प्रायः ही मेरे मित्र अथवा परिचित मुझसे एक सवाल करते हैं, “पूरा दिन घर में अकेली बैठी बोर नहीं हो जाती क्या?” शायद वो ठीक ही कहते हैं. यहां ईरान में जहां आसपास कोई अपना नहीं, पड़ोसी सिर्फ़ फ़ारसी ही समझते-बोलते हैं और भारतीय परिवार इतनी दूर हैं कि उनसे केवल छुट्टी के दिन ही मिलना हो पाता है. सुबह पति के दफ़्तर जाने पर जो मुख्यद्वार बंद करती हूं, तो फिर वह शाम को इनके आने पर ही खुलता है. इतना बड़ा घर और नितांत अकेली मैं. तो फिर मुझे अकेलापन का एहसास क्यों नहीं होता?
पिछले शुक्रवार, यहां के साप्ताहिक अवकाश के दिन जब कुछ भारतीय मित्र हमारे यहां भोजन पर आमंत्रित थे, तो मीना ने भी वही प्रश्न दोहराया, “पूरा दिन घर में अकेली बैठी बोर नहीं हो जाती क्या?” और सदैव की भांति मेरी पहली प्रतिक्रिया तो यही पूछने की हुई, “अकेली? अकेली क्यों?” मुझे यह ध्यान ही नहीं रहता कि मैं सचमुच हर रोज़ अकेली ही तो रहती हूं, पूरा दिन, दिन पर दिन. मेरे बताने पर वह समझेगी क्या कि जिसके पास यादों का इतना बड़ा भंडार हो वह अकेले नहीं हुआ करते कभी? यादें भी इतनी ढेर सारी, इतनी मधुर यादों के अनगिनत जगमगाते दीप. पर भीतर ड्रॉइंगरूम से उठते पुरुषों के ठहाकों, बच्चों की धमाचौकड़ी ने मुझे मीना के प्रश्न का उत्तर देने से बचा लिया.
मुझे ‘दीदी’ कहकर बुलाने लगी है मीना. बड़ा अपनापन हो आया है उससे. होता यूं है कि अपने देश में अपने सगे-संबंधियों से घिरे हम अपने मित्रों के उतने क़रीब नहीं आते, जितना पराए देश में. और यही नज़दीकियां विदेश में हमें असुरक्षा के एहसास से भी बचाए रखती हैं. किसी को घर जाने की जल्दी नहीं. आराम से बैठे बतिया रहे हैं. कभी चुटकुले और कभी गाने हो रहे हैं. पुराने क़िस्से दोहराते समय, ‘शादी के बाद कौन कितना बदल गया?’ विषय पर बात चली, तो अपनी खोपड़ी से निकल आ रहे चांद पर पहले कितनी घनी खेती थी, यह दिखाने के लिए पति ने हमारे विवाह के समय का फोटो सबके बीच रख दिया. मीना बोली, “हाय दीदी आप तो अपने समय में बहुत सुन्दर थीं. जाने कितनों को बेहोश किया होगा?” उस समय के हंसी के माहौल में इन्होंने भी जोड़ दिया, “बिल्कुल जी. उन दिनों इन के पीछे सदा एक एंबुलेंस चला करती थी, बेहोश हो गए युवकों को उठाकर हस्पताल ले जाने के लिए. मेरे साथ भी यही हुआ था. फ़र्क़ यह है कि होश में आते ही मैं इनके घर जा पहुंचा था इनसे विवाह करने का प्रस्ताव लेकर.”
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तो अब हमारा सौन्दर्य, हमारा यौवन अतीत की बात हो गया? पर क्या वास्तव में आकर्षित करने की कोई बंधी आयु सीमा होती है? पन्द्रह से पच्चीस वर्ष तक बस. इसी बीच आप प्यार कर सकते हैं. इसके आगे-पीछे नहीं. कथा-कहानियों में, फिल्मों में तो ऐसा ही दिखाते हैं. वह भी सिर्फ़ उन्हीं के लिए होता है, जो सौंदर्य की कसौटी पर भी खरे उतरते हों. क्या बस ख़ूबसूरत लोग ही प्यार करने के अधिकारी होते हैं? सच पूछो तो यह आकर्षण मात्र शारीरिक होता है. उच्छृंखल और स्वार्थी होता है. वह हर देने के एवज़ में कुछ मांगता है. उसमें न संयम होता है न त्याग. उसे जो चाहिए तत्काल चाहिए. इंतज़ार उसे बर्दाश्त नहीं, पर फिर वह समय भी आता है जब जीवन झील के जल की मानिंद ठहर जाता है. वह उफन-उफन कर अपने किनारों को नहीं काटता. बस गहरा ही होता चला जाता है. ऊपर से शांत पर भीतर अनंत भेद छुपाए.
मुझे वर्षों जानकर भी क्या कोई देख पाएगा मेरे जीवन में तुम्हारा अस्तित्व, तुम्हारी उपस्थिति? जबकि मैं जीवन का हर पल तुम्हारे संग, तुम्हारी यादों के संग ही बिताती हूं. ज्यों ही मुख्यद्वार बंद करके मुड़ती हूं तुम मेरे सामने साकार आन खड़े होते हो और मेरे हृदय का हर छुआ-अनछुआ कोना तुम्हारी यादों से ठसाठस भर जाता है. कभी वह किशोरावस्था का अल्हड़ चेहरा होता है, कभी जीवन की ढलती कगार पर खड़ा, तो कभी बालों में सफ़ेदी लिए आज का गंभीर और गरिमापूर्ण चेहरा. सच पूछो तो प्यार न यौवन का मोहताज होता है न सौन्दर्य का.
ऐसे ही एक प्यार होता है- बचपन का. बहुत पवित्र होता है यौवन से पहले का वह प्यार. ‘निश्छल’ बस , यही एक शब्द है उसे बखान करने के लिए. न तो वह यौवन का अर्थ जानता है, न सौन्दर्य का पैमाना. ऐसे ही मासूम से दिनों में जन्मा और पनपा था हमारा प्यार. मैं तब चौथी कक्षा में पढ़ती थी और मेरे बड़े भाई के मित्र होने के नाते तुम प्रायः ही हमारे घर आते. गर्मी की लम्बी छुट्टियों में तब ढेर सारा समय रहता, क्योंकि वह तब न तो होमवर्क के पर्वत तले दबे हुए आतीं, न ही टीवी, कम्प्यूटर का ज़माना था, बस दिनभर मौज-मस्ती. हम अपने लिए नए-नए खेल ईजाद करते और दिनभर खेलते.
मैं तो तब काफ़ी नादान थी. आज की भाषा में तो बेवकूफ़ ही कहेंगे, बस इतना समझती थी कि तुम्हारे संग खेलना बहुत अच्छा लगता है. पर मुझ से चार वर्ष बड़े तुम कुछ परिपक्व थे. इस पर हाल में ही तुम्हारे भाई का विवाह हुआ था. सो एक दिन मेरा हाथ पकड़कर तुम मुझे अपने घर ले गए और ऐलान कर दिया था कि विवाह करोगे, तो सिर्फ़ मुझसे ही. ज़िद देखकर तुम्हारी मां ने कहा, ‘‘ठीक है, पर इससे पहले तुम्हें पढ़-लिख के कुछ बन कर दिखाना होगा.”
शायद तुम्हें प्रोत्साहित करने के लिए एक सरल-सा नुस्ख़ा मिल गया था उन्हें. मज़ाक़ में हुई यह बात सभी भूल गए सिवा तुम्हारे. तुम पर तो बस कुछ बन कर दिखाने की धुन चढ़ गई. अपने अधिकारिक रवैये के बावजूद बहुत ही चुप्पे थे तुम. बचपन में शायद तुम्हारे जज़्बात नहीं समझती थी, पर समय-समय पर मिलते रहने और बढ़ती उम्र के साथ बहुत कुछ समझने लगी थी. पर स्पष्ट शब्दों में मन की बात मुझसे कभी कही ही नहीं तुमने. क्यों? कह नहीं पाए या अपनी मां पर इतना विश्वास था तुम्हें? आंखों की भाषा कोई कितनी पढ़ सकता है? आज की तरह खुलेआम मिलना तो तब सोच भी नहीं सकते थे. अपनेपन का एहसास तो तुमने हमेशा जतलाया, पर यह कैसे मान लिया कि स्पष्ट रूप से कहने पर मैं बुरा ही मान जाऊंगी? मैं कभी-कभी सोचती- ‘तुम्हारी चाहत मेरा भ्रम तो नही?’ हद ही हो गई जब तुम अपना प्यार स्पष्ट रूप से व्यक्त किए बग़ैर आगे पढ़ने के लिए विदेश चले गए. पर फिर उससे फ़र्क़ भी क्या पड़ता? अपनी ज़िंदगी अपनी इच्छा से जी ही कब मैंने? और मेरी डोर किन्ही अजनबी हाथों में सौंप दी गई.
फिर अचानक एक दिन तुम आन खड़े हुए मेरी ससुराल. यह तो अच्छा हुआ कि द्वार मैंने ही खोला. तुमने मुझे सिर से पांव तक देखा, दीर्घ क्षण तक देखते ही रहे, बिना कुछ बोले. मानो तुम मेरे विवाह की पुष्टि करना चाह रहे थे. चाह रहे थे कि ख़बर झूठी हो और फिर बिना कुछ कहे लौट गए. क्या कहते? कहने को कुछ रह ही क्या गया था. कहने का लाभ ही क्या था.
धीमी गति से चले या तेज़, समय तो चलता ही रहता है. कैलेंडर के पन्ने पलटते रहे और नए कैलेंडर आते रहे. इधर-उधर से फुसफुसाहटें मुझ तक भी पहुंचीं- ‘तुमने विवाह न करने की ठान रखी है.’ सदा के ही चुप्पे तुम, आसानी से कहां बतानेवाले थे. यह तो बहन के बहुत परेशान करने पर तुमने इतना कहा, “जिससे करना था उसका तो हो चुका. जब मां ने ही अपना वचन नहीं निभाया, तो अब मुझे क्यों परेशान किया जा रहा है?”
मां को अपना भूला-बिसरा वादा याद आया, तो उसने मुझसे मिन्नत की कि मैं तुम्हें विवाह के लिए राज़ी कर लूं. मेरी बात ज़रूर मान लेगा. अजब स्थिति थी मेरी. बात सुनकर देर तक तुमने मेरी ओर देखा. कहा कुछ भी नहीं. न क़िस्मत पर दोष, न मां-बाप पर, बस चुप. मैं चिल्लाना चाह रही थी. इसी चुप के कारण तुम पहले भी हारे हो. अब तो मौन तोड़ो. ख़ामोश रहने से भी ख़्वाहिशें पूरी हुई हैं कभी? यही बात तुम आज तक नहीं समझ पाए. पर उस दिन भी तुमने अपने आगे ख़ामोशी की दीवार खड़ी कर दी थी. तुम्हारी बातों का काट दिया जा सकता था. तुम्हारे तर्कों पर नए तर्क रखे जा सकते थे, पर तुम्हारी ख़ामोशी के आगे हार गई मैं. तुम पर दबाव डालती भी तो क्या कहकर? विवाह तो कर ही लो, चाहे फिर उसे प्यार करो चाहे नहीं. एक बेक़सूर लड़की को ऐसी सज़ा!
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छोटे से उस शहर में ऐसा तो संभव ही नहीं था कि हम एक-दूसरे से न टकराते. शादी-ब्याह का जश्न, कोई पार्टी अथवा फिर कोई मृत्यु समाचार ही हमें आमने-सामने ला खड़ा करता. पर यदि बचना संभव भी होता तो क्या हम बचना चाहते थे? कमरे की, हॉल की भीड़ के उस पार से देख भर लेने का मोह न तुम छोड़ सकते थे न ही मैं. तुम मुझे देखकर हाथ माथे से छुआ देते और मैं मुस्कुरा कर स्वीकार कर लेती. ऐसा नहीं था कि हम हाथ जोड़कर एक-दूसरे को नमस्कार भी नहीं कर सकते थे, पर औरों को अपनी ओर आकर्षित नहीं करना चाहते थे. जब भी तुम्हें देखती मन और बुद्धि के बीच संघर्ष होता. मन चाहता भाग कर तुम्हारा हाथ पकड़ लूं. ज़िंदगीभर के क़िस्से सुनूं-सुनाऊं, पर बुद्धि एकदम निषेध कर देती. मन ज़ोर लगाता, पर आत्मा न मानती. दो दिन बाद ही मीना को सुबह-सुबह अपने द्वार पर देख मैं हैरान तो हुई, पर यह सोचकर ख़ुशी भी हुई कि उसकी ढाई वर्षीय बिटिया के संग दिनभर रौनक़ रहेगी. बस मन में एक विचार ज़रूर कौंधा, अभी दो दिन पहले ही तो मुलाक़ात हुई है. बच्ची को गोद में उठा इतनी दूर अकेली आई है, तो कोई ख़ास वजह ही होगी. पर असली बात की तो मैंने कल्पना ही नहीं की थी.
थोड़ी देर धमाचौकड़ी मचा कर बच्ची सो गई. जैसे ही मैं रसोई में चाय बनाने पहुंची मीना मेरे पीछे आ गई. लगा वह मुझसे कुछ कहना चाह रही है, पर हिम्मत नहीं जुटा पा रही. उसकी झिझक से मैंने अंदेशा लगाया कि बात उसके पति दिनेश को लेकर ही हो सकती है. देखने में साधारण पर अपनी बातों से सबका दिल जीत लेनेवाला, ख़ुशमिज़ाज, आकर्षक, किसी भी पार्टी की जान दिनेश को मैं बहुत दिनों से जानती हूं. पर किसी को सामाजिक तौर पर जानना और उसके संग निभाना दोनों बहुत अलग बातें हैं. मैंने सीधे ही पूछ लिया, “दिनेश के साथ कोई झगड़ा हो गया क्या?” और वह उत्तर देने की बजाय फफक कर रो पड़ी. कुछ समय लगा उसे बात करने लायक़ होने में.
“बताओ दीदी क्या कमी देखती हो मुझमें? पूरा प्रयास करती हूं इन्हें ख़ुश रखने का, पर इनकी नज़र है कि भटकती ही रहती है. देश में एक के बाद एक मिल जाती थीं. अनेक रातें मैंने अकेले बिताई हैं, आस-पड़ोस में यह कहकर कि दफ़्तर के काम से बाहर गए हुए हैं. सोचा यहां आकर कुछ चैन से रहूंगी, पर ऐसे पुरुष लड़कियों को फुसलाने में माहिर होते हैं.”
“दिनेश बहुत मिलनसार है. शीघ्र ही सबसे घुलमिल जाता है. तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि उसका इरादा ग़लत होता है?” कहने को तो मैं कह गई, पर अपनी बात मुझे ख़ुद ही खोखली लगी. स्त्री की नज़र बहुत तेज़ होती है पुरुष की अच्छी-बुरी नज़र पहचानने में और पत्नी की दृष्टि पति की नज़र न पहचाने यह असम्भव है.
“कोई युवा लड़की दिखी नहीं कि लार टपकने लगती है. आप मानेंगी नहीं मैं अपनी छोटी चचेरी-ममेरी बहनों का अपने घर आना किसी न किसी बहाने टाल जाती हूं. मैं जानती हूं वह मेरे घर सुरक्षित नहीं. फिर बदनामी का डर. अभी तो सब ढका-दबा है. सिर्फ़ मैं ही जानती हूं, पर ऐसा तिरस्कृत जीवन कब तक जिया जा सकता है? और अभी तो शुरुआत है जीवन की. कल को अवनि बड़ी होकर सवाल पूछेगी तब? कैसे इज़्ज़त कर पाएगी वह अपने पापा की?” मैं ख़ामोश उसकी बातें सुनती रही. वह कभी ख़ामोश हो जाती कभी बोलने लगती, मानो स्वयं से ही बातें कर रही हो.
“तुम्हारे पूछने पर क्या कहता है दिनेश?”
“बस एक ही उत्तर है- ‘तुम्हें तो कोई कमी नहीं देता न! न पैसे की न कोई और बंदिश. तुम्हें जो चाहिए ख़रीदो पहनो, जहां चाहो घूमों-फिरो.’ पर दीदी मुझे अपना पति चाहिए और वह भी सम्पूर्ण. किसी से बांट कर नहीं.”
“मैं समझाऊंगी दिनेश को.” मैंने कह तो दिया पर भीतर बहुत अवश भी महसूस किया. मैं उसे समझाने का प्रयत्न ही कर सकती हूं, अधिक कुछ नहीं. जब तक दिनेश अपनी ग़लती स्वयं न महसूस करे, जब तक उसका अपना ज़मीर न जागे. पर उसे राह पर लाने से पहले क्या मुझे अपने गिरेबान में नहीं झांकना चाहिए? पहले स्वयं को सुधारूं- सुधारने का प्रयत्न ही करूं, तभी तो उसे समझाने की हक़दार बनूंगी.
हर पत्नी अपने पति को पूरा ही चाहती है, किसी से बांट कर नहीं और मेरा पति भी निश्चय ही यही चाहता होगा. छह माह शेष हैं हमारे इस प्रवास के और मैंने भी दृढ़ निश्चय कर लिया है अपने अतीत को एकदम से काट कर अलग कर देने का. काश! हम वस्तुओं की मानिंद अपनी यादों को भी किसी आलमारी में बंद करके ताला लगा सकते. काश! हम किसी जादुई रबर से अपनी यादों को मिटा देना संभव होता. परन्तु फिर मनुष्य होने के नाते अपनी भावनाओं पर विजय पा लेने की, सही और ग़लत की पहचान कर सकने की क्षमता भी तो सिर्फ़ हमें ही प्राप्त है. पति के साथ अब तक मैंने अन्याय ही तो किया है. पत्नी धर्म पूरी तरह निभा कर भी, घर के सब दायित्वों का निर्वाह करके भी. अंतरंग क्षणों में मन कहीं और नहीं होता है क्या? कल्पना में चेहरा किसी और का नहीं होता क्या? कोई न जाने मेरा अपराध, मैं तो जानती हूं न! पति नहीं जानते कि मैं उनकी अपराधिनी हूं, पर इससे मेरा अपराध कम तो नहीं हो जाता न? कहते हैं न कि जहां चाह, वहां राह. अभी पन्द्रह दिन पहले ही बता रहे थे कि कलकत्ता में इनके दफ़्तर की एक नई ब्रांच खुल रही है, जहां इन्हें मुख्य अधिकारी बनाकर भेजना चाह रहे हैं. प्रगति का सुनहरा अवसर मिला था, पर मेरा मन ही नहीं था वहां जाने को. यहां आते समय भी लगता था कि तुम्हें देखे बिना कैसे जी पाऊंगी? पर वर्ष बीतने को आया. कलकत्ता के शुरुआती दिन मुश्किल होगी ज़रूर. यादों के हुजूम पीछा करेंगे, परन्तु धीरे-धीरे सिकुड़ भी जाएंगे. नए शहर का नया माहौल, मित्रों के नए दायरे पुरानी यादों को सिमटने पर मजबूर कर देंगे.
मेरा तुमसे दूर रहना अनिवार्य है. अभी तक तो मैंने तुम्हें भुलाने का कभी प्रयास ही नहीं किया था. सोचती थी कि यदि मैं अपना कर्तव्य पूरा कर रही हूं, तो क्या फ़र्क़ पड़ता है. यदि मेरे हृदय के विशाल आंगन के एक कोने में किसी और का वास है? पर नज़दीकी रिश्तों में तन और मन को जुदा तो नहीं किया जा सकता न! सम्पूर्ण समर्पण में सम्पूर्णता तो उसकी अनिवार्य शर्त है.
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