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कहानी- सेफ्टी पिन (Short Story- Safety Pin)

 

एक-दो मौक़ों पर यह डिवाइस सचमुच डूबते को तिनके का सहारा साबित भी हो गया. एक बार स्कूल में दीदी की सलवार का नाड़ा निकल गया, तो एक बार मेरे जूते की बेल्ट टूट गई, तब इसी से हमारी लाज बची. तभी से मां की सीख को जीवन में उतारते हुए हम बहनें भी छोटी-से-छोटी चीज़ की कद्र करने लगी थीं.

 

मां हमेशा कहती हैं कि ज़िंदगी में कभी भी किसी भी चीज़ को कम मत आंको. छोटी-से-छोटी चीज़ भी व़क्त आने पर अनमोल बन जाती है. ‘जहां काम आवे सुई का करे तरवारि’, अपनी इसी सोच के कारण मां अपनी चूड़ियों में हमेशा दो-तीन सेफ्टी पिन लटकाए रखती हैं. मुझे और दीदी को उनकी यह आदत हमेशा से ही बहुत अखरती रही है.
“मां, ऐसे देहातन की तरह मत रहाकरो. चूड़ी में सेफ्टी पिन टांगने का क्या तुक?”
“कभी भी चप्पल टूट जाए, कहीं से कपड़ा फट जाए. पेटीकोट का नाड़ा टूट जाए, तो इस छोटी-सी चीज़ से तुरंत अपनी लाज बचाई जा सकती है. इसलिए तुम दोनों बहनों को भी मैं यही सीख दूंगी कि इसे हमेशा अपने पास रखा करो.”
हम लापरवाही से सिर हिला देते, पर मां अपनी धुन की पक्की थीं. वे
चुपके-से हमारी फ्रॉक या स्कर्ट की जेब में या पेंसिल बॉक्स में यह छोटा-सा डिवाइस खिसका ही देती थीं. एक-दो मौक़ों पर यह डिवाइस सचमुच डूबते को तिनके का सहारा साबित भी हो गया. एक बार स्कूल में दीदी की सलवार का नाड़ा निकल गया, तो एक बार मेरे जूते की बेल्ट टूट गई, तब इसी से हमारी लाज बची. तभी से मां की सीख को जीवन में उतारते हुए हम बहनें भी छोटी-से-छोटी चीज़ की कद्र करने लगी थीं.
मां ज़्यादा पढ़-लिख नहीं पाई थीं. रहन-सहन भी उनका बेहद साधारण ही था. पर इस हिसाब से उनकी सोच बहुत ऊंची थी. परिवारवालों के दबाव में आकर पिताजी भले ही तीसरे बच्चे के लिए तैयार हो गए थे, लेकिन मां अपने दो बेटियों के परिवार को ही संपूर्ण मानकर अड़ी रहीं. वे हमें अच्छी शिक्षा देकर अपने पैरों पर खड़ी देखना चाहती थीं. हम बहनों ने भी उन्हें निराश नहीं किया. दीदी पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा कर बीएड करने लगी थीं, तो मैंने इंजीनियरिंग में दाख़िला ले लिया था. बीएड पूरा होते ही दीदी की एक स्कूल में नौकरी भी लग गई.
पिताजी की छोटी-सी सरकारी नौकरी में मां ने हमेशा किफ़ायत से घर चलाया था. हमें कभी किसी चीज़ का अभाव महसूस नहीं होने दिया था. दीदी की नौकरी और तनख़्वाह एक तरह से घर के लिए बोनस थे, जिससे हम बहनें नए कपड़ों, जूतों, फैशन, सिनेमा, रेस्टोरेंट आदि पर ख़र्च कर आनंद उठा रही थीं. मां-पिताजी हमें ख़ुश देखकर ही गर्वित हो रहे थे. हमारी छोटी-से-छोटी सफलता उनके लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं होती थी. हम उनकी राजकुमारियां थीं. मैं वाद-विवाद में अच्छी थी. मेरी जीती एक-एक ट्रॉफी मां ने बैठक में करीने से सजा रखी थी. अपने गहनों से ज़्यादा वे उनकी हिफ़ाज़त करती थीं.
पर जल्दी ही हमारे इस छोटे-से सुखी संसार को ज़माने की नज़र लग गई. दीदी की नौकरी लगने पर हमने पूरे घर-परिवार और मोहल्ले में मिठाई बांटी थी. गर्व से फूले पिताजी एक डिब्बा अपने ऑफिस भी लेकर गए थे. वहीं बातों-बातों में अपने एक दोस्त के इंजीनियर लड़के से वे दीदी का रिश्ता भी तय कर आए. घर आकर उन्होंने यह ख़ुशख़बरी सुनाई, तो हम सबकी ख़ुशियां दोगुनी हो गई थीं.
पर दीदी तभी से उदास रहने लगी थीं. मैं दीदी को छेड़ती, “क्या दीदी, आप तो अभी से अपनी विदाई को लेकर उदास रहने लगी हैं?” पर अनुभवी-समझदार मां ने एक दिन एकांत में दीदी से सच उगलवा ही लिया था. दरअसल, दीदी अपने एक साथी अध्यापक से प्यार करने लगी थीं और उन्हीं के संग घर बसाने के सपने भी देखने लगी थीं. सब कुछ जानकर मां के हाथों के तोते उड़ गए थे. वे जानती थीं, उनके पति बेटियों पर कितना भी गर्व कर लें, पर उनका ऐसा क़दम वे किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं करेंगे. फिर लड़का उनके दोस्त का बेटा भी था.

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मां को परेशान देख दीदी ने उन्हें ढाढ़स बंधाया था कि मां चिंता नहीं करें. वे अपने प्यार को भुलाकर पिताजी द्वारा तय किए लड़के से शादी कर लेंगी. लेकिन सब कुछ जान लेने के बाद यह शादी करने में मां को कोई समझदारी नज़र नहीं आ रही थी. मेरा इंजीनियरिंग का अंतिम वर्ष था और मैं पढ़ाई में लगी हुई थी. इन सब बातों की ओर मेरा ध्यान ही नहीं गया. एक दिन मुझे कुछ ़फुर्सत में देख मां ने मुझसे सारी बातें साझा कीं. मैं ख़ुद सन्नाटे की-सी स्थिति में आ गई थी. ख़ुद पर शर्म भी आई कि मैं घर के हालात से इस कदर अनजान कैसे बनी रही? लेकिन मां की आगे की योजना सुनकर तो मेरे पांवों तले ज़मीन ही खिसक गई.
“बेटी, अब इस घर की लाज तू ही बचा सकती है.”
“मैं? वो कैसे?” मैं अचकचा गई थी.
“सब कुछ जान लेने के बाद अब तेरी दीदी का उस घर में रिश्ता करना तीन ज़िंदगियां बरबाद करना होगा. तेरी दीदी बलि का बकरा भले ही बन जाए, पर ज़िंदगी में कभी ख़ुश नहीं रह पाएगी.”
“हां, यह तो है.” मैंने अबोध की तरह सहमति में सिर हिला दिया था.
“क्या तू भी किसी के प्यार में है बेटी?” मां के अचानक पूछे सवाल पर मैं बौखला उठी थी.
“नहीं मां, बिल्कुल नहीं! मैंने तो कभी इस बारे में सोचा तक नहीं.”
“फिर ठीक है.” मां कुछ आश्‍वस्त हुई थीं. “तो उस इंजीनियर लड़के से तू शादी कर ले.”
“क्या?” मेरा मुंह खुला का खुला रह गया था. “मां, आप ऐसा सोच भी कैसे सकती हैं?”
“क्यूं? क्या ग़लत सोचा मैंने? देखा-भाला परिवार है. लड़का भी तेरी तरह इंजीनियर है. आजकल में तेरी भी तो शादी करनी ही है. लड़केवालों को ऐसे इनकार करेंगे, तो उन्हें बुरा लगेगा. हमारी भी बदनामी होगी. पर बड़ी नहीं, छोटी बहन देने की बात करेंगे, तो शायद बात बन जाए. दोनों घरों की इज़्ज़त भी रह जाएगी.” मां ने समझाते हुए प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरा, तो उनकी चूड़ी से लटकती सेफ्टी पिन मेरी आंखों के सम्मुख घूम गई. लगा, दो घरों की लाज बचाने के लिए मां मुझे सेफ्टी पिन की तरह इस्तेमाल कर रही हैं.
मुझे असमंजस में देख मां बोल उठीं, “दबाव नहीं डालूंगी तुझ पर. तू
पढ़ी-लिखी समझदार है. मैं ठहरी अनपढ़, देहाती, बुद्धि ने जो रास्ता सुझाया, तुझे बता दिया. मानना, न मानना तेरी मर्ज़ी है.” मां उठकर जाने लगीं, तो मैंने उनका हाथ पकड़कर बैठा दिया.
“माना आपका सुझाव ठीक है, पर यह बात उन तक पहुंचाएगा कौन?”
“तू!” मां मुझे एक के बाद एक शॉक दिए जा रही थीं.
“म… मैं? पर कैसे?”
“अब यह तो तू ही जाने. वाद-विवाद की ट्रॉफियां तूने जीती हैं, मैंने नहीं. बात को मनवाने के लिए किस ढंग से रखना है, तू ही निश्‍चित कर.”
“लेकिन बड़े-बुज़ुर्गों से मैं कैसे बात करूंगी मां?”
“तुझे सीधे लड़के से बात करनी है. वो तैयार हो गया, तो घरवालों को अपने आप मना लेगा.”

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विजय एक बार में ही मिलने के लिए तैयार हो गए थे, जो कि स्वाभाविक ही था. मुझे अकेले देखकर दीदी के लिए पूछ बैठे. पुरानी स्थिति होती, तो मैं भी मसखरी कर बैठती, ‘क्यूं मुझसे अकेले मिलते डर लगता है आपको?’
पर आज स्थिति भिन्न थी. वाद-विवाद का कोई पैंतरा इस्तेमाल किए बिना मैंने सीधे सपाट शब्दों में अपनी बात रख दी. बस, ख़ुद से शादी की बात मुझसे नहीं कही गई. हतप्रभ विजय निर्निमेष कुछ पल मुझे ताकते रहे. शायद यह सुनिश्‍चित करने का प्रयास कर रहे थे कि साली साहिबा उनसे कोई मज़ाक तो नहीं कर रहीं. पर मेरे चेहरे का उड़ा हुआ रंग और झुकी हुई नज़रें चीख-चीखकर मेरी बात की गंभीरता बयां कर रही थीं. ठोड़ी पर किसी की उंगलियों का स्पर्श हुआ, तो मेरी नज़रें ऊपर उठीं. “क्या इतने दृढ़ शब्दों में इतने स्पष्ट विचार रखनेवाली कन्या को मैं अपनी जीवनसंगिनी बनाने का दुस्साहस कर सकता हूं?”
मुझसे कोई जवाब नहीं दिया गया. लाज से मेरी पलकें ही ऊपर नहीं उठ पा रही थीं.
“या तुम भी किसी से प्यार करती हो?” “नहीं.” मेरे होंठ थरथरा उठे थे.
“तो फिर मैं हां समझूं.”
एक ही मंडप में हम दोनों बहनें विवाहसूत्र में बंध गई थीं. विजय और मेरी अच्छी पटी. कभी-कभी सेफ्टी पिन भी टांके जैसी मज़बूती दे देती है. दीदी की गृहस्थी भी अच्छी चल रही थी. जीजाजी ने अपने पिता के देहांत के बाद अपना स्थानांतरण अपने पैतृक शहर में करवा लिया था, ताकि पैतृक घर में मां के संग रह सकें. दीदी का भी कुछ प्रयासों के बाद वहीं स्थानांतरण हो गया था. वे भी चली गईं. अब मां-पिताजी को संभालने की मेरी ज़िम्मेदारी थोड़ी बढ़ गई थी. पिताजी रिटायर हो गए थे और हृदयरोग से ग्रस्त हो जाने के कारण कमज़ोर भी. पर मां सुघड़ गृहिणी की तरह पेंशन में भी आराम से घर चला रही थीं. यही नहीं, बेटी-दामाद को तीज-त्योहार पर बुलाने, उपहार आदि देने की औपचारिकताएं भी शिद्दत से निबाह रही थीं. पर बेटियों के यहां आकर रहना उन्हें गंवारा नहीं था.
मैं और दीदी मिलकर कभी-कभी मां को ख़ूब छेड़ते. “मां पुरातन और आधुनिकता का अनूठा संगम हैं. इतने प्रगतिशील विचार होते हुए भी पुरानी मान्यताएं छोड़ने को तैयार ही नहीं हैं.”
“ऐसा नहीं है बच्चियों, पर सोचती हूं, जब तक निभ रहा है, निबाह लूं.”
एक बार एक सेमिनार में भाग लेने मुझे दीदी के शहर जाने का मौक़ा मिला. जैसा कि स्वाभाविक था, दो दिन मैं दीदी के घर ही रही. मुझे उनके घर का माहौल ठीक नहीं लगा. सास बात-बात पर दीदी पर ताना कसती थीं. दीदी गृहस्थी और नौकरी के दो पाटों के बीच पिस रही थीं.
“यह सब क्या है दीदी? आपने कभी बताया नहीं? न मुझे, न मां को?”
“कुछ नहीं पगली. समय के साथ सब ठीक हो जाएगा. अब बेटे ने प्रेमविवाह किया है, तो मां का आक्रोश किसी पर तो उतरेगा ही? तो बहू से अच्छा टारगेट और कौन हो सकता है?”
“पर जीजाजी उन्हें कुछ बोलते क्यों नहीं?”
“मां और वो भी विधवा! बस, उनसे सहानुभूतिवश बेबस बने देखते रह जाते हैं. पर अकेले में अपने मन की पीड़ा बयां कर देते हैं.”
“उससे क्या होता है?” मैं तुनक गई थी. “मैं उनसे बात करती हूं.”
“नहीं, तुझे मेरी क़सम! उन्हें और शर्मिंदा मत करना. और हां, मां-पिताजी से भी इस बारे में कभी भूलकर भी कुछ मत कहना. पिताजी दिल के मरीज़ हैं. बेचारी मां पर वैसे ही बहुत ज़िम्मेदारियां हैं. मैं तो कहती हूं, तू भी कुछ ज़्यादा ही सोच रही है. वे दिल की इतनी बुरी भी नहीं हैं. तू देखना, वक़्त के साथ सब कुछ ठीक होता चला जाएगा.”
मैं भारी मन से लौट आई थी. कुछ समय बाद दीदी के पांव भारी होने की ख़बर मिली, तो मन मयूर नाच उठा. दीदी से फोन पर बात होती रहती थी. “सासू मां अब काफ़ी नरम पड़ गई हैं. मेरा भी बहुत ध्यान रखती हैं. मैं और सुनील डिलीवरी यहीं करवाने की सोच रहे हैं. यहां सब सुविधाएं हैं. बाद में छुट्टियां भी कम लेनी पड़ेंगी.”
“ठीक है दीदी. ज़रूरत हो, तो निस्संकोच मुझे बुला लेना.”
मैंने मां को भी सारी बात विस्तार से समझाकर आश्‍वस्त कर दिया था.
दीदी-जीजाजी ने एक तरह से ठीक ही निर्णय लिया था. पिताजी की बाइपास सर्जरी के बाद घर की माली हालत वैसे भी ठीक नहीं थी. पैसे तो ख़र्च हुए ही थे, पिताजी शारीरिक रूप से भी काफ़ी कमज़ोर हो गए थे. मां की भी अब उम्र हो चली थी. जल्दी थक जाती थीं. बस जिजीविषा के सहारे गृहस्थी की गाड़ी खींचे जा रही थीं.
लेकिन डिलीवरी समय से कुछ समय पूर्व ही दीदी ने अचानक एक दिन मां के यहां आकर सबको चौंका दिया. जीजाजी भी साथ थे. मगर चुप-चुप और सबसे नज़रें चुरा रहे थे. मानो किसी गहरे अपराधबोध से गुज़र रहे हों. दीदी का बड़ा-सा सूटकेस बता रहा था कि वे डिलीवरी तक यहीं रुकनेवाली हैं. एकांत मिलते ही मैंने दीदी से माजरा पूछ लिया था.
“क्या बताऊं? हमारा तो इरादा वहीं डिलीवरी करवाने का था, लेकिन
सासू मां का कहना है बहू की पहली डिलीवरी, उपहारों सहित विदाई आदि
मायके से ही होनी चाहिए, वरना बिरादरी में नाक कट जाएगी. मजबूरन सुनील को मुझे छोड़ने आना पड़ा. वे तो ख़ुद मन ही मन बहुत शर्मिंदा हो रहे हैं.”
“हूं, लग रहा है.” मैंने धीरे से कहा.
“तू चिंता मत कर. यहां भी सब अच्छे से हो जाएगा. हम सब हैं न!” ढाढ़स बंधाती मां के चेहरे पर चिंता की लकीरें स्पष्ट देखी जा सकती थीं. मैंने भी दीदी को ऐसे समय चिंतामुक्त रहने के लिए समझाया था.

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अगले दिन मैं ऑफिस से सीधे मां के यहां पहुंच गई थी. जीजाजी रात की ट्रेन से लौटनेवाले थे. घर पहुंची, तो दीदी-जीजाजी दोनों नदारद थे. मां से पूछा, तो उन्होंने बताया कुछ ज़रूरी काम है कहकर बाहर गए हैं. थोड़ी ही देर में ढेर सारे सामान से लदे-फंदे दीदी-जीजाजी आ गए थे.
“यह सब क्या है?” मेरे और मां के मुंह से एक साथ निकल पड़ा था.
“ये सब आप बाद में देख लेना. अभी मेरा खाना लगाकर मेरी पैकिंग करवा दीजिए. मेरी ट्रेन का वक़्त हो गया है.”
“अरे हां.” सब फटाफट काम में लग गए थे. जीजाजी को रवाना कर हम सुस्ताने बैठे, तो मां ने आख़िरकार पूछ ही लिया. “तुम दोनों गए कहां थे? और यह इतना सब क्या लाए हो.”
“सुनील अपराधबोध से दबे जा रहे थे. इसलिए ढेर सारा मेवा, घी आदि सारा सामान लाकर रख गए हैं. सासू मां ने उपहार के तौर पर जो साड़ियां, कपड़े, गहनों आदि की मांग की थी, वे भी हमने पहले ही लाकर रख दिए हैं. बाद में मेरा बाज़ार जाना मुश्किल होगा. एक बाई से भी बात कर आए हैं, जो मेरा और बच्चे का अतिरिक्त काम कर देगी. मां, आप और पिताजी बिल्कुल टेंशन मत लेना.”
“पर यह सब तो हमें करना था. तेरी सासू मां को पता चला तो?” मां चिंतित थीं.
“उन्हें कैसे पता चलेगा मां? उनकी और ज़माने की नज़र में तो यह सब आप ही ने किया होगा. हमें दोनों ही घरों की इज़्ज़त और मान-मर्यादा का पूरा ख़्याल है मां.”
भावना के अतिरेक से मां की आंखें पनीली हो गई थीं. हम दोनों बहनें भी भावुक हो गई थीं. मां की सीख को हम बहनों ने व्यापक अर्थ में जीवन में उतार लिया था. सेफ्टी पिन साथ रखते-रखते हम दोनों बहनें व्यवहार में भी सेफ्टी पिन बन गई थीं.

संगीता माथुर

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Usha Gupta

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