बेटे की शादी के बाद कल्पनाजी के यहां वधू आगमन हो गया था. आस-पड़ोस की सभी महिलाओं को नई रस्म अदायगी के लिए बुलावा भेज दिया गया था.
बुलावा पाते ही सभी महिलाएं कल्पनाजी के घर पर आकर खुसर-पुसर करने लगीं, “सुना है कल्पना की बहू की मुंह दिखाई न होकर मन दिखाई होनी है.” मोहल्ले की काकी कही जाने वाली बुज़ुर्ग महिला के यह कहने पर उनके बगल में बैठी अन्य महिला मध्यम स्वर में बोली, “मन दिखाई ये कौन सी रस्म है काकी! अरे! मुंह दिखाई ही होगी, ग़लती से मुंह दिखाई को मन दिखाई कह गईं होगीं कल्पनाजी.”
महिलाओं की कानाफूसी चल ही रही थी कि कल्पनाजी अपनी बहू के लेकर आ गईं. बेहद सौम्य सी छवि वाली बहू बिना मुंह पर घूंघट डाले आ गई, तो सभी महिलाएं दंग रह गईं. तभी काकी बोलीं, “अरे! कल्पना नई दुलहिन का घूंघट तो काढ़ दो, बिना घूंघट के किसे मुंह दिखाई की रस्म होगी भला!”
कल्पनाजी मुस्कुराती हुई बोलीं, “काकी! पहले ज़माने में घूंघट का चलन था, आज कल कौन घूंघट निकालता है, और पहले नई दुलहिन भी अनदेखी होती थीं और आजकल तो पूरी शादी में दुलहिन का चेहरा देखता है, तो यह मुंह दिखाई की रस्म क्यों?”
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काकी कल्पनाजी की बात पर मुंह मटकाती हुई बोलीं, “ये लो वर्षों से चली आ रही रस्मों को बदलोगी अब तुम!”
कल्पनाजी ने फिर मुस्कुराते हुए कहा, “काकी! समय के साथ सब बदल रहा है, तो रस्में क्यों नहीं? मेरी दोनों बेटी ब्याह चुकी हैं और दोनों के ससुरालवाले उन दोनों को बेटी सा स्नेह देते हैं, तो मैंनें भी सोचा की मैं भी अपनी बहू को बेटी ही बनाकर रखूंगी और बेटियों की मुंह दिखाई नहीं मन दिखाई ही होनी चाहिए.”
“यदि व्यक्ति एक-दूजे के मन को जान ले, तो रिश्ते आसान हो जाते हैं, चेहरे का क्या है, रिश्ते तो मन से ही निभते हैं न!”
अब सब इस नई रस्म को लेकर बातें करने लगे, तो कल्पनाजी ने सब की जिज्ञासा को शांत करते हुए नई रस्म की व्याख्या की.
“देखिए! हम नई दुलहिन को उसका नेग देते हुए उससे उसके मन की कुछ बातें जानेगें, जैसे कि ‘उसे खाने में क्या पसन्द हैं, उसके शौक क्या-क्या हैं आदि… और इस तरह हम नई बहू के मन को समझ भी लेगें और उससे मन से जोड़ भी जाएंगें ?”
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सारी महिलाओं को कल्पनाजी की यह नई रस्म बहुत पसन्द आई. और नई दुल्हन इस नई रस्म को जानकर ख़ुद के भाग्य को सराहने लगी कि उसे इतना सुलझा-सरल ससुराल मिला है, जो पहली बार बहू का मुंह नहीं, बल्कि उसका मन देखने की बात कर रहा है.
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