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घर को मकां बनाते चले गए… रिश्ते छूटते चले गए… (Home And Family- How To Move From Conflict To Harmony)

रिश्तों (Relationships) की ख़ुशबू... प्यार के लम्हे... अपनों का साथ... ये सभी मिलकर ही तो एक ईंट-पत्थर से बने मकान को घर बनाते हैं, लेकिन जब इन घरौंदों में भावनाएं पिघलने लगें, अपनों का साथ छूटने लगे... तब रिश्ते भी बिखरने लगते हैं... Home Relationship एहसान दोनों का ही था मकान पर... छत ने जता दिया और नींव ने छुपा लिया... कुछ ऐसे ही होते हैं रिश्ते व भावनाएं, जिनके बगैर जीवन का कोई अर्थ नहीं, आख़िर क्यों वे एक दौर आने पर ठहरने से लग जाते हैं. आपसी समझ व अपनापन कम होने लगता है. एक-दूसरे के प्रति नाराज़गी व उदासी इस कदर बढ़ जाती है कि साथ रहना दूभर हो जाता है. रिश्तों की दरार को भरना मुश्किल हो जाता है. तब बस, यही सोच रहती है कि किसी भी तरह अलग हो जाएं हम, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि कुछ अरसे बाद मन पछताता है और दिल वहीं लौटना चाहता है, जहां दुबारा जाना मुमकिन नहीं... जैसे- बचपन, पुराना घर, मासूमियत, पुराने दोस्त, क्योंकि उम्र चाहे जितनी भी हो, सुना है दिल पर कभी झुर्रियां नहीं पड़तीं... पर रिश्तों पर पड़ी गांठ अपनों को दूर कर ही देती है. कभी ज़रूरतें जुदा कर देती हैं... श्रीवास्तवजी की बड़ी ख़्वाहिश थी कि बड़ा-सा घर लें और परिवार के साथ इकट्ठे रहें. इसके लिए तमाम जोड़-तोड़ करते हुए आख़िरकार उन्होंने घर ले ही लिया. पत्नी व दोनों बेटों के साथ रहने लगे, लेकिन धीरे-धीरे बहुत कुछ बदलने लगा. बेटों की अपनी ख़्वाहिशें, ज़रूरतें इतनी बड़ी होती चली गईं कि वे दूसरे शहरों में चले गए. बड़े अरमान से श्रीवास्तवजी ने घर लिया था, जो अब सूने दरो-दीवारवाला खाली मकान रह गया है. यहां चूक तो किसी से नहीं हुई. बस, प्राथमिकताएं सबकी अलग-अलग थीं. घर का वजूद क्यों है? आख़िर इंसान घर क्यों बनाता है? अपनी व परिवार की सुरक्षा, मज़बूत स्थिति, साथ और ठहराव के लिए ही ना! वरना कइयों की तो पूरी ज़िंदगी बीत जाती है अपना एक घर बनाने में, लेकिन घर की भी एक ख़ूबसूरत परिभाषा होती है, पहचान होती है, जिससे वो घर कहलाता है. वो है प्यार, अपनापन, सहयोग, एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ देना आदि. छोटी-छोटी बातों की ख़ुशियां, छोटी-ब़ड़ी उपलब्धियों से जुड़े यादगार पल ही तो एक गारे-सीमेंट से बने मकान को मोहब्बतभरा घर बना देते हैं, क्योंकि वहां पर माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, बच्चों, रिश्तेदारों से जु़ड़े जाने कितने प्यारभरे लम्हे होते हैं. बचपन की शरारतें, नोक-झोंक, ख़ुशी-ग़म के पल, उम्मीदें, महत्वाकांक्षाएं, प्यार की सौग़ात... अनगिनत भावनाओं का समंदर अपने में संजोए व समेटे होता है घर... व़क्त बेवफ़ाई कर गया... आज कमबख़्त व़क्त ही तो नहीं है हम सभी के पास. हर कोई अपनी-अपनी ख़्वाहिशों की उलझनों में उलझा-सा है. कहीं बच्चे आगे की पढ़ाई के लिए विदेश चले जाते हैं, तो कहीं नौकरी की ख़ातिर बेटे दूर हो जाते हैं और मजबूर पैरेंट्स अपने ही घर में तन्हा रह जाते हैं. फिर भी एक आस व विश्‍वास रहता है कि एक दिन वे लौटकर आएंगे, यह भी पढ़ेसर्वगुण संपन्न बनने में खो न दें ज़िंदगी का सुकून (How Multitasking Affects Your Happiness) जैसे- उम्मीदें तैरती रहती हैं.. कश्तियां डूब जाती हैं... कुछ घर सलामत रहते हैं, आंधियां जब भी आती हैं.. बचा ले जो हर तूफ़ां से, उसे आस कहते हैं... बड़ा मज़बूत है ये धागा, जिसे विश्‍वास कहते हैं... पैरेंट्स का विश्‍वास ही तो होता है, जो उन्हें हर पल, यह उम्मीद बंधाता रहता है कि उनका मकान फिर से घर बन जाएगा... अपनों की चहल-पहल से घर का हर ज़र्रा रौशन हो जाएगा... मैं मकान हूं, घर नहीं... पढ़ाई, नौकरी, ज़रूरतों से भरी भागती ज़िंदगी ने हमें एक ऐसा खिलाड़ी बना दिया है, जो हर रोज़ बस दौड़ रहा है. घर से ऑफिस, स्कूल-कॉलेज, क्लासेस, बिज़नेस... यानी हम सभी बस सुबह से शाम एक अनजानी-अनकही-सी प्रतियोगिता में हिस्सा लेते हुए बस भाग रहे हैं और घर रात बिताने का ज़रिया-सा बनता जा रहा है. यानी जहां पर हम रात को पहुंचते हैं और सुबह फिर से निकल जाते हैं सफ़र के लिए. तभी तो कभी भावनाओं से रचे-बसे घर को भी आख़िर कहना पड़ जाता है कि- ‘जनाब मैं घर नहीं मकान हूं. वो तो बहुत पुरानी बात हुई जब मुझे ‘घर’ कहा जाता था... सभी मेरे पास थे. हंसी के कहकहे, शरारतों की अठखेलियां होती थीं, खाने-खिलाने का लंबा दौर चलता था, तीज-त्योहारों की रौनक़ होती थी, अपने-पराए सभी मिल जाते थे... बड़ा बेशक़ीमती व़क्त था वो और मेरा वजूद भी इतरा उठता था अपनी ख़ुशक़िस्मती पर.’ घर का यह अनकहा दर्द बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देता है. आख़िर ये कहां आ गए हम!.. क्यों नहीं हमें ़फुर्सत अपनों के संग व़क्त गुज़ारने की? एक बार ज़रूर सोचिएगा इसके बारे में. गुरुर में इंसान को इंसान नहीं दिखता.. जैसे अपने ही छत से अपना मकान नहीं दिखता... सच, कुछ ऐसे ही हालात बन जाते हैं, जब हम अपने ही घर के अस्तित्व को अनदेखा करने लगते हैं. बहुत कुछ पाने की इच्छा ने हमें इस कदर स्वार्थी बना दिया है कि हम छोटी-छोटी ख़ुशियों को दरकिनार कर नाम-शौहरत के चक्कर में उलझते चले जा रहे हैं. ऐसे में रिश्ते भी प्राइस टैग की तरह हो गए हैं. यदि आपके पास पैसा है, तो आपकी कई ग़लतियां कोई मायने नहीं रखतीं, क्योंकि पैसों के बोझ तले वे दब जाती हैं. धन-दौलत व रुतबा हमें इस कदर अभिमानी बना देता है कि हमें अपने आगे कुछ दिखाई नहीं देता. दूसरों को नसीहत देना, उन पर उंगली उठाना, ख़ुद को श्रेष्ठ समझना हमारी फ़ितरत में शुमार हो जाता है. सबसे बेख़बर हम अपनी ही मदहोशी में रहते हैं. यह भी पढ़े: रिश्तेदारों से क्यों कतराने लगे हैं बच्चे? (Why Do Children Move Away From Relatives?) मनोवैज्ञानिक परमिंदर निज्जर का यह मानना है कि घर को लेकर हर किसी की सोच अलग-अलग होती है, जैसे- * किसी के लिए घर सुरक्षा है, जहां पर वे ख़ुद को सुरक्षित महसूस करते हैं. * कुछ के लिए घर सुकून व आराम करने का ठिकाना है. * कुछ लोगों के लिए होटल जैसा है, जहां वे कुछ समय ख़ासकर रात बिताकर सुबह निकल जाते हैं. * अधिकतर लोगों के लिए उनकी पहचान है घर, क्योंकि वहां पर उनकी नेमप्लेट है, जिस पर उनकी पहचान है. * लेकिन इन सब चाहतों व ज़रूरतों के तले कहीं न कहीं घर के होने का सच्चा वजूद दफ़न-सा हो जाता है. * हम यह क्यों भूल जाते हैं कि हमारे बचपन, लड़कपन की खट्ठी-मीठी यादों का पलछिन है घर. * माता-पिता के त्याग-प्रेम, संघर्ष, अरमान, ख़ुशी, आशाओं का साक्षी है घर. * रिश्तों की सोंधी ख़ुशबू, अपनों के हास-परिहास का केंद्र बिंदु है घर. * आज फिर ज़रूरत है मकान को घर बनाने की. रिश्तों को एक नए सिरे से सजाने की. * कोशिश करें ज़िंदगी को रिवाइव करने की, ताकि बेनूर से घरौंदे को प्यारभरे एहसास से सींच सकें. * ख़ुद को टटोलें, देखें कहां पर हैं हम? क्यों हमें इतनी जल्दबाज़ी, भागदौड़ है? * अपनों को भरपूर समय दें, वरना ऐसा भी व़क्त आएगा, जब सब कुछ होगा, पर अपने न होंगे. * रिश्ते हैं, अपने हैं, तो ज़िंदगी ख़ूबसूरत है और जीने का सबब भी है. * ऐसी कामयाबी, नाम-शौहरत किस काम की, जहां अपनोें का साथ न हो. तो आओ, फिर से अपने आशियाने को एक नए सिरे से सजाएं, अपनों के प्यार व साथ से भरपूर घर बनाएं...

- ऊषा गुप्ता

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