आख़िरी लाइन बोलते-बोलते मेरी आवाज़ रुंध गई थी. इन्होंने बात हल्के से लेकर मेरा कंधा थपथपा दिया और बड़ी ननद को फोन मिला दिया, “ये देखो जीजी, मीनू रो रही है, कह रही गुजिया नहीं भेज पा रही है इस बार…”
मैं बाज़ार में सजी दुकानों को बड़ी हसरत से देख रही थी.. पिचकारी की दुकानों पर मचलते बच्चों को देखकर अपने बेटे दीपक का बचपन याद आ गया, चेहरे पर मुस्कान फैली ही थी कि सामने लगे बैनर को देखकर गायब हो गई.
‘यहां शुद्ध खोया मिलता है’ को पढ़कर मेरा मन अजीब सा हो गया. हर साल अपनी दोनों ननदों को गुजिया भेजती आई, लेकिन इस बार बेटे का बोर्ड एग्ज़ाम मुझे सांस लेने की फ़ुर्सत भी नहीं दे रहा था.
“तुम्हारी गुजिया बन गई? इस बार तुमने हमसे मदद नहीं मांगी.”
घर में घुसी ही थी कि पति ने भी वही बात छेड़ दी. मेरी आंखें भर आई थीं, “दीपक का पेपर हैं. रातभर पढ़ता है, मैं भी बैठी रहती हूं… दिन में भी आंखें भारी रहती हैं, कुछ हो ही नहीं पाया इस साल! दीदी लोगों को भी नहीं भेज पाऊंगी.”
आख़िरी लाइन बोलते-बोलते मेरी आवाज़ रुंध गई थी. इन्होंने बात हल्के से लेकर मेरा कंधा थपथपा दिया और बड़ी ननद को फोन मिला दिया, “ये देखो जीजी, मीनू रो रही है, कह रही गुजिया नहीं भेज पा रही है इस बार…”
जो बात मेरे लिए इतनी गंभीर थी, उस पर इनका हंसना मुझे भा नहीं रहा था, मैंने फोन छीन लिया,
“रो नहीं रही हूं दीदी, बस यही कह रही थी कि इस बार दीपक के बोर्ड एग्ज़ाम हैं, तो कुछ बनाया ही नहीं. ना घर के लिए ना ही…” मेरी बात पूरी होते ही दीदी ने मुझे डपट दिया.
“हां तो? तुम नहीं बनाओगी, तो गुजिया नहीं खाई जाएगी होली पर? मैं और छोटी पहले ही प्लान कर चुके थे. हमें पता था इस बार तुमको टाइम नहीं मिलेगा. इस बार गुजिया उधर से नहीं आएगी, इधर से जाएगी,समझी?
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कल ही कुरियर कर रहे हैं… आलू के पापड़ और चिप्स भी भेज रहे हैं. कोई अचार चाहिए? बोलो मीनू… हैलो…”
दीदी पूछती जा रही थीं, मैं कुछ नहीं बोल पा रही थी… जब गले में आंसू भरे हों, तब आवाज़ कहां निकलती है?..
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