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कहानी- चौमुख दिवला (Short Story- Chaumukh Diwla)

हाथ में चौमुख दीप लेकर जैसे ही वह जलाने लगी कि उसे भगवती चरण वर्मा की कविता की वह पंक्ति याद आ गई- चौमुख दिवला बार सखी री, चौमुख दिवला बार, जाने कौन दिशा से आयें मेरे राजकुमार… अचानक रिनी को लगा जैसे रजत राजकुमार के वेश में अपनी मोटर साइकिल पर चला आ रहा है. वह विचलित हो उठी थी. अभी जब वह ख़ुद चौमुख दीप जलाने के लिए खड़ी थी, तो सोचा काश! इन्हीं दीपों के प्रकाश में उसका राजकुमार भी आ जाता.

पहले भी उसके साथ ऐसा ही होता था. घर से रिक्शे की खोज में जब वह गर्दनी बाग से खगौल रोड पर पहुंचती, तभी रेलवे क्रॉसिंग के पास उसे रिक्शा मिल पाता था. एसेम्बली से होकर रिक्शा आर ब्लॉक के रास्ते से होता हुआ उसे पटना वीमेन्स कॉलेज के गेट पर लाकर उतार देता. किसी दिन दुर्भाग्य से कोई मरियल रिक्शावाला मिल जाता, तो सारे रास्ते वह उसे कोसती हुई कॉलेज पहुंचती. उस विशाल, भव्य एवं दर्शनीय इमारत को देखकर लगता जैसे वह कॉलेज न होकर कोई भव्य दुर्ग हो.
निचली मंजिल पर मेटि कार्मेल स्कूल, उससे ऊपर कॉलेज, फिर हॉस्टल तथा अंतिम मंज़िल पर सिस्टर्स का आवास. मैदान में कहीं स्कूली बच्चे खेल रहे होते, तो कहीं कॉलेज की लड़कियां झुंड में बैठी मूंगफली खा रही होतीं. उसे याद आया कि प्रायः मॉरल साइंस के पीरियड में सभी लड़कियां क्लास से धीरे-धीरे खिसक कर कास के पौधों के बीच घास पर दुबक जातीं. आज उन बातों को याद करके रिनी फिर अतीत की गलियों में भटकने को विवश हो गई.
इन पांच वर्षों में बहुत कुछ बदल चुका था. उस वक़्त वह इस कॉलेज की छात्रा थी और आज वह यहां लेक्चरर नियुक्त होकर आई थी. अतीत उसका आंचल पकड़कर लगातार पीछे की ओर खींचे लिए जा रहा था.
रजत से उसकी प्रथम भेंट इसी कॉलेज के गेट पर हुई थी. वह बहुत दिनों से गौर कर रही थी कि उसके रिक्शे के पीछे कोई लड़का मोटर साइकिल चलाता हुआ कॉलेज के गेट तक प्रतिदिन आता है. उस दिन तो हद हो गई. वह रिक्शेवाले को पैसे देकर आगे बढ़ी ही थी कि पीछे से उस लड़के ने उसे आवाज़ दी, “सुनिए… प्लीज़… बस एक मिनट के लिए ही सही.” लड़का गेट तक पहुंच चुका था. लड़कियों की भेदती दृष्टि से बचने के लिए उसने रुक जाना ही मुनासिब समझा. उसने आग्नेय दृष्टि से पूछा,
“कहिए… कौन सी ऐसी बात आप कहना चाहते हैं कि आपको रिक्शे का पीछा करना पड़ता है?”
“देखिए… बात कुछ ऐसी है कि मैं चाहकर भी यहां नहीं कह सकता.” उसने झिझकते हुए कहा.
“तो क्या मैं आपके घर चलूं?” क्रोध से उफनते हुए रिनी ने कहा.
“नहीं… नहीं… ऐसी बात नहीं है… आप तो नाराज़ हो गईं… क्या आप कुछ देर के लिए कहीं चलकर मेरी बातें नहीं सुन सकतीं?”
“देखिए मिस्टर… मैं यहां पढ़ने आती हूं, आप जैसों से बातें करने के लिए नहीं. हां… आइंदा मेरा पीछा करने की हिमाकत मत कीजिएगा.” क्रोध से फुफकारती हुई रिनी गेट के अंदर चली गई.


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रिनी ने समझा था कि बात आई-गई हो गई. अब वह लड़का फिर कभी पीछा करने की हिम्मत नहीं करेगा, पर यह उसकी भूल थी. वह पहले की तरह ही उसके रिक्शे का पीछा किया करता, पर पास आने की उसकी हिम्मत न होती. कभी-कभी वह अपनी मोटर साइकिल को रिक्शे के बगल में ले आता, तो रिनी बेहद घबरा उठती, क्योंकि किसी लड़के से बातें करने भर से ही लोग तरह-तरह की कहानियां गढ़ लेते थे.
उस दिन ट्यूटोरियल क्लास की वजह से वह समय से ज़रा
पहले ही कॉलेज जा रही थी. तेज़ रफ़्तार के कारण रिक्शे की चेन, एसेम्बली के रास्ते से निकलते ही उतर गई. रिक्शेवाला रिक्शे से उतरकर चेन ठीक कर रहा था कि तेज रफ़्तार से मोटर साइकिल चलाता हुआ वह लड़का वहां आ पहुंचा.
“… प्लीज़… आज आप नाराज़ न हों… मैं बेहद परेशान हूं.” लड़के ने हिचकते हुए कहा.
“कहिए… आपकी परेशानी क्या है, वैसे मैं आपकी परेशानी का कारण सुनकर करूंगी भी क्या?” रिनी ने लोगों की नज़रों से बचने के लिए बहुत ही सहज एवं स्वाभाविक होकर कहा.
“मेरा नाम रजत है. मैं आई. पी. एस. की तैयारी में लगा हूं.”
“तो इसमें मैं आपकी क्या मदद कर सकती हूं?.. प्लीज़ आप मेरा वक़्त बर्बाद न करें.” रिनी ने झल्लाते हुए कहा. “आप समझती नहीं… कैसे समझाऊं आपको..?” रजत ने हताश होकर कहा.
“बाइ द वे, आपको मेरा टाइम टेबल कैसे मालूम हो गया? आज तो मैं रोज़ के समय से पहले कॉलेज जा रही हूं?” रिनी ने प्रश्न का गोला दागा.
“मैं आपके विषय में सब कुछ पता रखता हूं… मसलन.. आप अपने मामा के घर रहती हैं.”
रिनी जैसे आसमान से गिरी हो, वह विस्फारित नेत्रों से क्षण भर रजत को देखती रही और फिर अवश होकर उसने पूछा, “आप मुझसे चाहते क्या हैं?”
“दोस्ती… सिर्फ़ दोस्ती करना चाहता हूं.”
“ज़मीन-आसमान में कभी दोस्ती नहीं होती.” रिनी ने पीछा छुड़ाते हुए कहा.
“आपने शायद क्षितिज नहीं देखा जहां ज़मीन और आसमान मिलते हैं.” रजत ने हिम्मत बटोर कर कहा.
“क्षितिज तो सिर्फ़ एक धोखा है, इन घिसी-पिटी बातों के लिए मेरे पास बिल्कुल वक़्त नहीं है.” रिनी ने थक-हार कर कहा.


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अब तक रिक्शेवाला चेन ठीक कर चुका था. रिनी का मन उस दिन कॉलेज में नहीं लगा. उसे अपना घर बेहद याद आने लगा. चार युवा बेटियों के बोझ से दबे रिटायर्ड पिता की याद आते ही उसकी आंखें भर आईं. उसके पिता की विवशता देख, सबसे छोटी होने के कारण मामा उसे अपने घर ले आए थे. मामा उसे बेहद प्यार करते थे. मामा से अधिक प्यार उस पर मामी बरसाती रहती थीं. मामी की ममता के विस्तृत आंचल के पीछे बहुत कुछ छिपा था, जो कि रिनी हर क्षण महसूस करती थी.
उनके प्यार से अधिक उनके कार्य भार तले वह दबती गई थी. कॉलेज जाने से पहले उसे रसोई के सारे काम निबटाने पड़ते थे. उसकी ममेरी बहनें पढ़ाई के बहाने उपन्यासों में डूबी रहती थीं. रिनी इस कटु सत्य को जानती थी कि काम करने की वजह से ही उसे दो वक़्त की रोटी मिल रही है. ऐसी विकट परिस्थिति से उबरना ही उसे कठिन प्रतीत हो रहा था और ऐसे में रजत भी उसके लिए मुसीबत बन कर खड़ा हो गया था.
रिनी की प्रतिभा एवं सुंदरता उसकी ममेरी बहनों की आंखों में बेहद खटकती थी. इस हीन बोध ने उनके संबंधों में कटुता घोल दी थी. कहीं उन्होंने कॉलेज के गेट पर प्रतीक्षारत रजत को देख लिया तो? उन बहनों में से एक बहन विधु भी उसी कॉलेज में पढ़ती थी, पर उसका टाइम टेबल बिल्कुल अलग था.
उस दिन मूसलाधार बारिश हो रही थी. रिनी ऑनर्स क्लास छोड़ना नहीं चाहती थी. बहुत मुश्किल से तेज़ बौछारों की असहनीय मार सहते हुए उसकी रिक्शा आगे बढ़ रही थी कि अचानक उसे लगातार छींक की आवाज सुनाई दी. उसने बाहर झांका तो एक पेड़ के नीचे रजत छींकते हुए नज़र आया. वह घबराकर उन पर्दों के बीच और भी सिमट गई. रिक्शे के पर्दे के पीछे भी उस दृष्टि के स्नेहल स्पर्श को महसूस कर वह सिहर उठी. रजत बुरी तरह से भीग गया था. जब तक वह अपनी इस छींक पर काबू पाता, रिक्शा आगे बढ़ गया. रिनी दूर तक इस छींक को सुनती रही.
मनुष्य का स्वभाव भी अजीब है, जिस व्यक्ति को देखकर रिनी झल्ला उठती थी. उसे ही सप्ताह भर से प्रतीक्षारत न पाकर वह बेचैन हो उठी. उसकी दृष्टि दूर तक रजत को ढूंढ़ आती. उसे रोज़ प्रतीक्षारत देखने की रिनी को जैसे आदत सी पड़ गई थी. पहले दिन उसे बेहद आश्चर्य हुआ था. उसने सोचा शायद बारिश में बहुत भीग जाने से रजत बीमार पड़ गया होगा. कॉलेज में उसका मन बिल्कुल नहीं लगा. कभी वह लाइब्रेरी में जाकर पुस्तकों में उलझने की चेष्टा करती, तो कभी मदर मेरी की मूर्ति के निकट जाकर बैठ जाती. अपनी इन हरकतों से वह स्वयं परेशान हो उठी. उसकी हर सांस मानो रजत को आवाज़ दे रही थी. संशय के ज्वार में वह डूबती-उतराती रही. कहीं वह बीमार तो नहीं? रजत के भोले-भाले मुखड़े की याद आते ही उसे अपनी उग्रता एवं निष्ठुरता याद आने लगी. रिनी की झिड़कियों की अनवरत बौछार से भी रजत कभी विचलित नहीं हुआ था. रिनी सब कुछ भूलकर अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहती थी, क्योंकि परीक्षा अब सिर पर थी. हृदय के अंतरतम कोने में उस कसक को दफ़ना कर वह परीक्षा की तैयारी में जुट गई.
सप्ताह भर के अंदर ही उसकी परीक्षा समाप्त हो गई थी. परीक्षा देकर जब वह घर लौटने लगी, तो अंतिम बार उसने कॉलेज के गेट के आसपास देखा. निराशा से उसकी आंखें भर आईं. रजत का पता तक उसके पास न था और दूसरे ही दिन उसे अपने पिता के पास लौट जाना था.
‘वह बीमार ही होगा, अन्यथा वह उससे मिलने अवश्य आता.’ रिनी मन में अनेक तर्क-वितर्क करती रही. स्वस्थ होते ही वह उसे कितना ढूंढ़ेगा? रिनी की सारी विवशता उसकी सिसकियों में फूट पड़ी.


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आज पांच वर्षों के बाद रिनी फिर उन्हीं सूनी राहों से चलकर इस गेट पर पहुंची थी. इन पांच वर्षों में बहुत कुछ बदल चुका था. रिनी ने हालात से समझौता भी कर लिया था. रजत एक मधुर झोंके की तरह उसके जीवन में आया था और उसी वेग से लौट भी गया था. फिर भी उसने रिनी के हृदय में अपना स्थायी आवास बना लिया था. उस रिक्त स्थान तक फिर कोई दूसरा पहुंच नहीं पाया था.
रिनी के वृद्ध पिता अपनी इस सबसे छोटी लड़की के हाथ पीले करने का ख़्वाब पूरा न कर सके. वे रोगों से संघर्ष करते हुए मौत को गले लगा चुके थे.
रिनी ने बेली रोड में एक मकान किराए पर ले लिया. इस बार उसने अपने मामा जी के यहां अधिक दिनों तक ठहरना उचित नहीं समझा. उन रास्तों से कॉलेज आने में उसका दर्द उभर आता था. बीती बातें उसे याद आने लगतीं. कॉलेज में उसे छात्राओं को पढ़ाने में बहुत आनंद आता था. रिनी जब भी महादेवी वर्मा की कविताएं उन्हें पढ़ाने लगती, उसे एक अजीब सी उदासी घेर लेती. वेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति के साथ वह भी उसी में डूब जाती.
पिताजी के न रहने के कारण वह दिवाली पर घर नहीं गई. दिवाली के दिन उसने अपने घर को दीपों से सजाया. हाथ में चौमुख दीप लेकर जैसे ही वह जलाने लगी कि उसे भगवती चरण वर्मा की कविता की वह पंक्ति याद आ गई- चौमुख दिवला बार सखी री, चौमुख दिवला बार, जाने कौन दिशा से आयें मेरे राजकुमार… अचानक रिनी को लगा जैसे रजत राजकुमार के वेश में अपनी मोटर साइकिल पर चला आ रहा है. वह विचलित हो उठी थी. अभी जब वह ख़ुद चौमुख दीप जलाने के लिए खड़ी थी, तो सोचा काश! इन्हीं दीपों के प्रकाश में उसका राजकुमार भी आ जाता. और वह बहुत देर तक चौमुख दीप को हाथ में लेकर बीती बातों को सोचती रही. फिर अपने कमरे में आकर बैठ गई. अचानक कुछ शोर-सा उठा और उसके घर के सामने भीड़ इकट्ठी हो गई.
रिनी कुछ क्षणों तक शोर सुनती रही और फिर उत्सुकतावश बरामदे में चली आई, कुछ लोग एक बेहोश व्यक्ति को लेकर उसके बरामदे में चले आए.
“एक्सक्यूज मी… आप क्या थोड़ा पानी दे सकती हैं?” एक व्यक्ति ने हिचकिचाते हुए कहा.
“क्यों नहीं… क्यों नहीं… आप लोग इन्हें यहीं पर लिटाइए.” तख्त की ओर इशारा करते हुए कहा.
एक्सीडेन्ट की वजह से वह व्यक्ति पूर्णतः बेहोश था. पानी देने के बाद रिनी बरामदे के कोने में खड़ी सब कुछ देखती रही.
“उसे होश आ रहा है, कुछ देर आराम करके यह चला जाएगा, हम लोग अब चलते हैं.” रिनी को ग्लास वापस करते हुए उस व्यक्ति ने कहा.
रिनी डर गई कि कहीं उस व्यक्ति को ज़्यादा चोट आ गई हो और पुलिस के डर से वे लोग उसे छोड़कर चले गए हों. उसने असहाय होकर अपने आसपास देखा. तभी उस बेहोश व्यक्ति ने करवट बदली. रिनी को वह चेहरा कुछ पहचाना सा लगा. वह जब तक उसके क़रीब आई, वह उठकर बैठ गया. नज़रें मिलते ही दोनों एक साथ चौंक उठे.
“… आ… प?”
वह व्यक्ति तो उठकर खड़ा हो चुका था, पर रिनी को चक्कर सा आ गया और वह लड़खड़ा गई.
“मुझे विश्वास था कि एक न एक दिन मैं आपको ज़रूर ढूंढ़ लूंगा. आप तो मुझे अचानक छोड़कर चली गई थीं.” रजत ने रिनी को अपनी बांहों का सहारा देते हुए कहा.
“मुझे जैसे ही पता चला कि आपने यहां ज्वाइन किया है, तभी से खोज में था. कॉलेज बंद था, अन्यथा वहीं आपसे मिल लेता. वैसे मुझे पूर्ण विश्वास था कि आपको अवश्य गिरफ़्तार करके आजीवन कारावास दे दूंगा. बहुत परिश्रम करके ही एस. पी. बन सका हूं.” रजत भावावेश में लगातार बोले जा रहा था.
उसने रिनी को सहारा देकर बरामदे में रखी हुई कुर्सी पर बैठाया. रिनी को समझ में नहीं आ रहा था कि वह स्वप्न देख रही है या…
“अब मैं, क्षितिज के पार की ज़िंदगी आपको दिखाऊंगा. आप मेरे अथाह प्यार के समंदर में डूब जाएंगी. बहुत इंतज़ार करवाया है आपने. क्या सोचती हैं, आप ही कुंवारी रह सकती हैं?”
रिनी अब स्वयं को संभाल नहीं सकी और रजत के सीने से लिपट गई. सिसकियों से उसका शरीर बुरी तरह से हिल रहा था.
चौमुख दीप के उज्जवल प्रकाश में दोनों देर तक बरामदे में ही हाथों में हाथ डाले बैठे रहे. उस स्पर्श ने दोनों को अपनी आपबीती सुनाई. दोनों के हाथों का कसाव भावातिरेक में कभी बढ़ जाता, तो कभी शिथिल हो जाता. अचानक रिनी की नज़र गेट के पास खड़ी मोटर साइकिल पर पड़ी. उन मधुर स्मृतियों ने उसे फिर से अपने बाहुपाश में जकड़ लिया, पर इस बार इसमें वह अकेली नहीं थी. जीवन के इस मरुस्थल में वह अकेली चलती हुई थक चुकी थी. रजत की स्नेह छाया में बैठकर वह सोच रही थी कि काश! उसने कुछ वर्ष पूर्व ही इस चौमुख दीये को जला लिया होता, तो उसकी ज़िंदगी को रोशनी के लिए इतना तड़पना न पड़ता.

– लक्ष्मी रानी लाल

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Usha Gupta

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