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कहानी- धूल और जाले (Short Story- Dhool Aur Jale)


पुरुष की भी कैसी मानसिकता है? जब तक स्त्री उसके प्यार को स्वीकार नहीं कर लेती, उसके क़दमों पर झुके रहते हैं, जैसे ही स्त्री पुरुष के प्यार को स्वीकार कर लेती है, उसे अपने पैरों तले दबाए रखने की प्रवृत्ति पनप जाती है पुरुष में.


रमा किचन में विनोद का नाश्ता बना रही थी. अभी तो उसे विनोद के लिए लंच भी तैयार करना था. वह गाना गुनगुनाती हुई तेज़ी से हाथ चला रही थी. नौ बजे तक उसने नाश्ता और खाना दोनों तैयार कर लिया. बीच-बीच में विनोद आकर उससे ठिठोली भी करता रहा और कभी सब्ज़ी काटने में तो कभी लंच बॉक्स पैक करने में उसकी मदद भी करता रहा.
रमा और विनोद के प्रेम-विवाह को अभी तीन महीने ही हुए थे. अक्सर दोनों एक-दूसरे के प्रेम में डूबे रहते थे. कॉलेज के दिनों का प्यार था दोनों का. और विनोद की नौकरी लगते ही दोनों ने घरवालों की इच्छा के विरुद्ध कोर्ट मैरिज कर ली. रमा और विनोद दोनों के घरवाले इस विवाह के ख़िलाफ़ थे और उनके विवाह में शामिल भी नहीं हुए थे.
अपने-अपने परिवारों से दूर कॉलेज के दोस्तों की मदद से विनोद ने एक छोटा-सा फ़्लैट ले लिया और अपनी छोटी-सी गृहस्थी बसा ली. 10 बजे विनोद ऑफ़िस चला गया. रमा ने बाकी काम समेटे और अपने बेडरूम में चली आई. पलंग की साइड टेबल पर दोनों की ख़ूबसूरत तस्वीर लगी थी. तस्वीर की फ्रेम बड़ी आकर्षक थी. गोल्डन कलर की जालीदार नक्काशी वाली फ्रेम. रमा ने तस्वीर उठा ली. तस्वीर में लगे रमा और विनोद मुस्कुरा रहे थे. रमा बड़े जतन से तस्वीर साफ़ करने लगी अपने पल्लू से, मुस्कुराते हुए उसने तस्वीर वापस साइड टेबल पर रख दी.
रमा जाकर ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठ गई. नए-नए प्यार का ख़ुमार आंखों में गुलाबी डोरे बनकर झिलमिला रहा था. चेहरे पर अनोखी चमक आ गई थी. प्यार से मन ही नहीं, तन भी निखर जाता है. रमा सोचने लगी, मेरा रंग कितना निखर आया है. यह प्यार की ही तो चमक है, जो उसके हर अंग से झलक रही है.
देर तक रमा आईने के सामने अपने आपको निहारती रही. अपना अंग-अंग देखती रही. कहीं त्वचा में रूखापन तो नहीं, कहीं स्वच्छता में कमी तो नहीं, कहीं रंग फीका तो नहीं? आख़िर यह उसके विनोद की अमानत है.

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रमा स़िर्फ अपने आपको ही नहीं, अपने छोटे से घर को भी साफ़-सुथरा और व्यवस्थित रखती. आलमारियों में कपड़े करीने से रखे रहते. पलंग की चादर पर कभी एक भी सिलवट नज़र नहीं आती, तकिए के लिहाफ़ सब धुले-धुलाए रहते. विनोद के कपड़े वह अपने हाथों से प्रेस करती. विनोद अक्सर उसे बांहों में भरकर कहता, “छोटा-सा, साधारण-सा घर है, तुम क्यों सारा दिन इसे चमकाने में और साफ़-सफ़ाई में लगी रहती हो? कम से कम प्रेस के लिए मेरे कपड़े ही लॉण्ड्री में दे दिया करो. सारा दिन इतनी मेहनत करती रहती हो.”
“काम ही क्या रहता है मुझे? और अपने हाथ से तुम्हारा सारा काम करना मुझे अच्छा लगता है.” रमा अपनी कमर के इर्दगिर्द कसे विनोद के हाथों को और भी कस लेती.
तीन महीने पंद्रह दिन.
“तुम सारा दिन घर पर अकेली रह जाती हो, मुझे भी आजकल ऑफ़िस में देर हो जाती है. क्या करूं? नया बॉस बहुत खड़ूस है. काम में ज़रा भी ढिलाई बर्दाश्त नहीं करता. मेरा प्रमोशन भी ड्यू है- सोच रहा हूं तनख़्वाह बढ़ जाएगी, तो तुम्हें घर के लिए थोड़ा ज़रूरत का सामान दिलवा दूंगा या फ्रिज़ ख़रीद लेंगे. बस, तुम्हें इतनी देर घर पर अकेले छोड़ना मुझे बहुत अखर जाता है.” एक दिन देर शाम को घर पहुंचे विनोद ने रमा के कंधे पर सिर रखते हुए कहा.
“कोई बात नहीं, मैं भी समझती हूं. आख़िर तुम इतनी मेहनत अपने घर के लिए ही तो कर रहे हो.” रमा ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.
“तुम आस-पड़ोस में क्यों नहीं कोई सहेली बना लेती हो? तुम्हारा मन लगा रहेगा या किटी पार्टी ज्वाइन कर लो.”
“मुझे तो अपना घर ही अच्छा लगता है. घर के छोटे-बड़े काम और तुम्हारी याद, दिन कब निकल जाता है, पता ही नहीं चलता.”
“फिर भी आस-प़ड़ोस में एकाध सहेली बना लो, कभी-कभी बाज़ार हो आया करो, कुछ ख़रीद लिया करो अपने लिए.”
“पड़ोस की मिसेज़ शर्मा, लाल आंटी, ऊपर वाली कांता बेन सबसे पहचान तो है, पर किसी के घर जाकर बेकार की गप्पबाज़ी करना मुझे अच्छा नहीं लगता. बाज़ार जाओ तो यूं ही दो-चार सौ रुपए दूसरों की देखादेखी ख़र्च हो जाते हैं. मुझे तो जो भी ज़रूरत होती है, तुम्हारे साथ जाकर ले आती हूं.”
“तुम कितनी अच्छी और समझदार हो रमा. अगर तुम मेरे जीवन में नहीं आती तो पता नहीं मेरा क्या होता?” विनोद ने अचानक भावुक होते हुए कहा.
“चलो हटो, इतनी भी अच्छी नहीं हूं मैं. तुम तो बेवजह मेरी तारी़फें करते रहते हो.” रमा के गाल गुलाबी हो गए. “मुझे तो इस बात का हमेशा दुख रहता है कि मेरी वजह से तुम्हारे मम्मी-पापा ने तुमसे नाता तोड़ लिया.” रमा के स्वर में अचानक उदासी घिर आई.

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“अगर वे सचमुच मुझे प्यार करते तो क्या उन्हें मेरी ख़ुशियों की परवाह नहीं होती? क्या वे मेरे प्यार को स्वीकार नहीं करते? लेकिन नहीं, उन्होंने तुम्हें तो स्वीकार किया ही नहीं, वरन् मुझसे भी नाता तोड़ लिया. जाने दो, वैसे भी जिन्हें मेरी पत्नी की परवाह नहीं, जो मेरी रमा को अपना नहीं मानते, स्वीकारते नहीं, वे रिश्ते मेरे लिए बेमानी हैं.” विनोद के स्वर में रमा के लिए अपनापन और अपने अभिभावकों के लिए वितृष्णा थी.
“लेकिन फिर भी विनोद, मेरी वजह से तुम्हारे मम्मी-पापा, भाई-बहन सब तुमसे दूर हो गए. मैं… मुझे सचमुच बहुत अपराधबोध-सा होता है.”
“तुम्हें अपराधी महसूस करने की कोई ज़रूरत नहीं है रमा. इसमें तुम्हारी क्या ग़लती है? तुम ज़बरदस्ती तो आई नहीं हो मेरी ज़िंदगी में. मैंने तुमसे प्यार किया है. मम्मी-पापा अगर अपने बच्चों से सम्मान चाहते हैं, तो उन्हें भी बच्चों की इच्छाओं व भावनाओं का सम्मान करना चाहिए.” विनोद ने तल्ख़ स्वर में कहा.
“फिर भी मुझे लगता है कि तुम्हें वहां एक बार और जाना चाहिए. आख़िर वे तुम्हारे…”
“छोड़ो भी. तुम भी क्या बातें ले बैठी. मैं उस घर में तभी पैर रखूंगा, जब वे तुम्हें अपना लेंगे और ख़ुद आकर तुम्हें उस घर में ले चलेंगे.”
विनोद का प्यार रमा को भावविभोर कर गया. वह विनोद की बांहों में सिमट गई. लाइट बंद हो गई. पलंग के साइड टेबल पर रखे फ़ोटोफ्रेम में रमा और विनोद की तस्वीरें अंधेरे में भी मुस्कुराती हुई लग रही थीं.
तीन महीने अट्ठाइस दिन.
“अरे, ये क्या कर रहे हो? छोड़ो भी, मैं काट लूंगी सब्ज़ी, वैसे ही सारा दिन ऑफ़िस में थक जाते हो और घर पर भी काम करते हो. आओ, आराम से बैठकर चाय पीओ और पेपर पढ़ लो.”
“क्या हुआ सब्ज़ी काटना कोई मेहनत का काम थोड़े ही है. इसी बहाने तुम्हारे साथ बातचीत भी हो जाती है. चाय भी पी लेता हूं और तुम्हारी मदद भी हो जाती है. यानी एक पंथ दो काज और पेपर तो ऑफ़िस में लंच टाइम में खाना खाते हुए पढ़ लेता हूं. वैसे भी क्या ख़बरें होती हैं, वही राजनीति का रोना और 2-4 एक्सीडेंट, घोटाले, लूट और ख़ून-ख़राबा बस.”
“अरे, अब ये क्या? शर्ट क्यों प्रेस कर रहे हो? मैंने आज के लिए तुम्हारा शर्ट-पैंट प्रेस करके तो रखा है.”
“तुम सारा काम अपने हाथ से करती हो, मैंने सोचा आज छुट्टी है घर के काम में तुम्हारा हाथ बंटा दूं. मुझे तो ऑफ़िस से ह़फ़्ते में एक दिन की छुट्टी मिल जाती है, पर तुम्हें तो सातों दिन खटना पड़ता है.”
“घर के कामों को ‘खटना’ नहीं कहते. ये तो स्त्री का सौभाग्य होता है.”
“चलो, आज तुम्हें पिक्चर दिखा लाऊं. रात का खाना भी बाहर खा लेंगे.”
“क्या फ़ायदा मुंह बंद करके अंधेरे में परदे पर हीरो-हीरोइन का रोमांस देखने का? बेकार में 4-5 सौ रुपए ख़र्च हो जाएंगे. खाने में मैं पावभाजी बना लूंगी, झटपट
बन जाएगी.”
“तो चलो, आज इस कमरे के उजाले में ही रोमांस देख लेते हैं.” विनोद ने शरारत से कहा.
रमा विनोद की बांहों में सिमट गई. फ़ोटोफ्रेम में लगे रमा और विनोद मुस्कुरा रहे थे.
चार महीने सत्रह दिन.
“सुनो, अर्चना यानी मिसेज़ शर्मा मुझे बाज़ार तक साथ चलने को कह रही थीं. उनके साथ चली जाऊं?”
“हां-हां, क्यों नहीं. अच्छा है, तुम्हारा भी मन बहल जाएगा. मैं तो कब से तुम से कह रहा था कि ज़रा सहेलियां बना लो. घूम-फिर आया करो. यह लो पैसे, जाओ. तुम भी कुछ ले आना.”
“नहीं-नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए.”
“नहीं, तुम भी अपने लिए कुछ ले लेना.” विनोद ने ज़बरदस्ती 500 रुपए रमा के हाथ में थमा दिए.
पांच महीने नौ दिन.
“अरे, आप आज जल्दी आ गए? बहुत देर से खड़े थे क्या?”
“बस, दो मिनट पहले ही आया हूं.”
“सॉरी, आज चौथी मंज़िल वाली मंजीत के यहां किटी पार्टी थी, वो बहुत ज़िद करके अपने साथ ले गई. कब से आने को कह रही थी, पर वो आने ही नहीं दे रही थीं.” रमा ने ताला खोलते हुए कहा.
“अरे वाह, तुम किटी में गई थी. मुझे बहुत अच्छा लगा. चलो, इसी ख़ुशी में तुम्हें डिनर पर ले चलता हूं.” विनोद ने रमा की कमर में हाथ डालकर चहकते हुए कहा.
“आप चाय पीजिए, मैं फटाफट खाना बनाती हूं. आटा गूंधकर और सब्ज़ी-सलाद काटकर ही गई थी वहां. आधे घंटे में खाना बन जाएगा. फिर जाकर गैलरी में बैठेंगे. आज पूर्णिमा की रात है.”
“वाह! हनी और मून दोनों साथ यानी हनीमून.”
“धत्.”
रात देर तक फ़ोटोफ्रेम की तस्वीर पूरे चांद की रोशनी में नहाकर झिलमिलाती रही.
छह महीने.
“सुनो, आज मैं नलिनी के साथ बाज़ार जा रही हूं, कुछ पैसे दे दो.”

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छह महीने तेरह दिन.
“आधे घंटे से दरवाज़े पर खड़ा हूं. कहां गई थी?”
“आज रचना के यहां किटी पार्टी थी.”
“अच्छा, चलो जल्दी से खाना बनाओ. आज मैंने लंच भी नहीं किया. फुर्सत ही
नहीं मिली.”
“आज तो मैंने कोई तैयारी भी नहीं की. दोपहर को ही रचना की मदद करने चली
गई थी. चलो न, आज डिनर करने बाहर चलते हैं.”
“ठीक है.”
छह महीने छब्बीस दिन.
सुबह के समय.
“प्लीज़, ज़रा सब्ज़ी-सलाद काट दो ना, मुझे देर हो रही है.”
“क्यों? कहां जाना है?”
“आज सब लोग मिलकर प्रदर्शनी देखने जानेवाले हैं, काफ़ी दूर है. जल्दी निकलना पड़ेगा. कुछ पैसे भी दे देना. सुना है बहुत अच्छी-अच्छी चीज़ें और कपड़े आए हैं.”
“आजकल बहुत घूमने लगी हो बाहर, ज़रा घर पर भी ध्यान दिया करो और हो सके तो थोड़ा अपने ख़र्चों पर भी रोक लगाओ.”
“ठीक है बाबा, पर अभी सब्ज़ी तो काट दो.”
“लाओ.”
रमा तैयार होकर जाने लगी तो फ़ोटोफ्रेम पर नज़र पड़ी. उस पर धूल चढ़ी हुई थी. आजकल दूसरे कामों के चक्कर में अक्सर वो फ़ोटोफ्रेम साफ़ करना भूल जाती है. उसने आसपास नज़र दौड़ाई कि कोई कपड़ा मिले तो इसे साफ़ कर दे, पर कुछ नहीं दिखा. चलो, कल साफ़ कर दूंगी.
शाम के व़क़्त. “यह क्या, स़िर्फ खिचड़ी बनाई है?”
“आज बहुत थक गई थी. खाना बनाने की हिम्मत ही नहीं थी.”
रात विनोद देर तक रमा के खर्राटे सुनता हुआ जागता रहा.
सात महीने ग्यारह दिन.
“सुनो, एक फ्रिज ले लेते हैं. अब गर्मी आ गई है. खाना और दूध ख़राब होने लगा है.”
“अभी तो पैसे नहीं हैं. एक-दो महीने बाद देखेंगे.”
“क्यों? तुम तो कह रहे थे तुम्हारी तनख़्वाह काफ़ी बढ़ गई है. फिर?” विनोद चुप रहा.
चार-छह बार सवाल करने पर विनोद का जवाब मिला, “बहन की शादी तय हो गई है, पापा को पैसे चाहिए थे, उन्हें दे दिए.”
“यानी तुम अपने घर जाने लगे?”
“हां.”
“तो मुझे क्यों नहीं ले गए अपने साथ? मुझे बताया भी नहीं.”
“वे लोग तुम्हें अपनाने को तैयार नहीं हैं.”
“फिर भी तुम वहां गए? पर तुम तो कहते थे कि जब तक वे लोग मुझे नहीं अपना लेते, तुम भी वहां नहीं जाओगे.”
“अगर वे लोग तुम्हें उम्रभर नहीं अपनाएंगे तो क्या मैं भी ज़िंदगीभर के लिए अपने मम्मी-पापा से नाता तोड़ लूं?”
“मैंने भी तो तुम्हारे लिए अपने मम्मी-पापा को छोड़ा है.”
“तुम्हारी बात अलग है. लड़कियां तो वैसे भी अपना घर-द्वार छोड़कर आती हैं.”
“लेकिन…”
और एक बहुत लंबी और तीखी बहस. रमा का मन बहुत आहत हुआ. पुरुष की भी कैसी मानसिकता है? जब तक स्त्री उसके प्यार को स्वीकार नहीं कर लेती, उसके क़दमों पर झुके रहते हैं, जैसे ही स्त्री पुरुष के प्यार को स्वीकार कर लेती है, उसे अपने पैरों तले दबाए रखने की प्रवृत्ति पनप जाती है पुरुष में.
छीः छीः. रमा का विनोद अति साधारण, बल्कि आदिम प्रवृत्ति का, रूढ़िवादी, स्त्री को पैरों तले रखने वाली मानसिकता वाला.
देर तक रमा अपने आहत हृदय की सिसकियां सुनती रही. यह तो पहली चोट है. पता नहीं, पुरुष मानसिकता के अभी कितने रंग दिखाई देने बाकी हैं विनोद के स्वभाव में.
सात महीने सत्ताइस दिन.
पिछले दिनों के घावों पर आंसुओं के मरहम लगा-लगा कर काफ़ी हद तक उन्हें भर लिया था रमा ने. घर का पिछले दिनों से चला आ रहा तनावपूर्ण माहौल काफ़ी सामान्य बना लिया था उसने.
रात बड़ी देर तक जागते रहने के बाद उसने अंतिम सुलह का प्रयास करने का निश्‍चय किया. विनोद की तरफ़ करवट करके उसने धीरे से उसकी पीठ पर हाथ रखा. पलटकर विनोद ने उसे अपनी बांहों में भर लिया. बाकी के गिले-शिकवे रात की ख़ामोशी में दोनों की गरम सांसों ने माफ़ कर दिए.
धूल की एक परत चढ़ी होने पर भी फ़ोटोफ्रेम में जड़े रमा और विनोद की मुस्कुराहटें साफ़ दिख रही थीं.
आठ महीने सात दिन.
“क्या तुम जब-तब दूसरों के यहां जा-जाकर बैठी रहती हो, घंटे भर से दरवाज़े पर खड़ा हूं. जरा व़क़्त का ध्यान रखा करो. ऑफ़िस से थके-हारे आओ और दरवाज़े पर खड़े रहकर रानी साहिबा की राह देखते रहो.”
“तो मुझे क्या पता था कि तुम आज जल्दी आ जाओगे. रोज़ तो नौ-नौ बजे तक
आते हो.”
“फिर भी तुम्हें शाम से ही घर पर रहना चाहिए. मैं कभी भी आऊं.”
“रचना के पति टूर पर गए हैं. वह अकेली थी और मैं भी, इसीलिए उसके पास बैठी थी. यहां दिनभर अकेले पड़े रहो और रात को भी आधी रात में आते हैं. कितना अकेलापन सहूं मैं भी.”
“रात आता हूं, तो मेहनत करके ही आता हूं. कोई फ़िल्में देखकर या दोस्तों से गप्पे लड़ाकर नहीं आता. मैं मेहनत भी तो घर के लिए ही कर रहा हूं.”
“हां, पता है, तुम किनके लिए मेहनत कर रहे हो. अकेलापन सहूं मैं और पैसा जाए तुम्हारे मम्मी-पापा की जेब में और मैं मु़फ़्त का रौब बर्दाश्त करूं.”
रात खिचड़ी खाए जाने का इंतज़ार करते हुए प्लेटफॉर्म पर कुकर में ही रखी रह गयी.
नौ महीने नौ दिन.
“सुनो प्लीज़, जरा आटा गूंध दो ना, मेरा हाथ बहुत ज़्यादा दर्द कर रहा है. पता नहीं क्या हो गया है?”
बाम लगे हाथ पर कसकर कपड़ा बांधे. रमा ने विनोद से विनती की.
“तुम्हें तो आजकल जब देखो तब कुछ ना कुछ होता ही रहता है. मत बनाओ खाना. मैं ऑफ़िस कैंटीन में ही कुछ खा लूंगा.” विनोद टॉवेल उठाकर नहाने चला गया.
रमा की आंखों से आंसू निकल पड़े. विनोद कैंटीन में खा लेगा, लेकिन रमा?
विनोद के ऑफ़िस जाने के बाद रमा एक पेनकिलर दवा लेकर पलंग पर लेटी तो साइड टेबल पर रखी फ़ोटोफ्रेम पर नज़र पड़ी. नक्काशीदार फ्रेम के ऊपर धूल तो चढ़ ही रही थी. साथ ही एक कोने में छोटी-सी मकड़ी जाला भी बुन रही थी. जब रिश्तों में तनाव पैदा होने लगता है, तो तस्वीरों पर भी धूल चढ़ने लगती है. रमा ने तस्वीर की ओर पीठ कर ली और सो गई.
रात को विनोद को एहसास हुआ कि उसने रमा के साथ अनुचित व्यवहार किया है. उसने रमा की पीठ पर हाथ रखा. रमा ने उसका हाथ झटक दिया.
ग्यारह महीने इक्कीस दिन.
पिछले डेढ़ महीने में बहुत कुछ हो गया. विनोद की बहन की शादी हो गई, जिसमें रमा शामिल नहीं हुई. रमा ने भी अपने मम्मी-पापा के घर आना-जाना शुरू कर दिया, जिस पर रमा-विनोद में जमकर बहस हुई. रमा के मम्मी-पापा विनोद को भी दामाद के रूप में स्वीकार करने को तैयार हो गए, लेकिन रमा का अहम् आड़े आ गया. विनोद के मम्मी-पापा के यहां वह स्वीकार नहीं की गई, तो उसके मम्मी-पापा के यहां विनोद को भी आने की इज़ाज़त नहीं. रमा के मम्मी-पापा विनोद के घरवालों की तुलना में सुलझे हुए थे. उन्होंने रमा को बहुत समझाया, पर वह अपनी ज़िद पर अड़ी रही.
विनोद के दोस्तों से रमा को ख़बर मिली कि विनोद का अधिकांश पैसा उसके घरवालों की इच्छाओं और सुविधाओं की भेंट चढ़ रहा है. विनोद ने घरवालों की इच्छा के विरुद्ध अपनी पसंद की लड़की से शादी करके उनकी उम्मीदों को जो चोट पहुंचाई थी, अब उसकी भरपाई उन पर पैसा ख़र्च करके करना चाह रहा था. दोस्तों के बहुत समझाने पर वह रमा के लिए एक छोटा-सा फ्रिज ले आया. मम्मी-पापा, भाई-बहनों पर ख़र्च करना अलबत्ता बदस्तूर जारी है. पैसे की चमक शायद उसकी ग़लती की कालिख को पोंछ दे. रमा को बाज़ार-प्रदर्शनियों के नाम पर पैसा मिलना बंद हो गया.
ग्यारह महीने उन्तीस दिन.
खिड़की से आती पूरे चांद की रोशनी कमरे में पसरी हुई थी. पलंग पर रमा और विनोद एक-दूसरे की ओर पीठ करके सो रहे थे. पलंग के साइड टेबल पर रखी फ़ोटोफ्रेम पर मकड़ी अपना जाला बुनकर उसमें आराम से रहने लगी थी. फ्रेम में जड़ी तस्वीर में रमा और विनोद अपने ऊपर ढेर सारी धूल चढ़ी होने के बावजूद अब तक मुस्कुरा रहे थे.

विनिता राहुरीकर

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