Short Stories

कहानी- दूसरी ग़लती (Short Story- Doosari Galti)

यह अंतिम कार्य भी पूरा करके वो अपने घर पहुंचा. जीवन में इतना बड़ा तूफ़ान आकर गुज़र चुका था, पर उसने अपनी मां और अपनी दोनों बड़ी बहनों को उसकी चपेट में नहीं आने दिया था, यही शायद हंसराज जी भी चाहते होंगे. सत्येंद्र ने अपने पिता की दूसरी ग़लती को ढंक लिया था और सदैव के लिए उनके कर्ज़ से उऋण हो गया था.

व्हाट्सऐप पर मैसेज की स्पेशल रिंगटोन सुनते ही सत्येंद्र ने फौरन मोबाइल उठा कर देखा और मैसेज खोलते ही उसके चेहरे पर स्निग्ध मुस्कान खिल उठी.
“परसों शाम चार बजे… लखनऊ विश्वविद्यालय… आपको आना ही है, वरना मैं अपना मेडल नहीं लूंगी.”
ख़ुशी के अतिरेक से सत्येंद्र की आंखें नम हुईं तो साथ बैठी चाय पीती शीला ने उसके हाथ पर हाथ रख दिया, मानो उसकी ख़ुशी बांट रही हो.
वो समझ रही थी सत्येंद्र की मनःस्थिति को.
मैसेज की ये टोन किसकी है उसे भी पता था.
सत्येंद्र थोड़ा संयत हुआ तो मोबाइल शीला की तरफ़ बढ़ा दिया.
मैसेज पढ़ कर शीला के दिल में भेजने वाले के लिए आशीर्वाद और सत्येंद्र के लिए ढेर सारा प्यार उमड़ पड़ा. आज उसे एक बार फिर सत्येंद्र पर गुमान हो आया.
एक दिन बाद दोनों लखनऊ विश्वविद्यालय के विशाल ऑडिटोरियम में प्रवेश कर थे, जहां मनोविज्ञान के क्षेत्र में शोध करने वाले शोधार्थियों को उनकी उपलब्धियों के लिए सम्मानित किया जाना था.
स्टूडेंट्स और टीचर्स के उस महाकुंभ के बीच सत्येंद्र तथा शीला, दोनों की नज़रें किसी को ढूंढ़ रही थीं कि जब उसने पीछे से आकर पहले सत्येंद्र, फिर शीला के पैर छू लिए.
हड़बड़ा कर पीछे हटते सत्येन्द्र ने उसे उठाया तो उस चेहरे में पिता हंसराज जी झांकते नज़र आए.
“बाद में मिलती हूं.” कह कर वो झोंके की तरह निकल गई और वो दोनों जगह देख कर बैठ गए.
आज इतनी भीड़, इतने शोर में भी सत्येन्द्र को और कुछ नहीं सुनाई दे रहा था. उसे तो सुनाई दे रही थी बरसों पहले फोन पर की गई पिता की गुहार… “आकर देख कर जा…”
वर्षो पूर्व, उस दिन ऑफिस से वापस आकर सत्येंद्र थक कर सोफे पर बैठा ही था कि फिर से फोन बजा, देखा तो ये वही नंबर था, जिससे आज दिन में दो-तीन बार फोन आया था. लेकिन अत्यधिक व्यस्तता के चलते आज वो कोई भी फोन नहीं उठा पाया था.
पता नहीं किसका है, जो बार-बार बात करने की कोशिश कर रहा है. कुछ ज़रूरी ही होगा, वरना आजकल के दौर में किसे फ़ुर्सत है… यह सोचते हुए सत्येंद्र ने फोन उठाया और उसके हेलो कहने से पहले ही जो आवाज़ उसे सुनाई दी उसे सुनकर वो जड़ हो गया. उसके हाथ से फोन छूट गया.
पानी का ग्लास लेकर आती पत्नी शीला ने ये नज़ारा देखा तो वो दौड़ कर आई और फोन उठा कर सत्येंद्र के हाथ में देना चाहा कि उधर से हेलो हेलो… की आवाज़ सुनकर रुक गई.
सत्येंद्र की आंखें नम थीं और वो गहरी गहरी सांसें ले रहा था, जैसे अपने अन्दर के ज्वार भाटे को रोकने की कोशिश कर रहा हो.
सत्येंद्र की हालत देखती शीला ने मोबाइल कान से लगाया.

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“हेलो?” उधर से कोई ऊंचे स्वर में बोल रहा था, “मैं बनारस से बोल रहा हूं, जिस व्यक्ति का यह मोबाइल है उस व्यक्ति की हालत बहुत ख़राब है. आप जो भी हैं फौरन यहां आ जाइए इस व्यक्ति का बचना कुछ मुश्किल लगता है.
मैं इसे यहां के सरकारी अस्पताल में भर्ती करवा रहा हूं आप अति शीघ्र पहुंचने की कोशिश करिए.” यह कह कर उधर से फोन कट गया.
फोन टेबल पर रख कर शीला ने सत्येंद्र की तरफ़ ध्यान दिया और उसका कंधा झंझोड़ते हुए बोली, “कौन था यह? किसका फोन था? क्या आप जानते हैं?”
उसकी बात सुनकर सत्येंद्र ने शीला को सूनी सूनी नज़रों से देखा तो वो और घबरा गई.
उसने सत्येंद्र को पानी पिलाया और उसके पास ही बैठ गई.
पानी पीने के बाद सत्येंद्र को थोड़ी राहत महसूस हुई और उसके मुंह से अस्फुट स्वर में निकला, “पापा का फोन था.”
यह सुनते ही शीला चौंक कर सीधी होकर बैठ गई.
“पापा का फोन? वो भी बनारस से? इतने वर्षों बाद?”
एक साथ बहुत सारे प्रश्न उसने सत्येंद्र की तरफ़ उछाल दिए और अगले ही पल उसे एहसास हुआ… इन प्रश्नों का उत्तर शायद उसके पास भी नहीं होगा.
सत्येंद्र के पिता यानी उसके ससुर हंसराज जी… ज़्यादा नहीं जानती थी उनके बारे में बस इतना ही पता था कि बहुत सज्जन व्यक्ति थे, पर वो उसकी और सत्येंद्र की शादी से पहले ही घर से कहीं चले गए थे.
क्यों?..
इस बात का जवाब उसे कभी किसी से नहीं मिला और अब तो उसकी शादी को भी कई साल हो गए थे.
इस तरह अचानक ऐसा फोन आना किसी को भी उद्वेलित करने के लिए काफ़ी था. शीला सत्येंद्र की मनोदशा समझ रही थी.
लगभग दो दशकों बाद अपने पिता के बारे में पता लगना और वो भी तब, जब मृत्यु उन्हें फिर से छीन कर ले जाने को तत्पर हो किसी को भी हिला देने को काफ़ी थे.
आज तक ससुर जी को तस्वीरों में देख कर और सत्येन्द्र से जो सुना था, वो उसे ये बताने को पर्याप्त थे कि सत्येंद्र अपने पिता के बहुत क़रीब था.
इसके अलावा दोनों बड़ी ननदों और सासू मां से उनके बारे में कभी कोई ख़ास बात नहीं पता चलती थी.
ससुर जी का रहस्यमई परिस्थितियों में घर से जाना और उनके ज़िक्र पर लगा प्रतिबंध कई बार शीला को उनके बारे में और जानने को उत्सुक कर देता, लेकिन परिवार का माहौल ख़राब ना हो सोच कर वो ख़ुद को शांत कर लेती थी. आज इस विषय पर उसकी उत्कंठा ने फिर से सिर उठा लिया था, लेकिन सहचरी थी सत्येंद्र की… समझती थी कि आज सत्येंद्र ज़रूर कुछ बोलेगा. ससुर जी के प्रति सासू मां के रवैए को देखते हुए उसे लगा कि गनीमत है कि घर में सिर्फ़ वो दोनों ही हैं.
शीला और सत्येंद्र की शादी को लगभग 18 साल हो चुके थे और इकलौती बेटी साहिबा इस साल पंद्रहवें साल में प्रवेश कर चुकी थी.
शीला के ससुराल में सत्येंद्र और सासू मां सुमित्रा देवी के अलावा दो बड़ी ननदें थीं. दोनों बड़ी ननदों की शादी इसी शहर में हुई थी और सुमित्रा जी इस समय बड़ी बेटी के घर गई हुई थीं. बेटी साहिबा स्कूल की तरफ़ से ट्रिप पर हिमाचल प्रदेश गई हुई थी.
अनमने भाव से खाने के नाम पर दोनों से ही दो-दो कौर निगले गए.
सोने को बिस्तर पर लेटे तो दोनों की आंखों में नींद नहीं थी. दोनों ही बेचैन थे और दोनों की बेचैनी की वजह अलग-अलग थी… सत्येंद्र को अपने पिता के साथ बिताया हुआ अपना हर पल याद आ रहा था और शीला को यह जानने की उत्सुकता थी कि सासू मां की इस पर क्या प्रतिक्रिया होगी.
उसने सत्येंद्र की ओर देखा तो सत्येंद्र किसी और ही दुनिया में खोया हुआ था.

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सत्येंद्र की आंखों के सामने जीवन का वो हर पल घूम रहा था, जो उसने अपने पिता के साथ बिताया था.
रईस खानदान की एकमात्र संतान सत्येंद्र की मां सुमित्रा देवी को स्वभाव में उग्रता विरासत में मिली थी और पिता हंसराज अपेक्षाकृत शांत और डरपोक स्वभाव के थे. पत्नी शहर के अभिजात्य वर्ग की चंचल तितली और उनका स्वयं का बैकग्राऊंड यूपी का एक पिछड़ा हुआ गांव.
अपनी प्रतिभा और शिक्षा के चलते स्वयं तो गांव से निकल आए परन्तु गांव के संस्कार और उनकी जड़ें इतनी गहरी थीं कि उनसे स्वयं को अलग नहीं कर पाए. इस बेमेल जोड़ी के विवाह की एकमात्र वजह हंसराज जी का सुपात्र होना था.
पत्नी के सामने उनकी नहीं चलती थी और अपने शांत स्वभाव के चलते वो किसी भी बहस में सहज ही हार मान लेते थे.
उनके संपूर्ण वैवाहिक जीवन के कुछ प्रारंभिक वर्षों को छोड़ दिया जाए तो उसके अतिरिक्त उन दोनों का संबंध नाम मात्र का था. शायद बच्चों ने ही उन्हें अभी भी एक डोर से बांध रखा था.
यूं ही उठा-पटक करते हंसराज और सुमित्रा जी का जीवन बीत रहा था. मां-बाप के बीच के क्लेश को देखते देखते तीनों बच्चे बडे़ हुए थे.
बेटियों का स्वाभाविक झुकाव मां की तरफ़ और बेटे का पिता की तरफ़ ज़्यादा था.
दोनों बेटियों की शादी हो गई थी और वो अपने ससुराल जा चुकी थीं.
सत्येन्द्र भी अच्छी नौकरी पर था और अब उसकी शादी तय होने वाली थी… जब बातचीत चल रही थी तब सत्येंद्र के पिता हंसराज जी की ख़ुशी देखते बनती थी. उन्हें लग रहा था दो बेटियां गई हैं, पर एक बेटी वापस आ जाएगी. लेकिन विवाह के दो महीने पहले सत्येंद्र की मां और पिता के बीच ना जाने किस बात पर इतना भीषण विवाद हुआ कि कभी अपना स्वर ऊंचा न करने वाले हंसराज जी ने जीवनभर संचित की अपनी कड़वाहट उगल दी. उस दिन अपने माता-पिता की वो बातें भी सत्येंद्र के सामने आईं, जो नहीं आनी चाहिए थीं. रिश्तों के बीच जो कुछ चटका था, उस दिन बिखर भी गया.
माता-पिता के बीच की दरार खाई बन चुकी है, इसका पता अगले दिन सुबह पिता की छोड़ी हुई चिट्ठी के द्वारा चला.
वो उनकी ज़िंदगियों से जा चुके थे, शायद हमेशा के लिए.
सत्येंद्र बौखला के रह गया… ऐसे कैसे जा सकते हैं पापा? उन्हें मेरा ख़्याल एक बार भी नहीं आया? उन्होंने एक बार भी नहीं सोचा कि मैं उनके बिना कैसे सब कुछ कर पाऊंगा?
जब सुमित्रा देवी को पता चला तो उनके चेहरे पर विद्रूपता सी छा गई, जिसमें एक अंश संतोष का भी था, “जान छूटी रोज़-रोज़ की किचकिच से…” मन में चलते भावों को उन्होंने शब्द दिए, “वो व्यक्ति कभी ज़िम्मेदारी उठा ही नहीं सकता था.” और इतना कहकर उन्होंने मुंह मोड़ लिया.
उम्रभर के अनचाहे दायित्व का बोझ एकाएक उतर गया था. रिश्ते को ढोने की कड़वाहट ही थी शायद जिसने सुमित्रा देवी और हंसराज जी के संबंधों को बिल्कुल ही पाषाण कर दिया था.
जितने जानकार लोग थे उन सबके यहां जांच-पड़ताल की गई, पर जब कोई व्यक्ति स्वयं छिपना चाहता है तो आप उसे नहीं ढूंढ़ सकते और हंसराज जी छिपे हुए थे… सत्येंद्र की सारी कोशिशें नाकाम गईं, हंसराज जी का कुछ पता नहीं चला.
दिन.. महीनों में और महीने.. साल में बदल गए. हंसराज जी ने ना वापस आना था, ना वो आए.
सत्येंद्र की होने वाली पत्नी शीला के घरवालों ने भी शादी पर ज़ोर डालना शुरू कर दिया था. उनका भी अपना तर्क था, “लड़का योग्य है उसे हाथ से क्यों जाने दिया जाए, सास-ससुर के बीच जो हुआ, वो उनकी प्रॉब्लम है.” साल भर होने को आया था, अब वो ज़्यादा देर इंतज़ार नहीं करना चाहते थे.
सर्वसम्मति से एक सादे से समारोह में सत्येंद्र और शीला का विवाह कर दिया गया. अपने विवाह के हर एक क्षण में, हर एक रस्म में सत्येंद्र ने अपने पिता की कमी महसूस की थी, लेकिन बाकी सब लोग मानो यह स्वीकार कर चुके थे कि अब हंसराज जी कभी नहीं आएंगे और सच में… वो कभी नहीं आए.
यदि कोई व्यक्ति सात साल तक ना मिले तो सरकार भी उसे मृत मान लेती है, इसलिए हंसराज जी को भी मृत मान लिया गया था… केवल सत्येंद्र था, जो अभी भी मन ही मन अपने पिता का इंतज़ार करता था.
समय ना कभी किसी के लिए रुकता है और ना ही वो सत्येंद्र के लिए भी रुका था.
हंसराज जी को घर से गए लगभग दो दशक होने वाले थे. सब अपने-अपने घरों में सुखी और संपन्न थे. सुमित्रा जी के उग्र स्वभाव पर भी समय और परिस्थितियों ने मानो पानी डाल दिया था.
माता-पिता के बीच उस अन्तिम दिन हुए झगड़े से सत्येंद्र को इतना तो समझ आ गया था कि उनके रिश्ते की मिठास को खारे पन में बदलने में ज़्यादा हाथ मां सुमित्रा देवी का था.
पिता का दोष था तो इतना कि उनमें आत्मविश्वास की कमी थी.
वजह चाहे जो भी हो वो अपनी परिस्थितियों के लिए दोनों से नाराज़ था.
पिता तो सामने थे नहीं, इसलिए सत्येंद्र का सारा फ्रस्ट्रेशन मां पर निकला और वो भौतिक रूप से मां के पास होकर भी दूर हो गया और गुमनाम हो चुके पिता के क़रीब… और क़रीब आता चला गया.
सत्येंद्र की पत्नी शीला ने सुख-दुख में पति का भरपूर साथ निभाया.
कम से कम सत्येंद्र और शीला के बीच, सत्येंद्र के मां-बाप जैसा रिश्ता नहीं था.
दादी और मां-पापा के प्यार की छांव में बेटी शनैः शनैः बड़ी हो रही थी. उसे तो पता भी नहीं था कि उसके दादाजी भी जीवित हैं.
एक रोज़ सत्येंद्र को किसी अनजाने नंबर से फोन आया… फोन उठाया तो उधर से आती आवाज़ को पहचानने में सत्येंद्र को एक पल भी नहीं लगा.
पिता की आवाज़ सुनते ही उसकी आंखें भर आईं और एक क्षण के लिए गले से आवाज नहीं निकली.
जब थोड़ा संभला तो पूछा, “कहां हैं आप? घर क्यों नहीं आते?”
क्षण भर की ख़ामोशी के बाद उधर से उत्तर आया, “आना चाहूं भी तो नहीं आ सकता सत्येंद्र! एक बात कहनी थी. मेरी उम्र हो गई है. अब मेहनत नहीं कर पाता. अगर संभव हो तो हर महीने मुझे कुछ पैसे भिजवा दिया करो. मैं अपना अकाउंट नंबर दे दूंगा.” हंसराज जी थकी हुई आवाज़ में बोल रहे थे.
इस पर सत्येंद्र का धीरज छूट गया, “आप हैं कहां? मुझे बताइए मैं आपको लेकर आऊंगा.”
इस पर पिता का जवाब था, “एक ग़लती की थी, जब मैं अपने घर को छोड़कर निकला था. उसके बाद एक ग़लती और हो गई मुझसे… अब तीसरी नहीं करना चाहता… समाज की नज़रों में मैं मर चुका हूं, मुझे मृत ही रहने दो… मुझे नहीं आना वापस उस दुनिया में… अगर संभव हो तो पैसे भिजवा देना.. अन्यथा कोई बात नहीं.. मेरी प्रार्थना है ईश्वर से कि तुम सदा ख़ुश रहो.” इतना कहकर उन्होंने फोन रख दिया.
सत्येंद्र सोच नहीं पा रहा था कि वो अपने पिता के जीवित होने की ख़बर से ख़ुश हो या फिर उनके इस हाल में होने पर दुखी.
पता नहीं हंसराज जी ने सत्येंद्र का फोन नंबर कहां से लिया था.
इसका अर्थ था कि वो अपने किसी पुराने मित्र के संपर्क में हैं जिसके पास सत्येंद्र का नंबर था, लेकिन इस समय सत्येंद्र के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं था.

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हालांकि पिता के जाने के बाद मां से उसका वार्तालाप औपचारिकता तक ही सीमित रह गया था फिर भी जब यह बात उसने उनसे की तो एकाएक मिली इस ख़बर के झटके को आत्मसात करने के बाद उनका जवाब था, “तुम्हारे पिता हैं वो.. जैसा तुम्हें ठीक लगे, तुम करो.. आना चाहें तो उन्हें अपने घर ले आओ ” शायद अपनी कही-अनकही ग़लतियों का पश्चाताप करने का ये मौक़ा सुमित्रा देवी को ये कहने पर विवश कर गया था.
मां की बात सुनकर सत्येंद्र ने वापस उसी नंबर पर फोन लगाया और पिता से मिलने का आग्रह किया.
उसके इस आग्रह को स्वीकार न करते हुए हंसराज जी ने फिर से अपनी बात दोहराई तो असहाय से सत्येंद्र ने भारी मन से पिता का अकाउंट नंबर ले लिया.
मन में उम्मीद थी कि शायद ये सिलसिला आगे चल कर सुखांत में परिवर्तित हो.
परन्तु इंसान जैसा चाहता है, सब वैसा ही हो तो ज़िंदगी की क़िस्से-कहानियां कैसे बनें?
खैर… वो दिन है और आज का दिन, सत्येंद्र हर महीने एक निश्चित राशि उस अकाउंट में डालता है. पिता को पैसे भेज पाने की आत्म संतुष्टि उसके बरसों से रिसते ज़ख़्मों पर मरहम का काम कर रही है कि ज़्यादा नहीं तो इतना तो वह अपने पिता के लिए कर रहा है कि जब उन्हें अपने पुत्र की ज़रूरत है तो वह उनके लिए मौजूद है.
अब गाहे-बगाहे पिता-पुत्र में बातें भी हो जाती थीं, पर हंसराज जी मिलने के लिए कभी राज़ी नहीं हुए.
सुमित्रा देवी चाहे मुंह से कुछ नहीं कहती थीं, पर अंदर ही अंदर उन्हें भी महसूस होता था कि अगर वो चाहतीं तो शायद आज हालात कुछ और होते.
पति के घर से जाने का अफ़सोस चाहे उस समय नहीं था, पर बीतते सालों के साथ जब ये एहसास हुआ कि वो अकेले नहीं गए हैं, अपने साथ बेटे को भी ले जा चुके हैं तो पहली बार उनके अन्दर कुछ दरक गया था. पति से हो न हो, बच्चों से उन्हें अथाह प्रेम था.
पर कहते हैं ना कि ज़िंदगी के कुछ पन्ने ऐसे होते हैं, जिनको ना तो फाड़ा जा सकता है और ना ही दोबारा से लिखा जा सकता है.
सत्येंद्र की ज़िंदगी में थोड़ा ठहराव आने लगा था, अब उसका मन अशांत नहीं रहता था. लेकिन आज इस फोन नें सत्येंद्र की ठहरी हुई ज़िंदगी में फिर से पत्थर मार दिया था. आज फिर से वो उसी बेचैनी को महसूस कर रहा था, जब पिता उसे पहली बार छोड़ कर गए थे. लेटे लेटे उसने मुंह घुमा कर देखा तो शीला उसी का मुंह जोह रही थी.
सत्येंद्र धीरे से उठ बैठा और शीला के दोनों हाथ पकड़ कर बोला, “मां-पापा के बीच का मनमुटाव मुझे किन परिस्थितियों में खड़ा कर गया था मैंने कभी तुम्हारे साथ नहीं बांटा. तुम भी बिना किसी अपेक्षा के मेरे साथ खड़ी रही. आज मैं तुमसे बहुत सी बातो की माफ़ी मांगना चाहता हूं शीला…” कहते कहते सत्येंद्र फफक पड़ा.
बड़ी से बड़ी परेशानी में चट्टान की तरह मज़बूत खड़े पति को एक तिनके की तरह ढहते देख कर शीला तड़प उठी.
“मैंने तुमसे… एक बात छुपाई है.” सत्येंद्र टूटती आवाज़ में बोल रहा था.
शीला सांस रोके पति की बात सुन रही थी.
सत्येंद्र ने आगे कहना जारी रखा.. “कई महीने पहले भी पापा का फोन आया था. उन्होंने मुझसे कुछ पैसे मांगे थे और मैं तब से हर महीने उन्हें पैसे भिजवा रहा हूं.
मां को भी यह बात पता है, पर तुम्हें नहीं कहा मैंने… शायद पापा को तुम्हारी नज़रों में नीचे नहीं गिराना चाहता था.
उनका कहना था, “सब सोचते हैं कि मैं मर चुका हूं तो सबको यही सोचने दो…” लेकिन आज फोन पर उनके पहले शब्द थे, “आकर मिल कर जा…” और उसके बाद किसी और व्यक्ति ने फोन ले लिया था.”
शीला दम साधे यह सब बातें सुन रही थी. उसे झटका तो लगा था कि सत्येंद्र ने उससे यह सब छुपाया, लेकिन वो समझ रही थी कि ये समय शिकायत करने का नहीं है, इसलिए वो चुप रही और सिर्फ़ इतना बोली, “अब क्या करोगे?”
इस पर सत्येंद्र थके स्वर में बोला, “सोच रहा हूं कल सुबह बनारस चला जाऊं… जा कर देखता हूं वहां क्या हालात हैं. अभी किसी को कुछ मत बताना. वहां पहुंच कर मैं देख लूंगा कि क्या करना है.”
शीला ने सांत्वना देने के अंदाज़ में उसकी पीठ थपथपाई और बोली, “सो जाओ… कल सुबह तुम्हें जल्दी निकलना है.”
अगले दिन सुबह सत्येंद्र अपनी गाड़ी से बनारस की ओर निकल पड़ा.
इलाहाबाद से बनारस ज़्यादा दूर नहीं है. जिस सरकारी अस्पताल में उसको आने को कहा गया था वहां पहुंच कर उसी नम्बर पर फोन करने से किसी महिला ने फोन उठाया और सत्येंद्र को बताया कि वो कहां है.
सत्येंद्र ने सोचा किसी नर्स ने फोन उठाया होगा.
जब सत्येंद्र बताए गए वॉर्ड में पहुंचा तो वहां अपने पिता की हालत देखकर उसका दिल खून के आंसू रो पड़ा.
भरापूरा परिवार होते हुए भी उसके पिता एक लावारिस की भांति ज़मीन पर पड़े हुए थे.
सरकारी अस्पतालों की हमारे देश में क्या दशा होती है यह बताने की मुझे आवश्यकता नहीं है.
जैसे ही वो पिता की तरफ़ लपका, उनकी बगल में एक औरत और एक लड़की नज़र आए, जो उसको देखते ही किनारे हो गए.
पिता होश में नहीं थे. डॉक्टरों से बात करने पर पता चला कि दोनों फेफड़े टीबी की वजह से ख़त्म हो चुके हैं, कुछ नहीं हो सकता. अब तो इंतज़ार करना है कि कब वो इस नश्वर शरीर को त्याग देंगे.
यह सुनते ही सत्येंद्र वहीं खड़ा-खड़ा पत्थर का हो गया. उसे समझ नहीं आ रहा था कि ये सब क्या हो गया है. पिता की तबीयत इतनी ख़राब थी तो उन्होंने पहले क्यों नहीं बताया?
अभी वो किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा हुआ था कि इतने में पीछे से उस महिला की आवाज़ आई, “यह आपकी छोटी बहन है. कल हमारे सामने ही वह आदमी आपसे बात किया था. आपके पिताजी का पहला नंबर खो गया था, इसलिए दूसरे नंबर से बात किए थे…” इस अजीब सी भाषा पर अचकचा कर सत्येंद्र ने पीछे देखा. उसकी अपनी बेटी से भी छोटी लड़की उसकी बहन बनकर उसके सामने खड़ी हुई थी.
सत्येंद्र के दिमाग़ में बिजली सी कौंधी कि पिता किस ग़लती की बात कर रहे थे.
सत्येंद्र का दिमाग़ कुंद हो चुका था, वो समझ नहीं पा रहा था कि इस बात पर कैसी प्रतिक्रिया दे?
तेजी से घटते इस घटनाक्रम ने उसके सोचने-समझने की शक्ति हर ली थी.
अभी वो इस नई जानकारी को आत्मसात करने की कोशिश कर रहा था कि पिता के कराहने की आवाज़ सुनाई दी… पलट कर देखा तो पाया कि पिता आंखें खोलने की कोशिश कर रहे हैं.
ज़मीन पर पड़े पिता के जर्जर हुए शरीर को देखकर सत्येंद्र का मन तार-तार हो चुका था. होश में आते पिता को देखकर आंसुओं का गोला उसके गले में अटक गया. पिता का हाथ पकड़कर एक ही वाक्य मुंह से निकला, “पापा पहले क्यों नहीं बुलाया?”
उसकी आवाज़ सुनते ही गरम-गरम आंसुओं की बूंदें हंसराज जी के आंखों के कोरों से ढुलक गईं और पपड़ी पड़े होंठों से निःश्वास निकल गई.
लकड़ी जैसा हाथ उठाकर उस लडकी की तरफ़ इशारा किया और अस्फुट स्वरों में बोले, “इसका ध्यान रखना…” और इसके साथ ही उनका हाथ निर्जीव होकर नीचे गिर गया.
कई वर्षों से जो आत्मा अपने ही किए अपराध के बोझ के नीचे दबी हुई थी आज वो आज़ाद हो गई थी.
शायद वो सत्येंद्र की ही प्रतीक्षा कर रहे थे और उसको देखते ही उन्होंने निश्चिंत होकर प्राण त्याग दिए, मानो अब उन्हें तसल्ली हो गई हो कि उनकी बच्ची दर ब दर की ठोकरें नहीं खाएगी.
पिता के शरीर से लिपटा सत्येंद्र फूट-फूट कर रो रहा था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि इस पूरे प्रकरण में किसकी ग़लती थी?
अगर उसके मां-पापा की आपस में नहीं बनती थी तो उन्होंने सहमति से तलाक़ क्यों नहीं लिया?
कम से कम बच्चों से तो जुड़े रहते.
क्यों पिता इस तरह से घर छोड़कर निकल आए और फिर कभी पलट कर सुध नहीं ली?
एक-एक करके सत्येंद्र के मन में विचारों का ज्वार भाटा उठ रहा था.
उसके पीछे खड़ी आंसू बहाती वो दोनों मां-बेटी उसके सामने हंसराज जी पर अपना हक़ भी नहीं जता पा रही थीं, उनके अलावा उन दोनों के आगे-पीछे कोई नहीं था. जब रो कर मन कुछ हल्का हो गया तो सत्येंद्र ने शीला को फोन लगाकर पूरे हालात की जानकारी दी, वो भी सब कुछ सुन कर स्तब्ध रह गई.
उसने सत्येंद्र को हिम्मत बनाए रखने की ताकीद की और पूछा, “अब आगे क्या करोगे?”
सत्येंद्र चुप था. उसे ख़ुद भी नहीं समझ आ रहा था कि अब क्या करना चाहिए.
अगर मां को पिता की ग़लती के बारे में बताता है तो एक नया ज़ख़्म और पिता की एक नई कमज़ोरी उनके सामने आ जाएगी और फिर से नफ़रतों का सिलसिला शुरू हो जाएगा.
सोच-विचार कर शीला और सत्येंद्र ने यही तय किया कि मां और बहनों को पिता की मृत्यु की जानकारी देना ज़रूरी है, पर इन नई मां और बेटी के बारे में कुछ ना बताया जाए.
सत्येंद्र जानता था कि बहनें अपने-अपने घरों में कुछ नहीं बताएंगी, क्योंकि इससे उनके वैवाहिक जीवन में अकारण ही हलचल मच जाएगी और मां को यहां लेकर आने का कोई मतलब नहीं था.
जिस पिता की मृत्यु कई वर्ष पहले स्वीकार की जा चुकी है, उस पिता का अंतिम संस्कार उसे अकेले ही करना होगा.
एक और सबसे बड़ा प्रश्न था जो वो दोनों ही एक-दूसरे से पूछने से कतरा रहे थे कि उन दोनों मां और बेटी का क्या होगा?
सरकारी अस्पताल की सारी फॉर्मेलिटी पूरी करके सत्येंद्र पिता के पार्थिव शरीर को लेकर पिता के उस घर में पहुंचा, जहां वो इतने सालों से रह रहे थे.
उस घर की हालत से ही उसे समझ में आ गया था कि अपने अंतिम दिनों में पिता ने कितना कष्ट पाया होगा. शायद वह अपने अपराध का प्रायश्चित इसी जन्म में कर गए थे.
पूरे विधि विधान से पिता का अंतिम संस्कार करके उसने मन ही मन उनकी आत्मा की शांति की प्रार्थना की और फिर वह काम किया, जिससे उसके पिता की आत्मा को वास्तविक शांति मिलनी थी.
मन ही मन में एक निर्णय लेकर उसने पलट कर उन दोनों मां और बेटी की तरफ़ पहली बार गौर से देखा तो बेटी में उसे पिता की झलक नज़र आई.
दोनों ही इतनी निरीह अवस्था में थीं कि सत्येंद्र के मन में स्वतः ही उस बच्ची के लिए वात्सल्य उमड़ आया.
शांत मन और गंभीर आवाज़ में उसने बोलना शुरू किया, “मैं आप दोनों को अपने घर नहीं ले जा सकता, क्योंकि वहां जाना ना आपके लिए उचित है और ना ही मेरे परिवार के लिए. परंतु मैं आपसे वादा करता हूं कि आप दोनों के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी जब तक मैं जीवित हूं, तब तक मेरी है. आपकी बेटी… कहते कहते सत्येंद्र ठिठक गया और फिर आगे बोला.. “मेरी बहन जितना पढ़ना चाहेगी, पढ़ सकती है. मैं ध्यान रखूंगा कि सिर्फ़ पैसे की वजह से इसकी पढ़ाई न रूके… उचित समय आने पर जब इसका विवाह करना होगा तो उसका कन्यादान मैं करूंगा… यही शायद मेरे पिता की अंतिम इच्छा भी थी. लेकिन शर्त यही है कि मेरे अलावा आप मेरे घर के किसी भी और व्यक्ति से कोई संबंध नहीं रखेंगी.
जिस प्रकार मैं अब तक हर महीने ख़र्चा भेज रहा था, उसी प्रकार मै हमेशा भेजता रहूंगा.” और इतना कहकर उन दोनों से विदा ली.
पिता की अस्थियां विसर्जित करने के लिए काशी से बढ़िया जगह क्या होनी थी?
यह अंतिम कार्य भी पूरा करके वो अपने घर पहुंचा. जीवन में इतना बड़ा तूफ़ान आकर गुज़र चुका था, पर उसने अपनी मां और अपनी दोनों बड़ी बहनों को उसकी चपेट में नहीं आने दिया था, यही शायद हंसराज जी भी चाहते होंगे. सत्येंद्र ने अपने पिता की दूसरी ग़लती को ढंक लिया था और सदैव के लिए उनके कर्ज़ से उऋण हो गया था.
अतीत के गलियारों में गोते लगाते सत्येंद्र को तालियों की गड़गड़ाहट से होश आया.
पत्नी शीला भी आंसू भरी आंखों से तालियां बजा रही थी.
स्टेज पर गोल्ड मेडलिस्ट छात्रा का नाम अनाउंस हो रहा था… “दीक्षा सत्येंद्र हंसराज.”

– शरनजीत कौर

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Usha Gupta

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November 20, 2024

२९ वर्षांचा संसार मोडला, ए आर रहमान आणि सायरा बानू यांचा घटस्फोट (AR Rahman, Wife Saira Announce Separation After 29 Years Of Marriage Due To Emotional Strain)

ऑस्कर पुरस्कार विजेते संगीतकार ए आर रहमान यांच्या वैयक्तिक आयुष्यातून एक धक्कादायक बातमी समोर येत…

November 20, 2024

Romance The Night

kinky and raw sex may be good to ignite the carnal fire between two individuals,…

November 20, 2024
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