Short Stories

कहानी- मरने से पेशतर (Short Story- Marne Se Peshtar)

“देखो डियर, मरना सभी को है. डेथ इज मस्ट, कोई किसी को मरने से रोक नहीं सकता. कोई किसी के साथ मरता भी नहीं. मैं भी तुम्हारे साथ नहीं मर सकती.”
“हां, यह तो मौत का नियम है. हर शख़्स अकेले मरेगा. लेकिन तुम मेरी चिन्ता मत करो. तुम क्या सोच रही हो?”
“सोच रही हूं कि तुम मर भी जाओ तब भी हमारा प्यार ज़िंदा रहेगा. युगों-युगों तक.”
मैं चुप रहा.

इतवार का दिन था. दिसंबर का महीना, रेशमी धूप रूई के फाहे की तरह सहला रही थी. मैं अपने मकान की छत पर बैठा था. ख़ूबसूरत मौसम था, लेकिन मेरे भीतर उजाड़, पता नहीं मैं क्यों उदास था. लेकिन न सिर्फ़ उदास, बल्कि ऊबा हुआ भी.
ज्यों ही मैंने आसमान की तरफ़ सिर उठाकर देखा, एक इबारत लिखी हुई नजर आई. मैं चौंक गया, सिहर उठा. मैं आंखें फाड़-फाड़ कर इबारत को पढ़ता रहा पांच बजकर छत्तीस मिनट पर मेरी मौत हो जाएगी.
पहले मुझे लगा यह ख़ुदाई फ़रमान किसी दूसरे शख्स के लिए होगा. नहीं मैंने क्या बिगाड़ा है भगवानजी का? अभी कुछ दिन पहले तो हरिद्वार में गंगाजी में डुबकी लगाकर आया हूं. अपने मोहल्ले के चार भगवती जागरणों में लगातार जागता रहा हूं, रामलीला में दो बार जटायु का रोल भी प्ले कर चुका हूं. और तो और टीवी में रामायण और श्रीकृष्ण सीरियल भी लगातार देखता रहा हूं… मुझ जैसे धार्मिक और सत्संगी इंसान से भगवानजी एकदम, इतनी जल्दी नाराज़ नहीं हो सकते. यह इबारत यक़ीनन किसी दूसरे के लिए होगी, जो मुझे दिखाई दे रही है. लेकिन उस इबारत के साथ मेरा नाम, वल्दीयत वगैरह सब नज़र आने लगे. यहां तक कि मेरा पासपोर्ट साइज़ फोटो भी. तब मुझे यक़ीन हुआ कि यह इबारत मेरे ही लिए है. मुझ अभागे के लिए, जिसे पांच बज कर छत्तीस मिनट पर इस जहां से कूच कर जाना है. मेरी हालत ऐसी थी जैसे वायरल बुखार से पीड़ित इंसान को अचानक कह दिया जाए कि उसे वायरल नहीं कैंसर है.
मैंने घड़ी देखी- बारह छत्तीस थे यानी पांच घंटे की ज़िंदगी शेष थी. सिर्फ़ पांच घंटे, मन बोझिल था संतप्त. रेत के टीले पर जैसे कोई ज़ख़्मी इंसान प्यास से तड़प रहा हो और उसे नोचने के लिए चीलें उतर रही हों.
ये बेशक़ीमती पांच घंटे किस तरह गुज़ारूं? मौत ऐन सामने खड़ी हो शाना-ब-शाना, तो ज़िंदगी जीने की लालसा ख़त्म हो जाती है. मन हुआ किसी को कुछ भी न बताऊं. नीचे जाऊं, कंबल ओढूं और तानकर सो जाऊं. मौत आए और मेरे भीतर की एक अदद बची-खुची आत्मा को उठा ले जाए… क्या नींद आएगी? जिस क़ैदी को सुबह फांसी पर चढ़ना हो, उसे रात भर नींद आती है? हर्गिज नहीं.
फिर क्या करूं? मैंने ख़ुद को समझाया. काम करते-करते मरने का अलग ही मज़ा है. अभी तुम पूरी तरह प्रासंगिक हो. तुम्हारी क़द्र है. तुमने पैंतीस साल में इतना पढ़-लिख लिया. तुम मर भी गए तो क्या? साहित्य में तुम ज़िंदा रहोगे, तुम्हारा नाम ज़िंदा रहेगा. जवानी में मरने के कई फ़ायदे हैं. तुम्हारे साहित्य का मूल्यांकन सहानुभूति अर्जित करेगा… और फिर ज़रा इतिहास पर नज़र डालो- राजपूत तो मैदाने जंग में ऐसे जाते थे जैसे टूर्नामेंट खेलने जा रहे हों… फिर भगवानजी ने तुम्हें स्पेशली, अर्जेंट मैसेज देकर बुलाया है. ज़रूर वो तुमसे ज़रूरी काम लेना चाहता है.
मेरे मन का मौसम बदल गया. मुझे लगा मौत ही ऐसा महत्वपूर्ण काम है, जिसे मैं आज तक नहीं कर पाया और आज पांच बजकर छत्तीस मिनट पर मुझे करना है. मुझे लगा, यह मौत मामूली मौत नहीं, शहादत है जिसका पांच घंटे पहले मुझे पता चल चुका है.
मैंने मन ही मन सोचा कि इन पांच घंटों में क्या-क्या करना है? किन-किन को इत्तला देनी है? क्या खाना-पीना है अपने आपको बहुत ज़्यादा समझाने के बावजूद थोड़ा-सा तनाव जेहन में था. होता भी क्यों न? आख़िर मैं मर रहा था. मरने का मतलब था दोबारा कभी लौट कर न आना…
सीढ़ियां उतरकर मैं नीचे आया. चुपचाप कमरे में बैठ गया. मेरी बीवी मेरे लिए स्वेटर बुन रही थी.
“क्या हुआ?” बीवी ने सलाइयां, उंगलियां और ज़ुबान एक साथ चलाते हुए कहा.


यह भी पढ़ें: व्यंग्य- डाॅगी कल्चर (Satire Story- Doggy Culture)

मैंने बिना किसी भूमिका के जवाब दिया कि मैं मर रहा हूं. उसने तत्काल प्रतिक्रिया व्यक्त कर दी कि मैं झूठ बोल रहा हूं. मैंने कहा, “नहीं, यह पूरी तरह सच है.” वह बोली, “भगवान करे सच हो.”
मेरे तो पांव तले की ज़मीन खिसक गई, मैंने सोचा था कि वह मेरी मौत की बात सुनकर रो पड़ेगी. लेकिन मैंने देखा वह आधा बुना हुआ स्वेटर उधेड़ रही है. मैंने हैरान होकर पूछा, “यह क्या कर रही हो?”
“तुम तो मर ही रहे हो, इसे अब अपने साइज़ का बनाऊंगी.” उसने स्वेटर उधेड़ते हुए कहा.
“मुझे अफ़सोस है. बहुत सारे काम अब तुम्हें करने पड़ेंगे.” “पहले तुम क्या करते थे?” उसने कहा. रुककर बोली, “दिनभर काग़ज़ काले करते रहते थे.”
“मैं साहित्य सृजन करता था.”
“इस ख़ुशफ़हमी को लेकर मत मरना कि तुम साहित्य में बहुत तीर मारकर जा रहे हो.”
मैंने अपनी जीवन बीमा की पॉलिसी देते हुए कहा, “मेरे मरने के बाद ये दस हजार तुम्हें मिल जाएंगे.”
“तुम्हारी जान की क़ीमत ही दस हज़ार थी.”
“क्या मतलब?”
“मतलब कि तुम्हारी औक़ात यही थी. आदमी मरे और पीछे छोड़ जाए सिर्फ़ दस हज़ार, ये तो अच्छा है कि मैं एम्पलॉयड हूं, वरना तुम मरते और हमें भूखा मारते.”
एक बार मन हुआ कि कहूं, एक कप चाय बना दे. लेकिन कह न सका. उठ खड़ा हुआ और ड्रॉइंगरूम में आकर बैठ गया. अचानक ध्यान आया दफ़्तर में तो आज छुट्टी होगी, बॉस को घर पर फोन कर दूं. फोन पर जब बॉस को मैंने अपनी मौत की भविष्यवाणी बताई, तो वे उत्साहित होकर बोले, “काश, यह भविष्यवाणी सच हो.”
मैंने कहा, “सर, बिल्कुल सच है.” वे बहुत ख़ुश हुए, मैंने संजीदा स्वर में कहा कि मेरी सीट का काम पेंडिंग पड़ा रहेगा.
“पेडिंग! तुमने काम किया ही कब था जो पेंडिंग होगा? ये तो अच्छा हुआ तुम मर रहे हो, नहीं तो तुम्हारी खुराफ़ातों के कारण मुझे खुदकुशी करनी पड़ती.” फिर उन्होंने बात बदलते हुए कहा कि मैं अच्छे वक़्त पर मर रहा हूं. फैशन स्कीम आ गई है. फैमिली पेंशन भी मंज़ूर हो चुकी है. मैंने कहा कि मैं पांच छत्तीस पर मर रहा हूं, वे बोले, “आज संडे है. कल सुबह कंडोलेंस टेलीग्राम भिजवा देंगे.”
अचानक उनके मुंह से निकला “बेस्ट ऑफ लक” मैंने तुरंत पूछा, “क्या सर?” वे बात बदल कर बोले, “तुम्हारी मौत का, बल्कि जवान मौत का हमें बेहद अफ़सोस होगा, लेकिन तुम मरना ज़रूर.”
मैंने फोन रख दिया. मन थोड़ा कसैला हो गया. अचानक ध्यान आया. अपने एक दोस्त का नम्बर लगाया. मैंने उसे बताया कि मैं मर रहा हूं. उसने हंसते हुए कहा, “तू ज़िंदा कब था?”
“मेरा मतलब है,” मैंने दीर्घ श्वास लेते हुए कहा, “अब मुकम्मल तौर से मर रहा हूं.”
वह फिर हंसते हुए बोला, “आधा तो कोई भी नहीं मरता.” फिर कुछ पल रुककर उसने पूछा, “किस मेथड से मरेगा, मेरा मतलब है कौन-सा तरीक़ा?”
मैंने कहा, “भविष्यवाणी हुई है कि मुझे पांच छत्तीस पर मरना है.”
उसने तपाक से कहा, “बड़ी ग्रेसफुल मौत है, वरना इस दौर में लोगों को ज़िंदा रहने का पता नहीं चलता. तू ग्रेट है, तुझे मौत का पता चल गया.”
मैंने फोन रख दिया. मुझे थोडा अच्छा लगा कि मैं ग्रेसफुली मर रहा हूं. मैंने अपने दूसरे दोस्त को फोन किया. उसने बड़ी गम्भीरता से कहा कि वह अपने तमाम दोस्तों के शोक प्रस्ताव तैयार कर चुका है. उसने झटपट फाइल से मेरे नाम का प्रस्ताव निकाला. बोला, “पढ़कर सुनाता हूं. जो शब्द तुझे अच्छे न लगें, निकाल दूंगा. तू चाहे तो अपनी तरफ़ से भी कोई पंक्ति जोड़ सकता है.”
मैंने फोन की लाइन काट दी. अचानक एक और दोस्त का ध्यान आया, जिसने कई बार मेरो आर्थिक सहायता की थी, बेशक उसके बदले मुझसे मुफ़्त में दारू पीता रहा. जब उसने मेरी मील की ख़बर मेरे मुंह से सुनी, तो वह दुखी लहज़े में बोला,‌ “मरने को तू बेशक मर, लेकिन मेरे आठ सौ रुपए?” मैंने फोन पटक दिया. अब मेरा मन अपने दोस्तों से उचट चुका था. साले, मैं मर गया, तो शोक प्रस्ताव क्या पढ़ेंगे? सेहरा गाएंगे.

यह भी पढ़ें: रंग-तरंग- क्रिकेट-क्रिकेट में तू-तू, मैं-मैं… (Satire Story- Cricket-Cricket mein tu-tu, main-main…)

अचानक मुझे ध्यान आया अख़बार के संपादकों को फोन करके आभार व्यक्त करू. उन्होंने मुझे निरंतर अपने अख़बारों में स्थान दिया. उनसे अलविदा करता जाऊं. मैंने एक संपादक को फोन लगाया. उन्हें बताया कि मैं पांच छत्तीस पर मर रहा हूं. उन्होंने कहा, “गुड न्यूज़ फॉर आवर रीडर्स!”
मैं अवाक् ! उन्होंने बड़े जोश में कहा, “हमारे अख़बार में जो वीकली फॉर्च्यून कॉलम देते हैं, वे ज्योतिषी महोदय हमारे पास बैठे हैं. आप अपना डेट ऑफ बर्थ बता दें, हम उनसे पूछते हैं कि मरने के लिए पांच छत्तीस का वक़्त शुभ रहेगा या अशुभ?
मुझे गुस्सा आया. मैंने फोन पटक दिया. एक दूसरे संपादक को फोन किया. उन्हें इस बात का दुख हुआ कि मैं मर रहा हूं. उन्होंने कहा कि वैसे तो सारा अख़बार छप चुका है. लेकिन शेयर और मंडियों के ताज़ा भाव वाले पेज पर जरा गुंजाइश है. वहां हम तुम्हारी मौत की ख़बर छाप रहे हैं. एक बात कन्फर्म कीजिए कि ख़बर झूठी न हो, वरना हमारी किरकिरी हो जाएगी. कुछ सोचते हुए उन्होंने पूछा कि निगमबोध कब जाएंगे?
मैंने उनकी बात को दुरुस्त करते हुए कहा, “आदरणीय मैं नहीं जाऊंगा, मेरी लाश जाएगी.”
वे बोले, “एक ही बात है.”
फोन रखकर मैं बहुत पछताया. मैं पश्चाताप की मुद्रा में बैठा रहा. जिस सोफे पर मैं बैठा था उसे मैंने पिछले ही साल ख़रीदा था. दूकानदार ने सोफे की तारीफ़ करते हुए कहा था, “आपकी क़द-काठी की तरह मज़बूत है. लंबी उम्र तक जीएगा.” लेकिन मैं? मेरे मरने में दो घंटे बाकी थे.
मैंने अपने आपको टटोला, पश्चाताप! पश्चाताप किसलिए? मरनेवाला तो बैर-द्वेष, अच्छे-बुरे, क्रोध-दया सबसे दूर हो जाता है.
बेशक मैंने अपनी आंखों से उस इबारत को पढ़ा था. जांचा-परखा था, जो आसमान से अवतरित हुई थी. बोल्ड अक्षरों में, बहत्तर प्वाइंट में. मेरी आंखों में चुभती हुई काले हाशिये में.
मुझे लगा इबारत अब भी मेरे सामने टंगी है. हवा की दीवार पर. मुझे याद दिलाती कि दो घंटे बाद ये नश्वर शरीर मिट्टी में मिल जाएगा या कहूं कि मिट्टी में मिट्टी मिल जाएगी.
अगर मुझे ज़िंदा रहना होता, तो यक़ीनन इस वक़्त में कितना कुछ कर रहा होता. मैं पढ़ रहा होता. लिख रहा होता. मन-ही-मन किसी से इश्क़ लड़ा रहा होता. साहित्यिक पत्रिकाओं के बीच जो प्ले बाय का ताज़ा अंक मैंने छुपाकर रखा है, उसे देख रहा होता. मैं कुछ न करने के बावजूद कितना कुछ कर रहा होता.
मौत की पेशीनगोई (भविष्यवाणी यानी कि इबारत) ने मुझे कितना खाली कर डाला है. इतनी फ़ुर्सत में मैं कभी नहीं रहा. कितना व्यर्थ, कितना फ़ालतू, कोई काम नहीं जो मुझे करना हो.
बाहर से कितना सामान्य, लेकिन मेरे भीतर कोई टाइम बम रखा है. टिक-टिक की आवाज़ करता, जो किसी को सुनाई नहीं देगा, लेकिन मैं तब पार्थिव हो चुका होऊंगा.
क्यूं न कुछ देर बाहर निकल जाऊं. नहीं, जंगलों की तरफ़ नहीं, वहां की तन्हाई, सन्नाटा और ज़्यादा ख़ौफ़ पैदा करेगा. यूं भी कितनी घबराहट महसूस कर रहा हूं मैं.
मैं बाज़ार की तरफ़ चल पड़ा था. बड़े-बड़े चमचमाते शोरूम, डिपार्टमेंट स्टोर, चहल-पहल, भीड़. हंसते-खिलखिलाते लोग, ऐसा लगता था कोई त्योहार था, इन लोगों के मन में, जिसे वे मना रहे थे. त्योहार जैसा माहौल हर ओर था सिवाए मेरे. वे लोग हंसते. ठहाका लगाते. मैं चिढ़ जाता. कुढ़ता कि ये क्यों हंस रहे हैं. मुझे डेढ़ घंटे बाद मर जाना है. ये हैं कि हंस रहे हैं.
मैं अचानक वैन ड्यूजन शोरूम के सामने ठिठका, बड़ी हसरत थी कि एक शर्ट लूंगा. लेकिन छह सौ रुपए की क़ीमत हमेशा ख़रीदारी से रोक लेती, अब तो क्या ख़रीदूंगा?
मैं बाजार से गुज़र रहा था. मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. यहां तक कि सामने गुज़रती हुई वह ख़ूबसूरत स्त्री भी जिसने लो-कट ब्लाउज पहन रखा था. जिसकी नंगी पीठ का गोरा चिट्टा हिस्सा नज़र आ रहा था. और वक़्त होता, तो मैं उसे ताड़नेवाली नज़रों से देखता. देखता ही रहता, लेकिन अब, वह गुज़र गई, मैंने उसे तटस्थ नज़रों से देखा भर.
मैं बाज़ार से गुज़र रहा था, लेकिन ख़रीदार नहीं था. कितनी सारी दुकानों के सामने से मैं गुज़र गया था. पेस्ट्री शॉप, पिज़्ज़ा किंग, फास्ट फूड, जलेबियों की दुकान, आइसक्रीम पार्लर, शराब का ठेका और सीकों में नंग-धडंग टंगे चिकन, रोस्टेड तन्दूरी.


यह भी पढ़ें: व्यंग्य- एक शायर की ‘मी टू’ पीड़ा… (Satire- Ek Shayar Ki ‘Me Too’ Peeda…)

मैं बड़े निर्पेक्ष भाव से सब चीज़ें देख गया था. मेरे मुंह में पानी नहीं आया था. लगता था मैं स्वाद से परे हो चुका हूं. लगता था आंखें सिर्फ़ कैमरा हैं, जो इन्हें चित्र की तरह खींच रही हैं. चीज़ें महज़ चीज़ें हैं- बे सरोकार,
साढ़े चार बज चुके थे. सिर्फ़ एक घंटा रह गया था. नहीं, एक घंटा छह मिनट, मैं गहरे तनाव से गुज़र रहा था. पूरी दुनिया को ज़िंदा रहना था, लेकिन मुझे मर जाना था. मैं शर्मसार था. मैं किसी से भी नहीं मिलना चाहता था. बावजूद इसके मेरे कदम अनुराधा के घर की तरफ़ मुड़ गए थे. अनुराधा का घर बाज़ार ख़त्म होने के बाद दूसरी गली में था. अनुराधा, जिसे मैं बेहद प्यार करता था. वह भी करती थी. मैं जब-जब अपनी बीवी से झगड़ता, दुखी होता, सीधा अनुराधा के पास पहुंचता. दफ़्तर या फिर उसके घर. अनुराधा से मैंने उदासियां बांटी, सुख बांटे, ख़ूबसूरत क्षण बांटे, ज़िन्दगी के एहसास बांटे, दुनिया की निन्दा बांटी. यहां तक कि शरीर की तपिश बांटी.
मैं उसे बिल्कुल नहीं बताना चाहता था कि मैं एक घंटे बाद मर जाऊंगा. लेकिन मेरी हालत अब बहुत गिर चुकी थी. मैं बेहद नर्वस था. दिल करता था अनुराधा के कंधे पर सिर रखकर, फूट-फूट कर रोऊं.
अनुराधा ने देखा और हैरान होकर बोली, “क्या हुआ? चेहरा इतना उतरा हुआ क्यों है? श्मशान घाट से होकर आए हो क्या?”
“नहीं, होकर नहीं आया. थोड़ी देर में जाना है.”
“कौन मरा?”
“अभी तक कोई नहीं मरा, लेकिन मरूंगा मैं.”
“रियली?”
“हां, पांच छत्तीस पर.”
“कैसे पता चला?”
“दैवी चमत्कार. मैंने आसमान में देखा, मेरी मौत का शाही फ़रमान, मेरा मतलब है खुदाई फ़रमान.”
“विज्ञान कितनी भी तरक़्क़ी कर ले. ऐसे चमत्कार होते ही रहेंगे.”
“तुम मेरी मौत को चमत्कार कह रही हो?”
“सॉरी डार्लिंग, मैंने तुम्हारी फीलिंग हर्ट की. वैसे तुम मज़ाक तो नहीं कर रहे? रियली मर रहे हो न.”
“मौत के मामले में मज़ाक कैसा? सचमुच मर रहा हूं मैं. पांच छत्तीस पर.”
“कितना ग़लत स्टेप उठा बैठी मैं.”
“कैसा ग़लत स्टेप?”
“देखो डियर, मरना सभी को है. डेथ इज मस्ट, कोई किसी को मरने से रोक नहीं सकता. कोई किसी के साथ मरता भी नहीं. मैं भी तुम्हारे साथ नहीं मर सकती.”
“हां, यह तो मौत का नियम है. हर शख़्स अकेले मरेगा. लेकिन तुम मेरी चिन्ता मत करो. तुम क्या सोच रही हो?”
“सोच रही हूं कि तुम मर भी जाओ तब भी हमारा प्यार ज़िंदा रहेगा. युगों-युगों तक.”
मैं चुप रहा.
“जानते हो,” वह कुछ सोचते हुए बोली, “राजन, भी मेरे लिए सॉफ्ट कॉर्नर रखता था. दैट रिच पर्सन!”
“जानता हूं.”
“तुम जानते हो. रियली यू आर ग्रेट. इतनी गुप्त बातें भी तुम्हें मालूम हैं.”
“तुम चाहो तो राजन से… मेरा मतलब है कि…”
“… बट आफ्टर युअर डेथ.”
“हां, मेरी मौत के बाद.”
वह बोली, “ओह याद आया. मैं गीता ले आती हूं. मरते आदमी के लिए गीता का सोलहवां अध्याय पढ़ना… तुम मेरे…”
वह गीता ढूंढ़ने कमरे में गई, तो मैं उठकर चला आया. ड्रॉइंगरूम में आकर मैंने घड़ी देखी, पांच तीस थे. सिर्फ़ ज़िंदगी और मौत के बीच कभी सदियों के फ़ासले आते थे. अब छह मिनट की दूरी थी.
मैं सोच रहा था वैसे सोचने का भी अब वक़्त नहीं था, फिर मैं खड़ा रहूं, बैठ जाऊं, चलता-फिरता जाऊं. रहूं, दौड़ने लगूं या लेट जाऊं.
पांच तैंतीस थे. नहीं, अब मैं वक़्त देख नहीं रहा था. अचानक बदहवासी में नज़र घड़ी पर जा पड़ी थी, वरना अब मेरी हाल पागलों जैसी थी. मैं उठता, बैठता, खड़ा होता. मैं पसीने तरबतर हो चुका था. हांफ रहा था.
अंततः मैं आंखें बंद करके बैठ सा गया. कंपकपाता हुआ बुदबुदाता हुआ. मुंदी हुई आंखों के भीतर घने अंधेरों में डूबत ख़ुद को टटोलता, झटकता, स्मृतियों में उतरता, जीने की अंतिम इच्छा लिए मरने के लिए मौत का इंतज़ार करता… बेतहाशा रोने पर क़ाबू पाता… मुंदी आंखें, जुड़े हाथ, बुदबुदाते होंठ, काठ होता मैं…
यूं ही कांपता… थरथराता, बाहर से चुप, भीतर से रोता देर तक बैठा रहा मैं. बहुत देर गुज़र गई. लेकिन इतनी जुर्रत नहीं थी कि आंख खोलूं. डर था, घबराहट थी, बेचैनी थी. खौफ़ था आंखें खोलने पर सामने मौत के दीदार न हो जाएं.
अंततः मैंने आंखें खोलीं. डरते-सहमते हुए, आसपास कोई भी नहीं था. मौत… नहीं मौत नहीं थी. मौत नहीं आई थी, झट मे नज़र घड़ी पर ठिठकी. पांच चालीस… बयालीस फिर पचाने यथावत् बैठा रहा. हिला तक नहीं. पता नहीं कैसा सम्मोहन था. फिर सारी ताक़त निचुड़ गई थी.
मैं मरा नहीं था.
मैंने ख़ुद को छूकर देखा, मैं सही सलामत था, लेकिन पसीने से तरबतर, सांस उखड़े हुए. मैंने राहत की सांस ली. मेरे होशो हवास, सोच, शऊर, संतुलन सब लौट आए थे. मैं सचमुच नहीं मरा था.
मेरा मन हुआ सबको फोन करूं. ख़ुशख़बरी से अवगत कराऊं कि मैं ज़िंदा हूं, लेकिन मैं सोच में डूब गया.
मैं देर तक सोचता रहा. मैं तो ज़िंदा हूं, क्या रिश्ते भी ज़िंदा है?

– ज्ञानप्रकाश विवेक

अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES

अभी सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का एक साल का डिजिटल एडिशन सिर्फ़ ₹599 और पाएं ₹1000 का कलरएसेंस कॉस्मेटिक्स का गिफ्ट वाउचर.

Usha Gupta

Share
Published by
Usha Gupta

Recent Posts

अजय-अतुलच्या लाइव्ह कॉन्सर्टमध्ये थिरकल्या नीता अंबानी, ‘झिंगाट’वर केला डान्स, पाहा व्हिडीओ (Nita Ambani Dance On Zingaat In Ajay Atul Live Concert In Nmacc)

मुंबईतील बीकेसी येथे उभारण्यात आलेल्या नीता अंबानी कल्चरल सेंटरला नुकताच एक वर्ष पूर्ण झाले आहे.…

April 15, 2024

जान्हवी कपूरने शेअर केले राधिका मर्चंटच्या ब्रायडल शॉवरचे फोटो, पज्जामा पार्टींत मजा करताना दिसली तरुणाई (Janhvi Kapoor Shares Photos From Radhika Merchant Bridal Shower Party)

सोशल मीडियावर खूप सक्रिय असलेल्या जान्हवी कपूरने पुन्हा एकदा तिच्या चाहत्यांना सोमवारची सकाळची ट्रीट दिली…

April 15, 2024

A Strange Connection

The loneliness does not stop.It begins with the first splash of cold water on my…

April 15, 2024

‘गुलाबी साडी’च्या भरघोस प्रतिसादानंतर संजू राठोडच्या ‘Bride नवरी तुझी’ गाण्याचीही क्रेझ ( Sanju Rathod New Song Bride Tuzi Navari Release )

सध्या सर्वत्र लगीनघाई सुरू असलेली पाहायला मिळत आहे. सर्वत्र लग्नाचे वारे वाहत असतानाच हळदी समारंभात…

April 15, 2024

कहानी- वेल डन नमिता…‌(Short Story- Well Done Namita…)

“कोई अपना हाथ-पैर दान करता है भला, फिर अपना बच्चा अपने जिगर का टुकड़ा. नमिता…

April 15, 2024
© Merisaheli