“ऋत्विक, उठो बेटा स्कूल जाना है. 7 बज गए और तुम अभी तक सो रहे हो.” नेहा अपने बेटे ऋत्विक से कह रही थी.
“मम्मी, सोने दो ना. वैसे भी मैं आज स्कूल जाकर क्या करूंगा, मेरे स्कूल में वार्षिकोत्सव की तैयारी चल रही है और मैं किसी में हिस्सा नहीं ले सका. आप तो जानती ही हैं, उस वक़्त मैं बोर्डिंग स्कूल में एडमिशन पाने की तैयारी में जुटा था और आप ही तो मुझसे कहती थीं कि ऋत्विक, स़िर्फ पढ़ाई पर ध्यान दो, ये खेल, गाना, बजाना कुछ काम नहीं आएगा. तुम्हें तो देहरादून के बड़े स्कूल में पढ़ना है, वार्षिकोत्सव की तैयारी में सारा समय बर्बाद हो जाएगा. अब आप ही बताइए, यदि स्कूल में आज पढ़ाई नहीं होगी, केवल तैयारी होगी, तो मैं समय बर्बाद करने क्यों जाऊं?”
“ऋत्विक बेटा, अभी तो देहरादून के स्कूल के एडमिशन की परीक्षा समाप्त हो गई है, तुम घर बैठकर क्या करोगे? सारा दिन समय बर्बाद करने से अच्छा है कि स्कूल में ही तैयारियों को देखो और मज़े करो.”
“मम्मी, मैं हमेशा वही करूं ना जो आप मुझसे कहती हैं? अगर आप कहेंगी तो मैं वार्षिकोत्सव में भाग लूंगा, आप नहीं कहेंगी तो नहीं लूंगा. आप स्कूल जाने को कहेंगी तो जाऊंगा, नहीं कहेंगी तो नहीं जाऊंगा. क्या मेरी कोई मर्ज़ी नहीं? क्या मैं आपके हाथों की कठपुतली मात्र हूं? ठीक है, मैं स्कूल जा रहा हूं. आपको पता है मेरे स्कूल के सारे दोस्त मुझे कितना चिढ़ाते हैं? मुझे टीचर को भी जवाब देना पड़ता है कि मैं वार्षिकोत्सव में भाग क्यों नहीं ले रहा हूं.
मैं सबसे क्या कहूं कि मेरी मां को ये सब समय की बर्बादी लगती है? जब शाम को मेरे सारे दोस्त खेलते हैं, तब भी आप मुझे पढ़ाती ही रहती हैं. दूसरे बच्चों की तरह मेरा भी खेलने का मन करता है, लेकिन मेरे मन को समझने वाला यहां है कौन? मैं तो बस घड़ी की सुई की तरह भागता ही रहता हूं. आख़िर सबको पीछे छोड़ते हुए मुझे सबसे आगे जो निकलना है, है ना मां?” ऋत्विक अपना ग़ुस्सा ज़ाहिर करते हुए वहां से उठकर चला गया.
नेहा ने ऋत्विक का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था. हालांकि नेहा के पति आनंद उसे हमेशा कहते थे कि बच्चों को अपने हिसाब से भी जीने दो, लेकिन वो आनंद को भी चुप करा देती. नेहा चाहती थी कि उसका बेटा देहरादून के बड़े बोर्डिंग स्कूल में पढ़कर बड़ा आदमी बने. ऋत्विक आठवीं कक्षा में जाने वाला था और बोर्डिंग स्कूल का रिज़ल्ट भी कुछ ही दिनों में निकलने वाला था.
नेहा तो समझती थी कि वो कितनी ज़िम्मेदार मां है, हर वक़्त अपने बेटे का भविष्य बनाने में लगी रहती है, लेकिन जिस बेटे के बारे में वो इतना सोचती है, वो उसके बारे में क्या सोचता है, ये जानकर वो अचंभित रह गई. ख़ुद को एक समझदार और ज़िम्मेदार मां समझने का उसका भ्रम अब टूट चुका था. मन एक अजीब सी उधेड़बुन में लग गया था, जैसे अतीत में झांककर जानना चाहता हो कि आख़िर चूक हुई कहां?
नेहा को जब किसी उलझन का कोई हल नहीं सूझता, तो वो अकेले बाहर बालकनी में बैठ जाती है. आज भी उसने वही किया. बुझे मन से वो आसमान की तरफ़ देखने लगी.
तभी उसकी नज़र सामने एक पेड़ पर पड़ी. उस पेड़ पर कुछ पंछी उछल-कूद रहे थे. कभी वो इस डाली पर बैठते, तो कभी उस पर. उनकी हरक़तों से साफ़ ज़ाहिर हो रहा था कि वो बहुत ख़ुश हैं. नेहा सोचने लगी, क्या उसने कभी ऋत्विक को ऐसा स्वछंद, उन्मुक्त बचपन दिया है? बचपन की ऐसी तमाम नादानियां करने दी हैं, जो हर बच्चे का पहला अधिकार होता है? सोचते हुए नेहा की आंखें भर आईं.
उसे याद आया कि कैसे ऋत्विक बाकी सभी बच्चों की तरह बारिश में बाहर आंगन में भीगने की ज़िद्द करता, पर नेहा हमेशा यह दलील देकर उसे चुप करा देती कि भीगने से सर्दी लग जाएगी. लेकिन ना भीगने से क्या ऋत्विक को कभी सर्दी नहीं लगी?
फिर उसकी नज़र घर के नीचे पानी में बहती काग़ज़ की नाव पर पड़ी, जो हिलती-डुलती मजे से पानी में बहे जा रही थी और उसे देख बच्चे ख़ुश हो रहे थे. वैसे भी बेमौसम बरसात में बच्चे और भी झूम उठते थे.
एक बार फिर नेहा को कुछ पुरानी बातें याद आ गईं. ऋत्विक भी जब इतना बड़ा था, तो एक दिन स्कूल से आया और काग़ज़ की नाव बनाने लगा, मगर उससे वो बन नहीं पा रही थी. जब नेहा ने यह देखा तो उससे कहा, “बेटा, इस काग़ज़ की नाव के लिए तुम इतने परेशान हो रहे हो? इससे क्या होगा? तुम्हें तो बहुत बड़ा इंजीनियर बनना है. तुम तो बड़े-बड़े जहाज़ बनाओगे. इस काग़ज़ के जहाज़ से क्या करना? चलो, खाना खा लो.”
“नहीं मम्मी, मैं काग़ज़ की नाव ही बनाऊंगा, मैं बड़ा जहाज़ नहीं बनाऊंगा, मैं इसे बनाकर मिट्टू और बंटी के साथ शाम को पानी में बहाऊंगा. फिर हम लोग देखेंगे कि किसकी नाव आगे जाती है?”
“अरे! नाव की रेस जीतकर क्या करोगे? चलो, चुपचाप खाना खाओ और पढ़ने के लिए बैठो.” कहते हुए नेहा ने उसकी टेढ़ी-मेढ़ी नाव को फाड़कर फेंक दिया. नेहा की इस हरक़त पर ऋत्विक फूट-फूटकर रोने लगा, लेकिन उसका दिल नहीं पसीजा. वो उसे डायनिंग टेबल पर ले गई और चुपचाप खाना खाने को कहा. ऋत्विक रोता रहा और नेहा उसके मुंह में खाना ठूसती रही. नेहा को याद आया कि उसने कभी ऋत्विक को कहीं अकेले नहीं जाने दिया. जब उसके सभी दोस्त बर्थडे पार्टी में जाते और वो भी जाने की ज़िद्द करता, तो नेहा साफ़ मना कर देती. उसे लगता कि कोई बच्चा उसे गिरा न दे, उसे कहीं चोट न लग जाए. यही वजह थी कि वो उसे छुट्टी के दिन भी दोस्तों के घर नहीं जाने देती थी.
वो हमेशा उसके दोस्तों से कहती कि वो सभी उसके घर आ जाएं, लेकिन ऋत्विक उनके घर नहीं जाएगा. शुरू-शुरू में तो दोस्त उसके घर आते थे, लेकिन धीरे-धीरे सबने आना बंद कर दिया और ऋत्विक अकेला पड़ता चला गया. जब भी उसने इस बारे में नेहा से शिकायत की, तो उसका जवाब होता कि आख़िर ऋत्विक को दोस्तों की ज़रूरत ही क्या है? उसकी मां ही उसकी सबसे अच्छी दोस्त है. ऋत्विक तब घुट के रह जाता.
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नेहा को शायद तब उसकी घुटन का अंदाज़ा नहीं हुआ, लेकिन आज अपने जवान होते बेटे की बातों से उसे ये आभास हो रहा था कि सच में उसने अपने बेटे को इतना जकड़कर रखा कि उसका बचपन ही दबकर रह गया. वो बचपन जब व्यक्ति आसमान का स्वछंद पंछी होता है, वो बचपन जहां इंसान बेफिक्री से स़िर्फ वर्तमान में जीता है, वो बचपन जिसकी खट्टी-मीठी यादें उम्रभर ज़ेहन में ताज़ा रहती हैं और जीने का संबल बनती हैं. वो बचपन जो कभी लौटकर नहीं आता और जिसे दुबारा जीने की ख़्वाहिश हर दिल में रहती है… मन में ऐसे ही न जाने कितने विचार एक साथ उथल-पुथल मचा रहे थे. नेहा के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे.
तभी कुछ सोचते हुए नेहा उठी और मन ही मन बुदबुदाने लगी, “जो समय बीत गया उसे तो मैं वापस नहीं ला सकती, लेकिन अपने बेटे से माफ़ी तो मांग ही सकती हूं.”
वो अंदर आई, तो देखा ऋत्विक स्कूल जा चुका था. दूध का ग्लास वैसे ही रखा था. आज जाने से पहले ऋत्विक ने उसे बाय भी नहीं किया.
फिर कुछ सोचते हुए नेहा जल्दी-जल्दी तैयार हुई और नीचे जाकर उसने गाड़ी निकाली. रास्ते में एक गुलदस्ते वाले के पास उसने गाड़ी रोकी और उससे बढ़िया-सा गुलदस्ता बनाने को कहा.
वह गुलदस्ता लेकर ऋत्विक के स्कूल के पास खड़ी हो गई. संजोग से तभी ऋत्विक की बस आई. ऋत्विक बस से उतरा तो अपनी गाड़ी सामने देखकर वहां रुक गया. मां को सामने खड़ा देख उसने बेमन से पूछा, “मम्मी, आप यहां क्यों आई हैं?”
“तुम्हें कुछ देने और तुमसे कुछ कहने.”
“पर यहां? ऐसी क्या बात है?”
“ये तुम्हारे लिए है बेटा, मुझे माफ़ कर देना.” ऋत्विक ने गुलदस्ता लिया और उसमें वह नोट पढ़ा जिसमें लिखा था, ‘मुझे माफ़ कर देना ऋत्विक. बेटा, मैंने तुम्हें जन्म तो दिया, लेकिन अच्छा जीवन नहीं दिया. मैंने तुम्हें खुले आसमान में उड़ने का हौसला तो दिया, लेकिन अपनी मर्ज़ी से उड़ने की इजाज़त नहीं दी. तुम्हें उड़ने के लिए पंख तो दिए, लेकिन उड़ने से पहले ही उन्हें काट दिया. मैंने तुम्हें कभी आज़ाद चिड़िया की तरह स्वछंद महसूस नहीं करने दिया. मैं तुम्हारी गुनहगार हूं.
तुम्हारी स्वार्थी मां.’
मां के मन के भाव पढ़कर ऋत्विक रो पड़ा और नेहा से लिपटकर बोला, “नहीं मां, आप मुझसे माफ़ी मत मांगिए, बल्कि आज तो मैं आपका गुनहगार हूं. आज मैंने आपसे कितनी बदतमीज़ी से बात की, कितना कुछ कह गया मैं आपसे…”
ऋत्विक की बात को बीच में ही काटते हुए नेहा ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “नहीं बेटा, यदि तुम आज नहीं कहते तो बहुत देर हो जाती और शायद मैं अपने बेटे को खो देती. आज तुमने अपने दिल की बात कहकर मुझे अपनी ग़लतियों का एहसास कराया है. मुझे मेरे मातृत्व का बोध कराया है. सही मायने में आज मैं तुम्हारी मां बन पाई हूं, तुम्हारी भावनाओं को समझ पाई हूं. आज मुझे इस बात का एहसास हुआ है कि मेरी ख़्वाहिशों का बोझ उठाते-उठाते तुमने न जाने अपनी कितनी ख़्वाहिशों को मन में ही दबा दिया…” मां के अविरल बहते आंसुओं को पोंछते हुए ऋत्विक ने उनके होंठों पर उंगली रखते हुए उन्हें चुप हो जाने का इशारा किया. “चुप हो जाओ मम्मी, मेरे दोस्त देख रहे हैं.”
“अरे हां… मैं तो भूल ही गई थी कि तुम्हें स्कूल जाना है.”
मां के इस बदले रूप की ख़ुशी ऋत्विक के चेहरे पर भी साफ़ नज़र आ रही थी. उसने मां को कसकर गले लगाया और उसके माथे को चूमते हुए कहा, “आई लव यू मम्मी! स्कूल से लौटकर आपसे ढेर सारी बातें करूंगा, अभी चलता हूं.” उछलता हुआ ऋत्विक अपना गुलदस्ता अपने दोस्तों को दिखा रहा था. नेहा का नोट उसने जेब में डाल लिया. नेहा अपने बेटे की समझदारी पर फूले नहीं समा रही थी.
– पल्लवी राघव
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