कहानी- सुनहरी किरण (Short Story- Sunhari Kiran)

“मेरी ज़िंदगी में कोई ऐसा ज़रूर आएगा, जो मेरे जैसा होगा. जो मुझे विश्‍वास दिलाएगा कि मैं.. सिर्फ़ मैं ही उसकी ज़िंदगी हूं. हो सकता है मैं कोरी भावुकता में पड़ कर ये फ़ैसला ले रही हूं, पर यक़ीन मान मुझे इस भावुक निर्णय के लिए कोई अफ़सोस नहीं है. इस वक़्त मुझे लग रहा है कि मैं एक घुटन भरी सुरंग से निकल कर खुले आसमान के नीचे सांस ले रही हूं. कुमुद कोई मेरे लिए भी बना होगा ये कल्पना मुझे रोमांचित कर रही है. वो इंसान शशांक नहीं है.”

“क्या विशाखा, मैं पूरे घर में तुझे ढूंढ़ आई और तू यहां छत पर बैठी आसमान निहार रही है.” कुमुद दिल्ली में एक कमरे के फ्लैट में अपनी जोड़-तोड़ की गृहस्थी जुटाए रह रही थी. बचपन की सहेली विशाखा एक हफ़्ते के लिए उसके पास रहने आई थी. ऑफिस से वापस आने के बाद कुमुद उसे ढूंढ़ती हुई छत पर ही चली आई थी. कुमुद विशाखा से बोल रही थी, “इस ज़रा-सी जगह पर तू ऊब जाती होगी न.”
“नहीं ऐसी कोई बात नहीं है. यहां आकर तो मैं खुल के सांस ले पा रही हूं.” विशाखा की बात को नज़रअंदाज़ करते हुए कुमुद बोली, “इस साल शायद मेरा प्रमोशन हो जाए, तो जयपुर वाली बैंक ब्रांच में ट्रांसफर हो जाएगा. तुम शशांक को लेकर वहीं आना.” कुमुद ने कहते हुए विशाखा को चाय का प्याला पकड़ाया. कुमुद कुछ कहती इससे पहले ही वो चाय का घूंट भरकर एक बार फिर डूबते हुए सूरज को सामने आते पेड़ों की ओट से निहारने लगी.
“क्या हुआ है तुझे; कुछ सोच रही है क्या?”
“नहीं, बस देख रही थी कि डूबते हुए सूरज और उगते हुए सूरज के समय जो दृश्य होता है उसमें कितनी साम्यता है. दोनों दृश्य दिखने में कितने एक से लगते हैं. पर बाद के परिवर्तन में कितना अंतर होता है. डूबता हुआ सूरज सुनहरी किरणों के छलावे के साथ अंधेरा लाता है और उगता हुआ सूरज अंधेरे की लालिमा के बाद एक उजाला.” विशाखा की बात पर कुमुद ने अजीब नज़रों से उसे देख कर कहा, “क्या कहना चाह रही है साफ़-साफ़ बोल न…”
“कुछ नहीं, मैं तो बस यूं ही फिलॉसफी मार रही थी और तू सीरियस हो गई. चल नीचे चलें अंधेरा होनेवाला है. मैं नीचे जाकर तेरे लिए पास्ता बना रही हूं जल्दी आना…” कुमुद विशाखा के चेहरे की हंसी को देखने लगी. कितनी अस्वाभाविक थी जबरन निकाली हुई. उसके जाते-जाते ही कुमुद विशाखा की उस उन्मुक्त हंसी और मुस्कान में खो गई थी, जो शशांक के साथ रिश्ता जुड़ने पर उसके चेहरे पर खिलती थी.
करोड़पतियों के घर से विशाखा का रिश्ता आएगा किसने सोचा था. सब उसके भाग्य पर रश्क कर रहे थे. फ्रेंड्स उसे लकी कहती, तो रिश्तेदार आहें भरते. विशाखा दर्प से तन जाती, तो विशाखा की मम्मी कहती, “बस ब्याह हो जाए तो चैन आए.” कौन जानता था कि उस समय विशाखा के जीवन में पड़नेवाली सुनहरी किरणें उगते सूरज की हैं या डूबते सूरज की… सबका अपना अलग नज़रिया था. विशाखा की पक्की सहेली होने के नाते वह उसके जीवन में आनेवाली हर छोटी-बड़ी लहरों से वाकिफ़ थी.
सगाई वाले दिन शशांक की इकलौती दीदी तारा रिसेप्शन में जाने से पहले विशाखा को देखने आई थी कि वो कैसे तैयार हुई है. विशाखा के लहंगे को देखकर बोली, “इसका ड्रेस बहुत ऑर्डिनरी है.”

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“पर दीदी ये तो काफ़ी एलिगेंट है, हमने ख़ुद डिज़ाइन करा…” बोलती कुमुद की बात आधे में ही काटते हुए वो बोलीं, “न… न इसे तो चेंज करना पड़ेगा, सगाई में बड़े-बड़े बिज़नेस एसोसिएट्स आएंगे और भी नामी-गिरामी लोग. आप मेरे लाए इसी जोड़े को पहनाइए. ये नैना है, हमारी ब्यूटीशियन, इसे पता है कि ऐसे मौक़ों पर कैसे तैयार होना है. ये संभाल लेगी.” तारा दीदी चली गई थी, पर छोड़ गई थी अपने परिवार की गाढ़ी छाया. जिसके तले विशाखा के वज़ूद की परछाईं तक नहीं दिख रही थी. कपड़े बदलते समय लगा मानो वो अपनी पसंद अपनी पहचान को बदल रही हो. ज्योति आंटी अफ़सोस कर रही थी कि ड्रेस के बारे में उनसे पहले ही डिसकस क्यों नहीं कर लिया. अब आगे से ये ग़लती नहीं होगी. विशेष मौक़ों पर उनकी राय लेना ज़रूरी है. तैयार विशाखा भारी-भरकम लहंगे को संभालती उस शानदार होटल के एक हॉल में कोने में चुपचाप तारा दीदी के अगले आदेश के इंतज़ार में कुमुद के साथ बैठी थी.
“कुमुद, विशाखा को यहां बिठा दो. मैं देखकर आती हूं इनका कमरा कहां है? हॉल से नहीं जा सकते हैं वहां मेहमान बैठे हैं.” कह कर तारा दीदी चली गईं. ठंडे पड़े हाथों से कुमुद के हाथों को थामती हुई बोली, “क्या हुआ मेरी झांसी की रानी आज घबरा रही है क्या?” कुमुद के हंसाने की कोशिश विशाखा के होंठों पर एक फीकी हंसी छोड़ गई. फिर बोली, “बहुत भारी ड्रेस है अनकंफर्टेबल-सा लग रहा है.” ग़ुस्सा तो कुमुद को भी आ रहा था, पर अवसर की नज़ाकत को भांप कर वह चुप थी. कितने चाव से आसमानी रंग का गोटा पट्टी का लहंगा लाए थे. अरे, ढंग से देखती तो सही. मध्यमवर्गीय परिवार की विशाखा से रिश्ता क्यों… एक बार शशांक से ये प्रश्‍न विशाखा ने किया था… पर वो टाल गए. वैसे भी शशांक बहुत कम बोलते हैं. सभी कम बोलते हैं उनके परिवार में. लेकिन उस दिन हंसी से गुलज़ार था माहौल. उसमें से आती एक तेज़ आवाज़, “जीजी, अच्छा किया जो अपनी बराबरी के परिवार से रिश्ता नहीं जोड़ा, वरना इस बार भी दिव्या जैसी बहू आ जाती, तो बस शशांक भी गिरीश की तरह अपनी पत्नी के साथ अलग बिज़नेस कर लेता. कम से कम शशांक की पत्नी तुम्हारे दबाव में तो रहेगी.”
“पर दीदी मुझे तो अभी भी युक्ता शशांक के टक्कर की लगती है.” “न… न… चाची विशाखा भी ठीक है छोटे घर से है तो क्या? अपने तौर-तरीके सीख जाएगी. बस शादी होने के बाद मायकेवालों का ज़्यादा आना-जाना मत रखना. कहना बेटी बड़े घर में ब्याह दी है अब बस काम से काम रखें. वरना अपना शशांक तो सीधा है कहीं दिव्या की तरह विशाखा के मायकेवालों ने भी उसे कुछ पट्टी पढ़ा दी, तो कहीं के नहीं रहेंगे. दिव्या के केस में तो कम से कम लड़की और परिवार हमारे बराबर का था, पर यहां तो बस लड़की ही देखकर हम समझौता कर रहे हैं.”
“चलो जो भी हो, शशांक ने ज़्यादा हाय-तौबा नहीं मचाई, वरना युक्ता को लेकर मुझे चिंता थी.”
“अरे अपना शशांक तो है ही श्रवण कुमार, वरना कौन नहीं जानता कि युक्ता उसके दिल में राज करती है.”
कौन जानता था कि हॉल के उस तरफ़ बैठी विशाखा ने सब सुन लिया है मध्यमवर्गीय परिवार से बड़े घर में लाने की कवायद के पीछे छिपी मंशा ने उसके भीतर जलते उमंग के दीपक को बुझा दिया था. सगाई से पहले मन में उठते प्रश्‍न के इस कड़वे उत्तर ने सभी शंकाओं का समाधान कर दिया था. विशाखा के घरवाले और रिश्तेदार इसे भ्रम में थे कि क़िस्मत की सुनहरी किरण विशाखा के जीवन को सुनहरा कर देगी. पर विशाखा तो इस सुनहरी किरण के बाद आनेवाले समय को संशय भरी निगाहों से ताक रही थी. सगाई के समय सुरक्षात्मक लगान पाने की लालसा से उसकी निगाहें शशांक की ओर उठती, पर हर बार मायूस होकर वो इधर-उधर भटककर नीचे झुक जाती. सहेलियों के हुजूम ने कुछ रौनक़ बिखेरी, पर वो भी शशांक के रिजर्व स्वभाव से हतोस्ताहित होकर चुप बैठ गईं. मां ने भी ताकीद कर दी थी कि बड़े लोग हैं. देख-समझ कर हंसी-मज़ाक करना. विशाखा को आज शशांक एक अजनबी-सा लगा.
युक्ता आई थी, उसे देखकर शशांक के होंठों पर मुस्कान आई थी, पर शशांक तो कई लोगों से मिल कर मुस्कुराया था, लेकिन युक्ता को देखकर आनेवाली मुस्कान कुछ और ही रंग लिए थी. वो आंखों में झलक कर होंठों तक पहुंच जाती थी. विशाखा सोचती भी कि उसका ऐसा सोचना कितना सही है? नहीं-नहीं, ये उसका पूर्वाग्रह था. आज ये बातें वो न सुनती, तो ऐसा कुछ नहीं होता. तब शायद शशांक भी अपना-सा लगता. पर क्या इससे पहले शशांक वाक़ई अपना लगा था. कभी लगा भी था, तो क्या वो एकतरफ़ा छलावा मात्र था. मन की उथल-पुथल से सिर भारी हो गया था.
“देख विशाखा, आज जो भी सुना उसे मन में मत रखना, घर-परिवार में ऐसी बातें तो होती रहती है.” कुमुद विशाखा को दिलासा देकर चली गई थी. पर विशाखा क्या करे मन में चलता तूफ़ान तो थमने का नाम ही नहीं ले रहा था. शशांक की तरफ़ से सगाई के बाद मिलने की कोशिश नहीं की गई. ऐसे में विशाखा ने ख़ुद को आगामी प्रतियोगी परीक्षाओं में डुबा लिया. सब आश्‍चर्य करते कि सगाई और शादी के बीच के दिनों में कोई इतनी तल्लीनता के साथ कैसे पढ़ सकता है. मां कभी-कभी टोह लेती कि शशांक का फोन-वोन आता है या नहीं? विशाखा झूठ-मूठ हां करके मां को दुश्‍चिंताओं से बचा लेती. पर कुमुद विशाखा के मन में चल रही उथल-पुथल की राज़दार थी. वह अक्सर कहती, “विशाखा तू ओवर रिएक्ट कर रही है. शशांक की आदत रिज़र्व रहने की है.” विशाखा कैसे बताती कि शशांक की कोई भी बात उसके मन अंतस को भिगो नहीं पाती है. रिज़र्व लोगों के हावभाव चुपचाप ख़ुद को अभिव्यक्त कर जाते हैं, पर उसने तो शशांक की ओर जब भी देखा एक भावनाविहीन चेहरा नज़र आया. वो कैसे अपने जीवन में रंग भर पाएगी.
तारा दीदी का फोन ज़रूर आया था. बातों-बातों में कह दिया था कि अपनी ख़ुशी के लिए एग्ज़ाम दिए हैं, तो ठीक है, अन्यथा नौकरी तो आज तक घर की औरतों ने नहीं की है. ये सब मध्यम वर्ग के लोगों की सोच है. विशाखा का मूड ख़राब था, तो मां ने भी समझाया ठीक तो कहती है तारा; कितनी भाग्यवान है जो धनी परिवार मिल रहा है. नौकरी-करियर के झंझट में मत पड़. उस दिन विशाखा रो पड़ी थी. पिंजरे में बंद पंक्षी की व्याकुलता मन में उमड़ रही थे. अपने पैरों पर खड़ा होना बहुत ज़रूरी है. हमेशा ये पाठ पढ़ानेवाली मां उसकी व्यथा से अनजान थी.
शशांक से बात की, तो उसे भी तारा दीदी की बातों को मानने की सलाह दी थी. वो भी बड़े ही निर्लिप्त भाव से.
“मां मुझे वहां बहुत अजनबीपन महसूस होता है.”
“सबको लगता है विशाखा.” मां विशाखा की बातों से आतंकित दिखी.
“देख तेरे भाग्य से सब जल रहे हैं. कोई बेवकूफ़ी वाली बात मन में लाना भी नहीं. अभी छह महीने हैं ब्याह के लिए. सो ये दिन संभालकर निकालने हैं. अब ये समय मेरी इच्छाएं, मेरा करियर इन सब फ़ालतू बातों को सोचना बंद कर ब्याह की तैयारी और शॉपिंग की बात करो. हो सके तो कुमुद के पास घूम आ. दिल्ली से ख़रीदारी हो जाएगी.” विशाखा का प्रतिवाद जारी था. तो मां उत्तेजित हो गई. “भाड़ में गया वजूद. ये सब किताबी बातें मत कर मेरे सामने. मैंने दुनिया देखी है, क्या यूं ही चप्पल चटकाते जीवन जीएगी? यहां कुबेर धन वर्षा को राज़ी है और तू है कि एक बूंद के पीछे भटक रही है.” विशाखा हैरान थी और पापा मौन थे… शायद वो भी असमंजस में थे. आख़िर इतने बड़े घर के रिश्ते को कैसे नकारते. विशाखा ने कुमुद को फोन पर अपने आने की ख़बर दी, तो वो उछल पड़ी.
“सच विशाखा, जल्दी आ जा. बोर हो गई हूं यहां अकेले… अच्छा ब्रेक हो जाएगा. ख़ूब शॉपिंग करेंगे.”
“हां शॉपिंग तो करेंगे, पर किसी मॉल से नहीं चांदनी चौक की गलियों में भटकेंगे, और किसी बड़े रेस्टोरेंट में नहीं स्ट्रीट फूड में खाएंगे.” अपनी बात कहते हुए विशाखा की आवाज़ भर्रा गई थी और कोई समय होता, तो उसकी अजीबो-गरीब बातों से कुमुद का सिर चकरा जाता, पर आज विशाखा की अंतः दशा कुमुद समझ रही थी.
दिल्ली आने पर दूसरे दिन ही विशाखा का एक इंटरव्यू के लिए गई थी, वहां से आने पर वह बेहद शांत दिखी कुमुद को रात को बताया कि इस इंटरव्यू का रिस्पॉन्स काफी पॉजिटिव है.”
“शशांक को पता है इस के बारे में?” कुमुद के इस जटिल प्रश्‍न का उत्तर उसने बड़ी सरलता से दिया. “नहीं”
“कुमुद…” विशाखा उसे आवाज़ लगा रही थी. उमड़ते-घुमड़ते विचारों की श्रृंखला से मुक्त होते हुए कुमुद नीचे गई, तो देखा वह पास्ते का केसरोल चटाई में रखे आराम से बैठी थी. प्लेट में पास्ता निकालते हुए कुमुद ने प्रश्‍न उछाला, “क्या सोचा है तुमने?”
“किस बारे में?” सवाल के जवाब में मिले सवाल पर कुमुद चिढ़ कर बोली, “तेरा जल्दी डिसीजन लेना बहुत सारे लोगों के लिए फ़ायदेमंद रहेगा. कब तक यूं दुविधा में फंसी रहोगी?”
“पर मुझे कोई दुविधा नहीं है कुमुद.” विशाखा की दृढ़ आवाज़ पर चौंक पड़ी, “क्या मतलब?”

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“मतलब ये कि जॉब तो मैं करूंगी. मैं ये भी जानती हूं कि शशांक और उसके घरवाले कभी भी राज़ी नहीं होंगे कि मैं नौकरी करूं. बस एक यही रास्ता बचा है इस भंवर से बाहर निकलने का. मैं जानती हूं कि शशांक और युक्ता की ओर बना मेरा रवैय्या सही नहीं है. उनके बीच कोई अलग भावना है ये मेरी कोरी कल्पना भी हो सकती है, पर वो कल्पना ही है ये जानने के लिए मैं इस रिश्ते में पड़ू तो ये ज़रूरी तो नहीं है. ख़तरा कितना बड़ा है यह जानने के लिए ख़ुद की जान जोख़िम में डालना ज़रूरी तो नहीं है. मेरी ज़िंदगी में कोई ऐसा ज़रूर आएगा, जो मेरे जैसा होगा. जो मुझे विश्‍वास दिलाएगा कि मैं.. स़िर्फ मैं ही उसकी ज़िंदगी हूं. हो सकता है मैं कोरी भावुकता में पड़ कर ये फ़ैसला ले रही हूं, पर यक़ीन मान मुझे इस भावुक निर्णय के लिए कोई अफ़सोस नहीं है. इस वक़्त मुझे लग रहा है कि मैं एक घुटन भरी सुरंग से निकल कर खुले आसमान के नीचे सांस ले रही हूं. कुमुद कोई मेरे लिए भी बना होगा ये कल्पना मुझे रोमांचित कर रही है. वो इंसान शशांक नहीं है.”
रात देर तक विशाखा जैसी मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की की इस हिम्मत से शशांक का परिवार हैरान था. सुबह-सुबह मां के आए फोन से विशाखा के रिश्ते के टूटने के बारे में पता चला. मां व्यथित थी, पर विशाखा बहुत ख़ुश थी. रिश्ते का टूटना दर्द पर मरहम का काम भी करता है यह आज पता चला था. विशाखा मां से कह रही थी, “आज आप नाराज़ हो लो; पर एक दिन मेरे चेहरे की ख़ुशी आपके चेहरे से झलकेगी. तब आप समझेेंगी कि मेरा आज का लिया फ़ैसला सही था. विशाखा मां की व्याकुलता से बेचैन समझा रही थी.
“मां, मेरा जीवन आपका दिया है इसकी हिफ़ाज़त करना अब मेरा काम है.” बोलती हुई विशाखा रो पड़ी थी. पर वो जानती थी कि उसके जीवन में छाया ये अंधेरा क्षणिक था इसके बाद उजाले को ही आना तय था, क्योंकि ये सूर्य उदय का समय था. एक नई शुरुआत का समय था. वह देख पा रही थी कि शशांक से रिश्ता जुड़ने से पहले वह बहुत ख़ुश थी. अब तक के लेखे-जोखे से उसने हिसाब लगाया था कि इन चंद दिनों में उसके हिस्से तनाव और घुटन ही आई थी, पर अब पिंजरे से आज़ाद पंक्षी की भांति वह उन्मुक्त अपने हिस्से के आकाश की ओर ताक रही थी.

– मीनू त्रिपाठी

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