मि. देशमुख आज काफ़ी सालों बाद बनारस पहुंचे. गली- कूंचे सब बदल चुके हैं. एक वक़्त था जब यहीं की आबो-हवा रास आती थी, लेकिन नौकरी में हुए पदार्पण की वजह से कभी लौटकर वापिस आ ही नहीं पाए. सावित्रीजी चाहती थीं आजीवन यहीं रहूं. बड़ा सा घर बनवाया हर चीज़ अपने पसंद की… लेकिन…
विचारों में खोए देशमुख साहब, कुछ ही देर बाद अपने घर के बाहर खड़े थे. चारों तरफ़ बड़ी-बड़ी इमारतों से घिरा उनका छोटा सा मकान, जब से किराएदार गया है बंद पड़ा था. दरवाज़े पर पहुंचते ही धर्मपत्नी की याद आई. नेमप्लेट पर गर्त जम चुकी थी अपने हाथों से साफ़ किया. ‘देशमुख सदन’ देखते ही आंसू छलक पड़ा. नीचे लिखा था- अनिरुद्ध देशमुख/सावित्री देशमुख. अनायास ही एक हंसी उनके चेहरे पर आ गई और मन अतीत की यादों में खो गया.
“सुनिए नेमप्लेट पर मेरा नाम ज़रूर लिखवाइगा.”
“क्या सावित्री… ‘देशमुख-सदन’ है ना!और फिर तुम्हारा और मेरा किसी का भी नाम हो, फ़र्क़ ही क्या पड़ता है?मेरे नाम से भी तो तुम्हारी पहचान होती है. हम तुम अलग थोड़े ही हैं.”
लेकिन सावित्रीजी हठ कर बैठी थीं, “ना जी ना, देशमुख सदन में बसंती, संध्या कोई भी रह सकती है. मेरा नाम मेरी पहचान है और ये घर मेरा वजूद. कल को जब नहीं रहूंगी ना, तो ले आना किसी बसंती को, लेकिन नेमप्लेट मेरे नाम को देखेगी, तो सौत भी डरेगी.” कह हंसने लगीं.
“नेमप्लेट पर लिखा मेरा नाम मेरी पहचान रहेगा और फिर कभी कोई परिचित या डाकिया मेरे नाम से भी तो आवाज़ लगाएगा.”
“क्या फ़िज़ूल की बात करती हो?”
“हांं हो तो तुम शर्माजी के ही मित्र. भाभीजी कितनी गुणी औरत हैं. स्कूल में प्रिंसिपल हैं. उनका बराबर सहयोग करती हैं, लेकिन देखिए ना कितने बड़े अक्षरों में उन्होंने अपना नाम लिखवाया ‘शर्मा निवास’ एक्स इंजीनियर ओंकारनाथ शर्मा! क्या उनकी बीवी का कोई अस्तित्व नहीं? उनके नाम से उनकी पहचान नहीं? क्या इस घर में उनका इतना भी अधिकार नहीं? वो स्कूल में प्रिंसिपल हैं, लेकिन क्या वो औरत है, इसलिए उनका कोई वजूद नहीं?
फिर अपना क्या कहूं मैं तो एक गृहिणी हूं. अदना सी लेखिका! आप सोचते होंगे डायरी में अपनी कुशलता दिखानेवाली की क्या पहचान! लेकिन चाहे मेरे नाम को कोई न जाने, पर मेरे लिए इस घर की पट्टी पर लिखा मेरा नाम मुझे सुकून देता है. मेरी आत्मा को पहचान दिलवाता है. बाकी आप समझदार हैं.”
देशमुख साहब अतीत में खोए हुए थे कि बगलवाले घर से किसी ने आवाज़ दी, “अंकल कुछ चाहिए?”
“नहीं… नहीं… मैं देशमुख, आप शर्माजी के यहां से..!”
“जी अंकल आइए ना, पापा तो अब इस दुनिया में नहीं रहे. मम्मी को बुलाती हूं. आप… सावित्री आंटी के हस्बैंड हैं ना?”
“तुम जानती हो?”
“जी, मम्मी अक्सर उनके क़िस्से सुनाती हैं.”
देखा तो घर में मिसेज़ शर्मा रिटायर्ड प्रिंसिपल का कहीं कोई वजूद नहीं था. पति की जगह अब बहू-बेटे के नाम की पट्टी थी.
“सावित्री..!”
“वो इस दुनिया में नहीं।”
घर आकर मिस्टर देशमुख ने ठान ली सावित्री को पहचान दिलाकर रहूंगा. जिस इंसान ने कभी उनका लिखा पढ़ा भी नहीं था, आज केवल पढ़ा ही नहीं, डायरी के पन्नों को इकट्टा कर उनके नाम की किताब छपवाई. किताब की अनावरण पार्टी है. महज़ नेमप्लेट पर लिखे उनके नाम को ही नहीं घर को भी “सावित्री सदन” के रूप में पहचान दिलवाई.
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उनकी फोटो के पास जाकर बोले, “आज तो बहुत ख़ुश होगी, तुम्हारा वजूद मैंने ज़िंदा रखा सावित्री. अफ़सोस यही है कि समझने में देर कर दी.”
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