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कहानी- अपना घर (Short Story- Apna Ghar2)

युवावस्था की दहलीज पर खड़ी है कच्ची उम्र की ये किशोरियां क्या सहमति का अर्थ समझती हैं? वे तो बस मौत के दस्तावेज़ पर अपने हस्ताक्षर कर देती हैं.
पापा हमेशा कहते, “रमा मेरी बेटी ही नहीं, बेटा भी है. इसका आगमन मेरे लिए शुभ रहा है.” और अब जब पापा की असली तस्वीर उसके सामने आई, तो उसका हृदय कांप गया था कि अभी तक पापा ने परिवार के लिए सुविधाएं जुटाई क्या वह सब इस पाप की कमाई से हैं?

“सुमित, मैं पंकज को लेकर १७ जनवरी की रात को शताब्दी एक्सप्रेस से रवाना हो रही हूं. दोपहर तक भोपाल पहुंच जाऊंगी.” फोन पर रमा की आवाज़ सुनकर सुमित समझ गया था कि रमा अपने आंसू रोक नहीं पा रही है.
“अगर अकेले आने में परेशानी हो, तो मैं तुम्हें लेने दिल्ली आऊं?” सुमित का स्वर भी भीगा हुआ था.
“घर छोड़कर मैं गई थी, वापस भी मैं ही आऊंगी.” बोलते-बोलते आख़िरकार रमा रो ही पड़ी.
फोन रखते ही सुमित ने नौकर से कहा, “भई परसों तुम्हारी मेमसाहब आनेवाली हैं. घर बहुत ज़्यादा ही अस्त-व्यस्त हो गया है. सारा सामान सहेजकर रख दो वर्ना तुम्हारे साथ-साथ मेरी भी शामत आ जाएगी.”
उत्साहपूर्वक नौकर को समझाते-समझाते सुमित मुस्कुरा दिया. पिछले पांच महीनों से वह निरुत्साहित होकर एकाकी जीवन व्यतीत कर रहा था.
पत्नी वापस आ रही है, इस ख़बर से सुमित ख़ुश तो था, पर उसे हैरत भी हो रही थी. जिस तरह रमा नाराज़ होकर मायके चली गई थी, सुमित को आशा ही नहीं थी कि वह स्वेच्छापूर्वक घर लौटेगी. उसके शब्द अभी भी सुमित के दिलो-दिमाग़ में गूंज रहे थे, “दिल्ली जैसे शहर में पापा का इतना बड़ा नर्सिंग होम है. पापा के बाद नर्सिंग होम हम दोनों को ही चलाना है. पापा के सपनों को साकार करना है. उनका बेटा नहीं है, तो क्या, तुम उनके बेटे की ज़िम्मेदारी नहीं निभा सकते? तुम तो बस अपनी सरकारी नौकरी से ही चिपके रहना चाहते हो?” रमा झुंझला गई थी.
“मैं तुम्हारे पापा को अपने पिता समान ही आदर देता हूं, उनकी सेवा के लिए हमेशा तैयार भी हूं. पर डिग्री लेते समय मैंने शपथ ली थी कि आम आदमी का इलाज करना ही मेरा मुख्य लक्ष्य होगा. बाबूजी मां की कैंसर की बीमारी का इलाज इसलिए नहीं करवा पाए, क्योंकि उनके सामने आर्थिक समस्याएं थीं. दफ़्तर में बाबू थे वे पैसों की कमी के कारण वे मां को बचा न सके. उन्होंने घोर यंत्रणा भोगी. वजीफों की बदौलत मैं पढ़ सका. मुझसे यह उम्मीद मत करो कि प्राइवेट नर्सिंग होम में इलाज के नाम पर जो लूट-खसोट होती है, उसमें मैं शामिल होऊं.” सुमित ने अपना निर्णय नहीं बदला था.
“अफ़सोस की बात है कि सुमित जैसा पढ़ा-लिखा डॉक्टर अभी तक प्रोफेशनल नहीं बन पाया. सेवा भावना… हुंह… आश्चर्य होता है कि एक मैच्योर आदमी खोखले आदशों में विश्वास रखता है.” सुमित के ससुर देवेन्द्र खन्ना दामाद के निर्णय से निराश हो गए थे.
दिल्ली के पॉश इलाके में जब उन्होंने खन्ना नर्सिंग होम की नींव डाली, तो सोच लिया था कि न केवल बिटिया को डॉक्टर बनाएंगे, बल्कि उसकी शादी भी किसी डॉक्टर से ही करेंगे. उनका कोई बेटा नहीं है, तो क्या हुआ, उनके बाद बेटी-दामाद नर्सिंग होम चलाएंगे. जब रमा ने एम.बी.बी.एस. के अंतिम वर्ष के दौरान अपने से सीनियर सुमित से शादी करने की इच्छा व्यक्त की, तो वे बहुत ख़ुश हुए थे. उन्हें लगा, उनका सपना साकार हो जाएगा. लेकिन सुमित ससुरजी की सोच पर खरे नहीं उतरे. उन्होंने अपने आदर्शों के साथ समझौता नहीं किया.

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लेकिन सुमित के आदर्श अक्सर रमा को झुंझला देते. और फिर एक दिन उसने अपना फ़ैसला सुनाया, “ यदि तुम पापा के साथ सहयोग नहीं करना चाहो तो मत करो, मैं ख़ुद पापा के साथ रहकर उन्हें सहयोग दूंगी.”
बेटे पंकज को लेकर रमा जो दिल्ली गई, तो फिर नहीं लौटी. सुमित ने कई ख़त भेजे, पर नाराज़ रमा ने किसी भी ख़त का जवाब नहीं दिया. इसलिए जब रमा ने फोन पर सुमित को अपनी घर वापसी का शुभ समाचार दिया, तो उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ.
सच तो यह है कि पिछले पांच महीनों में पापा के साथ, उनके नर्सिंग होम में काम करके जो कुछ उसने देखा, अनुभव किया, उससे उसका हृदय कांप गया था. वह सोचती, काश! मैंने ख़ुद डॉक्टर की डिग्री प्राप्त न की होती. अब वह कभी नहीं कह पाएगी कि उसके पापा अपने नर्सिंग होम में मरीज़ों का इलाज करते हैं. वे तो इलाज के नाम पर केवल धंधा करते हैं. भले ही सरकारी डॉक्टर के रूप में उसका पति बंधी बंधाई तनख़्वाह लाता है, पर वह इलाज के रूप में धंधा तो नहीं करता.
उसके पिता ने नर्सिंग होम के प्रथम तल पर महिला रोगियों के लिए चिकित्सा कक्ष बनाया था.
“ये हैं लेडी डॉक्टर नीलिमा शुक्ला, बेटी, इनके साथ रहकर काम करो. इनके साथ तुम्हें बहुत कुछ सीखने का मौक़ा मिलेगा.” लेकिन कुछ ही समय में वह समझ गई कि महिलाओं की ‘चिकित्सा’ के नाम से बोर्ड पर टंगी यह तख़्ती सिर्फ़ दिखावा मात्र है.
दरअसल, इसकी आड़ में भ्रूण परीक्षण का धंधा हो रहा है. उस दिन लेडी डॉक्टर ने एक महिला का पांच महीने का गर्भ गिरा (गर्भपात) दिया था, उसके पति नहीं चाहते थे कि लड़की का जन्म हो.
“दीदी, आपने उसका पांच महीने का गर्भ गिरा दिया. यदि उसे कुछ हो जाता तो? पांच महीने का गर्भ गिरवाने से उस महिला की जान भी जा सकती थी.” पूछते हुए उसके होंठ कंपकपा गए थे.
“गर्भपात महिला की सहमति से हुआ है, सहमति पत्र पर महिला के हस्ताक्षर हैं. हम सुरक्षित स्थिति में हैं.” लेडी डॉक्टर मुस्कुरा दी थी.
“दीदी, कोई औरत नासमझ हो सकती है, पर डॉक्टर को तो समझना चाहिए कि गर्भपात से उसकी ज़िंदगी को कोई ख़तरा तो नहीं?” रमा ने हैरत से पूछा.
“मैडम, हम प्रोफेशनल डॉक्टर हैं. आपके पापा भी, मैं भी और अब तुम्हें भी प्रोफेशनल बनना होगा.” लेडी डॉक्टर खिलखिला दी थी.
रमा को उनकी हंसी अजीब सी लगी थी. वह सोच रही थी कि क्या ‘प्रोफेशनल’ का मतलब हार्टलेस (हृदयहीन) हो जाना है. अब तो ये रोज़ की बात हो गई थी. रोज़ कई कुंआरी लड़कियों का गर्भपात होता और पापा को हज़ारों रुपए मिलते. उस पर तुर्रा ये कि गर्भपात लड़की की सहमति से होता है, लकिन रमा को ये दलील बड़ी अजीब लगती.

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युवावस्था की दहलीज पर खड़ी है कच्ची उम्र की ये किशोरियां क्या सहमति का अर्थ समझती हैं? वे तो बस मौत के दस्तावेज़ पर अपने हस्ताक्षर कर देती हैं.
पापा हमेशा कहते, “रमा मेरी बेटी ही नहीं, बेटा भी है. इसका आगमन मेरे लिए शुभ रहा है.” और अब जब पापा की असली तस्वीर उसके सामने आई, तो उसका हृदय कांप गया था कि अभी तक पापा ने परिवार के लिए सुविधाएं जुटाई क्या वह सब इस पाप की कमाई से हैं?
उस दिन एक औरत पापा के पास आई थी. अपने घायल पति को लेकर.
“इनका ऑपरेशन करना पड़ेगा. दस हज़ार रुपए लगेंगे. आप पांच हज़ार रुपए अभी जमा करवा दीजिए.” पापा ने कहा.
“आप मेरे पति को दाख़िल करके उनका ऑपरेशन कर दीजिए, मैं कल दफ़्तर से लोन लेकर पैसों की व्यवस्था कर दूंगी.” वह गिड़गिड़ाई थी.
“रुपए आपको अभी जमा करवाने होंगे.” पापा की आवाज़ में बेरुखी थी. और वह निराश औरत अपना मंगलसूत्र गिरवी रखकर पैसे लाई थी.
उसने पापा को हमेशा अपना माना, लेकिन जब पापा की पैसा पाने की ऐसी हवस देखी, तो उसके हृदय को चोट पहुंची.
“पापा जो कर रहे हैं वह ठीक नहीं है. यह सब ग़ैरक़ानूनी है, आप उन्हें समझाइए.” उसने मां से कहा था.
“बेटी, आज के इस युग में संत बनकर नहीं जिया जा सकता. पैसा और स्टेटस पाने के लिए यह सब करना ही पड़ता है. इस महानगर में नर्सिंग होम खोलना व चलाना आसान काम नहीं है. तुम्हारे पापा जो कर रहे हैं, ठीक कर रहे हैं.”
मां उसे बदली हुई नज़र आ रही थीं. वह हैरान थी कि क्या ये वही मां हैं, जिन्होंने उसे सादे जीवन और उच्च विचार की शिक्षा दी थी.
बचपन में उसने तोता पाल रखा था. एक दिन तोते को चोट लग गई थी और खून बहने लगा, तो मां रोने लगी थीं. जिस मां की आंखें पक्षी को घायल देखकर भर आती थीं, आज वह कितनी बदल गई हैं. उनके पति के नर्सिंग होम में कन्याओं के भ्रूण नष्ट होते हैं और वे इस पाप की कमाई को घर में आनेवाली लक्ष्मी का नाम देती हैं.
वह सोचने लगी, ‘सुख-सुविधाओं और पैसों की चाह इंसान को कितना बदल देती है. सुविधा भोगी जीवन जीने का आदी इंसान क्या कितना पाषाण हृदय हो जाता है? तभी तो मां हर महीने मंदिरों में भेंट चढ़ाती हैं, इस पाप की कमाई से.’
भरपूर पैसा घर में आ ज़रूर रहा है, पर इस पाप की कमाई में यदि बरकत होती, तो फिर मां डायबिटीज़ के कारण मीठा खाने के लिए क्यों तरसती? पापा को दो बार हार्ट अटैक क्यों आता?
उसका पति बंधी बंधाई तनख़्वाह लाता है, पर चैन की नींद तो सोता है. गरीबों का इलाज करके दुआएं लेता है, पापा की तरह बददुआएं तो नहीं लेता. अब उसका यहां मन नहीं लग रहा था. पति से रूठकर वह ख़ुद आई थी, तो अब पति को मनाएगी भी वही.

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पापा बहुत नाराज़ हुए थे, “दामादजी तो नर्सिंग होम चलाने में मेरी सहायता नहीं करना चाहते, और तुम भी मुझे छोड़कर जाना चाहती हो?” पर अब उसका मायके से मोह भंग हो गया था.
उसे समझ में आ गया कि उसके सीधे सच्चे, भावुक पति का घर ही उसका अपना है, अब वह जल्दी से जल्दी अपने घर पहुंचने को आतुर थी.

ललित कुमार शर्मा

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