कहानी- नीता का पति (Story- Neeta Ka Pati)

विनय की पसंद की जो भी चीज़ें बनाई थीं, सब रखी ही थीं. दोनों घर में टिकते ही कहां थे. नीता घर में घी-तेल के परहेज़ की बातें करती, पर बाहर सब कुछ खा-पीकर घर आती, तो राधिका को अपनी सारी मेहनत मुंह चिढ़ाती-सी लगती. पूरा महीना जैसे पलक झपकते ही बीत रहा था.

 

उमेश और राधिका की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. कल इकलौता बेटा विनय अपनी पत्नी नीला के साथ ऑस्ट्रेलिया से जो आ रहा था. उमेश ने तो ऑफिस से एक हफ़्ते की छुट्टी भी ले ली थी. राधिका ने भी मेड श्यामला से मिलकर कितनी ही तैयारियां कर ली थीं. बच्चों को क्या-क्या खिलाना है, विनय को क्या-क्या पसंद है. फ्रिज पूरी तरह भर चुका था. उसमें अब कुछ रखने की जगह नहीं बची थी. उमेश कई बार राधिका को छेड़ चुके थे, “कमरदर्द कहां भाग गया तुम्हारा?” राधिका हर बार हंसी थी.
उमेश सच ही तो कह रहे हैं. पिछले दो साल से तो इतना काम करने की सोच भी नहीं सकती थी और अब जब से विनय ने अपने आने का प्रोग्राम बताया है. फिरकी की तरह इधर से उधर कुछ न कुछ करती घूमती ही रहती है.
दो साल पहले विनय आया था, अपने विवाह के लिए स़िर्फ एक हफ़्ते की छुट्टी लेकर. तीन साल से वह ऑस्ट्रेलिया में था. नीता ने उसके साथ ही एमबीए किया था, फिर दोस्ती प्यार में बदली, तो दोनों के घरवालों ने इस विवाह के लिए सहर्ष सहमति दे दी थी.
नीता का परिवार मुंबई के अंधेरी इलाके में रहता था, उमेश-राधिका मुलुंड में. नीता भी इकलौती संतान थी अपने माता-पिता की. राधिका को बच्चों के साथ रहने की ख़ुशी चैन ही नहीं लेने दे रही थी. विवाह होते ही बच्चे ऑस्ट्रेलिया चले गए थे. राधिका के सारे शौक़ धरे रह गए थे. तब से स्काइप पर बात होती रहती थी, पर वह तसल्ली तो नहीं होती थी, जो साथ रहने में होती है.
तय समय पर दोनों के माता-पिता एयरपोर्ट पहुंच गए. दोनों परिवारों के संबंध मधुर ही थे. बच्चों के दूर रहने पर भी चारों लोग संपर्क में रहते थे. इतने समय बाद बेटे को देखते ही राधिका की आंखें भरती जा रही थीं, जिन्हें बड़ी कुशलता से वह पोंछती रहीं. दोनों सबसे मिले. विनय ने धीरे से राधिका को कहा, “मां, नीता अपने माता-पिता के साथ जाना चाहती है. वह कल-परसों आ जाएगी.” इकलौती बेटी है. वह भी तो विवाह होते ही चली गई थी. मन होगा माता-पिता के साथ रहने का. काफ़ी कुछ सोचकर राधिका ने कहा, “हां, ठीक है, कोई बात नहीं.”
“थैंक्यू मां.” कहकर नीता अपने माता-पिता की कार में बैठ गई. विनय उमेश और राधिका के साथ अपने घर आ गया. घर पहुंचकर फ्रेश होने के बाद विनय ने मां की लाई हुई ट्रे पर नज़र डालकर कहा, “मां, इतना सब?”
उमेश हंसे, “अभी तो शुरुआत है, देखना, क्या-क्या चीज़ें तैयार हैं.”
“अरे पापा, मैं तो थोड़ा-बहुत खा भी लूंगा, पर नीता! वह तो घी-तेल से ऐसे दूर भागती है कि पूछो मत. वह तो फल, सलाद और सूप ही पसंद करती है और वह मीठे को तो छुएगी भी नहीं.” राधिका का चेहरा उतर गया. धीरे से बोली, “तू तो खाएगा ना?”
“हां, थोड़ा खा लूंगा.” विनय ने खाया, तारीफ़ भी की. राधिका की आंखें तो बेटे के चेहरे से हट ही नहीं रही थीं.
अगले दिन सुबह ही विनय ने कहा, “पापा, ऑफिस जाएंगे?”
“नहीं भई, एक हफ़्ता बेटे-बहू के नाम.”
“हां, तो ठीक है, मैं कार ले जाता हूं और नीता को ले आता हूं.” राधिका ने कहा, “हां, ठीक है. लंच साथ में करेंगे.”
विनय सुबह ही चला गया. राधिका ने नीता की भी पसंद को ध्यान में रखते हुए लंच तैयार किया. दो बज रहे थे. उमेश और राधिका को भूख भी लग रही थी. जब से विनय गया था, फोन पर बात भी नहीं हुई थी. तीन बज गए, तो उमेश ने फोन किया, “कहां हो भई? भूख लगी है.”
“अरे, सॉरी पापा, लंच यहीं कर लिया, नीता को थकान लग रही थी. सॉरी, बताना भूल गया.” उमेश का स्वर धीमा हो आया, “और यह सब खाना! तुम लोगों के लिए राधिका ने जो बनाया है!”
“हां पापा, हम शाम को आकर खा लेंगे, मां से कहना अब शाम को कुछ न बनाए, हम वही खा लेंगे.”
“ठीक है.” कहकर उमेश ने एसिडिटी से परेशान, भूखी पत्नी का उतरा चेहरा देखकर सामान्य स्वर में कहा, “चलो, हम लोग खाते हैं.”
कुछ नहीं पूछा राधिका ने. दोनों ने चुपचाप खाना खाया. फिर उमेश ने कहा, “खाना बहुत है, अब शाम को कुछ मत बनाना, अब आराम कर लो.” राधिका बर्तन समेटकर थोड़ा आराम करने लेट गई, मन कुछ भारी हो गया था. शाम भी बीतती जा रही थी. रात के आठ बजे विनय ने फोन किया, “पापा, हम दोनों कल सुबह आ जाएंगे, मैं यहीं रुक रहा हूं. आज नीता का मन यहां की चाट खाने का कर रहा है.”
“पर बेटा, तुम तो कह रहे थे, वह ये सब नहीं खाती है!”
“हां, पर आज उसका मन है.”
“ठीक है.”
“गुडनाइट पापा.” कहकर विनय ने फोन रख दिया था. उमेश ने राधिका को विनय का कहा बता दिया था.
अगले दिन ग्यारह बजे दोनों आए, तो राधिका का मन कुछ ख़ुश हुआ. कुछ देर बैठकर सब ने बातें की. विनय ने पूछा, “मां, खाना तैयार है न?”
“भूख लगी है?”
“नहीं, नीता एक बजे खा लेती है, उसका हर काम का टाइम एकदम तय है.”
राधिका किचन में गई, तो नीता अपना सामान अपने बेडरूम में रखकर उसके पास आई. विवाह के एक हफ़्ते का ही साथ था सास-बहू का, अब धीरे-धीरे राधिका अपने स्नेहमयी स्वभाव से नीता को सहज करने की कोशिश करती रही, प्यार से उससे बातें करती रही, नीता भी धीरे-धीरे खुलने लगी थी. शाम को फिर राधिका नीता की पसंद पूछकर डिनर की तैयारी के बारे में सोच ही रही थी कि विनय ने आवाज़ दी, “मां, हम डिनर नहीं करेंगे.”
“क्यों बेटा?”
“नीता को कुछ शॉपिंग करनी है. हम बाहर ही कुछ खाकर आएंगे.”
“ठीक है.” राधिका ने संक्षिप्त जवाब दिया. दोनों चले गए. रात के ग्यारह बजे शॉपिंग बैग्स से लदे-फदे घर आए. एक ब्रांडेड शर्ट और डिज़ाइनर पर्स दिखाते हुए विनय ने कहा, “मां, यह कैसा है?”

 

“बहुत सुंदर है.” राधिका की आंखें ख़ुशी से भर गईं. बेटा-बहू तो उसी के लिए लेने गए थे.
“नीता ने ये चीज़ें अपने मम्मी-पापा के लिए ली हैं. पिछले महीने उसके पापा का बर्थडे था न. उनकी मैरिज एनीवर्सरी भी थी, इसलिए दोनों के लिए लिया नीता ने.”
“हां, बहुत अच्छा किया.” राधिका के मन में तो आया कि कह दे- बहू ले सकती है अपने माता-पिता के लिए, बेटे के दिल में नहीं आया अपने माता-पिता का ख़्याल. इन दो सालों में क्या उनके जन्मदिन-सालगिरह नहीं बीते. ख़ैर, बहुत कुछ है हमारे पास, आलमारियां भरी प़ड़ी हैं. उनके पास किसी चीज़ की कमी थोड़े ही है. बच्चों के उपहार का लालच थोड़े ही करना है, पर यह लालच कहां है. नहीं, यह तो बच्चों से ज़रा-सी उम्मीद है. उमेश विनय की लाई हुई शर्ट पहनकर कितना ख़ुश होते. सारी उम्र ख़ुद ही तो ख़रीदा-पहना है. बेटा कुछ लाता, तो वे कितना ख़ुश होते. ख़ैर, सब ठीक है. क्या करना है. उमेश पूरा हफ़्ता बच्चों के साथ समय बिताने का इंतज़ार ही करते रह गए और छुट्टी ख़त्म हो गई. एक हफ़्ते बाद ऑफिस जाते हुए इतना ही बोले, “बेकार ही ले ली थी छुट्टियां.” राधिका का मन यह सुनकर बहुत दुखी हुआ, पर चुप ही रही. जब से विनय और नीता आए थे, हर दूसरे दिन वे दोनों ही नीता के घर चले जाते, फिर कुछ घंटे के लिए आते. यहां तक कि चार दिन के लिए दोनों गोवा भी निकल गए, तो राधिका और उमेश एक-दूसरे का मुंह ही देखते रह गए. राधिका ने उदास स्वर में कहा भी, “वहां क्या कम जगह घूमते होंगे. इतनी बार देखा हुआ गोवा टाइमपास करने फिर चले गए. कुछ दिन भी हमारे साथ ढंग से नहीं रहे.” उमेश चुप ही रहे.
गोवा से दोनों लौटे, तो जाने की तैयारियां शुरू हो गईं. विनय ने कहा, “यहां से सामान ले जाने की नीता की लंबी लिस्ट है. अब तो बस शॉपिंग ही चलेगी.” कुछ नहीं बोली राधिका. विनय की पसंद की जो भी चीज़ें बनाई थीं, सब रखी ही थीं. दोनों घर में टिकते ही कहां थे. नीता घर में
घी-तेल के परहेज़ की बातें करती, पर बाहर सब कुछ खा-पीकर घर आती, तो राधिका को अपनी सारी मेहनत मुंह चिढ़ाती-सी लगती. पूरा महीना जैसे पलक झपकते ही बीत रहा था. जाने से दो दिन पहले विनय ने कहा, “मां, अब तो जा ही रहे हैं हम, नीता को इसके
मायके छोड़ आता हूं. फिर ये पैकिंग करने तो आ ही जाएगी. पता नहीं अब कब आना हो.” राधिका ने पूछ ही लिया, “तू भी वहीं रहेगा?”
विनय थोड़ा सकपकाया, “नहीं, छोड़कर आ रहा हूं, फिर लेने चला जाऊंगा.” विनय नीता को उसके मायके छोड़ आया. अपने कमरे में रात को सोने लेटा, फिर अचानक उसे प्यास लगी, तो पानी लेने किचन की तरफ़ गया. माता-पिता के रूम में लाइट जलती देखकर उनके रूम की तरफ़ बढ़ ही रहा था कि अंदर से आती आवाज़ सुनकर पैर कमरे के बाहर ही रुक गए. उमेश पूछ रहे थे, “क्या हुआ? तबीयत तो ठीक है न?”
“हां.”
“क्या हुआ? उदास हो? बेटा जा रहा है.”
“नहीं, उदास क्यों होऊंगी?”
“अरे, बेटा है तुम्हारा, अब पता नहीं कब आएगा.”
“बेटा? हमारा बेटा आया है? मुझे तो एक दिन भी नहीं लगा कि बेटा आया है. मुझे तो पहले दिन यही लगा कि हमारा बेटा नहीं, नीता का पति आया है. बेटे के लिए मन में जो इच्छाएं, उमंगें, बातें थीं, सब मन में ही रह गईं.” मां के स्वर की उदासी विनय को बुरी तरह विचलित कर गई. उसकी आंखें भीग उठीं, शर्म से सिर झुक गया. यह क्या हो गया! यह कैसी ग़लती कर दी. ठीक ही तो कह रही है मां. जब से आया है नीता के ही तो चारों तरफ़ घूमता रहा है. एक बार भी मां-पापा से बेटा बनकर बात नहीं की. एक बार भी उनके हाल-चाल, सुख-दुख नहीं पूछे और अब तो जाने का समय आ गया था. भावनाओं के वेग में दिल इस तरह
मचला कि दरवाज़ा खोलकर अंदर जाकर मां की गोद में सिर रखकर सुबक उठा, “मां, मुझे माफ़ कर दो.” मां का हाथ तो बेटे के गोदी में सिर रखते ही अपने आप उसके सिर पर जा पहुंचा था. तीनों की आंखों से आंसू निशब्द बहते चले गए थे. किसी के बिना कुछ कहे-सुने भी हर भावना महसूस की जा सकती थी. मौन अपनी अनूठी शक्ति से जो बोल रहा था, उसे चुपचाप सुनने के अलावा रास्ता ही क्या था. उमेश और राधिका के हिस्से के प्यार और समय के प्रति जो लापरवाही विनय से हो गई थी, उसकी भरपाई फ़िलहाल मुश्किल थी, पर भविष्य में ऐसा कभी नहीं होगा. बस, अब विनय बहुत जल्दी मां का बेटा बनकर ही लौटेगा. मन ही मन विनय यही सोचता हुआ और ज़ोर से सुबक उठा.

 

       पूनम अहमद
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