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कहानी- दर्पण (Short Story- Darpan)

“यह सब पता होता तो कभी शादी ही नहीं करता. आख़िर क्यों करनी है शादी?” श्रीयंत झुंझलाकर कुछ ऊंची आवाज़ में बोला,  “पैसा अलग ख़र्च होता है, आज़ादी भी छिन जाती है, माता-पिता, रिश्तेदारों से रिश्ता ख़त्म-सा हो जाता है. नौकरी के साथ-साथ घर के कामों में अलग मदद करनी पड़ती है और रात को पत्नी को उसकी मर्ज़ी के बिना हाथ भी नहीं लगा सकते. आख़िर कोई बताए मुझे कि आज के लड़के विवाह क्यों करें?” श्रीयंत बिलकुल भाषण देनेवाले अंदाज़ में बोला.

रात के आठ बजनेवाले थे. श्रीयंत सड़क की भीड़ से उलझा हुआ कार ड्राइव करता हुआ ऑफिस से घर जा रहा था, पर दिमाग़ में विचारों का घमासान व दिल में भावनाओं की उठापटक जारी थी. ऑफिस में रिनी का फोन आया था कि कियान की तबीयत ठीक नहीं लग रही. डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा, पर चाहते हुए भी वह जल्दी नहीं निकल पाया था. बॉस ने छह बजे मीटिंग रख ली थी. अति व्यस्त नौकरी और घर-गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर बिठाते-बिठाते कभी-कभी उसका हृदय अत्यधिक खिन्न हो जाता था. कार पार्किंग में लगाकर, अपने फ्लैट पर पहुंचकर उसने घंटी बजा दी. रिनी जैसे तैयार ही बैठी थी. दरवाज़ा खोलते ही शुरू हो गई. “अब आ रहे हो? बच्चे की भी चिंता नहीं है तुम्हें. हर समय बस नौकरी-नौकरी. अगर बच्चे को कुछ हो गया, तो क्या करोगे इस नौकरी का?” घर आकर उसको पानी भी नहीं पूछा था. दिनभर क्लांत तन-मन रिनी के उलझने से उबल पड़ने को बेचैन हुआ. दिल कर रहा था कपड़े बदलकर, एसी और पंखा चलाकर बिस्तर पर लेट जाए, पर कियान को डॉक्टर को दिखाना ज़रूरी था. उसने कियान का माथा छुआ. बुख़ार से तप रहा था. “चलो, जल्दी चलो.” वह बिना रिनी की बात का जवाब दिए बाहर निकल गया. डॉक्टर के पास से वापस आए, तो दिल और भी खिन्न हो गया.
पांच वर्षीय कियान को वायरल हो गया था. मतलब कि अगले कुछ दिन व्यस्त से भी व्यस्ततम निकलनेवाले थे. “रिनी तुम ड्राइविंग क्यों नहीं सीखतीं? कार नहीं, तो स्कूटी ही सीख लो. कई मुश्किलें आसान हो जाएंगी.” एक दिन श्रीयंत रिनी का मूड अच्छा देखकर बोला था. “घर-गृहस्थी व बच्चा संभालूं या फिर… किस समय जाऊं सीखने तुम्हीं बताओ?”
“सीखने की इच्छा रखनेवालों को पूछना नहीं पड़ता. वो समय निकाल ही लेते हैं.” श्रीयंत भन्नाकर बोला.
“तुम तो बस हवा में बातें करते हो. मुझे नहीं सीखना और सीखने की ज़रूरत क्या है?”
“ज़रूरत तो बहुत है. छोटे-छोटे कामों के लिए मेरा मुंह देखती हो. आजकल महिलाएं कितनी आत्मनिर्भर हैं.”
“आत्मनिर्भर? मैं पैसे नहीं कमाती, इसलिए कह रहे हो. अच्छी-ख़ासी डिग्री है मेरे पास. चाहूं तो मैं भी कमा सकती हूं, पर तुम्हीं नहीं चाहते.” रिनी उसकी बात समझे बिना, बातचीत का रुख मोड़ते हुए बोली.

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श्रीयंत का दिल किया, फट पड़े. ‘एक स्कूटी-कार सीखने के लिए समय नहीं है. घर-बाहर के काम हो नहीं पाते. नौकरी करना क्या आसान है?’ पर यथासंभव स्वर को शांत रखकर बोला, “यह मैंने कब कहा? आत्मनिर्भरता का मतलब सिर्फ़ पैसा कमाना ही नहीं होता. स्कूटी या कार ड्राइविंग आने से बाहर के सभी काम तुम ख़ुद कर सकोगी. इन बातों में आत्मनिर्भर होना आज की गृहिणी के लिए कितना आवश्यक है. एक पति को कितनी मदद मिलती है इससे. आजकल तो माता-पिता ही शादी से पहले यह सब सिखा देते हैं लड़कियों को.”
“मेरे पिता ने अच्छा-ख़ासा दहेज दिया था. कार ड्राइविंग नहीं सिखाई तो क्या? कार तो दी थी.” रिनी चिढ़कर बोली.
“उफ़्फ्! तुम्हारे पिता और तुम्हारा दहेज. मांगा किसने था. आजकल इस दहेज की ज़रूरत नहीं होती. ज़रूरत है लड़कियों को ज़माने के अनुसार अंदर-बाहर के कामों के लिए परफेक्ट बनाना, कोरी डिग्री लेना नहीं तुम्हें ड्राइविंग नहीं आती, सीखना भी नहीं चाहतीं, इसलिए बाहर के छोटे-से-छोटे कामों के लिए मुझ पर निर्भर रहती हो.”
अस्पताल से घर आते, ड्राइव करते हुए श्रीयंत यही सब सोच रहा था. अगर आज रिनी ख़ुद ही समय से कियान को डॉक्टर को दिखा लाती, तो न उसकी तबीयत ज़्यादा ख़राब होती और न उसे ऑफिस से घर आकर इस कदर परेशान होना पड़ता. पर रिनी जैसी लाड़-प्यार में पली लड़कियों की बात ही अलग है. नाज़ुक इतनी कि गृहस्थी भी ठीक से नहीं संभाल पाती. नकचढ़ी इतनी कि रिश्तेदारों या सास-ससुर को पास नहीं फटकने देती और शान-बान इतनी कि घर-बाहर के काम करने में नानी याद आती है. डिग्री भी इस लायक नहीं कि इतना कमा सके कि कोई बहुत अधिक आर्थिक मदद मिल सके.
घर पहुंचकर दिनभर का थका-मांदा श्रीयंत कपड़े बदलकर बिस्तर पर लेट गया. रिनी कियान के साथ थी, पर श्रीयंत के दिमाग़ में अभी भी विचारों का टहलना लगातार जारी था. छह साल हो गए हैं उसके विवाह को. जब उसके विवाह की बात चली, तो पत्नी के रूप में उसने, एक शिक्षित गृहिणी की ही कामना की. यही सोचकर कि घर व बच्चे संभालना भी एक पूर्णकालिक काम यानी फुल टाइम जॉब ही है और उसकी पत्नी घर संभालेगी, तो वह उसे पूरा तवज्जो व सम्मान देगा, जो उसने अभी तक किसी गृहिणी को मिलते नहीं देखा था. पर इन छह सालों में वह ऊब-सा गया था अपने वैवाहिक जीवन से.
नौकरी में भले ही बहुत व्यस्तता थी, पर वह एक सम्मान व संतोषजनक ओहदे पर था. माता-पिता का इकलौता बेटा होने के नाते वह उनके प्रति अपने कर्त्तव्यों को समझता था और उन्हें पूरा भी करना चाहता था. दीदी विवाह के बाद लंदन चली गई थीं. अपने बच्चों व नौकरी की व्यस्तता में वह भारत कम ही आ पाती थीं, पर बीच-बीच में माता-पिता व सास-ससुर को टिकट भेजकर बुला लेती थीं. उसके पिता ने काफ़ी कठिनाई व सीमित आय के साथ व मां ने अथक परिश्रम व किफ़ायत से अपनी इच्छाओं को मारकर, उन दोनों भाई-बहन को बहुत अच्छी स्कूलिंग व शिक्षा दी थी. दोनों भाई-बहन की कुशाग्रबुद्धि ने, माता-पिता के सपनों में मनचाहे रंग भर दिए थे, पर इन छह सालों में उसके ख़ुद के सपनों के रंग फीके पड़ने लगे थे.
वह घर-बाहर, आजकल की स्वतंत्र व स्वच्छंद युवतियों के नए विचार सुनता व पढ़ता था. जिन्हें विवाह एक ग़ुलामी से अधिक कुछ नज़र नहीं आता था. आख़िर क्यों करें वे विवाह? विवाह करने व बच्चे पैदा करने में उन्हें अपने जीवन की सार्थकता नज़र नहीं आती थी. लेकिन जब वह अपने जैसे युवकों के बारे में सोचता है, तो पूछना चाहता है कि उनके जीवन की कौन-सी सार्थकता है विवाह करने में? क्यों करें वे विवाह? क्यों पिसें वे गृहस्थी की चक्की में? अच्छा कमाते हैं, तो क्यों न रहें स्वच्छंद? आख़िर क्यों बनें वे कोल्हू के बैल… क्यों बांधें गले में घंटी? पिछली पीढ़ी तक क्या हुआ, इस फालतू की बहस में वह नहीं पड़ना चाहता था, पर आज के समय में विवाह को अधिकतर लड़कियों की नज़र से ही क्यों देखा जा रहा है? लड़कों की नज़र से क्यों नहीं सोचा जाता, लेकिन किसी से कह नहीं पाता था अपने दिल में उबलते इन विचारों को. माता-पिता ऋषिकेश के पास एक छोटे-से गांव में रहते थे. रिटायरमेंट के बाद पिता अपने गांव के घर में ही रहने चले गए थे. दोनों भाई-बहन की शिक्षा-दीक्षा के बाद, वे शहर में अपने लिए एक अदद छत बनाने लायक भी नहीं बचा पाए थे.

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वह अपने असहाय माता-पिता को अपने साथ रखना चाहता था, लेकिन रिनी को उनका स्थाई तौर पर रहना पसंद नहीं था. वह हर महीने एक निश्‍चित रक़म उनके लिए भेजना चाहता था, तो रिनी दस ख़र्चे और गिना देती और वह सोचता रह जाता कि क्यों होती है अधिकतर लड़कियों की यह शिकायत कि वे विवाह के बाद अपने माता-पिता की देखभाल नहीं कर पातीं. क्या अधिकतर लड़के कर पाते हैं? लड़कियां तो फिर भी भावनात्मक दबाव बनाकर अपने मन की करा लेती हैं, पर घर-बाहर व नौकरी में उलझा पति धीरे-धीरे इन बेकार के विवादों से कन्नी काटकर, अपने ही रिश्तों के प्रति उदासीन होने लगता है. अगले दिन उसे ऑफिस से छुट्टी लेनी पड़ी, क्योंकि कियान की तबीयत बहुत बिगड़ गई थी और वह रिनी को अपनी जगह से उठने भी नहीं दे रहा था. शाम को उसके बचपन का दोस्त शिवम उसका हालचाल लेने आ गया. दोनों दोस्त साथ बैठकर एक-दूसरे को अपना दुखड़ा सुना रहे थे.
“यार तेरा अच्छा है. तूने नौकरीपेशा लड़की से शादी नहीं की.” बातचीत के दौरान शिवम बोला.
“अरे, इसमें क्या अच्छा है. तेरी पत्नी नौकरीवाली है. कम-से-कम इतनी आय तो हो ही जाती है कि तू अपने घरवालों की थोड़ी मदद कर सके. मैं तो चाहते हुए भी नहीं कर पाता हूं.” “तो मैं कौन-सा कर पाता हूं. रियाना की नौकरी किस काम की? आमदनी अठन्नी, ख़र्चा रुपया. जो कमाती है, उस पर सिर्फ़ अपना ही हक़ समझती है. अपने शौक व मौज पर ख़र्च करती है और अपने माता-पिता, भाई-बहन पर ख़र्च करना अपना अधिकार समझती है, पर मैं ऐसा नहीं कर सकता. मुझे तो पूरी गृहस्थी चलानी है. रियाना से सलाह लिए बिना अपनी मर्ज़ी से अपने घरवालों पर ख़र्च भी नहीं कर सकता और न ही उन्हें बुला सकता हूं. रियाना हंगामा खड़ा कर देगी, लेकिन उसके घरवाले जब-तब आ धमकते हैं, मेरे मूड की परवाह किए बिना रियाना उनकी ख़ूब आवभगत करती है. आख़िर घर और किचन पर तो पत्नी का ही पहरा व हक़ होता है न, फिर कमाती भी तो है.” शिवम व्यंग से मुस्कुराया.
“इससे तो अच्छा था नौकरी ही न करती और ठीक से घर संभालती. अब तो नौकरी करके रौब अलग झाड़ती है, ‘एक तुम्हीं थोड़ी न थककर आए हो…’ अब उससे कोई पूछे, ‘चलो, नहीं थकता मैं. छोड़ देता हूं नौकरी. मैं संभालता हूं घर, पर उसकी तनख़्वाह से पूरे ख़र्चे चल जाएंगे क्या?” शिवम एकाएक भन्ना गया.
“सही कह रहा है, पर रिनी चाहे नौकरी नहीं भी करती है, पर इतनी नाज़ुक लड़कियां तो घर भी ठीक से नहीं संभाल पातीं. सब्ज़ी काटने से भी हाथ ख़राब होते हैं. खाना बनाना भी ठीक से नहीं आता. बस थोड़ा-बहुत सुपरविज़न ही हो पाता है. शौक दुनिया भर के हैं, जिसके लिए पैसा चाहिए. नौकरी के साथ-साथ घर में भी उसकी मदद करनी पड़ती है. कभी-कभी तो दिल करता है भाग जाऊं कहीं.” श्रीयंत ने भी दिल की भड़ास निकाली.
दोनों दोस्त अपनी-अपनी आधुनिक पत्नियों के रवैये से परेशान, अपनी बातों में मशगूल थे कि अचानक वीरेन आ टपका. वीरेन भी बचपन से उनके साथ पढ़ा था. पर तेज़ बुद्धि का वीरेन इंजीनियर था. उसकी पत्नी भी इंजीनियर थी. दोनों ने प्रेमविवाह किया था.
“अरे, क्या गुफ़्तगू चल रही है मेरे बिना.”
“कुछ नहीं. आ जा तू भी शामिल हो जा, हमारे पत्नी पुराण में.” शिवम हंसता हुआ बोला.
“ये क्या शामिल होगा. शनिका इसके बराबर का कमाती है. आधी से अधिक प्रॉब्लम तो यूं ही सॉल्व हो गई.”
“परेशानियां तो सब जगह रहती हैं.” उनकी बात समझकर वीरेन गंभीरता से बोला.
“मेरी परेशानियां कुछ अलग तरह की हैं.”
“वो क्या?” दोनों दोस्त बोल पड़े.
“सात साल होने को हैं शादी हुए, घरवाले ज़ोर डाल रहे हैं और अब मुझे भी लगता है कि परिवार बढ़ाने के बारे में सोचना चाहिए, पर शनिका के पास फुर्सत नहीं. अब तुम्हीं बताओ कि बच्चा कैसे होगा?” दोनों दोस्त मुंह बाये उसे निहारने लगे. “शनिका का क्या कहना है इस बारे में?” श्रीयंत बोला.

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“इस साल तो नहीं. उसका यही जवाब होता है और यही कहते-कहते वह ख़ुद 37 की हो गई है. कब सोचेगी? नौकरी की व्यस्तता की वजह से वह कुछ सोच भी नहीं पाती है और इतनी अच्छी नौकरी छोड़ भी नहीं पाती है.”
“तो फिर… क्या बच्चा करोगे ही नहीं?“ शिवम आश्‍चर्य से बोला.
“हां, यह भी हो सकता है.” वीरेन हताशाभरे स्वर में बोला.
“वैसे कुछ समय से सरोगेसी से बच्चा पैदा करने की बात भी करने लगी है.” सुनकर तीनों दोस्त हंस पड़े.
“ये अच्छा है आजकल की लड़कियों का. पैसा कमाओ और सब कुछ ऑर्डर कर दो. यहां तक कि बच्चा भी.” तीनों दोस्त अनायास ही ठहाका मारकर हंस पड़े.
“पता नहीं कैसी ज़िंदगी हो गई है.” एकाएक वीरेन संजीदा हो गया, “जब दोनों की अच्छी आय के दम पर देश-विदेश घूमना, पार्टी, दोस्तों के साथ मस्ती, एक अच्छी स्तरीय ज़िंदगी नसीब होती है, तो सब कुछ अच्छा लगता है, पर हम कहां जा रहे हैं? न अपने माता-पिता के रह गए. न अपने लिए बच्चे ही पैदा कर पा रहे हैं और किसी तरह कर भी लिए तो उनका ठीक से लालन-पालन नहीं कर पा रहे हैं.”
“यह तो तू सही कह रहा है यार.” वीरेन के चेहरे की संजीदगी, शिवम के चेहरे को भी संजीदा बना गई.
“हमारी मांओं के समय पत्नियां रोया करती थीं और पति पुराण सुनाया करतीं थीं, पड़ोसियों, सहेलियों, यहां तक कि बच्चों को भी. सबको अपने पक्ष में करने के लिए और हमारी पीढ़ी के पति अब पत्नी पुराण सुना रहे हैं, पर हम किसी दूसरे को अपना दुखड़ा भी नहीं सुना सकते, क्योंकि कहावत है न कि मर्द को दर्द नहीं होता.”
“यह सब पता होता तो कभी शादी ही नहीं करता. आख़िर क्यों करनी है शादी?” श्रीयंत झुंझलाकर कुछ ऊंची आवाज़ में बोला,  “पैसा अलग ख़र्च होता है, आज़ादी भी छिन जाती है, माता-पिता, रिश्तेदारों से रिश्ता ख़त्म-सा हो जाता है. नौकरी के साथ-साथ घर के कामों में अलग मदद करनी पड़ती है और रात को पत्नी को उसकी मर्ज़ी के बिना हाथ भी नहीं लगा सकते. आख़िर कोई बताए मुझे कि आज के लड़के विवाह क्यों करें?” श्रीयंत बिलकुल भाषण देनेवाले अंदाज़ में बोला.
“ओए, रिलैक्स… तुझे कोई वोट नहीं मिलनेवाले हैं. हां, तलाक़ ज़रूर मिल जाएगा अगर अंदर रिनी ने सुन लिया तो.” वीरेन उसे शांत करता हुआ बोला. उसके बोलने के अंदाज़ से दोनों दोस्त कुछ मजबूरी व कुछ खिसियाकर खिलखिलाकर हंस पड़े.
“हां यार, ज़्यादा तेवर दिखाओ तो कहीं नारी शक्ति ज़ोर मार दे और दिन में भी तारे दिखा दे. कुछ भी हो सकता है आजकल तो.” श्रीयंत गंभीरता से बोला. तीनों दोस्त अपनी ज़िंदगी की इस गंभीर समस्या पर बात करते-करते आख़िर हल्के-फुल्के मूड़ में आ ही गए. पर तीनों मन-ही-मन सोच रहे थे कि आख़िर इस समस्या से पार पाने का कौन-सा उपाय है?
जब संतान भी पैदा नहीं करनी है, शारीरिक-मानसिक सुख भी नहीं है, तो वैवाहिक संस्था का आख़िर क्या औचित्य रह गया. तीनों विचारमग्न बैठे थे. तभी शिवम माहौल की चुप्पी को तोड़ता हुआ ठहाका मारकर हंसता हुआ बोला, “अच्छा यार ये पत्नी पुराण छोड़ और ज़रा बढ़िया चाय तो पिलवा.”
“वह भी मुझे ही बनानी पड़ेगी.”
“क्यों, रिनी कहां है?”
“कियान को सुला रही है.” श्रीयंत भी ठहाका मारता हुआ बोला और किचन की तरफ़ चला गया व साथ ही दोनों दोस्त भी. कहते हैं दर्पण झूठ ना बोले, आज की पत्नियां पतियों को वो आईना दिखा रही थीं, जो अब तक पतियों ने पत्नियों को दिखाया था.

सुधा जुगरान

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Usha Gupta

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