“अम्मा-बाबा की तरह मत लड़ो…” किसी भी पति-पत्नी में मन-मुटाव या तू-तू, मैं-मैं होती, तो परिवार के लोग यही ताना मारते. मतलब झगड़ा और तू-तू, मैं-मैं के पर्याय बन चुके थे अम्मा-बाबा.
बनते भी क्यूं नहीं? अम्मा अगर पूरब थीं, तो बाबा पश्चिम. अम्मा को अगर ठंड लगती, तो बाबा को गर्मी. अम्मा को दरवाज़ा-खिड़की बंदकर सोना पसंद था, तो बाबा को खोलकर. बाबा को टीवी देखना पसंद था, पर अम्मा को नहीं. बाबा सीरियल, फिल्म, राजनीति सबमें दिलचस्पी रखते, तो अम्मा को इन सबसे कोई सरोकार नहीं था. बाबा रात में भी मोबाइल पर सबका डीपी, स्टेट्स देखते और रिप्लाई भी करते, जो अम्मा को नागवार गुज़रता और सोते-सोते भी लड़कर दोनों छत्तीस का आंकड़ा बिठाकर ही सोते.
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बाबा की कोई भी बात अम्मा एक बार में नहीं मानती और अम्मा की बातों को भी बाबा का जल्दी समर्थन नहीं मिलता.
लेकिन सदैव लड़ते-झगड़ते रहने और एक-दूसरे के विपरीत स्वभाव के बावजूद अम्मा बाबा का पूरा ख़्याल रखतीं और बाबा की ज़ुबान पर भी, “सुन रही हो, कहां गई…” शब्द हमेशा टंगे रहते.
बाबा को कब चाय की ज़रूरत है, कब नाश्ते की और कब खाने की… अम्मा घड़ी की सुई की तरह उस समय उठकर बैठ जातीं और किचन में अंदर-बाहर करने लगतीं, तब बहुएं समझ जातीं कि बाबा का टाइम हो गया है.
फिर भी, चौबीस घंटों में बीस घंटा अम्मा-बाबा एक-दूसरे से मुंह फुलाए ही रहते. यही वजह थी कि अम्मा-बाबा पति-पत्नी के झगड़े का पर्याय बन चुके थे.
देखते ही देखते एक दिन अम्मा गुज़र गईं. सबने सोचा और शायद बाबा ने भी कि अब उनकी ज़िंदगी काफ़ी शांति, चैन व सुकून से गुज़रेगी. अब चाहें जितनी देर टीवी देखें, कोई टोकनेवाला नहीं, चाहें जितनी देर मोबाइल चलाएं क़ोई मना करनेवाला नहीं. दरवाज़ा चाहें बंद करके सोएं या खोलकर कोई परेशानी नहीं. अम्मा नहीं रहीं, कोई लड़नेवाला नहीं रहा, अब शांति ही शांति है.
लेकिन इतनी शांति बाबा को हजम नहीं हो पा रही थी. वे दिनभर टीवी, मोबाइल और बच्चों में अपना मन लगाने की कोशिश करते, लेकिन उनके मन को कहीं वह ख़ुशी, वह शांति नहीं मिल रही थी, जो पहले थी. दबे स्वर में, गाहे-बगाहे उनके मुंह से निकलने लगा, “वह लड़ती थी, तो मेरा जीवन गुलज़ार था. वह चली गई मेरे जीवन को ख़ामोश कर वीरान कर गई. कोई मेरी बातों को काटनेवाला नहीं रहा, लड़नेवाला नहीं रहा.”
और इतनी आज़ादी, इतनी शांति, इतनी ख़ामोशी और अथाह रिक्तिता बाबा झेल नहीं पाए. दो महीने बाद ही दोपहर में ठीक उसी समय बाबा भी चल बसे, जब अम्मा का देहांत हुआ था.
सोचने को विवश हूं कि प्यार शायद इंद्रधनुषी होता है, जिसमें सात नहीं, बल्कि हज़ारों रंग होते है. उन्हीं रंगों में से एक अम्मा-बाबा के प्यार का भी रंग था, जो शायद हमें दिखता कुछ और था और था कुछ और.
हाथों में हाथ डालें घूमना, पिक्चर जाना, साथ रहना और सबसे बड़ी बात एक-दूसरे की हां में हां मिलाना ही प्यार नहीं है. एक-दूसरे की बात काटकर, एक-दूसरे से लड़ने में भी प्यार होता है. और वास्तविक प्यार शायद आत्मा से ही होता है, चिकनी चुपड़ी बातों और व्यवहार से नहीं. तभी तो बाबा…
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आज परिवार के लोगों के नज़रिए बदल चुके हैं. नम आंखों से सबकी ज़ुबां से एक ही बात निकल रही है, “प्यार हो तो अम्मा-बाबा की तरह. एक-दूसरे के बिना वे जी नहीं सकते थे और जी नहीं पाए.”
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