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कहानी- कैक्टस पर फूल (Short Story- Cactus Par Phool)

शायद उसकी मां ज़िंदा होतीं, तो वह भी ऐसी ही होतीं. मां शायद ऐसी ही होती हैं. कई बार वह चुपके से उन्हें छू लेता, मानो महसूस करना चाहता हो कि मां की छुअन कैसी होती है. कई बार मन ने चाहा भी उन्हें ‘मां’ कहकर पुकारे, पर अंकल की लाल, क्रोध और एक सीमा में रहने की हिदायत देती आंखें उसे ऐसा करने से रोक लेतीं.

कोई इतना खड़ूस भी हो सकता है, इसका अंदाज़ा सुधाकर को उन्हें देखकर ही हुआ था. कभी-कभी लगता कि इस शब्द का ईजाद इन्हीं जैसे व्यक्तियों या यूं कहें विशेषकर इन्हीं के लिए हुआ होगा. मुस्कुराहट नाम की कोई चीज़ चेहरे पर भूल से भी नहीं दिखनी चाहिए. हमेशा तने रहो, अकड़कर चलो, चाहे उम्र कितनी भी हावी हो और बोलो तो ऐसे कि लगे
फूल नहीं कांटे झड़ रहे हों. नहीं, ऐसे लोग किसी तरह के गुमान में नहीं जीते हैं, बल्कि इस तरह से अपने को जीवन में ढाल लेते हैं और फिर व़क्त के साथ वह उनके व्यक्तित्व में झलकने लगता है. अपने चेहरे पर एक भारीपन और गंभीरता का लबादा ओढ़े रहनेवाले ऐसे लोग क्या सोचते हैं, क्या महसूस करते हैं और कब किस तरह से रिएक्ट करते हैं, इसका अनुमान लगाना बहुत कठिन होता है. ज़ाहिर-सी बात है ये लोग इतने सेल्फ सेंटर्ड होते हैं कि अपने नज़दीक अपने क़रीबियों को भी नहीं आने देते हैं.
अब वे पड़ोस में रहते हैं, तो उन्हें अंकल ही कहा और माना जा सकता था. चूंकि आंटी ने ख़ुद सुधाकर के घर आकर अपनत्व का रिश्ता जोड़ा था, इसलिए उसे भी उन्हें ‘अंकल’ कहकर बुलाना ही था. लेकिन अंकल के हाव-भाव से लेकर उनका खङूसपन सब सुधाकर को अचंभित करता. यह देखकर आंटी कहतीं, “सुधाकर, दिल से मत लगाया करो इनकी बातों को. इनका स्वभाव ही ऐसा है, वरना दिल के बहुत अच्छे हैं.” वह तो ठहरीं उनकी जीवनसंगिनी, पति की बुराई न कर सकती थीं, न सह सकती थीं, पर दूसरों के सामने तो ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी. इसलिए सुधाकर को अंकल का रवैया चुभता, ख़ासकर जब वे आंटी के साथ बुरा व्यवहार करते.
कोई दो महीने ही हुए थे उन्हें इस शहर में आए हुए. अंकल को रिटायर हुए पांच साल हो गए थे और वे दोनों यहां अकेले ही रहते थे. बहुत ज़्यादा तो बातचीत नहीं हो पाती थी, क्योंकि सुधाकर अक्सर टूर पर रहता था और आंटी भी तभी उसके घर आती थीं, जब अंकल घर पर नहीं होते थे. वैसे भी अंकल अपना अधिकतर समय किसी लाइब्रेरी या कम्यूनिटी हॉल में बिताते थे. उन दोनों की आपस में बहुत ज़्यादा बातचीत नहीं होती थी. आंटी बेशक बहुत ही हंसमुख और मिलनसार थीं और कॉलोनी में उन्होंने अपने परिचय का दायरा बढ़ा लिया था, पर अंकल एकदम रिज़र्व रहते थे और न तो उन्हें किसी का घर में आना पसंद था और न ही ख़ुद कहीं जाना. अपने जोड़ों के दर्द से बेहाल होने के बावजूद जब आंटी उसके घर की सीढ़ियां चढ़कर कभी अचार, तो कभी मुरब्बा या सब्ज़ी देने आतीं, तो उसे बहुत बुरा लगता.
“आंटी, मुझे आवाज़ देकर बुला लिया करो. मैं आकर ले जाता. कितना दर्द हो रहा है आपको.”
“बेटा, तुम तो जानते ही हो कि तुम्हारे अंकल को किसी का आना-जाना पसंद नहीं है. और वैसे भी तुम्हारे पास दो घड़ी बैठने का मुझे मौक़ा मिल जाता है. सारे दिन घर पर बैठे-बैठे जी उकता जाता है. आख़िर मैं भी कितनी अचार-बड़ियां बनाऊं. खानेवाले हैं ही कितने लोग. तुम्हारे अंकल बहुत सादा खाना खाते हैं और मुझे भी कुछ ख़ास पचता नहीं है. जाने शरीर में क्या-क्या रोग लगे हुए हैं.” एक सैलाब बन उनकी भावनाएं बह निकलतीं.

उनके चेहरे पर बहुत सारी झुर्रियां नहीं थीं, लेकिन जब भी उनके चेहरे पर दर्द उभरता, तो लगता मानो झुर्रियों ने चेहरे को ढंक लिया हो. माथे पर बड़ी-सी लाल बिंदी, सूती साड़ी और हाथ में दो सोने के कंगन. गले में मंगलसूत्र और मांग में चमकते सिंदूर का लंबा भराव, ममता की मूर्ति-सी लगती थीं वे सुधाकर को. उसकी मां तो बचपन में ही उसे छोड़कर चली गई थीं. पिता ने ही पाला. शायद उसकी मां ज़िंदा होतीं, तो वह भी ऐसी ही होतीं. मां शायद ऐसी ही होती हैं. कई बार वह चुपके से उन्हें छू लेता, मानो महसूस करना चाहता हो कि मां की छुअन कैसी होती है. कई बार मन ने चाहा भी उन्हें ‘मां’ कहकर पुकारे, पर अंकल की लाल, क्रोध और एक सीमा में रहने की हिदायत देती आंखें उसे ऐसा करने से रोक लेतीं. आख़िर रिश्ते इतनी जल्दी जोड़े भी तो नहीं जा सकते. वह जानता ही कितना था उनको.

“वैसे भी सुधाकर बेटा, न जाने कैसा मोह हो गया है तुझसे. बिल्कुल बेटा ही लगता है. फिर अकेला रहता है, तो सोचती हूं कि अपने हाथ से बनाकर चार चीज़ें खिला दूं तुझे. यह बेकार शरीर भी कुछ देर के लिए व्यस्त हो जाता है और मेरा समय भी कट जाता है.”
“पर आंटी, आपके बच्चे, वे भी तो आ सकते हैं न मिलने को…” एक दिन सुधाकर ने पूछा था, तो आंटी फ़ौरन उठ गई थीं. “तेरे अंकल शायद बुला रहे हैं, कल आऊंगी गट्टे की सब्ज़ी लेकर.” उनकी आंखों में आई नमी और चेहरे पर फैले दर्द को देख वह समझ गया था कि शायद उसने उनकी किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया है. अपनी झुर्रियों को हाथ से सरकाती वे नीचे चली गईं. अंकल किसी बात पर चिल्ला रहे थे. उनके कटु शब्द ऊपर तक आ रहे थे. डगमगाते क़दमों से चलने के बावजूद उनकी आवाज़ में एक कड़कपन था. न जाने कितनी कड़वाहट थी उनके भीतर, जिसे वह समय-समय पर आंटी पर उगलते रहते थे. आख़िर कैसे बिताया होगा इतना लंबा समय आंटी ने ऐसे खड़ूस इंसान के साथ…


अंकल चाहे कितना ही क्यों न चिल्लाएं, पर आंटी ने उन्हें पलटकर कभी जवाब नहीं दिया था. उनके धैर्य को देख सुधाकर असमंजस में पड़ जाता था. क्यों सहती हैं वे? अपनी नियति मान सहती होंगी. वह ख़ुद ही सवाल-जवाब करता रहता. हफ़्ते बाद टूर से लौटा, तो कढ़ी-चावल का कटोरा पकड़े आंटी हांफती-सी ऊपर आईं. “अब तू क्या बनाएगा, यही सोच ले आई. बेटा घर बसा ले, कब तक यूं ही अकेला रहेगा.” उन्होंने बहुत प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.
“आप हो न आंटी. फिर क्या चिंता.” हंसते हुए उसने उनका हाथ पकड़़ लिया था.
“मैं क्या सारी ज़िंदगी बैठी रहूंगी. न जाने कब बुलावा आ जाए.” कहते-कहते उनकी आंखें नम हो गई थीं.
“कैसी बातें कर रही हो आंटी? ऐसे कैसे जाने दूंगा. बड़ी मुश्किल से मुझे मेरी मां मिली है.” वह भावुक हो उठा था.
“जुग-जुग जीओ बेटा.” उन्होंने आशीर्वादों की झड़ी लगा दी थी.
“आपके लिए साड़ी लाया हूं.” उसने उनके कंधे पर बनारसी साड़ी फैला दी थी. बादामी रंग की साड़ी पर भूरे रंग के फूल बने हुए थे.
ख़ुशी से ललक उठी थीं वे. “कितनी सुंदर साड़ी है. बरसों बाद मेरे लिए कोई कुछ लाया है. मुझे सरप्राइज़ गिफ्ट बहुत अच्छे लगते हैं बेटा. ख़ैर, जो जीवन में नहीं मिल पाया, उसके लिए मन में कोई अफ़सोस नहीं करना चाहिए, वरना जीवन जीना ही मुश्किल हो जाएगा. लेकिन एक इच्छा है, जो अक्सर मुझे कचोटती है. बहुत इच्छा है कि दूधसागर वॉटर फॉल्स जाऊं. बहुत दूर भी नहीं है, लेकिन बस जाना हो ही नहीं पाया. तेरे अंकल जिस दिन चाहेंगे न, उस दिन मैं अवश्य ही वहां जा पाऊंगी.”
दुआओं की पोटली थमा वे चली गईं और वो सोचने लगा कि क्या वह खड़ूस इंसान उन्हें उपहार भी लाकर नहीं दे सकता है. आंटी जैसी ममता और सहनशीलता की मूर्ति को दुख देनेवाले को उसे सम्मान देने का कतई मन नहीं होता था. सुनकर थोड़ी हैरानी हुई थी कि आख़िर वे दूधसागर फॉल्स ही क्यों जाना चाहती हैं. फिर हफ़्ते तक वे नहीं आईं, तो उसे अचरज हुआ. दिखाई भी नहीं दी थीं. बहुत हिम्मत कर वह उनके घर चला गया. वह अकेली ही थीं, जानकर चैन आया, पर उन्हें पलंग पर लेटे देख चिंता हुई.
“थोड़ा-सा बुख़ार है, जल्दी ठीक हो जाऊंगी. तेरे अंकल भी शहर से बाहर गए हुए हैं.”
सुनकर ग़ुस्सा आया. कितने ग़ैरज़िम्मेदार इंसान हैं. “आंटी फोन करके बुला लेतीं. पल में ही ग़ैर बना देती हो.” सुधाकर ने उनके कांपते हाथों को पकड़ते हुए कहा. “अंकल को ऐसी हालत में आपको छोड़कर नहीं जाना चाहिए था. अच्छा अपने बच्चों के नंबर दे दो, उन्हें इंफॉर्म कर देता हूं.” सुधाकर अपनी रौ में बोलता जा रहा था.
“बेटा, तेरे अंकल का जाना बहुत आवश्यक था. कानपुर ही गए हैं. लौट आएंगे.” बहुत तेज़ खांसी उठी उन्हें. “जहां तक बच्चों की बात है, तो कोई है ही नहीं.” आंखों से बहते अविरल आंसू सुधाकर को हिला गए. आख़िर क्यों उनके निजी जीवन को उसने उघाड़ना चाहा? जब पहले कभी इस बारे में बात नहीं की थी, तो अब क्यों वो यह पूछ बैठा?
“आंटी, आप शांत हो जाइए. मैं अभी आपके लिए खिचड़ी और चाय बनाकर लाता हूं.”
“बेटा माना है तुझे. आज दिल का बोझ हल्का कर लेने दे. मेरी बेटी बचपन में ही सांप के काटने से चल बसी थी. बेटा पायलट था. एक बार उसका प्लेन क्रैश हो गया और वह भी हमें छोड़कर चला गया. उसकी लाश तक नहीं मिली. हमारा एक पोता है. बहू की हालत देख हमने उसकी दूसरी शादी कर दी थी, पर भाग्य देखो, उसके दूसरे पति की भी दुर्घटना में मौत हो गई. कानपुर में वह अपनी सास के साथ रहती है. बीच-बीच में अंकल जाते हैं पोते से मिलने. अब तो तेरे अंकल के अंदर अपनों को खोने का इतना भय समा गया है कि किसी से रिश्ता नहीं जोड़ते. बस, कठोर रहकर अपने भीतर उग आए असंख्य कैक्टस से ख़ुद ही छलनी होते रहते हैं.” वे दोनों जैसे लग रहा था कि किसी गहरी गुफा में बैठे हैं. सन्नाटा छा गया था कुछ पल उनके बीच. सुधाकर क्या कहकर उन्हें सांत्वना देता. अचानक अंकल के लिए भी उसके अंदर प्यार और सम्मान की कलियां फूट गईं. व़क्त इंसान को कैसे पत्थर बना देता है.
“जानता है दूधसागर वॉटर फॉल्स कहां है?” अचानक आंटी छोटी बच्ची-सी हो उठीं. न जाने कौन-सा विश्‍वास उन्हें जीवंत कर रहा था. “यह गोवा की मांडवी नदी पर स्थित है. इसकी एक मज़ेदार कहानी भी है कि एक सुंदर राजकुमारी कभी इसी जगह रहा करती थी. उस समय वहां एक महल था. वह पास ही बनी झील में नहाती और उसके बाद अपने गोल्डन जग से मीठा दूध पीती. एक दिन जब वह दूध पी रही थी, तो उसने देखा कि पेड़ों के पास खड़ा एक राजकुमार उसे देख रहा है. यह देख वह शरमा गई और अपने शरीर को छिपाने के लिए पर्दा बनाने के लिए उसने उसके सामने दूध से भरा जग उड़ेल दिया. तब तक उसकी सेविकाओं ने उसे कपड़े पहना दिए. और कहते हैं कि वही मीठा दूध पर्वतों से होता हुआ दूधसागर फॉल्स की तरह बहता है.” आंटी बुरी तरह से हांफने लगी थीं. उन्होंने कुछ दवाइयों की ओर इशारा किया.


“अब मैं आ गया हूं. इनका ख़्याल रख लूंगा. तुम जा सकते हो.” अंकल के कटु स्वर ने उसे चौंका दिया. पहली बार आज उसने उन्हें ध्यान से देखा. कठोर बनने के लिए पीड़ा के समुद्र में कैसे गोते लगाने पड़ते हैं, इस बात का उसे आज ही एहसास हुआ था.
आंटी-अंकल के जीवन से जुड़ी बहुत सारी गुत्थियां सुलझ जाने के बावजूद सुधाकर के मन में अक्सर एक ही सवाल उठता कि आख़िर आंटी दूधसागर फॉल्स ही क्यों जाना चाहती हैं. स्वस्थ होते ही आंटी के फिर से उसके घर चक्कर लगने लगे थे. अंकल का उन पर चिल्लाना और कड़वाहट भरा व्यवहार वैसा ही था. लेकिन अब सुधाकर को बुरा नहीं लगता था, बल्कि वह तो चाहता था कि अंकल अपने दिल में छुपे सारे दर्द को उसके सामने उड़ेल दें.
“भरवां करेले बनाए थे. लाई हूं तेरे लिए.” वह सोफे पर बैठ गईं और बोलीं, “पता है दूधसागर फॉल्स भारत का पांचवां सबसे लंबा फॉल्स है. बारिश के दिनों में तो उसकी ख़ूबसूरती और बढ़ जाती है. उसके चारों ओर वेस्टर्न घाट के जंगल हैं. अच्छा चलती हूं, तेरे अंकल को खाना देना है.” अचानक ही आंटी उठ खड़ी हुईं. थके क़दमों से वे सीढ़ियां उतर गईं.
सुधाकर का टूर इस बार लंबा हो गया था, लेकिन वह सोचकर आया था कि आंटी को गोवा ले जाएगा. अंकल भी कैसे हैं कि उनकी इतनी मामूली-सी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकते. आख़िर गोवा कौन-सा दूर था.
सीढ़ियां चढ़ ही रहा था कि अंकल नज़र आ गए. दरवाज़ा खुला ही था, जो अमूमन बंद ही रहता था. “अच्छा हुआ जो तू आ गया. आंटी को अस्पताल ले जाना होगा. एंबुलेस आ रही है. जा मिल ले जाकर उससे. मेरा भाग्य भी कैसा है, जिसे प्यार करो, वही छोड़कर चला जाता है.” अंकल बुदबुदा रहे थे. मानो नीम बेहोशी में हों. आंटी बेसुध थीं. सुधाकर के हाथों की छुअन से उन्होंने आंखें खोलीं.
“आ गया बेटा. देख, मैं तेरा ही इंतज़ार कर रही थी. अब कोई मुझे दूधसागर फॉल्स जाने से नहीं रोक पाएगा. तेरे अंकल ने मुझसे वादा किया है कि वह मुझे वहां ले जाएंगे. वहीं ढूंढ़ूंगी उसे…” सुधाकर न कुछ समझने की स्थिति में था, न ही सोचने की. एंबुलेस के अस्पताल पहुंचने से पहले ही आंटी दम तोड़ चुकी थीं. पूरे रास्ते अंकल उनका हाथ थामे बैठे थे, मानो छोड़ा तो आंटी का साथ छूट जाएगा. आंटी को कैंसर था, वह कभी जान नहीं पाया था. यह बात उसे ग्लानि से भर देती. अंकल क्यों आंटी से इतना कटु व्यवहार करते थे, वह अब समझ पा रहा था. वे जानते थे कि एक दिन उन्हें भी खो देंगे. आंटी चली गईं और अंकल के भीतर उगे कैक्टस और फैल गए.

“तेरी आंटी की इच्छा थी कि उनकी राख को दूधसागर फॉल्स में बहा दूं. जीते जी तो मैं उसे वहां जाने से रोकता रहा, पर अब नहीं रोक सकता.” पहली बार उसने अंकल को फूट-फूटकर रोते देखा था. लग रहा था कि कैक्टस के कांटे उनके शरीर और मन के साथ-साथ घर के हर कोने में भी छितर रहे हैं.
“मैं भी चलूंगा आपके साथ.”
“नहीं बेटा. मैं अकेला ही जाऊंगा.” उनके मुंह से बेटा सुन सुधाकर द्रवित हो उठा था.
“पर अंकल…?”
“जानता हूं तू जानना चाहता है कि आख़िर तेरी आंटी दूधसागर फॉल्स ही क्यों जाना चाहती थीं. हमारे बेटे का प्लेन क्रैश वहीं हुआ था. मैं नहीं चाहता था कि वहां जाकर वह दुखी हो, इसलिए उसे वहां लेकर नहीं गया. पगली को लगता था कि उसकी लाश नहीं मिली, तो शायद वह ज़िंदा ही हो, लेकिन अब तो जाना ही होगा, मां-बेटे को अब और जुदा नहीं कर पाऊंगा…”
राख के कलश को एयरपोर्ट जाते हुए अंकल ने ऐसे पकड़ रखा था, मानो वे आंटी को अपने से अलग न करना चाहते हों. सुधाकर को लगा कि अंकल के अंदर छिपे सारे कैक्टस में असंख्य फूल खिल आए हैं. गालों पर बहते आंसुओं की नमी से उनका कठोर चेहरा पिघल रहा था. धीरे-धीरे उसे लगा कि अंकल के चेहरे पर आंटी का चेहरा उभर आया है. ममता और सहनशीलता से दमकता चेहरा.

 

  सुमन बाजपेयी

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