कहानी- फ़र्क़ (Short Story- Fark)

आज शाम की ही बात तो थी, जब उन्हें एहसास हुआ था घर में उनके जैसे ही एक इंसान के पनपने का. उन्हें “तुम कभी नहीं समझोगी…“ वाले अपने वाक्य पर अफ़सोस हुआ था. अजीब त्रासदी है वह नहीं समझेगी या हम लोग नहीं समझेंगे.
जिस समय उसे सबसे अधिक सपोर्ट और स्नेह की ज़रूरत है, हम सब उससे दूर खड़े होकर अपनी ज़िंदगी का फ्रस्ट्रेशन निकाल रहे हैं… उससे जैसे सदियों का बदला ले रहे हैं और वह कुछ नहीं कहती.. चिड़चिड़ाती है भीतर ही भीतर.. रोती है किस से कहे अपने मन की बात…

आज एक ही छत के नीचे बात करना मुश्किल होता जा रहा है. एक से कुछ कहो, तो दूसरे की भावनाएं आहत हो जाती हैं. उन्हें तो पूरा परिवार देखना था. परिवार का अर्थ ही तब है, जब सभी सही सलामत रहें. प्रेम से रहें. आपस में दिलों में गांठ न पड़े. परिवार कोई अखाड़ा नहीं है, जिसमें सही-ग़लत के फ़ैसले के लिए कुश्ती लड़ी जाए.
जब सब एक हैं, तो सही क्या ग़लत क्या? कोई भी तो शतप्रतिशत सही नहीं होता और न ही कोई पूर्णतया ग़लत. उससे भी बढ़कर कहीं कभी-कभी तो यह सही-ग़लत की लड़ाई इंसान को भीतर से मार देती है, जिसका असर घरों में साफ़ दिखाई देता है. यही सब सोचते हुए अनिरुद्ध रात में सो नहीं पा रहे थे और आख़िर में रात दो बजे उन्होंने मेल लिखा.

अमित बेटा,
पूरी दुनिया में बहुत मुश्किल दौर चल रहा है. यह बस कुछ महीने और है. इस समय किसी को कुछ भी समझ नहीं आ रहा कि क्या करें.. कैसे करें… सभी के हाथ-पैर बंधे हैं. बड़ी मुश्किल से लंबा सफ़र तय कर के आज हम लोग और पूरा परिवार तुम्हारी मेहनत के कारण इतना तरक़्क़ी कर सका है. तुम्हारी सोच और जिस तरह की ज़िंदगी की तुम कल्पना कर रहे हो, वह बहुत बड़ी और अच्छी है. थोड़े समय में हम लोग वह सब हासिल कर लेंगे. अभी बस कुछ समय धैर्य की ज़रूरत है.
हर इंसान वैसी ही बातें सोचता है, जैसा उसने देखा और समझा होता है. हम लोगों का समय मुश्किलोंभरा समय रहा है, जिसमें थोड़े पैसे भी बड़े कींमती लगते हैं. हम लोगों का अनुभव अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को लेकर बहुत अच्छा नहीं रहा. वह समय ऐसा ही था, जिसमें किसी के पास संपन्नता नही थी. कहीं किसी को रुपए-पैसे दिए, तो वे वापस नहीं आए, इसलिए हम लोगों की सोच वैसी होती गई. तुमने देखा होगा कि इंवेस्टमेंट से मैं कितना डरता हूं.
बेटा, उम्र के साथ पैरेंट्स कठोर हो जाते हैं. वे समय के साथ ख़ुद को बदल नहीं पाते. मां अनमोल होती है. वह घर की धुरी होती है. उसी से सब कुछ चलता है. वही घर बनाती है और सब को सम्हालती है. यह आज की बात नहीं है पीढ़ियों से चल रहा है. वह जैसी है बिल्कुल वैसी ही होती है और उसी गुणों से घर बनता है. लेकिन जब हम लोग बड़े होते हैं, तो इस परिवर्तन को समझ नहीं पाते. जैसे ही लंबा समय बीतता जाता है, वैसे ही मां को सबसे ज़्यादा सपोर्ट की ज़रूरत होती है. बहुत ज़्यादा प्यार और अपनेपन की भी.
जैसे ही लॉकडाउन ख़त्म होगा. सामान्य जीवन शुरू होगा, धीरे-धीरे बहुत अच्छा होता जाएगा.
पूरा परिवार मिलकर एक शानदार ज़िंदगी जिएंगे. मुझे भी तो बस कुछ दिन में फ्री होना है. सिर्फ़ तीन साल से भी कम बचे हैं. फाइनली दिल्ली ही रहेंगे तुम्हारे पास. बाहर जाने-आने की आज़ादी होगी. अच्छा बेस बन जाएगा नोएडा में. बहुत एंजॉय करेंगे.
तुम सबसे समझदार हो. तुम्हें ही तो सम्हालना है. और धीरे-धीरे जैसी लाइफ सोच रहे हो, पूरे घर के लिए वैसी लाइफ बनानी है. अच्छी ज़िंदगी बनाने के लिए थोड़ा धैर्य की ज़रूरत पड़ती है. बहुत कम लोग होते हैं बेटा, जिन्हें दुनिया में ऐसी सफलताएं मिलती है, अच्छे परिवार मिलते हैं.


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क्या फ़र्क़ पड़ता है कि किसी दिन पसंद का नाश्ता नहीं मिला… क्या हुआ कि किसी दिन सब्ज़ी कड़ाही में लग गई और थोड़ी जली-सी लगी. मां कोई सपने पूरे करनेवाली परी तो नहीं होती. असल में तुम बच्चे मां को पिता के नज़रिए से देखते हो बस, यहीं चूक हो जाती है.
पिता तो अपने जीवन की सारी असफलता की भड़ास मां पर ही निकालता है. उसके पास घर चलाने को पैसे नहीं होते, ऑफिस में प्रमोशन नहीं होती है या घूमने नहीं जा पाता, दोस्तों संग मस्ती नहीं कर पाता या अपने मां-बाप के प्रति अपने कर्तव्य पूरे नहीं कर पाता… तो उसे सारा दोष तुम्हारी मांं का ही नज़र आता है, जबकि उसका रोल है क्या?
वह तो बस निःस्वार्थ भाव से सबकी देखभाल में लगी रहती है. जैसे ही तुम बड़े हुए या आर्थिक स्थिति ठीक हुई कि तुम्हें भी मां पर ग़ुस्सा आने लगता है- क्यों करती हो इतना काम? क्या बर्तन के लिए कामवाली और खाना बनाने के लिए किसी को लगा नहीं सकते? टिफिन सर्विस ले लेते हैं.. किसने कहा था इतने सारे व्यंजन बनाने और थकने को… पहाड़ जैसे बर्तन इकट्ठा हो गए, लेकिन किसी को करने नहीं देना…?ये बातें ठीक हैं, लेकिन आज जो ये पैसे और तरक़्क़ी दिख रही है यह उसके सालों से ये सब करते हुए पैसे को घर से बाहर जाने से रोकने का नतीज़ा है.
उसके एक-एक पाई को सम्हालने की वजह से ही सबके शौक पूरे हुए हैं ज़िंदगी में और आज वह अचानक सब छोड़ दे. उसे पता है बाहर के दस दिन खाने का क्या अर्थ है. किस तरह हाइजीनिक भोजन से उसने सबके स्वास्थ्य की रक्षा की है. यह हम लोग कभी सोच ही नहीं पाते. किसे शौक नहीं होता कि वह आराम से बैठे और नौकर-चाकर लगे रहें. सेवा करें, लेकिन नहीं यह सब कहना और सोचना आसान है करना बहुत मुश्किल.
यदि सुबह नाश्ता और खाना ख़ुद बनाना हो, तो महीनेभर भी इंसान नौकरी न कर सके. वे जिन्हें यह बहुत आसान लगता है, जब खुदा न खस्ता ऐसी ज़रूरत पड़ी है, तो वे खून के आंसू रो दिए हैं. न जाने कितने लोग हैं, जो ऐसा करके अपनी ज़िंदगी जीते हैं, क्योंकि सबको मां नही मिलती और मिलती भी है, तो इस तरह सब को सम्हाले, पूरा घर-परिवार देखे और हिसाब-किताब भी न बिगड़ने दे.. बच्चों को पढ़ाए-लिखाए ऐसा तो बहुत कम ही होता है.
बस, जब वही मां पच्चीस साल घर में बिताकर अपने जैसे ही जीती रहती है, तो हम बदल जाते हैं. हम बड़े होकर उसे सही और ग़लत सीखाने लगते हैं. और घर के पिता जैसे एक बार फिर अपने दिल की हताशा-निराशा निकाल रहे होते हैं. बच्चों द्वारा मां को समझाने पर देखा कि जो कुछ मैं चाहता था वह आज ये बच्चे समझा रहे हैं. बस, अंत में इतना ही कहना है कि मां को वैसे ही समझो जैसे बचपन में उसे जानते थे… इतना लिखकर वे फिर चिंतन-मनन में डूब गए…
आज शाम की ही बात तो थी, जब उन्हें एहसास हुआ था घर में उनके जैसे ही एक इंसान के पनपने का. उन्हें “तुम कभी नहीं समझोगी…“ वाले अपने वाक्य पर अफ़सोस हुआ था. अजीब त्रासदी है वह नहीं समझेगी या हम लोग नहीं समझेंगे.
जिस समय उसे सबसे अधिक सपोर्ट और स्नेह की ज़रूरत है, हम सब उससे दूर खड़े होकर अपनी ज़िंदगी का फ्रस्ट्रेशन निकाल रहे हैं… उससे जैसे सदियों का बदला ले रहे हैं और वह कुछ नहीं कहती.. चिड़चिड़ाती है भीतर ही भीतर.. रोती है किस से कहे अपने मन की बात…
आज बेटा भी तो उसे ही ग़लत समझने लगा है. छोटी-छोटी चीज़ों और बातों के लिए. यही सब सोचते हुए अनिरुद्ध चुपचाप किचन में आकर खड़े हो गए थे. फिर धीरे से बोले थे, “तुम ठीक कह रही हो अभी इसने दुनिया नहीं देखी. जिस दिन लोगों से वास्ता पड़ेगा आंखें खुल जाएगी. आजकल के ज़माने में सब अपना फ़ायदा देखते हैं. इसके जैसी भोली नहीं है दुनिया. पर क्या करोगी, जो अच्छी बातें तुमने उसे ज़िंदगीभर सिखाई हैं, वही तो वह कर रहा है.“
यह क्या वह चौंक गए. अभी जो उसकी पत्नी के व्यवहार में रूखापन आ गया था, जो नेचर में ग़ुस्सा भरी थी, वह मिनटों में काफ़ूर हो गई. वह ख़ुश होते हुए बोली, “सुनो ज़रा कुछ सामान ऑर्डर कर दो.“
और अनिरुद्ध मोबाइल फोन लेकर बैठ गए, “अभी लो, लिस्ट बताओ.“
“अरे मम्मी, मैं ऑर्डर कर देता हूं.“ बेटा बोला.
“क्यों तुम क्यों कर दोगे? क्या हम लोगों को ऑर्डर करना नहीं आता.. कि तुम हमें बेवकूफ़ समझते हो.. पापा सब करेंगे, वे ही सब को सम्हालते हैं.“
उसे लगा अब वह ठीक है. बात सामान, ऑर्डर, रुपए-पैसे और खाने की कहां होती है.. बात तो मां के मान-सम्मान और उसके प्यार के अहमियत को समझने की होती है.. जो घरों की ज़िंदगी में फ़र्क़ ले आती है.

मुरली मनोहर श्रीवास्तव


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