सुबह से लेकर अब तक शांति देवी घर से बरामदे तक का ना जाने कितनी चक्कर लगा चुकी हैं. परेशानी उनके चेहरे पर साफ़ झलक रही है. उनकी परेशानी का कारण है घर में साफ़-सफ़ाई करने वाली कमलाबाई, जिसके आने का निश्चित समय है सुबह के आठ बजे. लेकिन दस बज चुके हैं और अभी तक वह आई नहीं है. “अगर देर से आना था तो कल ही बता देती…” शांति देवी अपने-आप में बड़बड़ाईं.
आराम की आदत पड़ जाए, तो हाथ में ग्लास लेकर पानी पीना भी कष्टदायी लगता है. उनकी समस्या यह है कि अगर बाई को डांट-फटकार दिया जाए, तो वह काम छोड़कर चली जाएगी और दूसरी बाई काम करने को तैयार नहीं होगी. ऐसे में तो काम चल ही नहीं सकता. जैसे-जैसे घड़ी की सुई दस से ग्यारह की तरफ़ बढ़ रही थी, वैसे-वैसे शांति देवी का सब्र का बांध टूटता जा रहा था.
वह बिस्तर पर लेट कर यही सोच रही थी कि कमलाबाई की अनुपस्थिति में वह घर का पूरा काम कैसे कर पाएंगी? किसी तरह हिम्मत जुटाकर वह काम करने के लिए उठी ही थी कि कमला बाई आ गई.
आते ही कमला बाई ने कहा, “आंटीजी, मैं कल से आठ दिन की छुट्टी पर रहूंगी, मेरे बेटे की शादी है. आप तब तक के लिए कोई और बाई ढूंढ़ लो.”
“मैं कहां से ढूंढ़ू तू ही कोई लगा के चली जा न.” शांति देवी ने असमर्थता जताई.
“मैं कहां से लगाऊं? शादी के सीजन में टाइम किसके पास है? आपके पोते की शादी भी इसी महीने है न! आप शादी में नहीं जाएंगी क्या?”
यह बोलकर कमला बाई तो काम पर लग गई, पर शांति देवी के ज़ख़्म हरे हो गए. न चाहते हुए भी अतीत की कड़वी यादें उनकी आंखों के सामने चलचित्र की तरह घुमने लगे.
छह महीने पहले की बात है वे अपनी बेटी के साथ रह रही थीं. बेटी के घर रहना उनकी मजबूरी थी. बेटे-बहू के उदासीन व्यवहार से झुब्ध होकर ही शांति देवी ने बेटी के घर रहने का फ़ैसला किया था, पर यहां भी उन्हें बात-बात पर उपेक्षा ही मिली.
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आए दिन उन्हें लेकर बेटी-दामाद में तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती.
शांति देवी अपनी वजह से अपनी बेटी का घर बर्बाद नहीं करना चाहती थी, इसलिए मन मसोस कर उन्होंने अपने बेटे के घर की ओर रूख किया.
जैसे ही उन्होंने बेटे-बहू के घर में कदम रखा, बहू के तल्खी भरे स्वर उनके कानों में पड़े, “क्यों बेटी के घर गुज़ारा नहीं हुआ?”
वे खून के घूंट पीकर रह गईं. मजबूरी ना होती, तो वे कभी यहां का रूख नहीं करतीं.
बहू ने कभी उनसे सीधे मुंह बात नहीं की. वह जब भी बोलती, ज़हर ही उगलती.
आए दिन छोटी-छोटी बातों को लेकर बखेड़ा खड़ा करना बहू की जैसे आदत हो गई थी. बेटे रितेश से जब वे बहू की शिकायत करतीं, तो वह अपनी पत्नी को समझाने की बजाय उन पर ही बरस पड़ता. शांति देवी अंदर ही अंदर तिलमिला कर रह जातीं.
आख़िरकार एक दिन बेटे ने दो टूक शब्दों में कह ही दिया, “मां तुम जबसे इस घर में आई हो, कलह ही मचा रहता है. हम अपना काम करें या सास-बहू के झगड़े निबटाएं? पैसे की कोई कमी तो है नहीं. ऐसा करो, तुम विदिशा चली जाओ. मैं बीच-बीच में आकर तुम्हें देख जाया करूंगा.”
बेटे की फ़रमान सुनकर वे अवाक रह गईं. उनके मुख से एक शब्द भी न फूटा. पूरी रात वे सो नहीं पाई थीं. पति को याद कर बहुत रोई थीं. बेटी या बेटे के घर रहने में उन्हें कोई आर्थिक मजबूरी नहीं थी. फैमिली पेंशन मिलता था, जो उनके लिए पर्याप्त था. उनकी मजबूरी थी अकेलापन से ख़ुद को अलग रखने की, पर अब वे अकेले रहने के लिए अभिशप्त थीं.
शांति देवी अपने ख़्यालों में इस कदर खोई हुई थीं कि उन्हें पता ही नहीं चला कि कमलाबाई अपना काम निपटा कर जा चुकी थी. दूध वाले की आवाज़ सुनकर उनकी तंद्रा भंग हो गई थी.
बेटे, बेटी, बहू और कमलाबाई मिले झटको ने उनके दिमाग़ी तारों को झनझना दिया था. उन्हें अपने आराम-तलबी पर भी बहुत ग़ुस्सा आ रहा था.
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परिस्थितियों से जूझने के लिए उन्होंने अपने आपको मन ही मन तैयार कर लिया था. उन्होंने पतीले में दूध रखकर गैस पर चढ़ा दिया था. जैसे-जैसे दूध में उबाल आ रहा था, वैसे-वैसे शांति देवी के अंदर एक नई ऊर्जा का संचार हो रहा था. उन्होंने तय कर लिया था कि अब वह किसी पर आश्रित नहीं रहेंगी.अपना हाथ जगन्नाथ.
वे सोचने लगी, जो माता-पिता आर्थिक रूप से कमज़ोर होते हैं, और जब उनकी संतानें भी उन्हें छोड़ देती हैं, तो उन पर क्या बीतता होगा. कम से कम वे तो बहुत अच्छी स्थिति में हैं. वे नाहक ख़ुद को कमज़ोर समझ कर लोगों के सामने अपनी मजबूरियों का मज़ाक उड़वाती थीं.
उन्हें यह एहसास हो गया था कि इंसान जीना चाहे, तो राहें हज़ार हैं. दूध उबलकर गिरने लगा, तब वे अपनी सोच के दायरे से बाहर निकलीं. उन्होंने गैस बंद किया और खाना बनाने की तैयारी करने लगीं. अब तक उन्होंने यह फ़ैसला कर लिया था कि वह अपने घर से कहीं बाहर नहीं जाएंगी. जब तक उनका शरीर चलेगा किसी पर निर्भर नहीं रहेंगी. बाकी सब ईश्वर पर छोड़ देंगी. उनके चेहरे पर अब ग़ज़ब का आत्मविश्वास चमकने लगा था.
– शीला श्रीवास्तव
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