Relationship & Romance

रिश्तों को लेकर कैल्कुलेटिव क्यों हो रहे हैं हम? (Why Are We Turning Practical With Relationships)

किसने कितना दिया… किससे कितना मिला… किसको क्या देना है… किससे क्या लेना है… आजकल इन्हीं तानोबानों में घिरकर हम हर रिश्ते को तोल रहे हैं. मतलब की दुनिया में मतलबी हो रहे रिश्ते हमें भी कैल्कुलेटिव बनाते जा रहे हैं, जिससे रिश्तों में छिपा अपनापन और प्रेम खो रहा है.

रिश्तों का हिसाब-क़िताब या रिश्तों में हिसाब-क़िताब?
हम जब उनके घर गए थे, तो उन्होंने हमें क्या दिया? बच्चे के हाथ में बस 100 का नोट थमा दिया. तो अब जब वो आ रहे हैं, तो इतना सोचने की क्या ज़रूरत. हम भी वैसा ही करेंगे, जैसा उन्होंने किया… हर रिश्ते को हम पैसों के पैमाने पर ही तोलते हैं. प्यार, स्नेह, अपनापन तो जैसे बीते ज़माने की बात हो गई.

ज़रूरी नहीं, ज़रूरत के रिश्ते
भला इनसे रिश्ता रखकर हमें क्या फ़ायदा होगा? न तो ये इतने पैसेवाले हैं और न ही इनकी इतनी पहुंच है कि हमारे कभी काम आ सकें… चाहे दोस्ती हो या रिश्तेदारी अब हम स़िर्फ ज़रूरत और फ़ायदा ही देखते हैं. उन्हीं लोगों से मिलने-जुलने का व़क्त निकालते हैं, जिनसे हमें फ़ायदा हो सकता है. ज़रूरत के व़क्त कौन कितना काम आ सकता है, जैसे- कौन रेलवे में रिज़र्वेशन करवा सकता है, कौन हॉस्पिटल का बिल कम करवा सकता है, कौन हम पर मुसीबत आने पर हमें उससे बाहर निकलवा सकता है… किसका कितना रसूख है, किसकी कितने बड़े अधिकारियों से पहचान व ऊपर तक पहुंच है… यही बातें अब अधिक महत्वपूर्ण हो गई हैं.

सोच-समझकर बनाते हैं दूरियां
एक समय था हमें घर पर ही यह सीख मिलती थी कि ये हमारे दूर के रिश्ते के मामाजी लगते हैं और इनसे भी हमें उसी शिद्दत से रिश्ता निभाना है, जैसे अपने मामाजी से. लेकिन अब हम सोचते हैं, जितना ज़्यादा संबंध रखेंगे, उतने झंझट बढ़ेंगे. हम अपने बच्चों की शादी में उन्हें बुलाएंगे, तो उनके बच्चों की शादी में भी जाना पड़ेगा… कौन इतना लेन-देन व समय निकाले. बेहतर है धीरे-धीरे दूरियां बना लें. यानी बहुत ही कैल्कुलेटिव तरी़के से हम दूरियां बनाते हैं, ताकि हमें भी उस रिश्ते से जुड़ी ज़िम्मेदारियां न निभानी पड़े.

ख़त्म हो रही है बेलौस मुहब्बत
बिना मतलब के, नि:स्वार्थ भाव से किसी से प्यार-मुहब्बत भरे रिश्ते रखना तो अब बेव़कूफ़ी ही समझी जाती है. यहां तक कि आपको समझाने वाले भी यही समझाएंगे कि ऐसे लोगों पर अपना क़ीमती व़क्त और पैसा क्यों ज़ाया करते हो, जो किसी काम के नहीं.

पैसा और कामयाबी सोच बदल रही है
हम अपने दोस्तों या रिश्तेदारों से अधिक कामयाब हो जाते हैं और उनसे अधिक कमाने लगते हैं, तो हमारे भीतर का अभिमान भी हावी होने लगता है. ऐसे में हम हर रिश्ते को शक की निगाह से देखते हैं. हमें लगता है कि हमारी कामयाबी व पैसों के कारण ही ये तमाम लोग हमसे जुड़े रहना चाहते हैं. इस नकारात्मक सोच को हवा देनेवालों की भी कमी नहीं, इसलिए हम धीरे-धीरे ख़ुद ही अपनों से दूरी बनाने लगते हैं.

प्राथमिकताएं बदल जाती हैं
समय के साथ हमारी प्राथमिकताएं बदल जाती हैं. हमारे गहरे दोस्तों से अधिक महत्वपूर्ण वो लोग हो जाते हैं, जिनसे हमें हमारे करियर या बिज़नेस में फ़ायदा हो. हमें ऐसे ही लोगों के साथ समय गुज़ारने में अधिक दिलचस्पी होती है.

क्यों हो रहे हैं हम इतने कैल्कुलेटिव?
– व़क्त व समय बदल रहा है. समय की कमी के चलते हमें भी लगता है कि जिनसे सीधा काम पड़े, उन्हें से बातचीत का क्रम जारी रहे.
– लोग प्रैक्टिकल बन रहे हैं और जब हमारा सामने ऐसे ही लोगों से होता है, तो हमारी सोच भी बदलने लगती है.
– कड़वे अनुभव भी यही सीख देते हैं कि जब समय पड़ने पर किसी ने हमारा साथ नहीं दिया, तो भला हम भी क्यों किसी से इतना अपनापन रखें.
– भले ही सामनेवाला मदद करने की स्थिति में हो या न हो, लेकिन हमारा पैमाना यही हो गया है कि हमें इनसे संबंध रखकर क्या फ़ायदा हो सकता है.
– बड़े शहरों में वर्क लाइफ के बाद स़िर्फ वीकेंड में अपने लिए समय मिलता है, उसमें हम अपने कलीग्स या सो कॉल्ड फ्रेंड्स के साथ वीकेंड एंजॉय करना पसंद करते हैं. यानी कल्चर ही ऐसा हो गया है कि न जाने-अनजाने हम कैल्कुलेटिव हो रहे हैं.
– रिश्ते निभाने का समय और एनर्जी दोनों ही नहीं. हमको लगता है कि जिनसे कोई काम ही नहीं पड़ेगा, तो उन पर अपना समय व एनर्जी ख़र्च करने से बेहतर है, ऐसे लोगों के साथ टच में रहें, जो हमारे काम आ सकें. समय की यह कमी हमारी सोच को संकीर्ण बना रही है.
– यहां तक कि हम अपने उस पुराने दोस्त से मिलने को भी इतने आतुर नहीं रहते अब, जो किसी ज़माने में हमारे लिए सब कुछ होते थे.

क्या करें, क्या न करें?
– ज़रूरत और रिश्तों को अलग-अलग रखें.
– रिश्तों में प्यार व अपनेपन को अधिक महत्व दें.
– भले ही सामनेवाला इस स्थिति में न हो कि आपके काम आ सके, लेकिन अगर वो आपसे सच्चे दिल से जुड़ा है, तो उसकी भावनाओं का सम्मान करें.
– भले ही मुसीबत के समय वो अन्य तरीक़ों से आपकी मदद न कर सके, लेकिन उसका भावनात्मक सहारा ही आपको बहुत संबल देगा.
– कई बार ऐसा होता है कि हमारे पास सब कुछ होते हुए भी हम अकेले होते हैं, ऐसे में यही रिश्ते आपका सहारा बनते हैं.
– मतलब के रिश्ते तो थोड़े समय के लिए ही होते हैं, दिल के रिश्ते ताउम्र साथ रहते हैं.
– अपने दोस्तों को, क़रीबी लोगों को समय दें.
– उनके प्रति भी वही सम्मान मन में बनाकर रखें, जो अन्य लोगों के लिए है.
– आप उन्हें व़क्त देंगे, तो वो भी व़क्त पड़ने पर आपके साथ खड़े नज़र आएंगे.
– हर रिश्ते को मात्र फ़ायदे-नुक़सान की नज़र से न देखें. रिश्तों में मतलब ढूंढ़ना कम कर दें.
– हर बात को आर्थिक स्तर पर तोलना बंद कर दें. हमने 2000 का गिफ्ट दिया, उन्होंने 1000 का, यही छोटी-छोटी बातें दिलों में दूरियां पैदा करती हैं. अपना दिल बड़ा और दिमाग़ खुला रखें.
– रिश्तों का अर्थ स़िर्फ लेन-देन ही नहीं होता. अपने रिश्तों को इससे कहीं बड़े दायरे में देखें वरना व्यापार व रिश्तों में अंतर नहीं कर पाएंगे.
– आप अपनी सोच बदल देंगे, तो आपको व़क्त भी मिलेगा और मन में संतोष भी होगा कि
कैल्कुलेटिव होते इन रिश्तों के बीच आपने अपने रिश्तों को सहेजने की कला सीख ली है.

– गीता शर्मा

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