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कहानी- चली-चली रे पतंग (Short Story- Chali-Chali Re Patang)

‘अब जब सब चैन से हैं, तो लोगों को क्यों दर्द हो रहा है? कभी हवाहवाई, तो कभी चली-चली रे पतंग देखो… गा-गाकर छेड़ते हैं. पता नहीं लोग अपनी ज़िंदगी से ज़्यादा दूसरों की ज़िंदगी में दख़ल क्यों देते हैं? मैंने तो बच्चों को भी आज़ाद कर दिया. रहने दो उन्हें इसी सब में ख़ुश. अच्छा ही तो है किसी को ख़ुशी देना.’ वह मुस्कुराई.

तिरपन वर्षीया उर्वशी आईने में संवरते हुए अपने दो-चार चमकते उन चांदी के तारों को देख रही थी, मानो वे उसकी उम्र की गवाही देने ज़बर्दस्ती उतर आए हों, जबकि उसका रूप लावण्य उसे 40 से ज़्यादा की मानने को तैयार न था. आंखों में वही चमक, शरीर में वैसा ही कसाव, खिलता गेहुंआ रंग, संतुलित कद-काठी, कोई भी कपड़े पहनती, तो उसका रूप खिल-खिल जाता.

पति अनंत को दुनिया से गए 17 साल बीत गए. एक अरसा निकल गया. कब तक रोती. आख़िर बेटे अनन्य और अक्षुण की परवरिश करनी थी. पुरातनपंथी ससुरालवालों के विरोध करने पर भी उसने अनंत की ही कंपनी में जॉब हासिल कर ली थी. अपने अच्छे पढ़े-लिखे होने का उसे फ़ायदा मिला. वह लगन और मेहनत से दिन-ब-दिन तऱक्क़ी करती चली गई. 50 की होते-होते दोनों बच्चों को उसने सेटल कर दिया. मिलनसार हंसमुख उर्वशी अपनी मीठी ज़ुबां से सबका मन मोह लेती. बहुत से स्त्री-पुरुष उसे अपना दोस्त मानने लगे थे. अपनी समस्या उससे शेयर करते, जिनका समाधान अक्सर उसके पास होता. दूसरों की मदद कर उसे बहुत ख़ुशी मिलती. उसका यूं खुले दिल से सबसे घुलना-मिलना कुछ लोगों को रास न आता, जिसमें पड़ोसी और रिश्तेदार सभी थे, लेकिन उस पर कोई असर न होता.

आज वो फिर तैयार होकर जयेश सर के घर जा रही थी. जयेश अग्रवाल उसके बॉस थे. ऑफिस के कामों में बिल्कुल परफेक्ट, पर घर के मामलों में जल्दी घबरा उठते. लड़केवाले उनकी बेटी को देखने आ रहे थे. पत्नी गांव की थीं, कुछ

ऊंच-नीच न हो जाए, इसलिए उनकी बेटी भी चाहती थी कि उर्वशी आंटी आ जाएं. वह उर्वशी से जब भी मिली, उसके अपनेपन और अपनी पीढ़ी जैसे नए विचारों से बेहद प्रभावित हुई थी.

“फिर कहां चली बनी-ठनी पतंग बनके मैडम हवाहवाई, छुट्टी के दिन तो चैन से बैठा करो घर पर हम सहेलियों के साथ. किट्टी में भी ज़माने से नहीं शामिल हुई.” बगलवाली मिसेज़ माथुर ने टोक दिया.

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“हां, बच्चे जो यहां नहीं, तो फ़ायदा क्यों न उठाए?” मेड को सब्ज़ी दिलवाती तारा चावला ने मुस्कुराते हुए चुटकी ली.

“हां, हम तो यूं ही घर में उलझी रह जाती हैं, घर का मैनेजमेंट, पूजा-व्रत, रिश्तेदारी इनके जैसे आज़ाद परिंदे हम कहां…”

“आज इस डाल पर कल उस डाल पर…” ऑटो से उतरी नैना वोहरा ने जोड़ दिया, तो सभी खिलखिलाकर हंस पड़ीं. कार बाहर निकालते हुए उनकी फ़ब्तियां उर्वशी के कानों में भी पड़ीं, जिसकी वह अब तो आदी हो चुकी थी. उसने मुस्कुराकर सबको बाय किया और आगे निकल गई.

उसके जाने के बाद भी औरतें उसके बारे में बातों का पूरा ग्रंथ रच डालतीं. ‘क्या जवाब दे ऐसे लोगों को जिन्हें जीना नहीं आता. वे आंख मूंदकर उसी पुराने ढर्रे पर चलना चाहती हैं, ज़रा भी बदलना नहीं चाहतीं.’ एक ही खोल के अंदर जीते-मरते हैं, बस यह सोचकर कि लोग क्या कहेंगे.’

एक बेटा लंदन में सेटल है और एक ने इसी शहर में अपनी ससुराल के पास घर ले लिया है, तो क्या करें, इनके जैसे माथा पीटें, रोएं बैठकर कि अकेले रह गए, ज़िंदगी बेकार हो गई. अब ज़िंदगी में जीने के लिए बचा क्या’ सोचते हुए उर्वशी ने गर्दन झटकी. मन ही मन मुस्कुराई और चल दी. अभी तो सही समय है कुछ करने का, अपने दायित्व सब पूरे हो गए. कुछ अपने लिए, कुछ औरों के लिए बस कुछ न कुछ नया करते जाना, सीखते जाना है.

उर्वशी लौटी, तो उसके चेहरे पर बड़ी तसल्ली की रौनक़ थी. जयेश सर की लड़की दिव्या का रिश्ता तय हो गया था. तुरंत ही सगाई की रस्म भी कर दी गई. उर्वशी ने सब बख़ूबी संभाल लिया था. जयेश का पूरा परिवार बहुत ख़ुश था. सारे लोग तो उसे अपने से लगते. चेंज करके जब वह बेड पर आई, तो सोचने लगी, कहां है वह अकेली? इतने लोग, इतने परिवार, इतने काम हैं यहां करने को, अभी खाली कहां? अकेली कहां? उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई. चश्मा उतारा और जाने वह कब नींद की आगोश में खो गई.

उर्वशी की औरों से अलग अपनी अनोखी दुनिया थी. वह बेहद क्रिएटिव थी, जिनके लिए उसे समय कम पड़ता. अपने इतने सारे शौक़ थे, फुर्सत में होती, तो कोई भी अपने पेंडिंग शौक़ के काम उठा लेती और चाव से मसरूफ़ हो जाती. नए गीत-ग़ज़ल लिखना, सुनना, गुनगुनाना, पेंटिंग, स्केच करना, नया प्लांट लगाना, कभी किचन में नई रेसिपी ट्राई करना या नया कुछ ईज़ाद करना.

कुछ न कुछ नया सीखते-करते रहना उसे अच्छा लगता, वरना वो बेचैन हो जाती. शादी के बाद ज़िम्मेदारियां संभालने में उसे व़क्त ही कहां था अपनी रुचि के काम करने के लिए. परिवार के साथ दायित्व निभाते हुए भी ख़ुश तो बहुत रही, पर अंदर से अनमयस्क-सी रही. कुछ छूटा-सा लगता था, तो अब ज़िंदगी का पूरा आनंद उठा  रही थी.

लोगों के कमेंट पर यही सोचती ‘पता नहीं पड़ोसिनों, रिश्तेदार महिलाओं को क्या परेशानी है. नहीं आता उनकी बातों में उसे मज़ा तो क्या करे? एक ही ढर्रे की बातें, वही टॉपिक, नई ड्रेस, साड़ी, शॉपिंग रेट, नई ज्वेलरी, नई गाड़ी या किसी की लड़की का किसी के साथ चक्कर, व्रत-पूजा-पाठ, सिद्ध बाबा के प्रवचन,

भजन-कीर्तन, मंदिर, तीर्थदर्शन या सास-ननद-पति पुराण और कैसे भूला जा सकता है उनका मेड-सर्वेंट चैप्टर… उफ़्फ़’ उर्वशी का दिल कांप उठता.

वह सोचती कम से कम ऑफिस कलीग्स या दोस्त ऐसी बेकार की बातें कर मेरा दिमाग़ और वक़्त तो नहीं ज़ाया करते. उनके साथ योग, वॉक, कभी कोई नेक काम, किसी की मदद के लिए चली जाती. फुर्सत होती, तो कभी अपने शौक़ पूरे करती. कभी दोस्तों के संग टेबल टेनिस-बैडमिंटन खेलती या कभी पिकनिक, टूरिस्ट प्लेस, कभी मूवी, बाहर रेस्टोरेंट में डिनर, तो कभी घर पर अपना बनाया स्पेशल लंच-स्नैक्स कराती. इसके अलावा कभी बेटे-बहू-बच्चे आ जाते या वो ख़ुद जाकर मिल आती बच्चों से, तो क्या बुरा है जीवन? उसने ख़ुद ही तो चुना था ये जीवन.

बहू शालिनी वैसे तो मॉडर्न ख़्यालों की थी, पर सास की आज़ादी से उसे भी अपने मायकेवालों की तरह ही गुरेज था. कहती, “इस उम्र में ये सब आवारगी-सी है. ये इतना खुलापन आज़ादी आपको शोभा नहीं देती. लोग बातें बनाते हैं, बदनामी होती है हमारी.”

वह जानती नहीं क्या? शालू अलग घर चाहती थी. इस बहाने अपने पति राघव को वो मायके के पास ही खींच ले गई. ज़िद करके वहीं एक दूसरा घर भी बनवा लिया. राघव ने तो बहुत कहा कि मां के बिना वह दूसरे घर में हरगिज़ रहने नहीं जाएगा, पर उर्वशी बच्चों की ख़ुशी समझ रही थी.

उसने राघव को समझाया, “तो इसमें ग़लत क्या है? ठीक ही है ना, सोसायटी के ये छोटे-छोटे फ्लैट हैं. घर में बच्चे के लिए खेलने की जगह कम है. वहां उसका मायका पास है. शालू ख़ुश रहेगी, मेरे पोते शैंकि को भी उसके मामा के बच्चे खेलने के लिए मिल जाया करेंगे और जगह भी. यह भी तो देख न, हम रहते तो एक छत के नीचे हैं, पर कितनी देर साथ बैठ पाते हैं. सभी अपने-अपने कामों में बिज़ी रहते हैं. ऐसे वीकेंड पर कभी तुम सब, कभी मैं

आते-जाते रहेंगे. जब चाहे वैसे भी मिलते रहेंगे. शालू ख़ुश रहेगी, तो तुझे भी ख़ुश रखेगी. तुम सब ख़ुश रहोगे, तो मैं भी ख़ुश और चाहिए भी क्या… बेकार की मेरी चिंता मत कर. इतने सारे शौक़ हैं मेरे, अकेली कहां हूं मैं? फिर यहां कितनी यादें बिखरी पड़ी हैं चारों ओर, जो मुझे जीवन से जोड़े रखती हैं.” किसी तरह उर्वशी राघव को समझा पाने में सफल हुई थी.

‘अब जब सब चैन से हैं, तो लोगों को क्यों दर्द हो रहा है? कभी हवाहवाई, तो कभी चली-चली रे पतंग देखो… गा-गाकर छेड़ते हैं. पता नहीं लोग अपनी ज़िंदगी से ज़्यादा दूसरों की ज़िंदगी में दख़ल क्यों देते हैं. मैंने तो बच्चों को भी आज़ाद कर दिया. रहने दो उन्हें इसी सब में ख़ुश. अच्छा ही तो है किसी को ख़ुशी देना.’ वह मुस्कुराई.

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आसमान पर बादलों की टोलियां ठंडी हवाओं के साथ मस्ती में उड़ रही थीं. वह धीरे-धीरे ख़ुद ही गुनगुना उठी- चली-चली रे पतंग, देखो चली रे… उसने वॉर्डरोब से धानी रंग की साड़ी निकाली और पहनकर आईने के सामने आ खड़ी हुई. काला बॉर्डर उसकी खुली रंगत पर ख़ूब खिल रहा था. बालों को संवारा, पर बांधने को दिल नहीं किया उसका.

आज सच में दिल की पतंग आसमान छूने उड़ी-उड़ी जा रही थी. उसने ग़ज़लों का बज रहा रिकॉर्ड बंद कर दिया. अपना गाना उसे अधिक रुचिकर लग रहा था. सुबह बना रही पेंटिंग को उसने झीने कपड़े से कवर किया. खुली कलर ट्यूब के ढक्कन बंद करके उसने सैंडल पहनी. मोबाइल और पर्स उठाया, घर लॉक किया और गुनगुनाते हुए बाहर पैदल ही निकल आई.

पास के मार्केट से बड़ा-सा केक लिया और छोटे-छोटे बहुत सारे गिफ्ट्स. आज फिर उसे ‘आशियां’ अनाथालय जाना था. वहां किसी बच्चे का जन्मदिन है. वह देर-सबेर ज़रूर पहुंचती. आज तो संडे ही था. वह ढेर सारे पैकेट्स के साथ सुहावने मौसम का मज़ा लेते आहिस्ता-आहिस्ता चलते हुए घर लौटी, तो सब्ज़ी लेते-लेते गप्पे लड़ा रही पड़ोसिनों के कमेंट शुरू हो गए.

“कहां की तैयारी है मैडम हवाहवाई! संडे को भी पतंग बनी लहराती-इठलाती कहां से आई, कहां को चली?”

“आज कोई दोस्त आ नहीं रहे क्या?”

“कितने सारे दोस्त हैं इनके… आज  कोई भी नहीं…” चुटकी ली गई थी.

“औरतें कम, पुरुष ज़्यादा ये नहीं ध्यान दिया?” वही व्यंग्यात्मक सम्मिलित हंसी.

“पतंग-सी उड़ना है, तो किसी से डोर बांध क्यों नहीं लेती? कोई देखनेवाला तो है नहीं, आज़ाद हो.”

“एक कट गई, तो कोई और डोर मिल जाएगी भई…” वही ठहाके.

“बताओ तो हमें भी चली-चली रे पतंग कहां चली रे…?”

मन तो कर रहा है गाकर ही सुना दूं इन्हें. चली बादलों के पार अपनी कार पे सवार…सारी दुनिया ये देख-देख जली रे… बादल झूमेंगे, तो मोर को नाचने से कौन रोक पाएगा भला… पर क्या बताए इनको, इन्हें कुछ सही समझ आएगा क्या भला? बस, इसी तरह की बकवास बातों में ही इनकी ज़िंदगी का आनंद है. कुछ कहूं तो पल्ले पड़नेवाला नहीं. वह जवाब में उन्हें क्या बोलती, “बस यूं ही.” कहकर मुस्कुरा दी.

सारे उपहार पैकेट्स कार में डाले, फिर सामने ठेले पर से अपने लिए नमक नींबू लगा गर्म भुट्टा ख़रीदा, दांतों में दबाया और मौसम का आनंद लेते हुए उत्साह से चल पड़ी ऐसे गंतव्य की ओर, जहां बहुत सारे नन्हें उत्कंठापूर्वक उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे.

डॉ. नीरजा श्रीवास्तव ‘नीरू’

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