Short Stories

कहानी- जीने के लिए (Short Story- Jeene Ke liye)


“आपको अपनी हंसी को वापस पाना है. हंसने के लिए तमाम लाफ्टर क्लब खुल रहे हैं. वहां सदस्यता लेकर लोग बनावटी हंसी हंसते हैं. आपको तो ईश्‍वर ने चियरफुल बनाया है, लेकिन अफ़सोस होता है कि आपने अपना स्वभाव ही बदल लिया. आप अब तक कोई फ़ैसला ले सकीं या नहीं, लेकिन ख़ुश रहने का फ़ैसला आपको ख़ुद लेना है. हंसमुख लोगों से मिलें. फोन पर बात करें. कोई न मिले तो मैं हूं न.” कहकर मनोचिकित्सक हंसने लगे.


रेडीमेड वस्त्रों की दुकान ‘पोशाक’ बंद कर रात साढ़े नौ बजे प्रथम घर पहुंचा, तो उसका मूड उखड़ा हुआ था. पत्नी लालसा ने रोज़ की तरह बेड पर अख़बार बिछाकर खाने की थाली रख दी. प्रथम खाना खाते हुए अचानक बोला, “लालसा, तुम ठीक हो? कम्फ़र्ट फ़ील करती हो?”
लालसा ने कोई जवाब नहीं दिया. बस, शिकायतभरी नज़रों से देखा, तो प्रथम झल्लाते हुए बोला, “मैं अपना काम छोड़ तुम्हारा दिल बहलाने के लिए घर में नहीं बैठ सकता और दोनों लड़के अपना करियर छोड़कर तुम्हारी सेवा नहीं बजाएंगे.”
लालसा ने प्रथम की बात सुनी और चुप रही. कभी बहुत हंसती थी, पर अब चुप रहती है.
“जानती हो, लोग क्या कहते हैं? कहते हैं तुम अजीब होती जा रही हो. तुम्हारा बढ़ता पशु प्रेम लोगों को हैरान करता है. पामेरियन पेंथर, उसके पप्स, पांच मिट्ठू तुमने पाल रखे हैं और तुम्हें मुझसे अधिक उनकी चिंता रहती है.”
“दोनों बेटे पढ़ाई के लिए पूना चले गए. मैं बिल्कुल खाली हूं और अकेली भी. तो मिट्ठू…”
“तमाम औरतें अकेली रहती हैं. तुम परिस्थिति को सामान्य तरी़के से नहीं ले सकती? जबकि कोई कमी नहीं है. इतना पैसा, इतना बड़ा घर, ठाट-बाट…”
“पर अकेले क्या करूं?”
“मैं बच्चों को पूना नहीं भेजना चाहता था. यह तुम्हारी और बच्चों की ज़िद थी. तुम्हारे पूत जो सी.ए. और एम.बी.ए. करने पूना गए हैं, यहां रहकर भी तो कर सकते थे.”
“अच्छे इंस्टीट्यूट की वैल्यू होती है.”
“तो उन्हें कौन-सी नौकरी करनी है. ‘पोशाक’ को संभालना है. पर यहां मैं उन्हें आवारा घूमने की आज़ादी न देता. लालसा, तुम्हारे पूत पढ़ने नहीं लड़कियां छेड़ने गए हैं.”
“लड़कियां तो यहां भी छेड़ सकते थे.”
“तुम्हारी ओर से हेल्प लाइन खुली हो, तो यही करेंगे. पूना की हवा खाकर वे यहां रहने नहीं आएंगे. मैंने इतनी मेहनत से काम जमाया, वो ख़त्म समझो.”

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“उनकी अपनी ज़िंदगी है, जिसे वे अपने तरी़के से जीना चाहते हैं.”
“पर तुम मुझे नहीं जीने दे रही हो. लोग कहते हैं तुम इतनी चुप रहने लगी हो, जो विचित्र बात है. शशिधर ने तो यहां तक कह दिया कि प्रथम परिस्थिति को टालो मत. क्लिनिकल सायकोलॉजिस्ट से सलाह लो.”
लालसा को लगता है कि यदि मनोचिकित्सक से परामर्श न लिया गया, तो वह किसी मानसिक बीमारी से पीड़ित हो जाएगी. संभव है कि शॉक थेरेपी से भी गुज़रना प़ड़े. एकांत और गहरी ख़ामोशी में समय बिताते हुए लगता है जल्दी ही मर जाएगी. अचानक घबराकर लालसा बोली, “मुझे सलाह की ज़रूरत नहीं है.”
“है, कल तुम्हें मनोचिकित्सक के पास चलना है.”
लगभग आत्मविस्मृति की दशा में लालसा क्लिनिक पहुंची. लेकिन उसे उपेक्षित छोड़ मनोचिकित्सक प्रथम से बोले, “प्रथमजी, आप क्या काम करते हैं?”
“गड्डी चौक में ‘पोशाक’ गारमेंट्स है, वह मेरा है.”
“फिर तो आप बहुत व्यस्त रहते होंगे?”
“सुबह नौ से रात नौ तक.”
“परिवार में और कौन है?”
“दो बेटे हैं. बाहर पढ़ते हैं.”
“कुछ अनुमान है लालसाजी कब से ख़ामोश रहने लगी हैं?”
“बिल्कुल अनुमान नहीं है.”
“कभी जानना चाहा कि ये अपने एकांत और अकेलेपन से कैसे जूझती हैं?”
“यह जानने के लिए मैं घर में बैठा नहीं रहता.”
“यदि बता पाएं, तो बताएं कि ये अपना समय किस तरह बिताती हैं?”
प्रथम ने बुरा-सा मुंह बनाया, “लालसा ने कई कुत्ते और तोते पाल रखे हैं. समझिए, दिनभर कुत्तों को नहलाने, कंघी करने, खिलाने में लगी रहती हैं. तोते दिनभर खाते, बीट करते और लड़ते हैं. तोतों को ठीक दोपहर तीन बजे चाय और बिस्किट चाहिए. देर हो तो उन्हें चाय और बिस्किट बोलना आता है. ये चाय में बिस्किट भिगोकर उन्हें खिलाती हैं. ठंड में स्वेटर पहनाती हैं, तोतों के पिंज़रे को शॉल से ढकती हैं.”
“आपने कभी इनसे पूछा कि ये किस खालीपन को भरने के लिए ऐसा करती हैं?”
प्रथम भड़क गया, “मरीज़ मैं नहीं लालसा है, जो पूछना है इनसे पूछें.”
मनोचिकित्सक ठठाकर हंसे, “मेरे मरीज़ पहली बैठक में कुछ नहीं बताते. कुछ बैठकों के बाद लालसाजी कुछ कहने लायक हो जाएंगी, तब इनसे पूछूंगा. आपसे जो पूछ रहा हूं, वह इनसे ही संबंधित है. देखिए, मनोरोग ऐसी दशा है, जिसमें परिवार के सदस्यों का भी हाथ होता है, बल्कि उनका ही हाथ होता है. सदस्य ख़ुद को बदलें तो मनोरोगियों में भी बदलाव आने लगता है और वे ठीक हो जाते हैं.”
“मतलब दोषी मैं हूं?”


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“मैंने जनरल बात की है. बुरा न मानें. शादी को कितने साल हो गए?”
“तेईस.”
“तब तो आप लालसाजी के स्वभाव, आदत, व्यवहार के बारे में सब कुछ
जानते होंगे.”
प्रथम गड़बड़ा गया. व्यस्तता में कभी उसने लालसा की उपस्थिति को ख़ास नोटिस ही नहीं किया.
“अक्सर होता है, इतने साल साथ रहने के बावजूद पति-पत्नी एक-दूसरे को भली प्रकार से नहीं समझ पाते हैं. छोटी-छोटी इच्छाएं, उम्मीदें, अड़चनें, जिनको हम नोटिस नहीं करते, एक दिन ख़तरनाक बन जाती हैं. अक्सर होता है पति ख़ुद को मालिक मानते हुए पत्नी की दिनचर्या, जीवनशैली, गतिशीलता, क्रियाशीलता तय करने लगते हैं. तब ख़ुद को बदलते हुए पत्नी बहुत भुगतती है.”
“विलासी ज़िंदगी जी रही हैं. घर से बाहर निकलें, तो जानें कठिनाई क्या होती है. दरअसल, ये न ख़ुश रहती हैं, न रहने देती हैं. इनके इस व्यवहार से मेरी कार्यक्षमता पर असर पड़ता है.”
“देखिए, पहले संयुक्त परिवार थे, अब एकल हैं. अकेलापन आज की बहुत बड़ी समस्या है और मानसिक बीमारी का कारण भी. चूंकि अधिकतर स्त्रियां कामकाजी नहीं हैं, तो घर में रहते हुए वे एकांत और अकेलेपन से परेशान होती हैं.”
प्रथम का धीरज छूटने को था, “क्या कहूंं? पढ़ी-लिखी महिलाओं के मिज़ाज
नहीं मिलते.”
मनोचिकित्सिक हंसे, “हां… हां… शिक्षा से स्त्रियों की बौद्धिक क्षमता बढ़ी है. अपनी पहचान और पोज़ीशन बनाना चाहती हैं. यदि नहीं बना पाती हैं तो निराश हो जाती हैं. जानते हैं, मेरे मरीज़ों में उच्च शिक्षित महिलाएं अधिक हैं. इस वर्ग में असंतोष अधिक है, क्योंकि इन्हें ज़िंदगी का अर्थ मालूम है और वे अपने तरी़के से जीना चाहती हैं. नहीं जी पाती हैं, तब विद्रोही हो जाती हैं या मौन. आप लालसाजी को समुचित समय और समीपता दें. इनके सुख-दुख को जानें.”
जवाब में प्रथम घड़ी देखने लगा, “शॉप खुली छोड़कर आया हूं.”
मनोचिकित्सक हंसे. “आज इतना ही. लालसाजी, अगली बैठक में आपकी क्लास लूंगा.”
वापसी पर लालसा कुछ ताज़गी महसूस कर रही थी. वह चाहती थी कि प्रथम से जवाब मांगा जाए. प्रथम कुछ इस तरह निष्क्रिय और रूखा है कि वह उससे वे बातें भी नहीं पूछ पाती, जो लाज़मी तौर पर पूछना चाहिए. आज मनोचिकित्सक ने मानो बहुत कुछ पूछ लिया.
कार ड्राइव करते हुए प्रथम भड़कते हुए बोला, “लालसा, वह ख़बीज़ डॉक्टर तुम्हें विचित्र नहीं लगा?”
“उनका काम ही ऐसा है. उनके मरीज़ विचित्र ही होते हैं.”
“सुस्त मरीज़ों का इलाज करते-करते लगता है वह भी मानसिक रोगी हो गया है. वह मुझे भी मानसिक रोगी बना देगा. उफ्! मैं अब भी नॉर्मल नहीं हो पा रहा हूं. तुम्हें लगता है कुछ सिटिंग्स से फ़ायदा होगा, तो तुम अकेली चली जाना. मैं उसकी सूरत बर्दाश्त नहीं करूंगा.”
लालसा ने तय किया कि वह अगली बार से अकेली ही जाएगी.
लालसा को देख मनोचिकित्सक हंसे और बोले, “आइए, इतने दिनों तक नहीं आईं तो मुझे लगा, नहीं आएंगी. प्रथमजी नहीं आए? उस दिन मुझसे ख़फ़ा हो गए थे. चलिए, आप आईं वरना मेरे कुछ मरीज़ ऐसे थे, जो एक बार आए, फिर नहीं आए. दरअसल, इस इलाज में मरीज़ और परिजनों को धीरज रखना पड़ता है. बैठिए… आप अकेली आईं, यह आपके लिए सुविधाजनक होगा. कैसा महसूस कर रही हैं?”
“बेहतर.”
“आपके पेट्स कैसे हैं?”
“दरअसल, वे मेरे लिए समय बिताने के साधन हैं.”
“प्रकृति और पशु-पक्षी सचमुच आनंद देते हैं. इनकी ओर आपका रुझान क्या बचपन से है?”
“जब से बेटे पूना गए, पेट्स के साथ समय बिताना मुझे अच्छा लगता है. वे मेरा विरोध नहीं करते. पलटकर जवाब नहीं देते. निर्देश नहीं देते, बल्कि मेरा हुक्म मानते हैं.”
“आपके पास तो मास्टर डिग्री है, फिर जॉब क्यों नहीं किया?”
“शादी से पहले मैं स्कूल में पढ़ाती थी. फिर प्रथम ने कहा, औरत की कमाई खाना इस घर की शान के ख़िलाफ़ होगा. घर देखो और अच्छा खाना बनाओ. घर के लोगों को स्वस्थ और ख़ुश रखो ताकि वे अपने व्यवसाय का विकास और वृद्धि कर धन कमाएं.”
“तो आप दबाव में रहती हैं.”
“फोबिया कहें.”
“लालसाजी, आप शुरू से मौन और शांत रही हैं या कभी हंसमुख थीं?”

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“मैं बहुत हंसमुख थी, इसीलिए ससुरालवालों ने मुझे पसंद किया था. उनका मानना था कि हंसमुख लड़की अच्छा माहौल बनाकर प्रथम जैसे नीरस इंसान को सुधार सकती है. प्रथम कठोर होने की हद तक ज़िद्दी हैं. हंसना तो जानते नहीं. मैं भी हंसना भूलती गई.”
“पति न हंसे, तो पत्नी हंसना छोड़ दे, यह क्या है? आप अपने बारे में सोचिए. प्रथमजी के अनुसार ख़ुद को ढालते हुए अपना स्वभाव, आदत, व्यवहार बदलते हुए आपको तक़लीफ नहीं होती? अपने स्वभाव को बहुत अधिक बदलना सेल्फ़ टॉर्चर है. सहनशक्ति की भी कोई सीमा होती है.”
“मुझे वही करना होता है, जो प्रथम चाहते हैं. बच्चे थे तब फिर भी ठीक था. अब लगता है जैसे साहस और आत्मविश्‍वास मैंने खो दिया है. जी चाहता है मौन पड़ी रहूं. मुझे किसी की ज़रूरत महसूस नहीं होती.”
“प्रथमजी की भी नहीं?”
“नहीं. हम एक घर में रहते हैं, पर एक-दूसरे से बहुत दूर हैं.”
“तलाक़ का ख़याल आता है?”
“नहीं. मैं अपने बच्चों और घर को नहीं छोड़ सकती. बच्चे मुझे जान से प्यारे हैं और घर का खुलापन बहुत अच्छा लगता है. मेरे घर का कैंपस बहुत बड़ा है, बहुत
खुला है.”
“मैं प्रथमजी की बात कर रहा हूं.”
“समझ रही हूं. मैं उन्हें घर और बच्चों से जोड़कर देखती हूं, इसलिए तलाक़ नहीं
ले सकती.”
“आप चाहती क्या हैं?”
“नहीं जानती. बस, बिना वजह रोने की इच्छा होती है.”
लालसा सचमुच रोने लगी.
मनोचिकित्सक परेशान हुए. “सुनिए, आपको अजीब लगेगा, लेकिन आरामतलब ज़िंदगी भी एक यातना है, क्योंकि यहां करने के लिए कुछ नहीं होता. इस तरह रोइए मत. आज और पूछकर आपको परेशान नहीं करूंगा. बाकी बातें अगली सिटिंग में होंगी.”
लालसा और मनोचिकित्सक की सिटिंग्स होने लगीं.
वे उसे बड़ी सावधानी से हैंडल कर रहे थे.
“लालसाजी, आपने जो बातें मुझसे कीं, कभी प्रथमजी से कीं?”
“उनके पास व़क़्त नहीं है और रुचि भी नहीं. मुझे हैरानी हो रही है कि मैं आपसे वो सब कह गई, जो किसी से न कह सकी.”
“आपने हंसना कब छोड़ा?”
“याद नहीं.”
“याद कीजिए? पिछली बार कब हंसी थीं?”
“याद नहीं.”
“आपको अपनी हंसी को वापस पाना है. हंसने के लिए तमाम ला़फ़्टर क्लब खुल रहे हैं. वहां सदस्यता लेकर लोग बनावटी हंसी हंसते हैं. आपको तो ईश्‍वर ने चियरफुल बनाया है, लेकिन अफ़सोस होता है कि आपने अपना स्वभाव ही बदल लिया. आप अब तक कोई फैसला ले सकीं या नहीं, लेकिन ख़ुश रहने का फैसला आपको ख़ुद लेना है. हंसमुख लोगों से मिलें. फ़ोन पर बात करें. कोई न मिले, तो मैं हूं न.” कहकर मनोचिकित्सक हंसने लगे.
लालसा ने निरीह भाव से देखा, “किसी से मिलने की, बात करने की इच्छा नहीं होती. बोलना भूलती जा रही हूं. भीड़ और शोर से घबराहट होने लगी है. बताया न, ख़ुद पर विश्‍वास ही नहीं रहा.”
“आप एकांत में अकेले रहते हुए बाहरी दुनिया से पूरी तरह कट गई हैं. आपको चेंज चाहिए. कुछ दिनों के लिए बेटों या मां के पास चली जाएं.”
“प्रथम कहीं नहीं जाने देते हैं. कहते हैं उन्हें खाने की द़िक़्कत होती है. दिनभर घर में ताला पड़ा रहे, तो चोरी का ख़तरा. उन्हें घर ठीक से बंद करने का अभ्यास नहीं है.”
“आप प्रथमजी की सहूलियत ही देखेंगी? जबकि वे इतना अधिक दख़ल देते हैं कि आप दो-चार दिन के लिए कहीं जा नहीं सकतीं. आपने अपनी भावनाओं को दबाते हुए इतना लंबा समय प्रथमजी के साथ गुज़ारा है. लेकिन अब ख़ुद को सक्रिय रखने के लिए कुछ करें. कहते हैं स्त्री का जीवन चालीस साल के बाद शुरू होता है.”
“मतलब?”
“इस उम्र में महिलाएं प्रायः घरेलू ज़िम्मेदारियों से फ्री होती जाती हैं. पति की वह उम्र नहीं रहती कि पत्नी के आसपास डोलता रहे. तब पत्नी अचानक ख़ुद को अकेली, पीड़ित, हताश, अनुपयोगी मान लेती है”
“ऐसा ही है.”
“लेकिन मैं कहता हूं खाली समय एक नियामत है. पैसे के लिए नहीं, बल्कि ख़ुद को साबित करने के लिए कुछ रचनात्मक करना चाहिए. ट्यूशन, कोचिंग, समाज- सेवा, पार्लर, बुटीक, नर्सरी. हां… नर्सरी. आपने बताया था कि आपके पास बड़ा परिसर है.”
“लगभग एक एकड़.”
“देखभाल कौन करता है?”
“कोई नहीं. पूरा कैंपस यूं ही पड़ा है.”
“क्यों पड़ा है? आप अच्छा बगीचा तैयार कर सकती हैं.”
“मैं कुछ नहीं कर सकती.”
“करेंगी. सुस्ती छोड़नी होगी. जानती हैं सुस्ती धीमी आत्महत्या है.”
“जी?”
“जी. धीमी आत्महत्या? आपको पशु-पक्षियों से प्रेम है यानी प्रकृति से प्रेम है. इसीलिए मेरा सुझाव है कि आप बागवानी में रुचि लें. बहुत आनंद मिलेगा. आज का इंसान परेशान है, क्योंकि वह मशीन बनकर थक गया है या खाली बैठकर ऊब गया है. लालसाजी, आपके पास इतना अच्छा परिसर है. हम फ्लैट में रहनेवालों से पूछिए कि हम खुली जगह के लिए कितना तरसते हैं. तुलसी तक गमले में रोपनी पड़ती है.”
मनोचिकित्सक की बातों से प्रभावित होते हुए लालसा बोली, “आपकी बातें मुझे प्रेरित करती हैं.”
“वाह! बगीचा ऐसा हो कि देखनेवाले ख़ुश हो जाएं. व्यक्तित्व ऐसा बनाना चाहिए, जो दूसरों पर असर डाले. सुस्त-उदास लोगों को कोई नहीं पूछता. किसी के पास व़क़्त नहीं है, जो हमारी परेशानी दूर करने का विचार करे. ख़ुश रहने के विकल्प हमें ख़ुद ढूंढ़ने पड़ते हैं. आपको अपने परिवार के लिए ही नहीं, बल्कि अपने लिए भी जीना है और जीने के लिए ब्रह्मांड नहीं, एक मुट्ठी जगह बहुत होती है.”
कुछ ही दिनों में लालसा के व्यक्तित्व में निखार आने लगा. अब वह ख़ुश रहने लगी है, मुस्कुराने लगी है. आ़िख़रकार लालसा ने वह जगह पा ली है, जो जीने के लिए ज़रूरी है. अब उसका बगीचा अलग से पहचाना जाता है.

सुषमा मुनींद्र


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Usha Gupta

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