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कहानी- एक भले इंसान का विवाह… (Short Story- Ek Bhale Insan Ka Vivah…)

“लेकिन एक बात है. अगर पापा ये झूठ न बोलते, तो मुझे आप जैसा अच्छा इंसान जीवनसाथी के रूप में कभी न मिलता.” दीदी ने झुकी पलकों, सुर्ख गालों और लरजती आवाज़ के साथ ही सही, पहला वाक्य जोड़ा, तो मैं उन्हें देखता ही रह गया. मेरी डरपोक दीदी का ये नया रूप कुछ दिन में पनपे नए रिश्ते का असर है या बाबूजी की ममता? ठीक ही कहा जाता है कि पिता कैसा भी हो, बेटी उसकी बुराई नहीं सुन सकती! या प्यार इंसान को मज़बूत बना देता है!

“देख लिया दीदी को पढ़ाए के और नौकरी कराए के? कुच्छो न बदला है न बदलिहे. लड़कीवाला हमेशा से दबता आया है और दबे के ही पड़ी. अब बिठाए लो ई बात जेहन में…” दादी अपने विजय रस घुले उपदेश के साथ मेरी ओर मुड़ीं, तो मुझसे वहां और न बैठा गया.
इन लोगों से बहस करने का कोई फ़ायदा है नहीं. पिताजी ने तो कभी किसी की सुनी नहीं और दादी? जिसने कोई सिक्का अपने आंगन की पक्की फ़र्श में गाड़ दिया हो, वो उसका दूसरा पहलू कभी देख ही नहीं सकता.
मैं अपनी उहापोह लेकर छत पर चला गया. लेकिन हमेशा दुलरानेवाली हवा आज मेरे भीतर दबी चिंगारी को और भड़का रही थी. कहीं ये रिश्ता टूट गया तो? लग तो ऐसा ही रहा था. इतना अच्छा और सच्चा जीवनसाथी! कितनी मुश्किल से दीदी के होंठों पर सच्ची और स्थाई मुस्कान आई थी. क्या बाबूजी जैसे झक्की और झूठे इंसान की बेटी होना ही उनका गुनाह था? मेरे और दीदी के बचपन से आज तक के जीवन का हर नोंक-झोंक का गवाह ये कोना आज मेरे सामने मेरी हार के सारे दृश्य साकार करता जा रहा था…
यहीं मैंने उनसे झगड़ा किया था इंजीनियरिंग पढ़ने की ज़िद पर कायम रहने के लिए. बाबूजी का तर्क था कि लड़की की पढ़ाई पर ख़र्चा करना बेवकूफ़ी है. इससे कोई दहेज तो कम हो नहीं जाएगा, उल्टे महंगा लड़का ढूंढ़ना पड़ेगा. मेरी ज़ुबान पर तो जैसे किसी बागी योद्धा का भूत सवार हो जाता था. दीदी के आंसू देखकर कितना झगड़ा था मैं बाबूजी से. दीदी को इंजीनियरिंग में दाख़िला दिलवाने के लिए, पर जब दीदी ही मेरे… नहीं, नहीं अपने सपोर्ट में एक शब्द नहीं बोलीं तो…
अपने हौसले के दम पर पथरीली चट्टानों के बीच अपनी राह निकालती नदी की तरह दीदी ने भी जो मिला, वही विषय पढ़कर अच्छी नौकरी पा ली. दीदी को लगन और प्रतिभा के साथ अगर ईश्‍वर ने थोड़ा-सा साहस भी दिया होता, तो वो कहां पहुंच सकती थीं. पर साहस आए कहां से? तानाशाह बाबूजी से या उनकी तानाशाही का बदला लेने को हम पर तानाशाह हो गई अम्मा से? या दादी और पड़ोसी दादियों की अनवरत पंचायत से?
निखिल के यहां से बिन दहेज शादी का प्रस्ताव आने पर मैं अड़ गया था, “आख़िर क्यों नहीं हो सकती दीदी की शादी निखिल से?”
“इतनी भारी नहीं है बेटी मुझे कि बेरोज़गार से शादी करके भाड़ में झोंक दूं.”
“बेरोज़गार कैसे?”
“अपनी बिरादरी में बिना सरकारी नौकरी के लड़के बेरोज़गार ही माने जाते हैं. क्या भरोसा निजी कंपनियों का? आज नौकरी है, कल नहीं.” बाबूजी का पारा चढ़ने लगा था.


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“अच्छे कॉलेज से अच्छे अंकों में तकनीकी शिक्षा लेकर मल्टीनेशनल कंपनी में काम करनेवाले को नौकरी की क्या कमी होगी?” मैंने कोशिश की थी, पर तर्कों का अगर बाबूजी पर कोई फ़र्क़ पड़ता, तो तर्क मैंने श्रीनिवास के लिए कम दिए थे क्या? मगर वो बाबूजी को पसंद नहीं था, क्योंकि विजातीय था. वो रिश्ता भी तो घर तक ख़ुद चलकर आया था और उन लोगों ने भी दहेज में एक भी पैसे की मांग नहीं की थी.   
सोमेशजी के घर दीदी का रिश्ता लेकर मुझे बाबूजी के साथ उनके आदेश पर जाना पड़ा था. बात कुछ लेन-देन पर अटक सकती थी. ऐसा रिश्ता बतानेवालों ने बताया था.
“हुंह..! जब घर आए निर्लोभी रिश्तों को विजातीय या गैर सरकारी नौकरी जैसे मूर्खतापूर्ण तर्कों से ठुकराया जाएगा, तो ऐसे ही रिश्ते मिलेंगे.” मैं खीझा हुआ था, पर उनके घर पहुंचा, तो मेरे पूर्वाग्रह ही नहीं टूटे, बल्कि मन ख़ुश हो गया. सोमेश दिखने में अच्छे और उच्च शिक्षित ही नहीं, सुलझे हुए और विनम्र भी थे.
उन्होंने घर इस प्रकार डिज़ाइन करवाया था कि दो परिवार पूरी प्राइवेसी के साथ एक साथ रह सकें. एक पोर्शन में फर्निशिंग नहीं हुई थी.
“कुछ बातें मैं बहुत स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूं.” अंकल सधी हुई आवाज़ में बोले.
“हम बहुत सोशल लोग हैं और मेरा एक ही बेटा है. ईश्‍वर की अनुकंपा से बेटे को मेरे ही शहर में नौकरी मिल गई, जो हम नौकरीपेशा परिवारों में बहुत कम हो पाता है.” उन्होंने कुछ देर ठहरकर हमारी प्रतिक्रिया तोली, फिर कहा, “इसीलिए मैंने अपनी पूरी जमा-पूंजी लगाकर ये घर बनवा लिया. आधी ज़मीन और उस पर बना पोर्शन बेटे के नाम पर ही है…”
“ये सब हमें बताने की ज़रूरत नहीं. मेरी बेटी संयुक्त परिवार में रहने की आदी है. यही शर्त है न आपकी?” बाबूजी ने अपनी ऐंठी हुई ज़ुबान में अंकल की बात काटी, तो कुछ पल को तो वे सकपका गए, लेकिन सोमेशजी ने बात शांत स्वर में संभाल ली.
“इसे आप शर्त न समझें. मैं तो बस इतना चाहता हूं कि मेरी होनेवाली पत्नी को मेरे मम्मी-पापा के साथ रहने के इरादे के बारे में पता हो और वो इससे सहमत हो, तभी इस रिश्ते की हामी भरे. बात ये है कि मेरी नौकरी में प्रमोशन तबादले के साथ मिलती है. ऐसे में कोई लड़की ये सोचकर मेरे जीवन में आए कि जल्द ही मेरा प्रमोशन हो जाएगा और हम स्वतंत्र रूप से अलग शहर में रहेंगे और तब मैं उससे कहूं कि मुझे प्रमोशन नहीं लेनी, क्योंकि मैं शांति से मम्मी-पापा के साथ रहना चाहता हूं, तो ये तो ठीक नहीं होगा न?  वैसे ये सारी बातें मैं लड़की से मिलकर भी डिस्कस करूंगा, जब आप और पापा इस रिश्ते पर सहमत हो जाएंगे.”


इतनी सच्चाई, इतनी पारदर्शिता, होनेवाली पत्नी की भावनाओं का इतना सम्मान… ये रिश्ता हाथ से नहीं जाना चाहिए. मैं प्रभावित हुआ सोच रहा था. 
“अपनी डिमांड कहिए…” बाबूजी व्यंग्यात्मक लहज़े में उनकी बातों को भांपते हुए बोले. अंकल ने ख़ुद को साधा, “हम शादी धूमधाम से चाहते हैं. बारात का स्वागत किसी अच्छी बैंक्वेट लॉन में और जो रिश्तेदारों को शगुन देना पड़ता है, वो तो देना ही पड़ेगा. हमने सबसे लिया है. वो आपको देने होंगे. आप दें अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही, मगर उन्हें साथ ले जाकर उनकी पसंद से दिलाएं. शादी में धूमधाम और सजावट के लिए जो भी ख़र्चा होता है, बस आप इतना करें.” उन्होंने एक क्षण रुककर बाबूजी की प्रतिक्रिया देखी, फिर कोमल स्वर में बोले, “एक बात और स्पष्ट कहनी है. अपनी बहू को सोने के गहने हम फ़िलहाल नहीं बनवा पाएंगे. हां, उसे रहने के लिए पूरा पोर्शन वेल फर्निश्ड मिलेगा. हमने उसमें वही चीज़ें छोड़ी हैं, जो लड़कियां प्रायः अपनी सुरुचि के हिसाब से करवाना चाहती हैं. घर मैंने बनवाया है. शादी तय हो जाए, फिर सब कुछ बहू के हिसाब से करवाकर और आवश्यक फर्निशिंग और उपकरण लगवाकर देना ही मेरा उपहार होगा. कार मैं ख़रीद चुका हूं. साथ रहने से वो भी सबके उपयोग में आएगी.”


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“आप सीधे से बताइए कि मुझे कितना दहेज देना होगा?” बाबूजी झुंझला गए. मुझे इतने शालीन शब्दों के प्रत्युत्तर में बाबूजी का इस तरह झुंझलाना सही तो नहीं लग रहा था, पर बाबूजी के साथ बैठकर स़िर्फ सुनना होता है, बोलना नहीं, ये मुझे अच्छे से पता था.
जैसा कि लग ही रहा था, बाबूजी के लहज़े से अंकल का स्वर भी कटु हो गया, “आपको या किसी को भी अपनी अपेक्षा का कुछ भी अमाउंट बताकर मैं ख़ुद अपनी ही नज़र में दहेज का लोभी नहीं बनना चाहता. मैंने ये बताया कि शादी धूमधाम से करना चाहते हैं और हमारे पास फ़िलहाल पैसा नहीं है. इसलिए यदि लड़की और लड़का एक-दूसरे को पसंद कर लेते हैं, तो या तो धूमधाम से होनेवाली शादी का ख़र्च आपको उठाना होगा या दो-तीन साल इंतज़ार करना होगा, जब तक हम अपनी रुचि की शादी करने के अनुरूप पैसे न जोड़ लें. हमें कोई जल्दी नहीं है…और हां, आपको इन पक्षों पर लड़की-लड़के की मुलाक़ात कराने से पहले सोचना होगा. हम नहीं चाहते कि बाद में भावनात्मक जुड़ाव होने के बाद किसी को भी किसी तरह की दुविधा का सामना करना पड़े.”
“हमारा एस्टीमेट दस लाख है. इतने में आपके पसंद की शादी हो जाएगी न?” अंकल के बात ख़त्म करते ही बाबूजी बोले और मेरे ऊपर गाज सी गिरी. इतना बड़ा झूठ? कहां से लाएंगे बाबूजी इतने रुपए? मैं अंकल की संतुष्ट और बाबूजी की वक्र मुस्कान देखता ही रह गया…
सोमेश और दीदी ने एक-दूसरे को पसंद कर लिया. वो दीदी को घर की फर्निशिंग पसंद करने के लिए साथ ले जाते. बाबूजी के आदेशानुसार मुझे भी साथ जाना पड़ता.
शादी की भी सारी बुकिंग्स दीदी और सोमेशजी की सम्मिलित पसंद से कराई जा रही थीं और पैसे वो लोग भरते जा रहे थे. पता नहीं बाबूजी ने उन्हें क्या कहा था.
बाबूजी की तानाशाही से तंग दीदी की ज़िंदगी ने एक ख़ुशनुमा मोड़ ले लिया था. और मैं उन लोगों को हर बात में दीदी की सलाह लेते, सम्मान और स्नेह देते देख इतना मुग्ध होता जाता कि कुछ भी बताने के नाम पर ज़ुबान अटक जाती.
अंकल ने एक दिन पूछ ही लिया, “बैंक्वेट वाला बाकी का एडवांस मांग रहा है. आपकी एफ.डी. मैच्योर हो गई क्या?”
“मैं बैंक्वेट में शादी नहीं करनेवाला. गांव से राशन आता है. मेरे यहां हलवाई भी मेरी जान-पहचान का है.”
अंकल जैसे सकते में आ गए, “हलवाई? आजकल हलवाई कौन..?”
“हम शादी अच्छी ही करेंगे. खाते-पीते लोग हैं. आप चिंता न करें. हमारे घर के सामने प्लाट खाली पड़ा है. सारे मोहल्ले की शादियां वहीं होती हैं.” अंकल को जैसे चक्कर आ गया, “देखिए, मैंने पहली मुलाक़ात में ही सब बातें स्पष्ट कर दी थीं…”
“क्या स्पष्ट कर दिया था आपने? यही न कि आप दहेज के लोभी हैं भी और ख़ुद को ऐसा मानते भी नहीं हैं? मैं सब समझता हूं. मेरी लड़की कमाती है, वो दहेज भी तो किश्तों में आपको मिल रहा है. फिर मैं दहेज क्यों दूं?” जिसका डर था, वही हुआ. बाबूजी के अभद्र लहजे से अंकल का धैर्य जवाब दे गया. वो भी उसी टोन में बात करने लगे, “फिर पहले दिन आपने क्यों कहा था कि आपका एस्टीमेट दस लाख है?”
“हमारे पास सत्तर-अस्सी साड़ियां और लगभग इतने ही पैंट-शर्ट आदि के कपड़े और अन्य चीज़ें भी पड़ी हैं. शादी में लगने वाले चांदी और पीतल के सामान. फिर मेरे रिश्तेदार मिलकर गृहस्थी का सारा सामान देंगे ही, क्योंकि मैंने उनके यहां शादियों में दिया है… उन्हीं सबकी क़ीमत जोड़कर मैंने बता दी थी आपको.”
“देखिए जो चीज़ें आप बता रहे हैं, वो सब तो आजकल चलती भी नहीं हैं. सामान बच्चे अपनी सुरुचि के हिसाब से ख़रीदते हैं आजकल. वो हमें चाहिए नहीं. इनकी क़ीमत कहीं कोई शादी के ख़र्च में जोड़कर बताता है?”
“एक दिन की सजावट और शगुन पर इतना ख़र्च करना मेरे उसूलों के ख़िलाफ़ है.”
अंकल शालीन थे, पर बेवकूफ़ नहीं बोले, “हमने अपना दृष्टिकोण थोपा नहीं था आप पर. आप सारी बुकिंग्स हमसे करवाते रहे, ये कहकर कि आपकी एफ.डी. तीन महीने बाद मैच्योर होगी. अच्छा हुआ आप जैसे झूठे इंसान की सच्चाई रिश्ता होने से पहले पता चल गई…”
सोमेशजी के फोन से मेरी तंद्रा टूटी.
“चलो!..” फोन सुनने के बाद मैं दीदी से बोला और दीदी चुपचाप मेरे पीछे चल दी. बिना ये पूछे कि हमें कहां जाना है.


ख़ूबसूरत कैफे में आज की पीढ़ी के तीन प्रतिनिधि बैठे थे. पहले तो अपने-अपने पिता की बुराई न सुन सकने की स्वाभाविक भावनाओं के कारण हमारे बीच भी माहौल गरम हुआ. तभी दीदी रो पड़ीं और सोमेशजी ने उनका हाथ अपने हाथों में ले लिया, “आप इस तरह रोएं नहीं. हम समाधान निकालेंगे न! इतना तो मैं अपने पापा के बारे में श्योरिटी से कह सकता हूं कि वो हमारे भावनात्मक जुड़ाव को जानते हैं और इसीलिए शादी तोड़ने पर कभी ज़ोर नहीं देंगे. ये सब उनका क्षणिक ग़ुस्सा है.” उनकी मुस्कान से माहौल में रूमानियत घुल गई और दीदी के गाल सुर्ख़ हो गए. सोमेशजी उनके चुप होने से पहले उनका हाथ छोड़ना नहीं चाहते थे. मैं वहां से हटकर दूर से सोमेशजी का दीदी के आंसू पोछना, फिर उन दोनों का रूमानी अंदाज़ में बातियाना कनखियों से देखता रहा. आख़िर सोमेशजी का मैसेज आया, “आ जाओ.”
“हमने कुछ प्वाइंट्स डिस्कस किए हैं.” मैंने मुग्ध दृष्टि उन पर डाली.
“ये बात मैं मानता हूं कि जो कुछ पापा चाह रहे हैं, वो है दहेज का एक प्रकार ही. तमाम रिश्तेदारों की छोटी-बड़ी ख़्वाहिशों, भावनाओं और परंपराओं के नाम पर हमारे समाज में जो सम्मिलित ख़र्च उभरकर आता है, वो बहुत ज़्यादा होता है. लेकिन दूसरा पहलू ये भी है कि इससे अब कई तरह के रोज़गारों का सृजन हुआ है. तो ये ख़र्चा सही है या ग़लत, इस पर डिबेट हमें रास्ता भटका देगा. ठीक?” मैं समझ गया वो क्या सुनना चाह रहे हैं और वो कहने में मैंने एक पल नहीं लगाया, “और हम ये मानते हैं कि कि हमारे पापा के झूठ के कारण अंकल का ग़ुस्सा बिल्कुल जायज़ है.”
“लेकिन एक बात है. अगर पापा ये झूठ न बोलते, तो मुझे आप जैसा अच्छा इंसान जीवनसाथी के रूप में कभी न मिलता.” दीदी ने झुकी पलकों, सुर्ख गालों और लरजती आवाज़ के साथ ही सही, पहला वाक्य जोड़ा, तो मैं उन्हें देखता ही रह गया. मेरी डरपोक दीदी का ये नया रूप कुछ दिन में पनपे नए रिश्ते का असर है या बाबूजी की ममता? ठीक ही कहा जाता है कि पिता कैसा भी हो, बेटी उसकी बुराई नहीं सुन सकती! या प्यार इंसान को मज़बूत बना देता है!
उधर दीदी के शायद पहले प्रेम वाक्य से सोमेशजी के चेहरे पर ख़ुशी के रूमानी रंग बिखर गए थे, पर अब मैं वहां से हट नहीं सकता था. कैसी बेबसी थी.
“पर हां, मैं ये मानती हूं कि बाबूजी ने जो चालाकी से झूठ बोलकर अपनी मर्ज़ी पूरी करने की कोशिश की है, उनकी इस ग़लती का एहसास तो उन्हें करवाया जाना ही चाहिए और इसीलिए शादी घर के सामने के प्लाट में हलवाई वाली न होकर अंकल की ख़ुशी के अनुसार होनी चाहिए.”
“पर उसके लिए पैसे कहां से आएं, ये समस्या है.” मैंने जोड़ा.


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“बिल्कुल!” सोमेशजी चहक से उठे.
“तो हम समस्या तक तो पहुंच गए. अब समाधान खोजते हैं.
“ठीक…” दीदी ने सिर हिलाकर हामी भरी. अबकी शांत मन से मधुर माहौल में डिस्कशन चल निकला…
“मेरी एक कलीग के रिलेटिव यूरोप में रहते हैं. वो बता रही थी वहां पर गिफ्ट हों या रिटर्न गिफ्ट, स़िर्फ कूपन ही दिए जाते हैं. अपनी इच्छानुसार लोग उपहार पानेवाले की मनपसंद शॉप या शॉपिंग साइट का कूपन उपहार में दे देते हैं. पानेवाला अपनी मर्ज़ी के हिसाब से एक या कई कूपन जोड़कर सामान ले लेता है. उसके रिलेटिव ने तो बच्चे के फंक्शन के समय ईवेंट प्लानर की साइट के ही कूपन ले लिए और उसी से पार्टी कर डाली.”
दीदी खोई सी बोली, “काश! हमारे यहां भी इतने समझदार रिश्तेदार होते.”
मैंने जोड़ा, “फॉर्म ऑफ कैश चलने तो यहां भी लगा है समझदार लोगों में.”
“सब नहीं पर बहुत से रिश्तेदार सहयोगी होते हैं अपने यहां भी.” सोमेशजी ने जोड़ा.
“पर उससे शादी का ख़र्च तो नहीं निकल आएगा.” हम तीनों ने एक ही मायूस लहज़े में एक ही वाक्य बोला और तीनोें फीकी हंसी हंस पड़े.  तभी पीछे से मेरे सिर पर टीप पड़ी, “और सुना कबाब की हड्डी!”
“ओह गरिमा तू?” मैं उसे देखकर चहका. मेरी दोस्त गरिमा थी, जो वेडिंग प्लानर बनना चाहती थी. आजकल मुझे इसी नाम से पुकारने लगी थी.
“तू बता, तेरा कैसा चल रहा है?”
“मैं तो बहुत ख़ुश हू्ं. विराट मंदिर में मुझे सफलता का वरदान मिला है.” वो अपने मज़ाकिया अंदाज़ में हंसी.
“मतलब?”
“आजकल मैं विराट मंदिर में…”
वो बोलती गई और धीरे-धीरे समाधान निकल आया.
सबसे पहले दादी को पटाया गया. विराट मंदिर पर उनकी श्रद्धा अपार थी. उनकी सहमति के बाद बाबूजी को राज़ी तो होना ही था, पर नाराज़ तो दोनों पापा थे ही. गिफ्ट वाले प्रस्ताव पर कुछ समझदार रिश्तेदार पहले ख़ुशी से साथ आए. फिर उन्होंने कुछ और को भी समझाया. काफ़ी कैश जुड़ गया. दोनों पिताओं को समझाने का काम भी चलता रहा. जो धूमधाम मम्मी या दादी के हाथ में थी, उसके पैसे तो पहले ही मिल गए थे. दादी ने पापा से भी काफ़ी कुछ निकलवा लिया था.
शादी वाले दिन दोनों पार्लर से सजकर आए, तो उन्हें देखकर दोनों पापा भी थोड़े भावुक हो गए. मंदिर पहुंचे, तो वहां का नज़ारा देखकर बाकी की नाराज़गी भी जाती रही. मंदिर का भव्य और बड़ा प्रांगण सज-धजकर किसी आलीशान बैंक्वेट हाल से कम नहीं लग रहा था. मंदिर के ट्रस्ट ने रोज़गार सृजन का सुपर आइडिया निकाला था. गरिमा जैसे बिल्कुल नए वेडिंग प्लानर, जिनका मक़सद पैसा कमाना नहीं, पहचान बनाना होता था, मिनिमम पैसों में शादी की सारी धूमधाम अरेंज करते थे.


एक दिन में एक के बाद एक पांच शादियां होती थीं, तो डेकोरेशन का ख़र्च सबमें बंट जाता था. मैं भी डबडबाई आंखों से देख रहा था. ये सोमेशजी जैसे सुलझे हुए भले इंसान के कर्मों का फल था या मंदिर के सात्विक माहौल का प्रभाव, इतनी भव्यता तो शायद आज तक किसी बैंक्वेट में भी महसूस नहीं की गई थी. मैंने देखा शगुन के रूप में कूपन पाकर ख़ुश लोगों के चेहरे दिखाकर सोमेशजी अपने पिता को कुहनी मार रहे थे.
“ठीक सोचा तुमने! बड़ा झंझट है साथ ले जाकर कपड़े ख़रीदवाने में. फिर चाहे कितने महंगे दे दो, लोग क़ीमत कम आंकते हैं.” वे धीरे से बोले. शादी के बाद पैर छूने पर अंकल ने दोनों को गले से लगा लिया.

भावना प्रकाश


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Usha Gupta

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