Short Stories

कहानी- सुज़ैन (Short Story- Suzanne)

बारात आ गई थी. सभी ख़ुश व उल्लासित थे. पर उस उल्लासभरे वातावरण में एक काली घटना ने सुज़ैन की सारी ख़ुशियों को जैसे रौंद डाला और मैं सोचती रह गई कि ‘अतिथि देवो भव’ की हमारी गौरवशाली संस्कृति आख़िर इतनी खोखली क्यों हो गई. हमारी युवापीढ़ी सिर्फ़ अपने स्वार्थ व क्षणिक सुख के लिए इस महान संस्कृति की जड़ें खोदने पर क्यों तुली हुई है?

बच्चों व पति के साथ दुबई के इब्नबतूता मॉल के अंदर घुसी ही थी कि सामने से आती एक गोरी युवती को देखकर मैं चौंक गई. ‘इतनी जानी-पहचानी सूरत? कहां देखा है इसे? पर यह गोरी लड़की और मैं खालिस हिंदुस्तानी. सारा जीवन भारत में काट दिया. भला इस लड़की से मैं कहां मिल सकती हूं?’ तभी क्षणों में स्मृतिपटल के कपाट खुल गए. यादों के झरोखों से एक नाम दिमाग़ को झंकृत कर गया, ‘सुज़ैन. हां, यह तो सुज़ैन ही है…’ मैं पलभर में ही पीछे पलट गई.
“कहां जा रही हो मम्मी?”
“एक मिनट… अभी आई…” बेटा भी मेरे पीछे दौड़ गया. कहीं मॉल में टूरिस्ट की असीमित भीड़ में उसकी मम्मी खो न जाए. आख़िर मैं सुज़ैन तक पहुंच ही गई.
“सुज़ैन…” युवती भी अपना नाम सुनकर पीछे पलटकर मुझे घूरने लगी और एकाएक पहचान की मीठी मुस्कुराहट से उसका चेहरा दमकने लगा.
“यू… रैमा…?” वह रमा की बजाय मुझे रैमा ही कहती थी. “येस. आई एम रैमा. यू रिमैंबर मी?” जवाब में सुज़ैन मुझसे लिपट गई और मैंने भी उसे बांहों में भींच लिया.

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मैं पति के साथ एक महीने के लिए दुबई आई थी बेटे-बहू के पास. सोचा भी न था कि सुज़ैन से यहां मुलाक़ात हो जाएगी. दोनों की आंखें नम थीं. हिंदुस्तानी तो भावुकता के लिए प्रसिद्ध होते ही हैं, पर वह जर्मन लड़की कैसे इतने वर्षों के लंबे अंतराल के बाद भी मुझसे मिलकर अपनी गीली हो आई आंखों को पोंछ रही थी.
“तुम यहां कैसे?”
“घूमने आई हूं. ऊली भी आया है. सामनेवाली शॉप में है.” इतने में संकल्प भी उसे पहचान गया था.
“हैलो सुज़ैन.”
“इज़ ही सैंकी?” उसने मुझसे पूछा. संकल्प बोलना जर्मन लड़की के लिए शायद कठिन था, इसलिए वह उसे सैंकी ही कहती थी.
“येस. आई एम सैंकी.” संकल्प ने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया. सुज़ैन ने उससे हाथ मिलाया.
तब तक मेरे पति व बहू भी वहीं पहुंच गए और ऊली भी आ गया. वह भी हम सबसे मिलकर बहुत ख़ुश हुआ. हमने कुछ समय उनके साथ बिताया. कॉफी पी. फोन नंबर लिए-दिए और घर आ गए.
घर वापस आते हुए कार में मैं ख़ामोश बैठी थी. सुज़ैन किसी भी तरह दिल-दिमाग़ से नहीं उतर पा रही थी. जो यादें दिल में समय की अंधेरी गलियों में दफ़न हो चुकी थीं, वे एकाएक जैसे समय की गर्त झाड़कर चमत्कृत हो उठी थीं. घर पहुंची, तो डिनर बनाने में व्यस्त हो गई. डिनर के बाद बच्चे भी सोने चले गए और पति भी. पर मुझे आज नींद नहीं आ रही थी. लॉबी में बैठकर मैं पुरानी यादों में खो गई.
यह विदेशी जोड़ा, जर्मनी के फ्रेंकफर्ट शहर से भारत मेरी चचेरी ननद शिखा की बेटी के विवाह में शामिल होने आया था. फ्रेंकफर्ट में वे मेरी ननद पारुल व ननदोई के मित्रों में एक थे. सुज़ैन की कई यादें, उसकी भाव-भंगिमाएं, शादी में भारतीय परिधान ही पहनने की ज़िद, बिंदी-चूड़ी पहनने की ज़िद, मेहंदी लगवाना जैसे कई मासूम लम्हे मेरे मानसपटल पर साकार हो उठे, लेकिन उन ख़ूबसूरत यादों के बीच एक स्याह याद भी थी, जिसे मैं इतने सालों में कभी नहीं भुला पाई.
आज से लगभग सात-आठ साल पहले की बात है. शिखा की बेटी के विवाह में जब पति व बेटे के साथ मैं कानपुर पहुंची, तो घर दुल्हन की तरह सजा हुआ था. जर्मनी से पारुल भी परिवारसहित पहुंच गई थी. सभी परिवारजनों के पहुंचने से घर में उत्सव का माहौल बन गया था.
“भाभी, पता है जर्मनी से मेरी एक मित्र भी आनेवाली है, आज दोपहर को पहुंचेगी.” पारुल बोली.
“अच्छा?” मुझे उत्सुकता हुई, “अकेली आ रही है क्या?”
“नहीं नहीं… उसके साथ एक लड़का भी है.”
“लड़का? मतलब… उसका बॉयफ्रेंड या हसबैंड? कौन है?” “मुझे नहीं पता…” पारुल हंसते हुए बोली, “वहां पर यह सब नहीं पूछा जाता.”
“क्यों?” मैं आश्‍चर्य से बोली. पारुल हंसने लगी, “क्योंकि उनके साथ ज़िंदगीभर एक पुरुष या एक महिला नहीं दिखाई देती.” पारुल ने रहस्योद्घाटन किया और किसी काम में लग गई.
शाम के समय सभी परिवारजन विवाह के माहौल में बैठे हंसी-मज़ाक कर आनंदित हो रहे थे कि मुझे गेट से एक गोरा जोड़ा आता दिखाई दिया. मैं समझ गई कि यही है पारुल के आनेवाले विदेशी मित्र. तभी पारुल अंदर से आई और उनसे हाथ मिलाने लगी. थोड़ी देर में पारुल उन दोनों को लेकर हमारे सामने आ गई, “यह सुज़ैन है और यह ऊली.” पारुल हमसे बोली.
फिर उनसे अंग्रेज़ी में बोली, “ये मेरी भाभी यानी मेरे भाई की पत्नी… ये फलां… ये फलां… वगैरह-वगैरह.” सुज़ैन और ऊली मुस्कुराकर सबको गर्दन झुका-झुकाकर ‘हैलो-हैलो’ कहते रहे. पहली मुलाक़ात में सुज़ैन हमें अच्छी तो लगी, लेकिन फिर भी परिचय महज़ रस्मी तौर पर रहा. हां, मेरे दिल में सुज़ैन को लेकर एक अजीब-सी उत्सुकता जाग गई थी.
शाम को घर में महिला संगीत का कार्यक्रम था. तभी पारुल होंठों ही होंठों में कुछ बुदबुदाते हुए आई.
“अब क्या हुआ?” मैंने पूछा.
“कुछ नहीं.” पारुल परेशान-सी बोली, “सुज़ैन कह रही है कि वह शादी के सभी मौक़ों पर स़िर्फ भारतीय परिधान ही पहनेगी. अब मैं इतनी जल्दी इसके नाप के ड्रेसेस कहां से लाऊं?” मुझे बहुत अच्छा लगा सुनकर. जहां हमारी युवा पीढ़ी पश्‍चिमी परिधान के पीछे पागल है. विदेशी हमारे रंग-बिरंगे ख़ूबसूरत परिधानों में दिलचस्पी रखते हैं.
फिर तो शुरू हुआ सुज़ैन को कपड़े पहनाने और बदलने का सिलसिला. किसके कपड़े यानी ब्लाउज़, लहंगा, सूट वगैरह उस पर फिट आएंगे. सुज़ैन बार-बार ड्रेसिंग रूम में जाती और कुछ पहनकर आ जाती. फिर उसे कुछ और थमा दिया जाता और वह उसे ट्राई करती, फिर ड्रेसिंग रूम में घुस जाती व कुछ और पहनकर आ जाती. और कमरे में हंसी का फव्वारा फूट पड़ता. ख़ूबसूरत सुज़ैन जो भी पहनती उसमें सुंदर लगती.

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हम सबकी सम्मिलित हंसी से परेशान सुज़ैन कह उठी, “मेरा मज़ाक मत बनाओ प्लीज़.” वह अंग्रेज़ी में बोली. “तुम्हारा मज़ाक नहीं बना रहे हैं स़ुजैन.” पारुल बोली, “बल्कि हर कोई तुम्हें अपना कुछ न कुछ देना चाहता है. तुम सबको बहुत अच्छी लग रही हो.”
“थैंक्यू-थैंक्यू.” सुज़ैन सबकी तरफ़ गर्दन घुमाकर बोली. कई ड्रेसेस ट्राई करने के बाद सुज़ैन को किसी न किसी का कुछ न कुछ फिट आ ही गया. तभी दरवाज़े पर आहट सुनकर मैंने उधर देखा. दुल्हन का भाई सूरज यानी शिखा का बेटा व उसके दो दोस्त खड़े थे.
“अंदर क्या हो रहा है मामी?” अपनी बदतमीज़ियों के लिए रिश्तेदारों में प्रसिद्ध सूरज खींसे निपोरता हुआ बोला.
“कुछ भी हो रहा हो, पर तुम यहां क्या कर रहे हो?”
“क्यों मामी अपने ही घर में मैं क्या कर रहा हूं? हम भी अंदर आ जाते हैं.” वह बेशर्म नज़रें बीच कमरे में लहंगा-चोली पहन सबको दिखाती सुज़ैन पर डालता हुआ बोला.
“तुम लोग जाते हो यहां से या नहीं?” मैं ग़ुस्से में बोली.
“जाते हैं मामी, जाते हैं. हम क्या कर लेंगे अंदर आकर.” कहकर वह ढीठ हंसी हंसता हुआ मुड़ गया, पर उसकी व उसके दोस्तों की नज़रें मुझे अंदर तक आहत व आशंकित कर गईं कि ये विदेशी मेहमान आदर-सम्मान के साथ अपने देश लौट जाएं. कुछ अप्रिय न हो इनके साथ. दूसरे दिन हल्दी की रस्म पर सबको साड़ी पहनते देख सुज़ैन ने भी साड़ी पहन ली और चूड़ी-बिंदी भी लगाई. हल्दी की रस्म में भी सुज़ैन व ऊली कुर्सियों पर बैठे सब कुछ बड़े ध्यान से देख रहे थे. तभी ऊली किसी काम से उठकर अंदर चला गया. मौक़ा देखकर सूरज व उसके दोस्त सुज़ैन को घेरकर बैठ गए. उनके इरादों से अनजान सुज़ैन उन्हें देखकर मुस्कुराने लगी. वे उससे तरह-तरह की बातें कर रहे थे. मैं जानती थी कि मेरे वहां जाने से तीनों उठनेवाले नहीं हैं, इसलिए मैंने बेटे को बुलाया और उसके कान में कहा कि ऊली को बुला लाए रस्म देखने के लिए. कहां है वह? बेटा गया और ऊली को बुला लाया. उसके आते ही सूरज ने सुज़ैन के बगलवाली सीट छोड़ दी. थोड़ी बहुत औपचारिक बातें करके तीनों उठ गए.
शाम को शादी थी. तैयार होने सब ब्यूटीपार्लर जाने लगे, तो हमने सुज़ैन को भी साथ ले लिया, तभी ऊली सामने से आता दिखाई दिया. “मेरी वाइफ को कहां लेकर जा रहे हो?” “ब्यूटीपार्लर जा रहे हैं.” पारुल उससे अंग्रेज़ी में बोली. फिर हमसे हिंदी में बोली, “मुझे आज पता चला कि ये दोनों पति-पत्नी हैं.” सुनकर हम सब हंसने लगे. सुज़ैन भी बिना कुछ समझे हमारे साथ हंसने लगी. उसे हंसता देख हम सब और ज़ोर से हंसने लगे.
पार्लर में भी सुज़ैन ने हम सबके जैसा मेकअप व जूड़ा बना लिया. तभी पारुल बोली, “अब बस करो सुज़ैन, पता नहीं ऊली को यह सब अच्छा लगेगा या नहीं.”
“मैं सब कुछ अपने पति की पसंद से ही करती हूं.” सुज़ैन बोली, तो हम सब हतप्रभ हो उसका चेहरा देखने लगे, “तुमने हमें बहुत इंप्रेस कर दिया सुज़ैन. यह तो हमारी भारतीय संस्कृति है.” मैं बोली. दो दिन में सुज़ैन हमारे साथ ख़ूब घुल-मिल गई थी. प्यार जताने व चुंबन लेने में खुलेपन की संस्कृति के आदी सुज़ैन व ऊली ने भारतीय संस्कृति को समझकर यहां कोई अभद्र हरकत नहीं की थी. सुज़ैन की उपस्थिति ने विवाह के उल्लासमय वातावरण को आनंद के साथ-साथ एक अलग तरह के कौतूहल व रोमांच से भर दिया था.
बारात आ गई थी. सभी ख़ुश व उल्लासित थे. पर उस उल्लासभरे वातावरण में एक काली घटना ने सुज़ैन की सारी ख़ुशियों को जैसे रौंद डाला और मैं सोचती रह गई कि ‘अतिथि देवो भव’ की हमारी गौरवशाली संस्कृति आख़िर इतनी खोखली क्यों हो गई. हमारी युवापीढ़ी सिर्फ़ अपने स्वार्थ व क्षणिक सुख के लिए इस महान संस्कृति की जड़ें खोदने पर क्यों तुली हुई है? कई समन्वित परंपराओं की संस्कृतिवाला हमारा देश अपनी इस महान सभ्यता से निकलकर बलात्कारियों का देश कहलाने की तरफ़ क्यों अग्रसर है? महिला सशक्तिकरण की बड़ी-बड़ी बातें आख़िर जन-जन के मानसपटल पर कब आकार लेंगी?
रात को फेरे के समय सभी परिवारजन बेदी के चारों तरफ़ कुर्सियां लगाकर दूल्हा-दुल्हन को फेरे लेते देख आपस में चुहलबाज़ी करने में मस्त थे. ऊली और सुज़ैन भी बहुत ध्यान से सब कुछ देख रहे थे. थोड़ी देर में मैंने देखा कि सुज़ैन और ऊली अपनी कुर्सियों से नदारद हैं. मैंने इधर-उधर देखा, फिर सोचा शायद दोनों सोने चले गए होंगे. तभी मुझे ऊली अंदर से बाहर आता दिखाई दिया. मैं थोड़ी देर सुज़ैन के आने का इंतज़ार करती रही. अनायास ही मेरा ध्यान सूरज व उसके दोस्तों की तरफ़ गया. वे तीनों कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे. मुझसे अब बैठा नहीं जा रहा था. मैं बहाने से उठकर घर के अंदर चली गई. अंदर सुनसान था. सुज़ैन और ऊली का कमरा ऊपर की मंज़िल पर था. अभी मैं ऊपर जाने का सोच ही रही थी कि मुझे एक अजीब-सी कसमसाहटभरी आहट सुनाई दी, जैसे कहीं छीना-झपटी हो रही है. तभी मुझे सुज़ैन के ग़ुस्से में कुछ बोलने व बड़बड़ाने की आवाज़ सुनाई दी. वह अंग्रेज़ी में ग़ुस्से में कुछ बोल रही थी. लग रहा था जैसे वह ख़ुद को छुड़ाने का प्रयास कर रही है.
“सुज़ैन…” मैंने ज़ोर से सुज़ैन को आवाज़ दी. मेरी आवाज़ सुनकर शायद पकड़ ढीली होने के कारण सुज़ैन एकाएक छूटकर चिल्लाती हुई भागी, “रैमा…” वह सीढ़ियों से भागती-दौड़ती उतरकर नीचे मेरे पास आकर मेरे गले से चिपक गई. उसकी सांसें बहुत ज़ोरों से चल रही थी और बदन डर से थर-थर कांप रहा था.
“कौन है ऊपर?” मैं पूरी ताक़त से चीखी, “जो भी है नीचे आ जाओ, वरना मैं अभी शोर मचा दूंगी.” तभी सूरज के दोनों दोस्त तेज़ी से सीढ़ी उतरकर बाहर निकलकर गायब हो गए. मैं भौंचक्की-सी उन्हें देखती रह गई. ये दोनों ऊपर थे, तो इसका मतलब सूरज भी अवश्य ही ऊपर होगा.
“सूरज, नीचे आ जा… तेरी ख़ैरियत इसी में है, वरना तू मुझे जानता है. मैं शादीवालेे घर में हंगामा कर दूंगी. सबके सामने तेरी बेइज़्ज़ती हो जाएगी.” सूरज धीरे-धीरे सीढ़ी उतरकर मेरे सामने खड़ा हो गया. उसे देखकर सुज़ैन मुझसे और भी चिपक गई.

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“सच-सच बता… क्या किया तूने इसके साथ?”
“कुछ नहीं किया मामी…” वह बेशर्मी से हंसता हुआ बोला, “ज़रा-सी हंसी-मज़ाक में भी साली नाटक करती है. अपने देश में आए दिन बॉयफ्रेंड और हसबैंड बदलती रहती हैं. समुद्र के किनारे नंगे पड़े रहती हैं. सड़क पर चलते-चलते प्रेमालाप करती हैं. खुले सेक्स के आदी हैं और हमारे देश में आकर, लाजवंती बनने में हमारे देश की लड़कियों को भी मात कर देती हैं…” 
“सूरज…” मैंने ग़ुस्से में चीखकर एक ज़ोर का चांटा उसके दाएं गाल पर जड़ दिया इतनी ज़ोर से कि उसकी आंखों के आगे सितारे नाच उठे होंगे.
“शर्म नहीं आती तुम्हें. उनके देश में कुछ भी होता है, पर जो कुछ होता है उनकी इच्छा से होता है. अपनी इच्छा और दूसरे की ज़बर्दस्ती में फ़र्क़ नज़र नहीं आता तुम्हें, पर तुम जैसे पुरुष नारी की इच्छा का सम्मान करना क्या जानो? लेकिन आज अपनी बहन के विवाह में आई हुई मेहमान, वो भी दूसरे देश से, तुम्हारी इस हरकत ने न स़िर्फ पूरे परिवार को, बल्कि देश को भी शर्मसार कर दिया है. कम से कम देश की इज़्ज़त का ख़्याल तो किया होता…
तुम चाहते हो कि मैं इस बात को लेकर घर में हंगामा न करूं, तो इन विदेशी मेहमानों के जाने तक तुम तीनों मुझे घर में नज़र नहीं आने चाहिए.” मैं भस्म करनेवाली आग्नेय दृष्टि से उसे घूरती हुई बोली. सूरज गाल पर हाथ रखकर चला गया.
मैंने सुज़ैन को कमरे में ले जाकर बिस्तर पर बैठाकर पानी पिलाया. वह रोते-रोते लगातार बोल रही थी, “मैं पुलिस में जाऊंगी… छोडूंगी नहीं उन तीनों को…” उसे गले से लगाए पीठ सहलाते हुए मैं सांत्वना दे रही थी और मन ही मन मना रही थी कि कोई इस समय अंदर न आ जाए.
थोड़ी देर बाद सुज़ैन रोकर शांत हो गई. फिर मैं धीरे-धीरे उसे समझाने लगी कि यदि वह इस समय इस बात को बढ़ाएगी, तो घर में बारात है, पूरे परिवार व दुल्हन की ज़िंदगी पर इस बात का क्या असर पड़ सकता है. दुल्हन के भाई की करतूत की सज़ा मानसिक रूप से सबको भुगतनी पड़ेगी.
“सूरज को सज़ा देने की बात तुम मुझ पर छोड़ दो सुज़ैन. तुम्हारे साथ जो अभद्रता उसने की है, उसकी सज़ा पुलिस व क़ानून उसको उतना नहीं दे पाएगा, जो उसका परिवार उसे देगा. मैं तुम्हारे सामने हाथ जोड़ती हूं सुज़ैन…” मैंने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए.
“नो… नो रैमा…” उसने मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए. तभी ऊली सुज़ैन को ढूंढ़ता हुआ अंदर आ गया. हमें ऐसे बैठा देखकर पूछ बैठा.
“क्या हुआ?” मैं अचकचाकर सुज़ैन को देखने लगी. अब सब कुछ सुज़ैन पर निर्भर था कि आगे आनेवाला घटनाक्रम क्या होगा. “कुछ नहीं…” वह मुस्कुराती हुई बोली, “मैं बिल्ली से डरकर सीढ़ी से गिर गई थी, बस…”
“ओह! बाहर आ जाओ आप लोग.”
“अभी आते हैं.” ऊली चला गया. मेरी आंखों में आंसू आ गए. सूरज को अपनी बहन, अपने परिवार, अपने देश की मान-मर्यादा का ख़्याल नहीं रहा और एक विदेशी लड़की ने, जो यहां से जाने के बाद कभी हमें मिलेगी भी या नहीं, कैसे मेरी बात का मान रखकर हम सबको भविष्य में आनेवाली एक अप्रिय स्थिति से बचा लिया था. मैंने सुज़ैन को गले से लगा लिया. 
शादी शांतिपूर्वक संपन्न हो गई. दूसरे दिन एक-एक करके सभी रिश्तेदार विदा होने लगे. सुज़ैन और ऊली के भी जाने का समय हो गया. ऊली ने अपना कैमरा निकाला और हम सबके साथ फोटो खींच ली. उनका हमारा नाता सिर्फ़ एक इंसान का इंसान से नाता था, जिन्होंने इस धरती पर जन्म लिया था. प्यार, स्नेह, भावनाएं, इंसानियत कुछ भी देश की सीमाओं में बंधा हुआ नहीं होता. चाहे वह हमारे पड़ोसी देश हों या सात समंदर पार के देश. जब एक इंसान दूसरे इंसान से प्यार करता है, तो किसी भी देश की सीमाएं मिट जाती हैं. ऐसा न होता तो अलग देश, धर्म, भाषा, रंग-रूप होते हुए भी हमारा दिल सुज़ैैन और ऊली को विदा करते समय यूं न रोता और उनकी आंखें भी न भीगतीं. कार काफ़ी दूर चली गई.
सुज़ैन पीछे देखकर देर तक हाथ हिलाती रही और हम हाथ हिलाते हुए अपनी नम आंखों को पोंछते रहे. मेरी आंखों से आंसू निकलकर गालों पर लुढ़क गए. इन आंसुओं में सुज़ैन से बिछड़ने के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ था. बहुत-सी अप्रिय घटनाओं का टल जाना. सुज़ैन का सकुशल वापस चले जाना आदि. गालों पर गीलापन होने से मैं वर्तमान में लौट आई. सुज़ैन और ऊली एक मीठी याद के रूप में मेरे अतीत का एक हिस्सा बन गए थे. कभी नहीं सोचा था कि आज फिर दुबई में उनसे मुलाक़ात हो जाएगी. ज़िंदगी बहुत छोटी है और दुनिया गोल है. हो सकता है फिर कभी, कहीं, किसी मोड़…पर सोचकर मैं भी उठकर सोने के लिए बेडरूम की तरफ़ चली गई. 

सुधा जुगरान






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