Short Stories

कहानी- क्षमा करना पार्वती (Short Story- Kshama Karna Parvati)

लगभग आधे घंटे के भीतर वह घर पर था. उसे अचानक दोपहर में आया देख पार्वती चौंक पड़ी.
“क्या हुआ असीम तबियत तो ठीक है.”
असीम की आंखें झुकी हुई थीं.
“पार्वती आज ही तो तबियत ठीक हुई है एक अरसे बाद.”
“हाय तुम आज कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो.” पार्वती ने असीम का माथा छूते हुए कहा.
असीम को एक मुद्दत बाद यह स्पर्श बहुत अपना लगा.

उसने घड़ी देखी सुबह के नौ बजने वाले थे, एक नज़र बस स्टॉप पर डाली यहां से छह स्टॉप दूर था उसका ऑफिस. झुझलाहट हुई उसे, ‘आज फिर लेट हो जाऊंगा, फिर बॉस को सफ़ाई दो और झाड़ खाओ. वह कल भी लेट पहुंचा था. कोई भी कब तक टालरेट करेगा.’
उसने चिंतन को विराम दिया और फ्लैश बैक में चला गया. आज तो वह ठीक समय पर निकला था और बस भी सुपर फास्ट पकड़ी थी. फिर लेट कैसे हो गया… उत्तर मिला- जाम. इस जाम से निपटने के लिए ही तो वह रोज़ पांच मिनट पहले निकल रहा है और इस तरह पिछले छह महीने में वह घर से लगभग आधा घंटा पहले निकलने लगा है. लेकिन वह इस समस्या से निजात नहीं पा सका था. इससे पहले कि वह फ्लैश बैक में और डूबता उसे एक हिचकोले से झटका लगा सामने बोर्ड टंगा था वर्क इन प्रोग्रेस फार बेटर टुमारो. उसे हंसी आई. आज तो गया हाथ से और कल किसने देखा है. फिर सोचने लगा एक कल वह भी तो है, जो बीत गया. क्या हुआ था कल. कल जब वह लेट हुआ था, तो पत्नी पर बरस पड़ा था. तुम्हारे ब्रेकफास्ट की वजह से लेट हो गया. तुम्हे समय का ध्यान ही नहीं रहता. और कल का ख़्याल आते ही उसे अचानक आत्मग्लानि की अनुभूति होंने लगी.

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आज जब वह समय से निकला और जाम के चलते लेट हो गया, तो कल वह ब्रेकफास्ट के चलते तो कतई लेट नहीं हुआ था. लेट होने की वजह कुछ और थी, लेकिन उसका ग़ुस्सा किसी और पर उतरा था.
उसे लगा यह एक घटना भर नहीं है, बल्कि ज़िंदगी का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है यह आदत. कभी चाय वाले पर ग़ुस्सा तो कभी सिस्टम पर, कभी दूध वाले से कहासुनी, तो कभी सब्ज़ी वाले से.
कहीं ऐसा तो नहीं कि ज़िंदगी की ढेर सारी समस्याओं का ज़िम्मेदार कोई और है और गुनाहगार हम किसी और को बना रहे हैं.
“सर, आप उतरेंगे क्या?” भीड़ भरी बस में पीछे से आ रही आवाज़ ने उसे चौंका दिया. अपनी उधेडबुन में उसे ध्यान ही नहीं था कि कितने स्टॉप निकल चुके हैं. उसने सिर झुका कर खिड़की से झांका सामने पीले कलर की बड़ी बिल्डिंग नज़र आई. हां, उतरना तो उसे भी था. उसने धीरे से अपने कदम आगे खिसका लिए. पीछे वाले को जवाब मिल चुका था.
बस रुकी और वह बड़े ही शांत भाव से नीचे उतर गया. आज वह आधा घंटा लेट हो चुका था, पर ऐसे चल रहा था मानो कोई बात ही न हो.
उसने ऑफिस में कदम रखा. बॉस को विश किया और अपने टेबल की तरफ़ बढ गया. उसके गंभीर रुख को देखकर किसी की कुछ बोलने की हिम्मत नहीं हुई.
“साहब चाय.” छोटू ने चाय का प्याला टेबल पर रखते हुए खड़खड़ाहट की तो फ़िज़ा की ख़ामोशी टूटी.
असीम ने कहा, “सर मैं आज फिर लेट हो गया, पर सचमुच आज मेरे पास लेट होने की कोई वजह नहीं है.”
“ऐसा होता है असीम. कई बार बहुत सी चीज़ेें हमें बिना कारण के और हमें बिना आभास दिए हो जाती हैं.” रवि शंकर जी बोले.
असीम को बॉस से इतने स्नेह की उम्मीद नहीं थीं. आज पता नहीं क्यों उसे काम का तनाव भी नहीं महसूस हो रहा था.
इससे पहले कि वह कुछ कहता. वे आगे बोले, “आज तुम क्या मैं ही लेट हो गया जाम के चलते. जब ऑफिस की गाड़ी मिली होने के बाद मैं लेट हो सकता हूं, तो तुम तो पब्लिक कंवेंस से आते हो. मैं समझ सकता हूं किस हालत का सामना करना पड़ता होगा तुम्हें.”
अचानक असीम के मुंह से निकला, “थैंक्यू सर थैंक्स अ लॉट.” फिर धीरे से बोला, “सर, आज मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही ज़रा जल्दी निकलूंगा.”
“ओह श्योर और जब निकलना हो मेरी गाड़ी ले लेना, मैं ड्राइवर को बोल दूंगा. वैसे भी यहां आने के बाद शाम तक यह खाली पड़ी रहती है और हां, डॉक्टर को ज़रूर दिखा लेना.”
अचानक असीम को एहसास हुआ ऑफिस बस मशींनों का घर नहीं है इसमें भी जीते जागते इंसान रहते हैं. वह तो हम ही लोग हैं किसी से अपने सुख-दुख बांटने को तैयार नहीं.
इसके बाद असीम का मन किसी काम में नहीं लगा. कुछ था जो उसके अंतर्मन को मथ रहा था. ऐसा लग रहा था जैसे आज वह अपनी ही ज़िंदगी पर रिसर्च कर रहा है. उसके मानस पटल पर  एक-एक कर रोज़मर्रा की ज़िंदगी के पन्ने उभरते और लुप्त होते जा रहे थे.
हर दृश्य दिमाग़ पर हथौड़े की तरह बजता. अभी दो-चार दिन पहले की ही बात है. वे सब्ज़ी मंडी से आलू लेकर आए. उन्हें लगा आलू कम हैं और जब तुलवाया तो वाकई वह कम निकला. वे वापस लौटे और लड़ पड़े सब्ज़ी वाले से.
अब वह सोच रहा था क्या सचमुच वह गुनाहगार था. क्या पता दूसरे दुकानदर ने उसे भड़काने के लिए ऐसा किया हो या फिर हो सकता है इस मंहगाई में वह सब्ज़ी वाला अपना घर चलाने के लिए दो पैसे की बेईमानी ही कर रहा हो. कितने कम थे बस एक या दो आलू, जिसकी क़ीमत एक रुपए भी तो नहीं है. यह कोई इतनी बड़ी बात भी तो नहीं थी. लेकिन नहीं हम आज इतने आत्मकेंद्रित हो गए हैं कि अपने आगे किसी दूसरे का ऐंगल देखने को तैयार नहीं हैं.
“असीम आज लंच नहीं करोगे क्या?” जब उसके कलीग ने टोका, तो उसे ध्यान आया.
अरे बाप रे, आज एक बज गए और उसे ध्यान ही नहीं.
“कहां खोए हैं असीम बाबू. कोई चक्कर-वक्कर तो नहीं है.” हरीश ने चुटकी ली.
कुछ नहीं हरीश मैं सोच रहा था कि जिस पर हम ग़ुस्सा करते हैं वह वाकई ग़लत होता है या किसी की भी ग़लती के लिए किसी और को दोषी ठहराना हमारी आदत हो गई है.”
“असीम तुम सोचा कम करो. सोचने से टेंशन होती है और टेंशन से बीमारी. हमारी तरह खाओ पीओ और मस्त रहो.” हरीश ने हंसते हुए कहा. असीम भी उसका साथ देते हुए हंसा. फिर उठ कर टहलता हुआ चल दिया यह कहते हुए कि आज मैं लंच नहीं लाया हूं तुम शुरू करो.
फिर वह ऑफिस के लॉन में टहलते हुए सोचने लगा. वाकई लाइफ इतनी ईज़ी गोइंग होती हरीश के फिलॉसाफी की तरह. पर नहीं किसी न किसी को तो गंभीरता से सोचना ही होगा. और वाकई जितना वह गहराई में उतरता जाता उतना ही उसे महसूस होता कि जीवन में नई दिशा मिल रही है.
उसे अचानक बचपन में देखी हुई अपनी मां याद आ गई. उसे वे दिन याद आ गए. जब उसे लगता कि कितनी बार मां सही होती और बाबूजी अपने दिनभर का ग़ुस्सा उसे ग़लत ठहरा कर उस पर उतार देते. जैसे हर असफलता के लिए बस मां दोषी हो. और मां थी कि फिर भी बाबूजी के आगे गिड़गिड़ाए जाती.
अचानक उसने  अपना बैग उठाया और बॉस से कहा, “सर आज मैं जा रहा हूं.” इसके बाद असीम ने किसी उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की.

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लगभग आधे घंटे के भीतर वह घर पर था. उसे अचानक दोपहर में आया देख पार्वती चौंक पड़ी.
“क्या हुआ असीम तबियत तो ठीक है.”
असीम की आंखें झुकी हुई थीं.
“पार्वती आज ही तो तबियत ठीक हुई है एक अरसे बाद.”
“हाय तुम आज कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो.” पार्वती ने असीम का माथा छूते हुए कहा.
असीम को एक मुद्दत बाद यह स्पर्श बहुत अपना लगा.
वह बोला, “पार्वती, एक बात कहनी है इसीलिए जल्दी घर आया हूं.”
पार्वती बोली, “तो कहिए न इसमें इतना सोचने की क्या बात है.”
“नहीं मैं सीरियसली कह रहा हूं.” पार्वती ने गहराई से असीम को देखा. सब ठीक तो है आख़िर आज असीम कहना क्या चाह रहे हैं.
वह धीरे से बोली, “हां, असीम बोलो मैं सुन रही हूं.”
असीम ने बडी गंभीरता से कहा, “आई एम सॉरी पार्वती. मुझे माफ़ कर दो.”
“तुम भी कैसी बात करते हो. तुमने कौन-सी ग़लती की है कि माफ़ी मांग रहे हो.”
“तुम नहीं समझोगी पार्वती. पता नहीं क्यों मैं किसी भी असफलता में तुम्हें ही दोषी समझने की मानसिक ग़लती करता था और आज अपनी सोच पर मुझे बहुत आत्मग्लानि हो रही है.”
“क्या असीम… तुम भी कैसी बात करते हो.  यह भी कोई बात है. मैंने क्या तुमसे कभी कोई शिकायत की.”
“यही तो बात है पार्वती कि तुम शिकायत भी नहीं करती. तुम्हारा यह व्यवहार आज तुम्हें मुझसे बहुत ऊपर खड़ा कर रहा है इसका एहसास मुझे तब हुआ, जब मैंने चीज़ों को गहराई से देखना शुरू किया.”
पार्वती की आंखें नम हो गईं.
“असीम आज तुम्हारी बात ने मेरे दिल का बोझ हल्का कर दिया है, वरना मुझे भी रोज़-रोज़ एक ही बात सुनकर लगने लगा था कि मैं ही हर ग़लती के लिए ज़िम्मेदार हूं. मैं कितनी सौभाग्यशाली हूं कि मुझे तुम जैसा संवेदनशील पति मिला है.” और इसके बाद जैसे कहने को शब्द नहीं थे. असीम और पार्वती दोंनों की आंखें नम थीं. शायद गुनाहगार कोई नहीं था, बस परिस्थितियां ही हैं, जो हमें विभिन्न स्थितियों में ले आती है और हम एक-दूसरे पर बिना जाने-समझे दोषारोपण करते रहते हैं.


मुरली मनोहर श्रीवास्तव

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Photo Courtesy: Freepik



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