कहानी ख़त्म करते ही मन भारी हो गया. मैंने ट्रेन की बर्थ के एक कोने में फोन रखकर आंसू पोंछे और चिंतन में डूब गई. क्या उम्र ही होगी इस लेखिका की, मुश्किल से 35-40 की होंगी प्रियंवदाजी और कितने दुख झेल लिए हैं बेचारी ने! मायके की गरीबी, निर्दयी ससुराल वाले और तुच्छ मानसिकता से ग्रस्त पति… जो इसको कहीं आने-जाने नहीं देता. ख़ुद इतना दर्द झेला है, वही कहानियों में उड़ेल देती हैं और हम पाठक भी उसी दर्द को महसूस करके रो पड़ते हैं.
मैंने आसपास नज़र दौड़ाई, सुबह के सात बजे थे, तब भी सारे यात्री गहरी नींद में सो रहे थे… शायद कोई स्टेशन आने वाला था. ट्रेन रेंगते हुए किसी स्टेशन पर झटके से रुक गई. मेरे ठीक नीचे वाली बर्थ पर कोई महिला सहयात्री आई थी, जिसका चेहरा मुझे नहीं दिख रहा था, किंतु उसके पति या प्रेमी के चेहरे पर फैला चिंता मिश्रित प्रेम बरबस मेरी मुस्कान बढ़ा रहा था.
“खाना टाइम से खाना, बीपी लो हो जाता है ना… तुम बिज़ी रहोगी, पता है… मैसेज करती रहना, प्लीज़.” उस चिंतित प्रेमी ने जब तीसरी बार ये बात बोली, तो मैं कंबल में मुंह छुपाकर हंस दी, शायद नई शादी होगी… लेकिन लड़का भी 35-40 से कम का नहीं लग रहा था. खैर! जो भी हो… मैं फिर से मोबाइल निकालकर फेसबुक पर प्रियंवदा जी का प्रोफाइल देखने लगी और पुरानी कहानियां पढ़कर भावनाओं के सागर में गोते लगाने लगी.
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“ऊपर कोई एक्स्ट्रा तकिया है क्या?” मेरी बर्थ थपथपा कर उसी लड़की ने पूछा. मैंने नीचे गरदन लटकाकर एक तकिया बढ़ा दी. वो ‘थैंक्स’ बोलकर मुस्कुरा दी. मुझे कुछ अजीब सा लगा. कहीं तो देखा है इसको! फिर से नीचे झांका. ओह! मुझे तो विश्वास नहीं हो रहा था.
“सुनिए! आप प्रियंवदाजी हैं ना?” मैं लगभग चिल्लाते हुए बोली!
“जी हां…” वो थोड़ा सकपका गई थी. मेरे चिल्लाने के कारण लोग उसकी ओर देखने लगे थे.
मैं पैंसठ साल की उम्र में भी एक किशोरी के अल्हड़पन से भरी हुई फटाफट नीचे उतर गई. वो मुझे देखकर मुस्कुरा रही थी और मैं भावुक हुई जा रही थी, “मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि आपसे इस तरह अचानक मिलना…”
“अरे, आप बैठिए ना.” उसने बर्थ पर फैली पत्रिकाएं हटाते हुए जगह बनाई.
“मैंने आपको पहचाना नहीं… एक मिनट! आप मीनलजी हैं ना बनारस से?”
मैंने मुस्कुराते हुए ‘हां’ कहा और एक भरपूर दृष्टि से उसको देखा! चेहरे पर एक स्थिरता, शांति और बचपने का संगम था और बातों में संजीदगी… उम्र 35-38 से ज़्यादा नहीं होगी.
“पता है अभी-अभी आपकी कहानी पढ़ी. आपके बारे में ही सोच रही थी तब से…” मैंने बात करनी शुरू की.
“आप तो बहुत छोटी हैं अभी. इस उम्र में इतना गंभीर लेखन… कैसे?”
“गंभीरता से उम्र का क्या मतलब मीनल दीदी, और अगर मैं आपको छोटी लग रही हूं, तो ‘आप’ को हटकर ‘तुम’ पर आ जाइए.” वो मुस्कुरा दी और मैं निरुत्तर रह गई. ये बातें बनाने में बहुत तेज है… तभी तो इसको लोग शब्दों की जादूगरनी कहते हैं. मैं उसमें कुछ तलाश रही थी, जो मुझे मिल ही नहीं रहा था. वो दुख, वो दर्द, वो अतीत की दुखभरी छाया…
“प्रियंवदा!.. बनारस जा रही हैं आप? मतलब जा रही हो.. कोई फैमिली फंक्शन?” मैंने बात शुरू की.
“नहीं दीदी, मैं इलाहाबाद में उतर जाऊंगी. एक भरतनाट्यम परफार्मेंस है मेरी वहां…” उसने बताया और मैं सकते में आ गई, ये कैसे संभव है? अभी तो मैंने इसकी कहानी पढ़ी थी, जिसमें पति नृत्य को ‘धंधा’ कहता है और पाबंदी लगाता है, जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी.
“वो तुम्हारे पति थे क्या जो आए थे अभी.. वो नहीं जा रहे हैं साथ में?” मैं कयास पर कयास लगाई जा रही थी.
“नहीं दी,” अचानक उसका चेहरा उदास हो गया, “बेटे के इम्तिहान हैं, वो कैसे आते? आना तो मैं भी नहीं चाह रही थी, लेकिन इन्होंने साफ़ कहा कि ये मौक़े बार-बार नही आते.”
उसके चेहरे पर अब प्रेम, संतोष और सुखद गृहस्थी का संगम दिख रहा था… मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. पति इतना सहयोग करता है? अब बात चली है, तो पूछकर मानूंगी, वो अधूरा प्रेम.. जो बहुत सी कहानियों में पढ़ा, उसकी टोह तो लेनी ही पड़ेगी!
“मुझे तुम्हारी वो कहानी बहुत अच्छी लगी, जिसमें अलग जाति का होने के कारण शादी नहीं होती… यही तो होता है प्रेम का अंत, सच में!” मैंने लच्छेदार बातों में फंसाकर उसको कनखियों से तौला, अब आएगी एक ‘आह’ बाहर.
“ज़रूरी नहीं दी.. अब देखिए ना, मेरी भी तो है अंतर्जातीय शादी.. प्रेम मंज़िल पा भी लेता है.” मुझे जवाब देते हुए वो फोन में कुछ कर रही थी… मैंने हिम्मत बटोरी और सीधा ‘हल्ला बोल ‘ करने का निर्णय लिया.
“लेकिन एक बात बताओ, जो अनुभव तुमने ख़ुद नही लिए, उनका ऐसा सहज वर्णन कैसे संभव है?” मैं चिड़चिड़ा गई थी!
“आप मेरी कहानियां पढ़कर रोती हैं?” उसने मेरी आंखों में झांका.
“हां… बिलकुल, क्यों नहीं.” मैं हड़बड़ा गई.
“जिन पात्रों को आपने नहीं देखा, केवल मेरे बताने से आप जुड़ गईं… तो सोचिए, जिनको मैंने देखा, उनकी कहानी मैं क्यों नहीं लिख पाऊंगी? और फिर दीदी, कुछ यथार्थ, कुछ कल्पना… कहानी, कहानी होती है संस्मरण नहीं!” उसका स्वर थोड़ा तल्ख़ हो गया था. उसने बोतल उठाकर थोड़ा पानी पिया, संभवतः पहले भी उससे ये सवाल किए गए होंगे. मुझे ग्लानि होने लगी थी… बात तो सच है, हम ऐसी धारणा क्यों बना लेते हैं?
“अच्छा, घर में कौन-कौन है? और अपनी प्रेम कहानी हम लोगो को कब पढ़ाओगी?” मैंने बात सामान्य करने की कोशिश की, उसने परिवार के बारे में बताया और एकदम से गंभीर हो गई.
“अपनी प्रेम कहानी मैं कभी नहीं लिखूंगी.”
“क्यों? क्यों नहीं लिखोगी?”
“वो मेरी व्यक्तिगत ज़िंदगी है दी… अपनी बगिया में खिला फूल कोई बेचता है क्या?” वो खिलखिला दी, “अरे, लोग तो अपनी प्रथम रात्रि को भी कहानी में ढालकर लिख देते हैं!”
वो अभी भी खिलखिला रही थी… और मैं उसको देखकर आनंदित हुई जा रही थी. कितनी अलग है ये मेरी बनाई इसकी छवि से!
“तुम तो बहुत हंसमुख हो… लेकिन पता है लोग तुम्हें बहुत घमंडी मानते हैं और…” मैं बोलते-बोलते रुक गई.
“और… और… घुन्नी मानते हैं ना?” वो बच्ची की तरह मेरे पास खिसक आई, “दरअसल मैं टेढ़े मुंह बनाकर सेल्फी नहीं पोस्ट करती ना!”
उसकी बात पर हम दोनों के साथ-साथ बगल में बैठे एक वृद्ध दंपत्ति भी खिलखिला कर हंस दिए. माहौल में बसंत घुल रहा था… उसका स्टेशन आने वाला था. वो पर्स में सामान रखने लगी. मेरा दिल डूबा जा रहा था… बस इतनी सी थी ये मीठी मुलाक़ात?
“अपना फोन नंबर दे दो. बात करोगी ना?” मैं भावुक हो गई थी, “और अगली कहानी में मुझे टैग करना मत भूलना!”
उसने एक काग़ज़ पर अपना फोन नंबर लिखकर मुझे थमाया और मेरा हाथ थपथपा दिया, “बात क्यो नहीं करूंगी… और टैग करना भी याद रखूंगी, लेकिन आप दो बातें याद रखिएगा.”
“वो क्या?” मैंने डबडबाई आंखें लिए पूछा.
“एक तो ये कि कहानी संस्मरण नहीं होती… ” वो मुस्कुराई.
“और दूसरी बात?”
“और दूसरी ये बात कि…” उसने मेरा हाथ सहलाते हुए कहा, “अलग होते समय रोते नहीं… जाने वाले को भी तकलीफ़ होती है.”
इतना कहकर, अपना बैग संभालती हुई मेरी भावुक लेखिका ट्रेन के दरवाज़े की ओर बढ़ गई… और मुझे एक मीठी मुलाक़ात की यादों के साथ-साथ एक अमूल्य सीख भी दे गई!
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