कहानी- एक बार फिर (Short Story- Ek Baar Phir)

“यह लोगों की नहीं, वरन ईर्ष्या और मिथ्या अहं से ग्रस्त तुम्हारी संकीर्ण मानसिकता है. जानते हो समीर, रवि ने प्रमोशन के लिए तुम्हारा नाम प्रस्तावित किया होता, तो मैं प्रसन्नता से फूली नहीं समाती. तुम पर गर्वित होती, किंतु तुम जैसे पुरुष स्त्री को स्वयं से आगे बढ़ता नहीं देख सकते. तुम्हें पहचानने में मुझसे बहुत बड़ी भूल हुई.”

लैपटॉप के की बोर्ड पर चलती मेरी उंगलियां यकायक थम गईं. मोबाइल पर देव का मैसेज था, “प्रिया, कल शाम छह बजे हम कॉफी हाउस में मिल रहे हैं न!…” मैंने एक स्माइली भेज दी, किंतु मन फिर ऑफिस के काम में नहीं लगा. एक अजीब-सी कशमकश के चलते स्वयं को असहाय-सा अनुभव कर रही थी मैं. जानती हूं, देव हम दोनों के विवाह के बारे में बात करेंगे. क्या कहूंगी मैं उनसे? मन उद्वेलित होकर दोराहे पर आ खड़ा हुआ है.
यूं प्रकट में तो सब कुछ अच्छा ही था. एक मल्टीनेशनल कंपनी में इंजीनियर मैनेजर की पोस्ट पर कार्यरत देव, भइया के मित्र के रिश्तेदार थे. एक विवाह समारोह में वह मुझसे मिले थे और कुछ दिन पश्‍चात अपने मम्मी-डैडी के साथ मेरे घर आ गए. उनके घरवालों को मैं बहुत पसंद आई थी और देव… वह दो-तीन बार घर क्या आए, मम्मी-पापा, भाई-भाभी सबके दिलों में घर बनाने लगे. उनका सौम्य आकर्षक व्यक्तित्व, जीवन में आगे बढ़ने का जज़्बा और वैचारिक
धरातल पर हम दोनों की समानता. और क्या चाहिए था मुझे? उन्होंने कहा था, “प्रिया, मैं सदा से ही ऐसी युवती से विवाह करना चाहता था, जो आत्मविश्‍वास से भरपूर हो. जो मेरी परछाईं बनकर नहीं, वरन् मेरे साथ चले, जिसकी स्वयं की एक अलग पहचान हो.” यकायक मेरी सोच को एक झटका-सा लगा और एक अजीब-सी घुटन का एहसास होने लगा. मैंने फ्रिज से निकालकर पानी पिया और बाहर टैरेेस पर चली आई.
वातावरण में गहरी निस्तब्धता थी. कोई और समय होता, तो यह ख़ामोशी मुझे सुकून से भर देती, किंतु आज तो विचारों की आंधियां मस्तिष्क में कोलाहल-सा उत्पन्न कर रही थीं. इन आंधियों ने स्मृतियों के बंद द्वार भरभराकर खोल दिए. हृदय के कैनवॉस पर दो वर्ष पूर्व बीटेक थर्ड ईयर में हुई डिबेट के दृश्य उभरने लगे.
समीर कह रहा था, “देश में बढ़ते तलाक़ की वजह स्त्रियों का स्वावलंबन है. जॉब करते हुए अपनी फैमिली को अनदेखा करना पति-पत्नी के बीच हुए झगड़ों की वजह बनता है और परिणाम तलाक़ के रूप में सामने आता है.” इस बात का विरोध करते हुए मैंने ऐसे-ऐसे अकाट्य तर्क दिए कि डिबेट का परिणाम मेरे पक्ष में रहा था.
बधाई देने वह आया, तो मैं बोली, “कमाल है, आज के ज़माने में भी ऐसी रुढ़िवादी सोच.”
“अरे नहीं प्रिया, डिबेट में कही बातों से मेरे व्यक्तित्व का अनुमान मत लगाओ. वे सब बातें महज डिबेट में हिस्सा लेने के लिए बोली गई थीं. आख़िर विरोध में भी तो कोई होना चाहिए था न.” वह मुस्कुराया और हाथ आगे बढ़ाकर बोला, “मुझसे दोस्ती करोगी?”
मेरी ख़ामोशी पर वह हंसा, “अरे, यक़ीन जानो, मैं भी नारी सशक्तिकरण का उतना ही हिमायती हूं, जितनी तुम. मैं भी मानता हूं, आज के समय में हर युवती को अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए. अपनी पहचान बनानी चाहिए.” मैंने उसकी दोस्ती स्वीकार कर ली. शनैः शनैः यह दोस्ती प्रगाढ़ होती चली गई. एक वर्ष पश्‍चात एक ही कंपनी में हुए हमारे सिलेक्शन से इस दोस्ती में चाहत के रंग घुलने लगे.

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घर में उन दिनों मेरे विवाह की बात चल रही थी.
“कैसे दो अजनबी लोग ज़िंदगीभर साथ रहने का ़फैसला कर लेते हैं.” एक दिन पार्क में बैठकर यही बात मैंने समीर से कही, तो एकटक वह मेरा चेहरा निहारने लगा. मेरा हाथ पकड़ भावुक होकर बोला, “मुझसे तो कर सकती हो न शादी? मैं तो अजनबी नहीं हूं.” उसके प्रस्ताव पर मेरी पलकें संकोच से झुक गईं.
“विवाह का ़़फैसला घरवाले करेंगे समीर.”
“यार, तुम उनके समक्ष मेरी एप्लीकेशन तो रखो. कुछ मेरी सिफ़ारिश करो.”
मेरे अधरों पर एक स्मित-सी मुस्कान फैल गई. मैंने भाभी को समीर के बारे में बताया. उन्होंने घर में बात की और जल्द ही सबकी स्वीकृति मिल गई. समीर के घरवालों को विवाह की जल्दी थी, किंतु मम्मी-पापा भाभी की डिलीवरी होने तक रुकना चाहते थे.
उन दिनों समीर की चाहत एक सुगंधित बयार बनकर मेरे तन-मन से लिपटी रहती थी. हर वीकेंड कभी हम पिकनिक पर जाते, तो कभी मूवी देखने. अभी उस रुमानियत को मैं पूरी तरह जज़्ब करने भी न पाई थी कि एक दिन कंपनी की ओर से प्रोजेक्ट के सिलसिले में मुझे दस दिनों के लिए पूना भेजने की ख़बर समीर को विचलित कर गई.
शाम को कॉफी हाउस में बैठा वह मुझसे कह रहा था, “तुम मैनेजर रवि से पूना जाने के लिए इंकार कर दो प्रिया.”
“इंकार कर दूं, मगर क्यों?” मैंने सहज भाव से कॉफी में शक्कर घोलते हुए पूछा.
“प्रिया, मैं महिलाओं के अकेले बाहर जाने के सख़्त ख़िलाफ़ हूं. कौन जाने कब कोई नाज़ायज़ फ़ायदा उठा ले.” मैं स्तब्ध रह गई. कहां तो मैं सोच रही थी कि वह रोमांटिक होकर कहेगा, ‘मैं दस दिन तुम्हें देखे बिना कैसे रहूंगा?’ और कहां उसकी ऐसी सोच. पीड़ा और क्रोध के भाव मेरे चेहरे पर छा गए.
“ये कैसी बातें कर रहे हो तुम समीर. जॉब में ये सब चलता ही है. इस प्रोजेक्ट में मुझे बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है और सबसे बड़ी बात. तुम भूल रहे हो, तुमने एक करियर ओरिएंटेड युवती से प्रेम किया है.”


“तुम भी मत भूलो, यह करियर ओरिएंटेड युवती अब मात्र प्रेमिका नहीं, किसी की होनेवाली पत्नी है. एक इज़्ज़तदार घर की होनेवाली बहू है.” मैं कुछ क्षण ख़ामोश रही. क्या यह वही समीर है, जो स्त्रियों की
समानता की बातें करता था. क्या इसके जीवन में मेरी स्थिति एक पतंग की तरह
रहेगी, जिसकी डोर यह अपने हाथ में रखेगा और उड़ान का दायरा भी यही तय करेगा.
मैं अनमनी हो गई और समीर से बिना कुछ कहे उठकर घर चली आई. मन बहुत विचलित था. पूना से वापस आने पर अगली सुबह ऑफिस में मैं समीर के क्यूबिकल में बैठी हुई थी. दिल में अनगिनत सवाल थे, जिनका समाधान आवश्यक था. अनपेक्षित रूप से व्यस्तता का भाव दिखाते हुए समीर मुझे नज़रअंदाज़ कर रहा था. इससे पहले कि मैं कुछ कहती, चपरासी ने आकर सूचना दी, “मैडम, आपको रवि सर बुला रहे हैं.” मैं तुरंत रवि के केबिन की ओर चल दी. उस समय समीर के चेहरे के व्यंग्यात्मक भाव मुझसे छिपे नहीं रहे थे.
दोपहर में समीर का मैसेज आया. शाम को वह मुझसे मिलना चाहता था. ऑफिस के बाद हम कैफेटेरिया पहुंचे. ज्यों ही वेटर कॉफी रखकर गया, गोली की तरह समीर ने प्रश्‍न दाग़ दिया, “आज रवि ने तुम्हें क्यों बुलाया था?” मैं निर्निमेष उसे देखती रही, फिर बोली, “यह बताने के लिए कि उन्होंने प्रमोशन के लिए मेरा नाम मैनेजमैंट को प्रस्तावित किया है.”
“अब तुम प्रमोशन के चक्कर में मत पड़ो प्रिया. विवाह के बाद तो यूं भी तुम्हें जॉब छोड़नी ही है.”
मैं मानो आसमान से गिरी. यह मेरे लिए दूसरा असहनीय आघात था.
“कितनी सहजता से तुमने इतनी बड़ी बात कह दी समीर. मैंने तुम्हें बताया था न कि बचपन से ही मैं जीवन में आगे बढ़ने, ऊंचा मुक़ाम हासिल करने का ख़्वाब देखती आई हूं. इस मुक़ाम को हासिल करने में मैंने कठिन परिश्रम किया है और इस परिश्रम में मेरे मम्मी-पापा की तपस्या भी निहित है. तुम सोच भी कैसे सकते हो कि मैं जॉब छोड़ दूंगी?”
“और मेरे ख़्वाब, मेरी इच्छाएं, वे कहीं तुम्हारे ख़्वाबों में शामिल नहीं हैं क्या? उन्हें पूरा करने का दायित्व क्या तुम्हारा नहीं? प्रिया, मेरी भी सदैव इच्छा रही कि मेरी पत्नी मेरे घर को सजाए-संवारे. ऑफिस से थककर घर लौटूं, तो दरवाज़े पर मुस्कुराकर मेरा
स्वागत करे.”
“ऐसी इच्छाएं पालनी थीं, तो एक करियर ओरिएंटेड लड़की से विवाह करने के बारे में नहीं सोचना चाहिए था.”
समीर के चेहरे पर क्रोध और खीझ के भाव स्पष्ट नज़र आ रहे थे.
“जानती हो प्रिया, लोग कितना भी आधुनिक और प्रगतिशील होने का स्वांग रच लें, सच यही है कि आज भी स्त्रियों के प्रति लोगों का नज़रिया संकुचित ही है. मैं तुम्हें दुख पहुंचाना नहीं चाहता, किंतु ऑफिस में तुम्हें और रवि को लेकर लोग न जाने कैसी-कैसी बातें बनाते हैं. लोगों का तो यहां तक कहना है कि प्रिया प्रमोशन डिज़र्व नहीं करती. उसका प्रमोशन हुआ तो इसकी वजह उसकी कार्यकुशलता नहीं, वरन बेपनाह सौंदर्य होगा.”
समीर की बातें पिघले शीशे-सी मेरे कानों में पड़ीं. वेदना की एक तीखी लहर समस्त शरीर को चीरती चली गई. अपमान और क्रोध से मुख लाल हो उठा. एक-एक शब्द पर मैं ज़ोर देते हुए बोली, “यह लोगों की नहीं, वरन ईर्ष्या और मिथ्या अहं से ग्रस्त तुम्हारी संकीर्ण मानसिकता है. जानते हो समीर, रवि ने प्रमोशन के लिए तुम्हारा नाम प्रस्तावित किया होता, तो मैं प्रसन्नता से फूली नहीं समाती. तुम पर गर्वित होती, किंतु तुम जैसे पुरुष स्त्री को स्वयं से आगे बढ़ता नहीं देख सकते. तुम्हें पहचानने में मुझसे बहुत बड़ी भूल हुई. प्रगतिवादी होने का जो झूठा नकाब तुमने चेहरे पर चढ़ा रखा था, अच्छा है, वक़्त रहते उतर गया. आज से हमारी राहें अलग हैं.”


“ठहरो प्रिया, फ़ैसला लेने से पहले एक बार फिर विचार कर लो. ऑफिस में सभी जानते हैं, हम दोनों विवाह बंधन में बंधनेवाले हैं.
कैसे सामना कर पाओगी लोगों की निगाहों का?”
मेरा हृदय तार-तार हो गया. मन के जिस उपवन में समीर के प्रेम की कोंपले खिली हुई थीं, उस पल ज़हर में बुझी उसकी कुटिल मुस्कान से यकायक वह उपवन मरुभूमि बन गया था. प्रेम की कोंपलें अब नागफनी के कांटों में तब्दील हो चुकी थीं. क्षणभर भी रुकना वहां असहनीय था. मैं मुड़ी और वापसी की ओर कदम बढ़ा दिए. आंसुओं से मेरी आंखें धुंधला रही थीं.
घर पहुंची और मम्मी के गले लग फूट-फूटकर रो पड़ी.
“क्या हुआ प्रिया?” मम्मी-पापा, भइया-भाभी सभी घबरा गए थे. जब मेरा समस्त दुख और गुबार आंखों के रास्ते बह गया, तो सारी बात बताकर मैंने कहा, “मैंने समीर से रिश्ता तोड़ दिया है पापा. मैं उससे हरगिज़ शादी नहीं करूंगी.” मम्मी ने कसकर मेरा हाथ थाम लिया. पापा सिर सहलाते हुए बोले, “हमारे लिए तुम्हारी ख़ुशी सबसे बढ़कर है बेटा. तुम किसी क़िस्म की कोई चिंता मत करो. हम सब तुम्हारे साथ हैं.”
मेरे अपनों के साथ ने, उनके दिए हौसले ने धीरे-धीरे मेरे मन का सारा दुख और लोगों की चिंता समाप्त कर दी थी. अब मैं स्वयं को बेहद हल्का महसूस कर रही थी. लगता था किसी घुटनभरी अंधेरी सुरंग से बाहर निकल आई थी और अब उजले स्वच्छ नीले आकाश में मैं उड़ान भरने के लिए स्वतंत्र थी. ऑफिस में दो दिन की छुट्टी थी और इन दो दिनों में मैं पूरी तरह सहज हो गई थी. अगले दिन मैं नित्य की भांति ऑफिस पहुंचकर काम में व्यस्त हो गई. इसी तरह कई माह व्यतीत हो गए.


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और अब पुनः एक पुरुष मेरे समक्ष स्त्रियों के स्वावलंबन और प्रगतिशील होने के पक्ष में दावा कर रहा था. कैसे विश्‍वास कर लूं देव की बातों पर. जानती हूं, सब इंसान एक समान नहीं होते, फिर भी अभी कितने दिनों का परिचय है मेरा उनसे. महज़ दो माह की मुलाक़ात है न. इतने कम समय में कैसे उनके मन को पढ़ सकती हूं मैं.
किंतु यह भी तो किसी किताब में नहीं लिखा कि किसी को जानने-समझने के लिए एक निश्‍चित समय सीमा की दरकार होती है. कभी चंद दिनों की मुलाक़ात में ही हम किसी को समझ लेते हैं. कभी वर्षों साथ रहकर भी अनजान रहते हैं. मन स्वसंवादों के प्रवाह में बह रहा था, तभी बुद्धि ने अपने तर्कों से इस प्रवाह पर रोक लगा दी. एक नया धोखा खाने की कूबत अब मुझमें नहीं थी. कोई भी ़़फैसला लेने से पूर्व हर कदम
फूंक-फूंक कर रखना चाहती थी मैं. पूर्णतया अपने मन की तसल्ली कर लेना चाहती थी. मैंने इस रिश्ते को और वक़्त देने का फ़ैसला लिया और शांत मन से बिस्तर पर जा लेटी.

रेनू मंडल

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