जिस देश में किसी की जान और स्वास्थ्य की क़ीमत उसकी आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती हो, उसके विकास और विकास की दिशा का अंदाज़ा ख़ुद लगाया जा सकता है. पैसों के अभाव में इलाज और आवश्यक दवाएं तक लोगों को नसीब नहीं होतीं और ऐसे में कई मासूम ज़िंदगियां दम तोड़ देती हैं. हम सभी चाहते हैं कि यह स्थिति बदले, लेकिन हमारे देश में सरकार और प्रशासन हेल्थ केयर सेक्टर को सबसे निचले स्तर पर रखता है, जबकि अन्य देशों में यह प्राथमिकता की सूची में सबसे ऊपर है. यही वजह है कि यहां सस्ती दवाओं और इलाज के अभाव में बहुत-सी जानें जाती हैं.
ऐसे में सस्ता इलाज और जेनेरिक दवाएं यदि आसानी से सब जगह उपलब्ध हों, तो तस्वीर थोड़ी बेहतर हो सकती है.
क्या होती हैं जेनेरिक दवाएं?
– ये महंगी और ब्रांडेड दवाओं का सस्ता विकल्प हैं, जिनका इस्तेमाल, प्रभाव, असर और साइड इफेक्ट्स भी उन्हीं ब्रांडेड दवाओं जैसा ही होता है.
– इनका कंपोज़िशन भी वही होता है, लेकिन ये दवाएं इतनी सस्ती इसीलिए होती हैं, क्योंकि इनके उत्पादक नई दवाओं की मार्केटिंग और निर्माण पर बड़ी कंपनियों व बड़े ब्रॉन्ड्स की तरह पैसा ख़र्च नहीं करते.
– एक तथ्य यह भी है कि इन दवाओं का असर और गुणवत्ता उतनी ही बेहतर होती है, जितनी कि नामी-गिरामी कंपनी व ब्रांडेड दवाओं की होती है. अक्सर लोगों को लगता है कि महंगी दवाओं का प्रभाव उनकी जेनेरिक दवाओं के मुक़ाबले अधिक होता है और उनकी गुणवत्ता भी अच्छी होती है.
– लेकिन सच्चाई यही है कि जेनेरिक दवाओं पर भी एफडीए के वही कड़े क़ायदे व नियम लागू होते हैं, जो बाक़ी दवाओं पर होते हैं.
– कई बड़ी कंपनियां तो ब्रांडेड और जेनेरिक दोनों ही प्रकार की दवाओं का निर्माण करती हैं.
क्या है भारत की स्थिति?
भारत जेनेरिक दवाओं का बड़ा उत्पादक है. पिछले कई सालों से भारत लगभग हर चिकित्सकीय श्रेणी में जेनेरिक दवाओं के बड़े उत्पादक के रूप में उभरा है. हालांकि अन्य देशों के मुक़ाबले भारत में दवाएं काफ़ी सस्ती हैं, लेकिन भारत का एक बड़ा तबका है, जो ब्रांडेड दवाएं ख़रीदने में सक्षम नहीं है. ऐसे में जेनेरिक दवाओं की बढ़ती ज़रूरत को देखते हुए इसे बढ़ावा देने का प्रयास किया जा रहा है.
– हमारे देश में ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर (डीपीसीओ) के तहत एनपीपीए यानी नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथोरिटी द्वारा रिटेल मार्केट की शेड्यूल्ड दवाओं की क़ीमतें तय और नियंत्रित की जाती हैं. इसके अलावा एनपीपीए उन दवाओं की क़ीमतों पर भी नज़र रखता है, जो डीपीसीओ की लिस्ट में नहीं हैं, ताकि इन दवाओं की क़ीमत साल में 10% से अधिक न बढ़ने पाए.
– सरकार ने दवाओं की क़ीमतों को कम और नियंत्रित रखने के लिए वैट भी कम रखा है- मात्र 4%. लेकिन इन सबके बावजूद सच्चाई यही है कि देश में दवाएं ख़रीदने में असमर्थ होने की वजह से ग़रीबों की जान जा रही है.
– अमेरिकी जेनेरिक ड्रग्स में 40% भारतीय कंपनियों का शेयर है यानी भारत सबसे बड़ा सप्लायर है वहां. भारत से लगभग 45 हज़ार करोड़ रुपए की जेनेरिक दवाएं विदेशों में भेजते हैं, लेकिन अपने ही देश में सस्ती दवाओं के अभाव में ग़रीबों की जान जा रही है.
– डब्लूएचओ के अनुसार भारत में आज भी 65% आबादी आवश्यक दवाओं से वंचित रह जाती है, मात्र पैसों की तंगी के कारण दवा न ख़रीद पाने की वजह से ऐसा होता है. दवाओं की वास्तविक क़ीमतें बेहद कम होती हैं, लेकिन दवाओं को उनकी वास्तविक क़ीमत से 5 गुना से लेकर 20-50 गुना तक बढ़ाकर बेचा जाता है. इसकी मुख्य वजह है हमारा सिस्टम, जिसमें हर कोई कमीशन खाता है.
– कमीशन की चाह में डॉक्टर्स भी ब्रांडेड दवाएं ही लिखते हैं. उन पर बड़ी-बड़ी कंपनियां दबाव डालती हैं, अधिक कमीशन का लालच देती हैं और अपनी गुणवत्ता की दुहाई देकर उन्हें तैयार कर लेती हैं. दूसरी तरफ़ ड्रग कंपनीज़ पर कानूनी तौर पर कोई रोक नहीं है कि वो कमीशन क्यों ऑफर करती हैं डॉक्टर्स को.
– सरकारों को जेनेरिक दवाओं को अधिक से अधिक आम लोगों तक, ख़ासकर ग़रीब तबके तक पहुंचाने का प्रयास करना चाहिए, ताकि कम से कम आज़ादी के 65 वर्षों बाद इलाज व दवा न ख़रीद पाने के कारण मौत के मुंह से लोगों को बचाया जा सके.
– लो कॉस्ट इंश्योरेंस स्कीम्स शुरू की जानी चाहिए, जो देश के कुछ राज्यों में काफ़ी सफलता से चल रही हैं, लेकिन जानकारों का कहना है कि दरअसल हेल्थ केयर सेक्टर एक बिज़नेस बन चुका है और जब तक यह स्थिति नहीं बदलेगी, तस्वीर नहीं बदलेगी.
– हैरानी की बात यह है कि डॉक्टरी पेशा अब मिशन या सेवा न रहकर बिज़नेस बन गया है. देश में जहां अधिक से अधिक सरकारी मेडिकल कॉलेज खुलने चाहिए थे, वहीं प्राइवेट कॉलेजेस अधिक खुलते हैं, जो भारी डोनेशन पर ही एडमिशन देते हैं और अच्छी-ख़ासी फीस भी वसूलते हैं. ज़ाहिर-सी बात है पढ़ाई पूरी होने के बाद जो युवा डॉक्टर्स अपनी प्रैक्टिस शुरू करते हैं, उनके दिमाग़ में यही बात होती है कि हमने जो पैसा लगाया है, उसे जल्द से जल्द वापस कमाना है.
– कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि सिस्टम में ही ख़ामियां हैं, तो सुधार तब तक नहीं आएगा, जब तक सिस्टम नहीं सुधरेगा. पिछले कुछ वर्षों में मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया जब ख़ुद गड़बड़ियों के आरोपों में घिर चुकी है, तो परिवर्तन कैसे लाया जाए यह भी बड़ा सवाल है. बहरहाल, कोशिशें जारी हैं, बदलाव भी आएगा. सरकार के अलावा इस दिशा में बहुत-सी एनजीओ और समाजसेवा में दिलचस्पी रखनेवाले डॉक्टर्स भी अपने-अपने स्तर पर काफ़ी अच्छा व सराहनीय काम कर रहे हैं, जिससे मेडिकल सेक्टर में सकारात्मक बदलाव आए और लोगों को सस्ती दवाएं आसानी से उपलब्ध करा पाएं.
सरकारी प्रयास
– बीपीपीआई यानी ब्यूरो ऑफ फार्मा पीएसयूज़ (पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग्स) ऑफ इंडिया की स्थापना करके भारत सरकार ने जन औषधि स्टोर्स के ज़रिए जेनेरिक दवाओं को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने का प्रयास शुरू किया है.
– ब्यूरो का काम है कि जनऔषधि स्टोर्स की मार्केटिंग और कोऑर्डिनेशन के ज़रिए ज़्यादातर लोगों तक इसका लाभ पहुंचाया जाए.
– अपने प्लांट्स से दवाएं अस्पतालों, राज्यों तक व प्राइवेट सेक्टर में भी पहुंचाई जाएं. इससे संबंधित सभी ज़रूरी क़दम उठाना भी ब्यूरो का काम है.
– सभी जन औषधि स्टोर्स ठीक तरह से काम कर रहे हैं या नहीं, इसकी निगरानी रखना.
– बेहतर होगा कि अधिक जानकारी के लिए आप इस वेबसाइट पर जाएं- http://janaushadhi.gov.in
– यहां आपको तमाम राज्यों/शहरों में मौजूद जन औषधि स्टोर्स के नाम और पते मिल जाएंगे.
– इसके अलावा आपको यहां सभी जेनेरिक दवाओं के नाम और दाम की सूची भी मिल जाएगी.
– इस वेबसाइट पर नेशनल टोल फ्री हेल्पलाइन नंबर भी है, जिससे आप सहायता ले सकते हैं. ऐसे में यदि आप स्वयं या अपने आसपास किसी ग़रीब की भी सहायता करना चाहें, तो काफ़ी जानकारी इस वेबसाइट से जुटा सकते हैं.
– गीता शर्मा
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