सब कुछ भली-भांति सम्पन्न हो रहा था. बारात एकदम समय पर आई. ठीक आठ बजे श्रेया और सुमित का जयमाल भी हो गया. सुंदर जोड़ी, भव्य सजावट, बढ़िया इंतज़ाम और बेहतरीन खाने के लिए लोग तारी़फें करते, बधाइयां देते नहीं थक रहे थे. श्रेया की मां नमिता ने धन्यवाद देते हुए सबका दिल खोलकर स्वागत किया. किन्तु पति मिहिर की कमी एक टीस बनकर उभरती ही रही.
मिहिर की दस वर्ष पहले अकस्मात एक दुर्घटना में हुई मृत्यु ने उसे अकेला कर दिया था. श्रेया और शाश्वत दोनों बच्चों के लिए उसने विधाता के इस निर्मम ़फैसले को स्वीकार कर अपने को संभाला था, वरना वह टूट कर कब की बिखर चुकी होती.
कुछ लोग मंडप के चारों ओर विवाह की रस्में देखने के लिए बैठ गए थे. पंडितजी का मंत्रोच्चार प्रारम्भ हुआ, तो श्रेया-सुमित के पास बैठी नमिता ने घड़ी देखी, ठीक नौ बजे थे. नमिता ख़ुश थी कि कार्ड पर परिणय का यही समय छपवाया था.
‘तुम ख़ुश हो न मिहिर? देखो, सब काम ईश्वर की कृपा से समय पर हो रहा है…’ हर पल मिहिर की उपस्थिति के आभास में उसके होंठ धीरे से बुदबुदा उठे थे. मिहिर समय का जो बड़ा पाबंद था. उसने श्रेया का पीछे से सरकता आंचल ठीक किया, तो श्रेया ने अपनी बड़ी-बड़ी पलकें उठाकर नमिता को बड़े प्यार से देखा और मुस्कुरा दी. उसका देखने का अंदाज़ बिल्कुल मिहिर जैसा था. नमिता मुग्ध सी बेटी को निहारने लगी.
‘हमारी श्रेया दुल्हन के रूप में कितनी प्यारी लग रही है न मिहिर? ईश्वर इसे सदैव ख़ुश रखे. यूं ही मुस्कुराती रहे. मेरी ही नज़र न लग जाए इसे कहीं…’ उसने अपनी आंख से हल्का-सा काजल लेकर उंगली श्रेया की ओर बढ़ाई थी कि उसे लगा जैसे मिहिर ने उसकी कलाई थाम ली हो, “न… न… क्या करती हो नमिता, इतने प्यारे चेहरे को गंदा करोगी…” वह रुक गई थी.
हां कहां मानता था मिहिर ये सब. कभी काला टीका लगाने नहीं दिया.
“गंदा करोगी हमारी बेटी को?” वह मुस्कुराकर उसे गोद में छुपा लेता. मिहिर के ख़्यालों में वह यंत्रवत पंडितजी की पूजा सामग्री की मांगों को पूरा किए जा रही थी. वेदी के उठते धुंए ने कब यादों का रूप धर लिया, उसे पता ही
नहीं चला.
“क्या जला रखा है नमिता… बिना धुआं, गंदगी किए पूजा नहीं होती? फैलना है, तो फ्रेशनर रखा करो. ये क्या…” मिहिर आंखें मलते हुए बच्चों की तरह आंसुओं से भर उठा.
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पहली बार मिहिर के पोस्टिंग आवास पर नमिता अगरबत्ती-धूप जलाकर पूजा करने बैठी थी. मिहिर की मासूमियत देखकर वह हंस पड़ी.
“हां, हां, ख़ूब हंस लो, जाने क्या फ़ितूर है तुम लोगों के. मैं इसीलिए किसी हवन में नहीं जाता. यहां तक कि मैंने अम्मा लोगों की मर्ज़ी न होने पर भी अपनी शादी कोर्ट में ही की थी. उसका एक कारण ये धुआं भी था. रात में कछुआ छाप सुलगा दिया और अब सुबह सुबह ये धुआं…”
“धुआं और कटता प्याज़ दोनों ही तुम्हारी आंखों में बहुत लगता है, इसका मतलब तुम्हारी सास तुम्हें बहुत प्यार करती हैं. पर तौबा अब से नहीं जलाऊंगी.” वह हंसते हुए बोली.
“वो अम्माजी ने कहा था…”
“अरे, अम्माजी का पूजा घर अलग है, सोने-बैठने की जगह से दूर.” वह वॉशबेसिन में छींटें मारकर आंखें धोते हुए बोला.
“मुझे तो यह भी समझ में नहीं आता कि अलग से बैठकर भगवान से मिन्नतें-फ़रमाइशें या उन्हें याद करने का क्या मतलब है? यह जन्म और जन्म से हमें जो कुछ मिला है, क्या उसके लिए कोई प्रार्थना, पूजा-अर्चना की थी हमने? माता-पिता को कोई भूलता है क्या, जो अलग से बैठकर उन्हें याद करना पड़े?.. जो मिला है उसके लिए हम उस परम शक्ति के हर पल नतमस्तक हो दुनिया में और बेहतरी के लिए काम करें, बस और क्या, समझीं मैडम.” वह तौलिए से आंखें पोंछता नमिता के पास चला आया था.
“समझी बाबाजी, क्या ज्ञान दिया है आपने.” वह सिर झुकाकर मुस्कुराई.
छोटी-सी बुद्धि क्या मिल गई हमें, हम उसी को निर्देश देने लगते हैं- ये दे दो, वो कर दो, जैसे उसने अपनी सारी समझ हम सबमें ही बांट दी. अपने लिए कुछ नहीं छोड़ा. कमाल है.
नमिता सोचने लगी…
यही नहीं, हर बात में मिहिर की अलग सोच थी. एक ठोस तर्क के साथ खुले विचार जो नमिता के भीतर अंकुरित सोच को बाहर आने का आधार दे रहे थे. वह निर्भीक होकर उसके साथ आगे बढ़ने लगी. समाज की परवाह किए बगैर.
एक दिन वह उसे साड़ी में देख कर बोला, “ये साड़ी, पगड़ी परिधान मुझे समझ नहीं आते. इतना लंबा कपड़ा लपेटने की क्या ज़रूरत है? कई आदमियों का कपड़ा एक आदमी पहन लेता है, ये क्या बात हुई भला. अरे, कितने ग़रीबों का तन ढंक जाए इससे. और फिर ये कोई ड्रेस है? न दौड़-भाग सको, बस संभालती ही रहो स्टाइल में. यहां की औरतों ने ख़ुद ही अपने को ऐसे पहनावे, शृंगार और गहनों में जकड़कर कमज़ोर कर रखा है जैसे हमारे राजाओं ने कर लिया था. कैसे युद्ध में जाने को सही समय पर तैयार हो पाते होंगे, समझ नहीं आता.”
“तुम होते तब तो बाबर-हुमायूं सबको निकर-बनियान ही पहना देते.” वह ख़ूब हंसी.
“तो और क्या…” वह भी हंस पड़ा.
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नमिता को याद आया सिंदूर लगाना भी तो उसने रोज़-रोज़ टोककर छुड़ा दिया था, “सिर में लाल निशान रेड सिगनल, कभी झंडी, तो कभी पगडंडी के रूप में… क्यूं भई ख़तरा रूक जाता है क्या? तो मैं भी
रोज़-रोज़ लगाकर चला करूं? सुहागन तो मैं भी हूं. सिर पर ही क्यों, नाक पर क्यों नहीं..? वह तो सबसे आगे है, उस पर क्यों नहीं लगातीं.”
वह हंसा था.
एक दिन वह मूवी जाने के लिए तैयार अपनी नाक पर सिंदूर मल कर आ गया, “चलो नमिता मैं तैयार हूं.”
नमिता ने हंसी रोककर किसी तरह से उसकी नाक से सिंदूर पोछा था. उस दिन से नमिता ने रेड सिग्नल लगाना छोड़ ही दिया. समझाने का मिहिर का अपना ही तरीक़ा था. वह कुछ न कुछ यूं ही करता रहता.
शुरू-शुरू की बात है. एक दिन मिहिर शीशे का एक आदमकद केस उठा लाया था, “क्या है ये?” नमिता आश्चर्य में थी़.
“देखो न इस कोने में अच्छा लगेगा न. पहले तुम यहां खड़ी हो जाओ.”
“मगर मैं?.. ये तो शोकेस जैसा है.” नमिता समझने की कोशिश कर रही थी.
“तभी तो मैं तुम्हें यहां खड़ा होने को बोल रहा हूं मेरी शोकेस की गुड़िया. इतने तामझाम के साथ तैयार होती हो. तुम्हें छू लिया, तो तुमसे ज़्यादा मुझे ख़तरा है. तुम्हारे मेकअप से लिपने-पुतने का, तुम्हारे ज़ेवरों से चुभने-चोट लगने का़.” एक शरारती मुस्कान उसके चेहरे पर खेल रही थी.
“मैं जानता हूं नमिता, इतनी बनावट शोबाज़ी रोज़-रोज़ न तुम्हें पसंद है न
मुझे… फिर?”
“ये तो अम्माजी ने कहा था, बड़े-बड़े लोगों में उठना-बैठना है, सज-संवरकर रहना ठीक से, इस करके मैं वो…”
“दिमाग़ है न अपना, कोई विशेष अवसर है तो और बात है… वरना ये फ़ालतू का. जानती हो आदमी सबसे सुंदर कब लगता है, जब वह नहाकर आता है. धुली-धुली मुस्कान बिखेरता है या कोई सुंदर और नेक काम करता है. आदमी के असली मेकअप जानती हो क्या है- नेकी, सच्चाई, ईमानदारी, ज्ञान, आत्मविश्वास, सत्कर्म और परिश्रम.” नमिता चित्र लिखित सी उसकी बातें
सुनती रहती.
ऐसा उसे भी लगता है, पर वह कह भी न पाती कि सोलह शृंगार करके उसे भी कोई संतुष्टि नहीं मिलती. समाज से टकराने, एक अलग दिशा में जाने के लिए मिहिर का सानिध्य उसमें निरंतर आत्मविश्वास भरता जा रहा था.
टिहरी, गढ़वाल, जनवरी का वो सर्द महीना शाम को वॉक करने निकले थे दोनों. नमिता को चलने में द़िक्क़त हो रही थी.
“क्या हुआ चोट लगी है?”
“नहीं मिहिर, वो चिल ब्लेन के मारे पैरों की उंगलियां सूज गई हैं न…”
नमिता वहीं गेट की पुलिया पे बैठ गई.
“पहले ही बताना था. निकालो जूते-मोजे, देखूं.”
“ओह, तो ये माजरा है. सूजी हुई लाल उंगलियां और उनमें फंसी ये बिछिया. बहुत ज़रूरी है पहनना. किसी हकीम-डॉक्टर ने बताया है. जूते के अंदर लगातार चुभती रही होगी, पर पहनना तो नितांत आवश्यक है, मानना नहीं है.” बड़ी मुश्किल से वह उंगलियों से बिछिया अलग कर सका था.
“पकड़ो इसे, वरना खाई में उछाल दूं? फिर पहनने की मूर्खता मत करना. जूतों के अंदर तो कतई नहीं. कितनी अंधविश्वासी हो तुम औरतें. मेरा मरना-जीना तुम्हारे बिछिया पहनने न पहनने, सिंदूर लगाने न लगाने पर निर्भर करता है? कमाल है, थोड़ी भी बुद्धि है या नहीं?
और हां ये क्या कल किस बात की तैयारी हो रही है, करवा चौथ? फोन पर बातें हो रही थीं. तबियत ठीक नहीं… पर ये न कहना अब कि अम्माजी ने कहा है.” वह चिढ़ाते हुए बोला.
“ठीक है बड़ों की बात मानो, पर तर्क वाली हो तो. तुम्हारा करवा चौथ तो उसी दिन हो गया, जिस दिन तुमने अपना खून देकर मेरी जान बचाई थी. अब और किसे क्या प्रूफ़ देना चाहती हो. मैं जानता हूं तुम्हें मेरी परवाह है अपनी जान से ज़्यादा, इतना विश्वास तो मैंने भी तुम्हारा जीत ही लिया है इतने दिनों में. क्यों है न?” वह मुस्कुराया था.
“सुबह चार बजे सरगई के लिए नहीं उठना. अब अंदर चलो, पैरों को धो-पोंछकर मलहम लगाओ और मोजे पहनो. फिर दवा खाकर सो जाना थोड़ा. तब तक मैं वॉक-एक्सरसाइज़ करके आता हूं. ओके.” जवाब में सिर हिलाकर नमिता मुस्कुराई थी.
कितना अलग है न उसका मिहिर… कारण कुछ-कुछ समझ आ रहा था. मिहिर के घर घटनाएं भी कुछ ऐसी घटी थीं कि उसके विवेकशील मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही था.
मिहिर की एक बहन शादी के चौथे साल ही विधवा हो गई और एक बहन को, ससुरालवालों ने जलाकर मार डाला… दोनों ही शादी से पहले ही अम्मा के साथ करवा चौथ आदि का व्रत नियमपूर्वक किया करती थीं. फिर उसके पिता का स्वर्गवास. जो इतने चाव से शृंगार वगैरह करके इतनी आस्था के साथ तीनों उपवास-व्रत किया करतीं, उनके फीके, रीते, सपाट चेहरों ने उसे पूजा-पाठ रीति-रिवाज़ सभी से विमुख कर दिया.
तभी तो वह कहता रहता है, “जब कर्म के अनुसार हमें जन्म मिला है, तो हम सही कर्म छोड़ व्यर्थ कर्मकांडों में क्यों लगे रहें. किसी विषय को हम बिना पढ़े-लिखे, हाथ जोड़कर परीक्षा देने बैठ जाएं और उम्मीद सौ प्रतिशत की करें, तो स़िर्फ बेवकूफ़ी है.”
मिहिर ने बताया था कि उसने अम्मा-बाबूजी को बहुत समझाने की कोशिश की थी, “लाली दीदी को बहुत सताते हैं ससुरालवाले, दहेज के लालची हैं, सही नहीं हैं वे लोग… उन लोगों का बर्ताव दीदी के प्रति बिल्कुल अच्छा नहीं. बात करके आप दीदी को वापस ले आइए.”
मगर नहीं, एक ही रट लगाए रहते, “लाली अब उन लोगों की अमानत है. कन्यादान कर दिया हमने. उनकी मर्ज़ी है जैसे चाहे रखें. वह उनकी सम्पत्ति है, हम दख़ल नहीं दे सकते.” यही बेतुकी बातें होती रहतीं, जैसे लड़की नहीं वह कोई गाय, अन्न या वस्तु हो.
“कोई अपना हाथ-पैर दान करता है भला, फिर अपना बच्चा अपने जिगर का टुकड़ा. नमिता वादा करो, अपने बच्चों के लिए, अपनी गुड़िया का दान तो हम बिल्कुल भी नहीं करेंगे. न दान देंगे न लेंगे. दहेज भी न लेंगे न देंगे. उनकी शादियों में केवल प्यार का एक्सचेंज होगा. एक नई मिसाल रखेंगे. डरती क्यों हो तुम नमिता, मैं हूं न तुम्हारे साथ हमेशा…” मिहिर की आवाज़ उसके कानों में गूंज रही थी.
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पंडितजी ने मंत्रोच्चार के बीच में आवाज़ दी थी, “अब वधू पक्ष के सभी लोग एक-एक करके कन्यादान की रस्म के लिए आएं. बहूरानी आप अकेले नहीं.” नमिता जैसे गहरी तंद्रा से जाग गई.
जेठ-जेठानी, देवर-देवरानी उठकर आगे आने लगे थे. नमिता सहसा बोल उठी, “रुकिए पंडितजी, यह रस्म नहीं होगी. कन्यादान नहीं किया जाएगा.” मिहिर की आवाज़ की गूंज में उसने पूरी हिम्मत पा ली थी.
“यह कैसी बात कह रही हो बहूरानी?”
“सही कह रही हूं पंडितजी. बेटी वस्तु नहीं है, जो दान कर दें. श्रेया के पिता की यही इच्छा थी. बेटी पर अपना सारा अधिकार कैसे छोड़ सकते हैं. विवाह के बाद भी उस पर हमारा कुछ हक़ और कर्तव्य है और हमेशा रहेगा. बेटी से मुक्ति कैसी? हमें दान नहीं करना, तो झूठी रस्म करना भी क्यों?”
“यह सबसे बड़ा पुण्य कहा गया है शास्त्रों में बहूरानी. आप सौभाग्यशाली हैं, जो आपकी बेटी है. परिवार को दान का अवसर मिल रहा है. न करके आप महापाप न करिए.”
“मैं नहीं मानती पंडितजी…”
“बड़ा पाप होगा बहू, बड़े-बुज़ुर्गों का ज़रा भी ख़्याल नहीं.” जेठ थोड़ा ऊंचे स्वर में बोले थे.
सास ने व्यंग्य किया, “करने दो मनमानी. इसने पहले भी कब माना है, तभी तो मिहिर हम सबको छोड़कर चला गया. बड़ी मॉडर्न बनने चली है. जो रिवाज़ है, प्रथा है, काहे नहीं मानेगी, अपने जैसे बेटी का अमंगल मत कर. शुभ-शुभ बात कर…”
सास, जेठ-जेठानी, बड़ी ननदें, देवरानी व दूर के सभी रिश्तेदारों में खुसर-फुसर शुरू होने लगी.
“कब मानी है नमिता ने घरवालों की बात. शादी के दूसरे दिन ही अपने रंग-ढंग दिखाने शुरू कर दिए थे इसने. सिर उघाड़े घूमने लगी थी. तब बाबूजी भी ज़िंदा थे. कहती कि मिहिर मना करते हैं, मिहिर तो आदमी था. घर के रीति-रिवाज़ों को बताना-मानना औरत का काम है. ये तो ऊलजुलूल असंस्कारी बातों में उसका ही साथ देती चली गई. तभी तो चालीस भी न पार कर पाई थी कि विधवा बन कर बैठ गई.”
“लगता तो नहीं कि विधवा है. हीरे के जगमग टॉप्स, रुपहले बॉर्डर की बेशक़ीमती साड़ी, गले में मोटी-सी चेन में चमकता बड़ा सा लॉकेट…” व्यंग्य से जेठानी ने देवरानी को कुहनी मारी.
“इतनी ज़मीन-जायदाद, पुरखों की हवेली, बड़ा-सा घर-परिवार, खाने-पीने की कमी नहीं. मिहिर के जाने के बाद कितना कहा सबके साथ आराम से रह, परदेस जाकर काम करने की ज़रूरत नहीं, पर शहर की हवा लगी थी. गांव में भला कहां रहती.”
जितने मुंह उतनी ही बातें. नमिता दोनों बच्चों को लेकर अपने बलबूते पर अलग ही रही. ससुरालवालों से उसकी ज़्यादा न बनी, क्योंकि नमिता के खुले दिमाग़ को देने के लिए उनके पास तर्क नहीं होते, न ही नमिता के तर्कों के आगे उनके पास जवाब ही होते.दुनिया से टकराने का साहस मिहिर ने ही उसमें भरा था.
श्रेया ने मां को देखा, वेदी की लौ में नमिता का चेहरा अलग सी आभा से प्रदीप्त हो रहा था. वह किसी तेजस्विनी की सौम्य प्रतिमा सी लग रही थी. उसने मां का हाथ पकड़ कर धीरे से कहा, “हम दोनों आपके साथ हैं मां.”
बेटे शाश्वत ने भी मां के कंधे पर विश्वास का हाथ रखा. नमिता ने बच्चों की ओर देखा, उसके आत्मविश्वास को बल मिला था.
काश! सारे घर के लोग भी उसे समझ पाते. लाली दी का जल कर मरना, विधवा होते ही राधा दी को बच्चों के बिना मायके भिजवा दिया जाना, ये सब भी उनकी आंखों को खोलने के लिए पर्याप्त नहीं था. पुराने ढकोसले, वही भेड़चाल, ये सही संस्कार नहीं. नहीं बनना हमें लकीर का फकीर… वह ़फैसला ले चुकी थी.
“यह दान सर्वथा असंगत और यह रस्म बेमानी है पंडितजी.” नमिता अपने निर्णय पर अडिग थी.
“बहूरानी शास्त्रों का अपमान होगा, हठ न कीजिए.”
“शास्त्र भी व्यक्ति के ही लिखे हैं. वह उस काल और परिस्थितियों को देखकर लिखे गए होंगे.”
“समय बदल गया, दुनिया बदल गई, क़ानून बदल गया, तो रिवाज़ क्यों न बदले जाएं. बेकार की बहस से कोई लाभ नहीं पंडितजी. कन्या के लिए दान तो ठीक है, पर कन्या का दान ठीक नहीं, अर्थ का
अनर्थ न करें.”
नमिता के ससुरालवाले तो पहले चिढ़े बैठे थे, लड़केवाले भी उखड़ने लगे.
“क्या तमाशा है रीति-रिवाज़ों को जब मां नहीं मानेगी, तो भला बेटी से क्या उम्मीद रखेंगे.”
“अब आप सब भी..? ठीक ही तो कह रही हैं आंटी. अपनी बेटी पर उनका भी हक़ रहेगा हमेशा ही, फिर दान क्यों करें? सब बेकार की रस्में हैं. मैंने तो पहले ही आपको कोर्ट मैरिज करवाने की सलाह दी थी. जितना ख़र्च हुआ है, उसमें तो बढ़िया प्रीतिभोज के बाद भी बहुत ज़रूरतमंदों की मदद हो जाती.” दूल्हा बना सुमित बिना झिझके ही बोल पड़ा.
“वाह बरखुरदार क्या विचार हैं, सास के सुर में सुर मिलाने लगे अभी से. घर जमाई बनने का इरादा तो नहीं?” सुमित के पापा चुटकी लेते हुए मुस्कराए.
“बस कीजिए पापा… पंडितजी ख़त्म कीजिए जल्दी सब. एक रस्म ही तो कट हो रही है. घबराइए मत, आपकी दक्षिणा में आंटी कोई कटौती नहीं होने देंगी, न हम.” वह मुस्कुराया.
“अब क्या करना है, फिर विदाई की रस्म कीजिए, तो विवाह सम्पन्न हुआ. वर-वधू सबसे आशीर्वाद लें.” पंडितजी लाचारगी से हड़बड़ाकर खीसें निपोरते हुए बोले थे.
श्रेया और सुमित ने पंडितजी के चरण स्पर्श करके हाथ जोड़े और मां का आशीर्वाद लेकर सबके आशीर्वाद के लिए चल पड़े. वे हाथ जोड़कर एक-एक कर सभी के पैर छूने लगे. कुछ लोग मुंह बना कर पीछे खिसक लिए, फिर दिखावे में उन्होंने भी आशीष दे ही दिया.
मिहिर और नमिता के दोस्तों ने दिल से दुआएं दीं. श्रेया और सुमित गाड़ी में बैठने से पहले, नमिता के पैर छूने झुके तो नमिता ने उन्हें गले से लगा लिया. लाख रोकने पर भी उसकी आंखें छलक आईं.
‘कंट्रोल नमिता कंट्रोल, तुमने कर दिखाया कुछ अलग और सही, वेल डन नमिता! ये बेहद ख़ुशी का क्षण है. हमारी गुड़िया को बहुत अच्छा जीवनसाथी मिल गया. दान नहीं किया है, तो बेटी पराई भी नहीं हुई, बल्कि कुछ और महत्वपूर्ण अपने रिश्ते ज़िंदगी में शामिल हो गए. चलो हंसो और मेरे साथ ज़ोरों से आशीर्वाद दो.’
“सदाऽऽ सुखीऽऽरहोऽऽऽ!..” नमिता भरे गले से बोल उठी. अपनी आवाज़ के साथ उसे मिहिर की आवाज़ स्पष्ट सुनाई दे रही थी. उसे लग रहा था मानो मिहिर उसके पास ही कंधे पर हाथ रखे खड़ा है.
“अरे मम्मी भी नहीं रो रही हैं. अब तू क्यों रो रही है. जीजू पसंद नहीं क्या? तो अब भी बता दे. कुछ गड़बड़ करेंगे, तो मैंने तुझे ये मोबाइल फोन इसीलिए गिफ्ट किया है.” शाश्वत इस अंदाज़ में बोला कि सुमित के साथ श्रेया भीगी आंखों में भी हंस पड़ी और एक प्यारी सी चपत उसने शाश्वत के गालों पर लगा दी.
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