मेनोपॉज़ के समय वैसे ही हार्मोंस काफ़ी डिस्टर्ब हो जाते हैं. इस अवस्था को डिप्रेशन तो नहीं कहा जा सकता, पर हां, यह डिप्रेशन के काफ़ी क़रीब है.
श्रीमती जोशी बताती हैं कि मेरे रिटायरमेंट को 5 साल पूरे होनेवाले हैं, फ़िलहाल तो सब ठीक है, पर जब मैं नई-नई रिटायर हुई थी, तब घर बहुत खाली-खाली लगता था. मैं घर के रूटीन को पूरी तरह से भूल गई थी. उम्र के 55वें वसंत में मैंने टीचिंग प्रोफेशन से रिटायरमेंट लिया था. सुबह तड़के उठ जाती थी, पर फिर याद आता था कि उठकर क्या करूं, अब कहीं जाना तो नहीं है. अपने उस रूटीन को तोड़कर नए रूटीन में ढलने के लिए मुझे पूरा एक साल लग गया. पर अब मैंने अपने खालीपन का इलाज ढूंढ़ लिया है, अब मैं घर पर ट्यूशन पढ़ाती हूं.
जिन शुरुआती दिनों की बात श्रीमती जोशी कर रही हैं, वह उनका ङ्गट्रांज़िशन पीरियडफ है. इस समय सबसे ज़रूरी है, समय के बहाव के साथ बहना. अपने साथ किसी तरह की ज़बर्दस्ती ना करें. ख़ुद को समय दें. धीरे-धीरे आप ख़ुद ही नई परिस्थिति में ढल जाएंगी.
श्रीमती लिमये की सरकारी नौकरी थी. वो कहती हैं कि रिटायरमेंट मुझे कभी भी मुश्किल नहीं लगा. मैं बहुत सकारात्मक सोचवाली महिला हूं. मुझे लगता है कि सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आपके सोचने का तरीक़ा कैसा है. मैंने पहले ही अपना रिटायरमेंट प्लान किया हुआ था, इसलिए मेरे लिए यह बदलाव कोई अचानक आया हुआ बदलाव नहीं था. मैंने पहले ही तय कर लिया था कि मुझे रिटायरमेंट के बाद अपने दिन कैसे बिताने हैं. मैंने जो भी अपनी नौकरी से सीखा, उसे रिटायरमेंट के बाद अपने निजी जीवन में उपयोग में लाया. मेरे दोनों ही बच्चों की शादियां हो चुकी हैं. मेरा दिन हमउम्र सहेलियों के साथ घूमने और भजन-कीर्तन में कटता है. मैं बहुत आध्यात्मिक हूं और अध्यात्म ही मुझे जीवन की हर कठनाई से लड़ने की शक्ति देता है.
रिटायरमेंट के लिए क्या है ज़रूरी?
कैसे लड़ें रिटायरमेंट ब्लूज़ से?
अगर इन सबके बावजूद आपकी मानसिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आ रहा है, तो एक बार किसी मनोवैज्ञानिक से मिलने में कोई बुराई नहीं है. आपका जीवन आपका अपना है. आपकी अहमियत, आपकी महत्ता किसी नौकरी से जुड़ी नहीं है, बल्कि आपकी सकारात्मक सोच से जुड़ी है, तो अपने पंखों को पूरा खोलिए, जो आज तक कई बंधनों से जकड़े थे और सकारात्मक सोच की हवा में अपने आसमान पर जी भरकर उड़ान भरिए.
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