कहानी- आत्मतुष्टि (Short Story- Atmtushti)

“सर, खाना चाहे जहां मिले, बस मां के हाथों का हो. वो मां चाहे जिसकी हो, स्वाद होता ही है.” यह सुनकर महेंद्र ने कहा था, “मैंने अपनी मां को हमेशा फाइलों में उलझे देखा है. उन्हें खाना बनाना सख़्त नापसंद था. जो कभी कुक छुट्टी लेता भी था, तो वह होटल ही ले जाती थी या खाना घर आ जाता था.”
“ओह! फिर तो आप रहने ही दीजिए. आप स्वादिष्ट ही परोसिए. तुष्टिदायक खाने का स्वाद आप नहीं समझेंगे…”

“सर, आपने मुझे बुलाया है क्या..?”
“हां विकास, कल सुबह अहमदाबाद में एक काॅन्फ्रेंस है. मुझे अभी वहां के लिए निकलना है, तुम भी साथ चलो, अगर कोई दिक़्क़त न हो तो…” होटल के मैनेजर महेंद्र ने अपने सुपरवाइज़र विकास से पूछा, तो वह बोला, “हां सर, कोई दिक़्क़त नहीं है, पर जा कैसे रहे हैं? बाय रोड जा रहे हैं, तो अति उत्तम. सर बाय रोड जाने पर रास्ते में मेरा गांव ‘मेनार’ आएगा. सर, इन दिनों वहां बड़े प्रवासी पक्षी आते है. इस वक़्त फ्लेमिंगो भी दिख जाएगी…”
अपने प्रकृति प्रेमी मैनेजेर के सामने पक्षी विहार का प्रस्ताव रखकर विकास ने उम्मीदभरी नज़रे उन पर टिका दी… मैनेजर बिना कोई जवाब दिए कंप्यूटर के स्क्रीन को देर तक घूरते रहे, फिर बिना उसकी ओर देखे बोले, “ह्म्म्म.. बाय रोड ही जाएंगे…”
“सर, मेनार जाएंगे?”
“रास्ते में है या…”
“सर, बस दस-पन्द्रह किलोमीटर का एक कट लेना होगा. मैं दूरबीन-कैमरा रख लेता हूं.” अपनी उत्तेजना पर भरसक काबू पाते, वह बोला, तो इस बार मैनेजर मुस्कुराकर स्क्रीन पर ही नज़र टिकाए बोले, “चलो देखते हैं… समय से पहुंचे तो ही जा पाएंगे.”
वह समझते थे प्रवासी पक्षी, तो बहाना है असल उतावलापन तो अपने घर जाने का है… महेंद्र जानते थे कि मेनार में उसका घर है.
रास्ते में महेंद्र ने उससे पूछा, “क्या फ्लेमिंगो दिखेगी.”
“अरे सर, आप एक बार वहां चलिए तो सही. इतनी बड़ी संख्या में पक्षी दिखेंगे कि आपका तो मन ख़ुश हो जाएगा. क़िस्मत अच्छी रही, तो फ्लेमिंगो भी दिखेगी. सर, बड़ा ख़ुशक़िस्मत है हमारा गांव, जो वहां प्रवासी पक्षी आते है. आप चलिए तो सही मज़ा आ जाएगा.”
“घर में कौन-कौन है तुम्हारे.” महेंद्र ने पूछा, तो वह बोला, “सर, बस मां ही हैं. मुझे देखेंगी, तो ख़ुश हो जाएंगी.”
“तुमने उन्हें बताया है कि हम आ रहे हैं.”
“नहीं सर.”
“अच्छा किया, फोन मत करना. कहीं नहीं जा पाए, तो उन्हें बुरा लगेगा.”
“जी सर, बस एक बात की हिचकिचाहट है, जो अचानक मां के पास गए, तो वह हडबडा जाएंगी. उनको पकाकर खिलाने का बहुत शौक है मेरी मां के हाथो में अन्नपूर्णा का आशीर्वाद है. जब तक दस व्यंजन न परोस दे, उन्हें चैन नहीं मिलता. इधर कुछ दिनों से उनकी तबियत भी ठीक नहीं है.” आख़िरी कुछ शब्द उसने कुछ धीमे स्वर में मानो ख़ुद से ही कहे हो. कुछ पल के मौन के बाद महेंद्र बोले, “मुझे तो अहमदाबाद में चार-पांच दिन लगेंगे. तुम कल काॅन्फ्रेंस के बाद घर चले जाना. दो-तीन दिन की छुट्टियां मैं अरेंज कर देता हूं.” मैनजर की बात विकास के मन को छू गई.
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उसका संकोच जाता रहा. फोन न करने का निर्णय ठीक ही था, एक तो ट्रैफिक का कुछ कहा नहीं जा सकता है, दूसरा वह अचानक पहुंचकर अपनी मां के भाव देखना चाहता था, वरना यह तो तय था कि मां को उनके आने का पता चला, तो स्वागत में ख़ुद को शर्तिया झोंक देतीं. अपने सुपरवाइज़र को सोच-विचार में पड़ा देखकर वह बोले, “विकास, तुम बिल्कुल कॉन्शस मत हो, लंच रास्ते में करेंगे. घंटा-दो घंटा तुम्हारे घर रुककर बर्ड्स देखते हुए आगे निकल जाएंगे. डिनर का शैड्यूल, तो अहमदाबाद में ही है. तुम तो बस मांजी के हाथों की चाय पिलवा देना.”
महेंद्र के कहते ही आदतन विकास के मुंह से निकला, “अरे सर, कभी फ़ुर्सत में चलिए. वह एक घंटे में ही देखना क्या-क्या बना देगी. उसके हाथों की फिरनी, मालपुए, कढी और भरवां करेले… उनके हाथ का खाना खाकर फाइव स्टार का खाना भूल जाएंगे.”
ये कोई पहली बार नहीं था जब उसने मां के हाथों के भोजन की तारीफ़ की हो. वैसे भी होटल इंडस्ट्री से जुड़े होने के कारण अक्सर खाने-पीने और स्वाद से जुडी बातें होना सामान्य था. कहां का क्या प्रसिद्ध है, क्या मसाले पड़ते हैं, खाने का प्रेजेंटेशन क्या है… ये सब जानने के लिए महेंद्र अपने होटल के सभी कर्मचारियों से फीडबैक लेते रहते है. यहां तक कि घर-परिवारों में बननेवाले खाने के स्वाद की भी ख़ूब चर्चा होती है. उनके होटल के शैफ इस प्रकार की चर्चा में शामिल होकर अपने स्वाद में नित नया बदलाव करते हुए पाक कला को विस्तार देते है. यहां तक कि स्वाद, रंग-रूप मसालों की टोह लेने खुफ़िया तरीक़े से भी किचन सेक्शन के लोगों को अन्य स्थानों पर भेजा जाता है.
होटल के मैनेजर महेंद्र और सुपरवाइज़र विकास को अहमदाबाद में होटल इंडस्ट्री से जुड़े लोगो की एक काॅन्फ्रेंस में हिस्सा लेने अहमदाबाद पहुंचना था. होटल इंडस्ट्री से जुड़े होने के कारण अपने अति व्यस्त शैड्यूल में ख़ुद के लिए समय चुराना पड़ता है. ऑफीशियल ट्रिप में मनोरंजन का तड़का लगाने के उद्देश्य से होटल मैनेजर महेंद्र अपने सुपरवाइज़र विकास के मेनार गांव होते हुए जाने को तैयार हो गए. रास्तेभर वो दोनों काॅन्फ्रेंस में डिस्कस की जानेवाली बातों और अपने एजेंडे पर चर्चा करते रहे.
बातों ही बातों में विकास ने कहा, “सर आज के आपाधापी भरे युग में प्रेजेंटेशन पर बड़ा ध्यान दिया जाता है, पर यदि हम कभी-कभार ‘डे स्पेशल’ में घर का तुष्टिदायक खाना परोसे तो बढ़िया हो.”
विकास की बात सुनकर महेंद्र ख़ूब हंसे, फिर बोले, “भई, इसके लिए तो ‘तुष्टिदायक’ क्या है इसको परिभाषित करो.”
“सर तुष्टिदायक, जैसे घर का खाना, जिसमें प्रेजेंटेशन से अधिक स्वाद पर ध्यान दिया जाता हो, जिसे खाने के बाद भी भूख बाकी रहे पेट भर जाए, पर नियत न भरे, जिसे खाने के लिए कस्टमर हमारे होटल का रुख करे.”
“देखो विकास, मैंने तो सदा ही कुक के हाथ का बना खाया है. रिच इन्ग्रीडीयेंट्स के साथ खाना सदा अच्छा ही लगा. और सच बताऊं, तो हम उसी में संतुष्ट रहे.” यह सुनकर विकास बोला, “सर, संतुष्ट होने और आत्मतुष्टि में महीन-सा अंतर है.”
“अब ये अंतर समझने के लिए समय किसके पास है. हम तो ग्राहकों की संतुष्टि के लिए काम करते हैं और उसके लिए तो एक से बढ़कर एक शैफ है हमारे पास.”
“सर, शैफ संतुष्टि दे सकते हैं, पर आत्मतुष्टिदायक खाना बनाने के लिए रसोई को समर्पित मनोयोग से घर की क्षुदा शांत करनेवाली महिला चाहिए. मेरे हिसाब से किचन का एक सेक्शन ट्रेडीशनल फूड को समर्पित होना चाहिए और बनानेवाली महिला भी आम समर्पित गृहिणी, जो खाने खिलाने में आनंद अनुभव करे, वही खाने में आत्मतुष्टि डाल सकती है.”
“भई, ऐसा है हमारे घर में तो किसी को भी इतनी फ़ुर्सत नहीं थी, जो रसोई में समय गुज़ारे. हां, हमारी फ़रमायशे हमारे घर के कुक ने पूरी की है.”
“सर, आपने यदि मां के हाथों का बना नहीं खाया है, तो स्वाद और प्रेजेंटेशन को ही अहमियत दें और आत्मतुष्टिदायक को जाने दे.”
“हम्म्म! बेहतर होगा भई, आत्मतुष्टिदायक भोजन की परिभाषा मेरी समझ से परे हैं.”
ऐसी ही हल्की-फुल्की बातों में रास्ता कब कटा पता ही न चला. मेनार गांव आन पहुंचा था. साधारण से कसबेनुमा स्थान में पर्यटकों की कोई चहल-पहल नहीं थी.
विकास कह रहा था, “सर, यहां ब्रह्मसरोवर में लाखों की संख्या में प्रवासी पक्षी आते है. ये क्षेत्र अधिक प्रचारित नहीं है, न ही यहां पर्यटकों के लिए सुविधाएं जुटाई गई हैं. यही वजह है, जो एकांत और नैसर्गिक वातावरण में यहां प्रवासी पक्षी विचरते है. मुट्ठीभर पक्षी प्रेमी वहां पहुंचते हैं और चुपचाप आकर चले जाते है.
हमारा पूरा कस्बा ही पक्षी प्रेमी है. ये लोग स्वयं को इस क्षेत्र से जुड़ा होने पर गौरवान्वित महसूस ज़रूर करते है, पर प्रोपोगंडा करके क़स्बे की शान्ति को मीडिया या पर्यटन की भेंट नहीं चढ़ाना चाहते. तभी शायद यहां हर साल पक्षी आ भी पाते हैं.” कहते-कहते वह अपने घर के दरवाज़े पर पहुंच गया. दरवाज़ा खटखटाया, तो मां उसे देखकर हैरान रह गई.
मां कृशकाय हालत में थी. मां को इतना कमज़ोर और बीमार देखकर शिशिर के चेहरे पर चिंता की रेखाएं आ गई. संकोच में घिरी विकास की मां एक प्लेट में पेड़े और पानी लाई, तो महेंद्र उनके संकोच को दूर करने की गरज़ से बोले, “मांजी, हम तो बस यहां से निकल रहे थे, सो मिलने चले आए. आप ज़रा भी परेशान न होना. अभी तो बस पक्षियों को देख आए, फिर आपके हाथों की बनी अदरकवाली चाय पिएंगे.” महेंद्र के कहने पर उनके चेहरे पर संकोचस्मित मुस्कुराहट घिर आई.
विकास अपने मैनेजेर को ब्रह्म तालाब ले गया, तो आश्चर्य से उनका मुंह खुला रह गया. अद्भुत स्थान था. कौन सोच सकता था कि हाईवे से डेढ़ किलोमीटर अन्दर कच्ची सड़क पर कच्चे-पक्के मकानों के बीच खुले स्थान में दूर तक पक्षियों का बसेरा होगा. चकित से साइबेरिया से आए लाखों की तादाद में पक्षी देख-देखकर वह अभिभूत हो रहे थे. खड्डे भरे कच्चे रास्ते और हाइवे के किनारे बसे मेनार में इतनी तादाद में पक्षी आते है ये कल्पना से परे था.
महेंद्र देर तक बर्ड वॉचिंग करते रहे. दो घंटे कहां बीते पता ही न चला. कुछ ही देर में शाम का धुंधलका होने लगा, तो सारे पक्षी ज़मीन पर आ गए. प्रकृति के रचे अद्भुत दृश्य में खोए वह विकास की बेचैनी को नहीं देख पाए.

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विकास उनके पास खड़ा इस चिंता में खोया था कि यदि देर हो जाएगी, तो क्या महज़ चाय पीकर वह निकलेंगे… और जो औपचारितावश खाने को पूछ लिया, तो कहीं सरल ह्रदय मैनेजर खाना खाने के लिए बैठ ही न जाए. ऐसा हुआ तो मां क्या पकाकर खिलाएगी.
आख़िरकार महेंद्र ने कैमरा समेटा और वापसी में मंदिर, तालाब, गांव के स्कूल और कच्चे मकानों को देखते-देखते विकास के घर आए..
घर में प्रवेश करते ही घी-चीनी की फैली सोंधी महक से विकास ने सहज ही अंदाजा लगा लिया कि मां ने शीरा बनाया है.
महेंद्र कुछ सकुचाते बैठे ही थे कि वैजन्ती देवी आकर बोलीं, “चलो, हाथ-मुंह धो लो. अब देखो भूख लगी हो या न लगी हो, थोड़ा तो खाना ही पड़ेगा. हां खाना बहुत ही सादा बनाया है, पर जो भी बनाया है खाकर जाओ, वरना मेरे गले से निवाला नहीं उतरेगा.”
असमंजस की अवस्था में महेंद्र उठ गए, तो वैजन्ती देवी अपने बेटे की ओर शिकायती नज़रों से देख बोली, “जो बता देता, तो कुछ तैयारी करके रखती. अफ़सोस रहेगा की ढंग से जीमा नहीं पाई.”
जाने क्या था उनकी बातों में जो महेंद्र उन्हें मना नहीं कर पाए और चुपचाप पाटे पर बैठ गए और यंत्रवत विकास भी…
वैजन्ती देवी ने धीमे से कहा, “घर में लौकी फरियाई थी, सो तोड़कर तरकारी बनाए हैं.” कहते हुए थाली में सब्ज़ी परोस दी. साथ में उड़द की दाल और बाजरे की रोटी, गुड और लहसुन-मिर्ची की चटनी. विकास मात्र तीन सालन देख असहज था. उसने कैसे सोच लिया की मां बिना खाना खिलाए जाने देगी. बिना पूर्व सूचना दिए वह आ गया और समय होता तो मां उसके लिए पकवान बनाने में जुट जाती, पर उनकी अस्वस्थता के चलते… पर अब क्या हो सकता था. कितनी बार उसने मां के हाथों बने पकवानों की चर्चा की है… पर आज मात्र तीन सादे सालन. आज ख़ुद कही याद आई… “सर, खाना चाहे जहां मिले, बस मां के हाथों का हो. वो मां चाहे जिसकी हो, स्वाद होता ही है.” यह सुनकर महेंद्र ने कहा था, “मैंने अपनी मां को हमेशा फाइलों में उलझे देखा है. उन्हें खाना बनाना सख़्त नापसंद था. जो कभी कुक छुट्टी लेता भी था, तो वह होटल ही ले जाती थी या खाना घर आ जाता था.”
“ओह! फिर तो आप रहने ही दीजिए. आप स्वादिष्ट ही परोसिए. तुष्टिदायक खाने का स्वाद आप नहीं समझेंगे…” यह सुनकर महेंद्र हंसकर कहते, “नहीं-नहीं विकास, तुम समझाओ.”


“सर, स्वाद को कैसे समझाऊं… मैं तो अपनी मां के हाथों के स्वाद को ढूंढ़ता हूं. तभी तो किसी परिपक्व महिला की सिफ़ारिश कर रहा हूं, जो आम रसोई का स्वाद यहां लाए. ट्रेडीशनल सिंपल फूड को थाली तक पहुचाएं और वह प्रेजेंटेशन से ज़्यादा स्वाद को अहमियत दे. यक़ीनन कुछ लोग, जो लंबे समय तक अच्छे प्रजेंटेशन के साथ होटल का खाना खा रहे है, वो ये खाना भी ज़रूर चखेंगे.” पूर्व में हुए वार्तालाप दोहराता हुआ वह थाली घूरता रहा, “क्या हुआ खाना जम नहीं रहा क्या.” यह सुनकर भी उसने कुछ नहीं कहा और महेंद्र भी मौन भाव से रोटी-दाल चुभलाते रहे. लौकी का हलवा डालने के लिए वैजन्ती देवी ने कड़छी बढ़ाई, तो महेंद्र ने पूछा, “ये क्या है?”
वैजन्ती बोली, “हलवा है लौकी का. तुम खाते तो हो न?” यह सुनकर वह कुछ पल के मौन के बाद गर्दन हिलाकर हामी भरते हुए थाली में हलवा डलवाने लगे. जहां वैजन्ती आत्मसंतुष्टि से भरी दोनों को खाते देख रही थी, वहीं विकास कनखियों से अपने मैनेजेर के हाव-भाव देख रहा था.
अपनी मां के हाथों के स्वाद को लेकर उसने क्या-क्या कसीदे नहीं गढ़े थे- मेरी मां आधे घंटे में पकवानों की कतार लगा देती है. स्वाद ऐसा कि पेट भर जाए मन न भरे… वो अन्नपूर्णा है… अन्नपूर्णा…“
“मांजी, आप सचमुच अन्नपूर्णा है. पेट भर गया, पर मन न भरा…” सहसा महेंद्र का स्वर कानो में पड़ा. ये क्या महेंद्र तो वैजन्ती के दोनों हाथो को पकड़कर मस्तक से छुआकर भावुक स्वर में प्रशंसा कर रहे थे. विकास के मुंह से विस्फारित से स्वर पड़े, “इतना सादा खाना…”


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“… सादा खाना मन को छू गया. आत्मतुष्टि को आज महसूस किया है. मांजी ऐसी तृप्तता रोज़ के खाने में क्यों नहीं मिलती है. मंदिर के प्रसाद सा स्वाद है और क्यों न होता भला- धैर्य-स्नेह, पकाई-सफ़ाई से बना खाना प्रसाद ही तो है.”
मैनेजेर को यूं भावुक देखकर विकास चहका, “अन्नपूर्णा तो है ही मां. आप कभी फ़ुर्सत में तो आइए सर, थाली-कटोरियों से भर जाएगी.”
“कटोरियों से भरी थाली में शायद आत्मतुष्टि की जगह न होगी.”
“लो देखो, होटल का मैनेजर बाजरे का रोटला-लहसुन की चटनी की बड़ाई करे है.” वैजन्ती देवी मुंह पर पल्लू रखकर हंसती बोली, तो महेंद्र ने उनके सामने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा, “हमारे यहां खाना पसंद आने पर शिष्टाचार के नाते रेसिपी यानी बनाने की विधि पूछी जाती है. पर मैं नहीं पूछूंगा, क्योंकि विधि जितनी सहज है उतनी कठिन भी. धैर्य, स्नेह और समर्पण से बना स्वाद अलौकिक तो होना ही था.”
“अरे, इत्ते बड़े होटल के मैनेजर कुछ ज़्यादा ही मान बढाए हैं…”
यह सुनकर विकास ने चुटकी ली, “मां, सच तो बोले हैं सर, होटल के तेल-मसाले में डूबकर तुष्टि दम तोड़ देती है.”
“बचपन से आज तक स्वादिष्ट खाना ख़ूब खाया, बस मां के हाथों का नसीब नहीं हुआ, सो आज वो भी स्वाद पा लिया…” महेंद्र को भावुक देख वैजन्ती भी भावुक हो गईं, “कुछ देर और ठहरना होता, तो सामान मंगवाकर कुछ ख़ास परोसती थाली में… जी संतुष्ट हो जाहोता…”
“तब शायद लौकी के हलवे का स्वाद, बाजरे की रोटी का सोंधापन, और दाल और लहसुन की चटनी का स्वाद ज़ुबान पर नहीं ठहरता… तैयारी से बनाए खाने में प्रसाद सा स्वाद-आत्मतुष्टि मिलती क्या?..”
यह सुनकर विकास हंसकर बोला, “तो सर, आत्मतुष्टि का अर्थ समझ ही गए आप.”
“बिलकुल समझा, होटल की फ्रोजन सब्ज़ियां घर की तुड़ी ओरगेनिक ताज़ी सब्ज़ियों से भला क्या मुक़ाबला करेंगी… सोंधी रोटियों में चुपड़ा घी, सादी ताज़ी सब्ज़ी और वाह लौकी का हलवा इतना स्वादिष्ट हो सकता है क्या… ये खाना तो भारी पड़ा फाइव स्टार होटल के खाने पर…”
मैनेजेर के मुंह से तारीफ़ सुनकर वैजन्ती का चेहरा खिल सा गया… “मां तू बीमार तो नहीं लगती…”
“बीमार हूं, तो लागूं न… इत्ते दिनां बाद अपने हाथों का बनाकर खिलाया है… बिल्कुल चंगी हो गई मैं तो..”
वहां से विदा लेकर जो चले, तो रास्तेभर कुछ खाने की इच्छा न हुई… अहमदाबाद के फार्मल डिनर में बस खानापूर्ति ही की गई.
दूसरे दिन काॅन्फ्रेंस में महेंद्र सहसा बोल उठे, “होटल इंडस्ट्री में यदि सस्टेन करना है, तो ग्राहक के मन को समझना होगा… वो घर छोड़कर हमारे पास आता है, तो उसकी आत्मसंतुष्टि हमारा दायित्त्व है.” इन पंक्तियों पर हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. होटल रेड कारपेट के मैनेजर अपने सुपरवाइज़र विकास मिश्रा की ओर देखकर मुस्कुरा दिए… महेंद्र की आत्मतुष्टि की बात को बहुत सराहा गया.
“सर, आज तो आप छ गए…”
“हुम्म… आज इस सेमिनार में उठी तालियों की गूंज तुम्हारे नाम करता हूं. तुम उसके सही हक़दार हो…” अपने सह्रदय मैनेजेर की बात से विकास मुस्कुरा उठा था.

मीनू त्रिपाठी

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Usha Gupta

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