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कहानी- तरकश (Short Story- Tarkash)

“प्लीज़ अमित, जीवन की सच्चाइयों और संघर्षों को समझो और स्नेहा को भी समझने दो. अपने ही दायरे में कैद रहकर इंसान आगे नहीं बढ़ सकता. स्नेहा को उसकी ख़ूबियों से परिचित कराने के साथ-साथ उसे उसकी कमियों से अवगत कराना भी हमारा ही दायित्व है.”

शादी से लौटने के बाद से ही श्‍वेता का मन बेहद उदास और खिन्न-सा था. कंप्यूटर स्क्रीन पर शादी की तस्वीरें देखने में श्‍वेता ऐसी खोई कि अमित कब पास आकर खड़े हो गए, उसे पता ही नहीं चला.
“कितनी प्यारी लग रही हो तुम इन तस्वीरों में! यह हेयर स्टाइल, लहंगा-कुर्ती, गहने सब कुछ तुम पर ख़ूब जंच रहे हैं.” श्‍वेता ने पति की आंखों में झांका. बिना किसी लाग-लपेट के हमेशा की तरह सच्चे दिल से की गई प्रशंसा थी. लेकिन हमेशा की तरह आज उसे कोई गुदगुदी नहीं हुई. अपनों के मुंह से तारीफ़ सुनते इंसान कभी नहीं अघाता, पर कभी-कभी यही तारीफ़ दूसरों के मुंह से सुनने को दिल करता है. शायद श्‍वेता के दिल ने भी ऐसी ही कोई आरज़ू पाल ली थी. ऐसा नहीं था कि उसके गहने, कपड़े, ख़ूबसूरती आदि की शादी में लोगों ने तारीफ़ नहीं की, लेकिन जिन प्रशंसात्मक निगाहों और दिल से निकले आत्मीय सुरों की उसे अपेक्षा थी, वे उसके नहीं, सुरेखा भाभी के हिस्से में गए.
कंप्यूटर पर उभरती तस्वीरों में श्‍वेता की निगाहें ख़ुद को कम, सुरेखा भाभी को ज़्यादा तलाश रही थीं. सांवली-सलोनी-सी वह सूरत, होंठों पर हर व़क़्त खिली मुस्कान, आंखों में ग़ज़ब का आकर्षण, कैमरे के भी आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी. हर रस्मों-रिवाज़ के समय उनके नाम की पुकार मच जाती थी. वर की मां यानी सबसे बड़ी जेठानीजी तो पूरी तरह उन पर आश्रित हो गई थीं. सुरेखा भाभी की चुस्ती-फुर्ती, काम में तल्लीनता देखकर अनजान आदमी भी उनकी तारीफ़ किए बिना न रह पाता. तरकश के सारे तीर चलाने के बावजूद वह सुरेखा भाभी की बराबरी नहीं कर पाई थी.
अमित के जाने के बाद श्‍वेता दरवाज़ा बंदकर बिस्तर पर जा लेटी. आज उसे अपने पापा की बहुत याद आ रही थी. कहते हैं स्त्री के जीवन में बचपन पर पिता का, जवानी पर पति का और बु़ढ़ापे पर पुत्र का नियंत्रण रहता है. श्‍वेता भी इसका अपवाद न थी. लेकिन उसे इस नियंत्रण में कभी बेड़ियों जैसी चुभन महसूस नहीं हुई, बल्कि प्यार भरी छत्रछाया हमेशा सुकून और अपनत्व का ही एहसास कराती रही.
मां की असमय मृत्यु ने छत्रछाया का आवरण थोड़ा और मोटा कर दिया था. पापा का लाड़-प्यार और भी खुलकर बरसने लगा था. उन्हें अपनी बेटी दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत परी लगती. श्‍वेता की छोटी सी छोटी उपलब्धि उनके लिए एक महोत्सव थी. यह पापा के लाड़-प्यार और रुतबे का ही विस्तार था कि जवां होने तक किसी छोटी-सी आलोचना की भी भनक उस तक नहीं पहुंच पाई थी.
अमित जैसा गुणवान, शीलवान और सबसे बड़ी बात- व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता में अपने समकक्ष वर ढूंढ़कर उन्होंने रही-सही कसर भी पूरी कर दी. अमित उनकी अपेक्षाओं पर एकदम खरे उतरे. श्‍वेता भी उनका अगाध प्यार पाकर निहाल हो गई. उनकी बांहों का घेरा उसके लिए अद्भुत सुरक्षा कवच था. शादी के सालभर बाद ही श्‍वेता की गोद में एक नन्हीं-सी कली खिल गई- स्नेहा. श्‍वेता पर प्यार लुटानेवाले तो दो ही लोग थे, लेकिन स्नेहा को सिर-आंखों पर बिठानेवाले श्‍वेता सहित तीन लोग हो गए.
शादी के बाद यह पहला मौक़ा था, जब श्‍वेता ससुराल की किसी शादी में शामिल हुई थी. यहां उसके आस-पास पापा या अमित का अधिक साथ भी न था. श्‍वेता पहली बार औरों की नज़रों से ख़ुद का आकलन कर रही थी. आज उसे एहसास हो रहा था कि वह साधारण नहीं, बेहद साधारण है. उसका दमकता रूप-सौंदर्य सामनेवाले को चकाचौंध तो करता है, लेकिन स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ पाता. स्नेहा भी उसके ही नक्शेक़दम पर थी. जो भी देखता, ‘वाह! एकदम गुड़िया-सी लगती है.’ बोल उठता. लेकिन दो दिन के साथ में ही कइयों ने टोक भी दिया, “बहुत ज़िद्दी हो रही है आपकी बेटी. लड़की की जात है. ऐसे ही आप हर ज़िद पूरी करती रहीं, तो बड़े होकर कहीं लेने के देने न पड़ जाएं.”
अमित को जब श्‍वेता ने ये बातें बताईं तो वे ग़ुस्से से तमतमा उठे. श्‍वेता ने बड़ी मुश्किल से उन्हें समझा-बुझाकर शांत किया. ज़िंदगी की एक कटु सच्चाई धीरे-धीरे उसके सामने उजागर हो रही थी. पापा और अमित के अधिक लाड़-प्यार की वजह से वह ख़ुद को सर्वगुण संपन्न समझे जाने की भ्रांति पाले हुए थी. पापा और अमित की व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता अब उनके व्यवसाय मात्र तक सीमित नहीं रह गई थी, बल्कि उनके पारिवारिक जीवन में भी उतर आई थी और उसका केंद्र बिंदु थी श्‍वेता. अमित किसी भी मामले में श्‍वेता के पापा से कमतर साबित नहीं होना चाहते थे. फिर चाहे वह श्‍वेता पर सुख-सुविधा और प्यार की बौछार करने का मामला ही क्यूं न हो. अब तक श्‍वेता इसे अपनी ख़ुशक़िस्मती समझती आई थी कि वह न केवल पापा की आंखों का तारा थी, बल्कि पति के दिल की रानी भी थी. लेकिन आज उसे एहसास हो रहा था कि पति और पिता के आभामंडल की चकाचौंध में उसका अपना व्यक्तित्व तो कहीं दब-सा गया था. बरसों बाद श्‍वेता कूपमंडूकता के घेरे से बाहर आ रही थी. ‘मैं संपूर्ण नहीं हूं. मुझे बहुत आगे बढ़ना है. अपनी कमियों को दूर करना है. तरकश के तीर तभी प्रभावी होते हैं, जब वे सही दिशा में पूरे वेग से छोड़े जाएं.’ श्‍वेता ने अपने साथ-साथ स्नेहा की भी जीवनदिशा बदलने का दृढ़ निश्‍चय कर लिया. खुली हवा में सांस लेना बहुत सुखकर प्रतीत हो रहा था उसे.
श्‍वेता अब स्नेहा की बेसिर-पैर की ज़िद नकारने लगी. मम्मी के घंटों समझाने पर वह मान तो जाती, लेकिन उसका मूड उखड़ जाता. अमित श्‍वेता के इस रवैये से बौखला उठे थे. उन्होंने श्‍वेता से अपनी नाराज़गी भी ज़ाहिर की. श्‍वेता को उन्हें भी बच्चों की तरह समझाना पड़ा.
“देखो अमित, मुझे तुम जैसा समझदार और बेहद प्यार करनेवाला पति मिला है. लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि हमारी स्नेहा को भी ऐसा पति मिले.”
“मैं ढूंढूंगा उसके लिए ऐसा पति जैसे तुम्हारे पिता ने मुझे ढूंढ़ा.” अमित मानो इस मामले में भी पीछे नहीं रहना चाहते थे.
“प्लीज़ अमित, जीवन की सच्चाइयों और संघर्षों को समझो और स्नेहा को भी समझने दो. अपने ही दायरे में कैद रहकर इंसान आगे नहीं बढ़ सकता. स्नेहा को उसकी ख़ूबियों से परिचित कराने के साथ-साथ उसे उसकी कमियों से अवगत कराना भी हमारा ही दायित्व है.”
इन तर्क-वितर्कों में अमित की कोई रुचि नहीं थी. उनका अभिजात्य पुरुषोचित अहम् तो इस बात से संतुष्ट होता था कि जिस ऐशोआराम को उनकी पत्नी बचपन से भोगती आई है, वही ऐशोआराम वे भी उसके लिए जुटाने का सामर्थ्य रखते हैं और स्नेहा के लिए कुछ भी करने के लिए तो नाना और उसके पापा में होड़ मची रहती. पहले श्‍वेता भी इस होड़ में शामिल थी, लेकिन अब उसने इस होड़ से अपने क़दम पीछे हटा लिए थे. वह अपनी बेटी को एक नए रूप में देखने के लिए व्याकुल हो उठी थी.
स्कूल की तरफ़ से एक ह़फ़्ते के लिए शैक्षणिक भ्रमण का प्रस्ताव आया तो अमित ने स्पष्ट इंकार कर दिया. बस में धक्के खाते, धूप में कहां घूमती रहेगी हमारी नाज़ुक-सी गुड़िया? जाने कैसे सस्ते होटलों में रहना पड़े? स्नेहा को भी कई आशंकाएं जताकर उन्होंने डराना चाहा, लेकिन श्‍वेता अड़ गई और स्नेहा को भेजकर ही दम लिया. हर रोज़ स्नेहा से फ़ोन पर बात होने के बावजूद श्‍वेता आशा-निराशा के चक्र में घूमती रही और ह़फ़्ते भर बाद जब स्नेहा लौटी, तो श्‍वेता का जी धक् से रह गया. सुकुमार तन कुम्हला गया था. दूध-सी उजली त्वचा तेज़ धूप के थपेड़ों से कांतिहीन हो गई थी. अमित ग़ुस्से-से फट पड़ा. श्‍वेता को पति के साथ-साथ पापा के भी कोप का भाजन बनना पड़ा. वह चुपचाप सब सुनती रही. लेकिन अकेले में जब उसने स्नेहा के सिर पर प्यार भरा हाथ फिराकर पूछा कि उसे कैम्प में मज़ा आया या नहीं और जब स्नेहा ने स्वीकृति में सिर हिलाया तो श्‍वेता मानो सारा ग़ुस्सा व अपमान भूल गई. भावातिरेक में उसने स्नेहा को बांहों में भींच लिया. “कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है. मेरी यह सीख हमेशा याद रखना. साधारण होने का अपना आनंद है, जो तुम उठा रही हो और जिससे मैं हमेशा वंचित रही.”
स्नेहा श्‍वेता की बातों का मर्म कितना समझी, यह कहना मुश्किल था. पर वह फिर किसी शैक्षणिक भ्रमण पर जाने का साहस न कर सकी और श्‍वेता ने भी ज़बरदस्ती करना उचित नहीं समझा. उसने स्नेहा की क्लास टीचर को विश्‍वास में लिया, ताकि वह स्नेहा की कमियों और ख़ूबियों से अवगत कराकर, उसे उसका मंतव्य साधने में मदद कर सके. विजया टीचर ने उसके नेक इरादों की प्रशंसा की और भरसक मदद का आश्‍वासन दिया. उन्होंने ही श्‍वेता को बताया कि स्नेहा ज़रा स्वार्थी प्रवृत्ति की है. चाटुकारिता उसे पसंद है, इसलिए उसे अच्छे और सच्चे दोस्तों की पहचान नहीं है. श्‍वेता का समय-समय पर समझाना और विजया टीचर की कोशिशें रंग लाने लगीं. स्नेहा में सचमुच आश्‍चर्यजनक परिवर्तन होने लगा था.
स्नेहा के नाना स्वर्ग सिधार चुके थे, इसलिए व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता के साथ-साथ वैभव और स्नेह प्रदर्शन की प्रतिद्वंद्विता भी समाप्त हो चुकी थी. श्‍वेता इस रेस में कभी शामिल थी ही नहीं. बेटी को सर्वगुण संपन्न बनाना ही उसका एकमात्र लक्ष्य था और इसमें उसने अपने तरकश के सभी तीर झोंक दिए थे. अपनों के लिए अपने आपको लुटाने का साहस एक नारी ही कर सकती है और नारी यदि मां हो तो फिर उसके आत्मोत्सर्ग के क्या कहने!
स्नेहा ने स्कूली पढ़ाई पूरी कर सी.ए. की प्रवेश परीक्षा पास कर ली. अपनी मेहनत और दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर वह जल्द ही एक क़ामयाब सी.ए. बन गई. श्‍वेता को अब चिंता थी तो बस, बेटी के लिए सुयोग्य वर की. एक बार फिर पति-पत्नी के विचार टकरा गए. श्‍वेता की नज़र में सुशिक्षित, सुशील, आत्मनिर्भर लड़का सुयोग्य वर था, तो अमित की नज़र में संपन्न और कुलीन होना, उनका दामाद बनने के लिए पहली आवश्यक शर्त थी. योग्य वरों की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त में से अंततः आकाश के नाम पर सहमति बनी. उसका परिवार बराबरी के वैभवशाली परिवारों में तो नहीं, पर हां, संपन्न परिवारों में गिना जा सकता था. पिता की हाल ही में आकस्मिक मृत्यु के बाद उसने नया-नया व्यवसाय संभाला था. उसकी मां बेहद संस्कारी और धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं. बेटे में भी उन्होंने ऐसे ही संस्कार डालने का प्रयास किया था.
कुछ ही प्रयासों और मुलाक़ातों के बाद रिश्ता तय हो गया. श्‍वेता समझ रही थी कि उसकी और स्नेहा की भावनाओं को मद्देनज़र रखते हुए ही अमित ने इस रिश्ते के लिए अपनी सहमति दी है, अन्यथा उसकी महत्वाकांक्षी अपेक्षाओं पर यह रिश्ता किसी भी दृष्टिकोण से खरा नहीं उतरता था. स्नेहा की डोली उठने के साथ ही श्‍वेता की ज़िंदगी में एक मौन-सा पसर गया. ज़िंदगी एकाएक लक्ष्यविहीन लगने लगी थी.
हमेशा की तरह अपने सुख-दुख की साथिन से अपनी संवेदनाएं बांटने के लिए श्‍वेता ने आलमारी खोलकर दराज़ में हाथ डाला, पर डायरी तो नदारद थी. उसकी जगह एक काग़ज़ की पर्ची हाथ आई. विस्मय से श्‍वेता ने उसे खोला तो सुखद आश्‍चर्य से भर उठी. स्नेहा का लिखा एक नोट था, ‘मेरी प्यारी ममा, आपकी डायरी मैं अपने संग ले जा रही हूं. कुछ समय बाद यह एक पुस्तक के रूप में आपके समक्ष होगी. मेरी ओर से अपनी प्यारी-सी मम्मी को उनकी प्यारभरी देखरेख के लिए एक छोटा-सा नज़राना. मैं चाहती हूं पापा सहित ज़्यादा से ज़्यादा लोग इसे पढ़ें.
श्‍वेता ने मुस्कुराकर एक ठंडी सांस ली. ‘पगली कहीं की.’ एक अच्छी ख़बर की आस में श्‍वेता के दिन आसानी से गुज़रने लगे, लेकिन आई एक बुरी ख़बर. एक्सीडेंट में आकाश के हाथ-पैर टूट गए थे. धातु की रॉड डालकर उसका कॉम्प्लिीकेटेड ऑपरेशन किया गया. अपने बूते पर खड़े होने और काम करने में उसे महीनों लग सकते थे. कुछ दिन साथ बिताकर श्‍वेता और अमित दुखी मन से लौट आए. व़क़्त और ईश्‍वर की मर्ज़ी के आगे किसी का वश नहीं चलता. जब आकाश को घर ले आए, तो दोनों पुनः मिलने गए. स्नेहा की सास भावुक हो उठीं. “मैंने पिछले जन्म में अवश्य कोई पुण्य कर्म किए होंगे, जो मुझे स्नेहा जैसी बहू मिली. बिज़नेस के साथ-साथ आकाश को भी बहुत अच्छे से संभाल रही है. मैं तो बेहद डरते-डरते इतने बड़े घर की बेटी ब्याहकर लाई थी. उसने मेरे भरोसे की लाज रख ली.” श्‍वेता को लगा उसका खाली तरकश आज लबालब भर गया है.
लेकिन स्नेहा आकाश को लेकर चिंतित थी. “आकाश की जिजीविषा ख़त्म हो चुकी है ममा! इसलिए उतनी प्रगति नहीं हो पा रही, जितनी कि होनी चाहिए.” दोनों ने उसे ढाढ़स बंधाया और जल्दी ठीक हो जाने की उम्मीद बंधाकर लौट आए… और वे कर भी क्या सकते थे?
‘प्रकाश की ओर’ शीर्षक से श्‍वेता की पुस्तक छपकर आ चुकी थी. उसकी ख़ुशी का ठिकाना न था. अमित के चेहरे पर हैरत मिश्रित प्रसन्नता थी. श्‍वेता का यह रूप उसके लिए सर्वथा नया था. देर रात तक उसे बेचैनी से पन्ने पलटते पढ़ते देख श्‍वेता मंद-मंद मुस्कुरा उठी. शायद आज अमित इसे पूरा पढ़कर ही सोएंगे. सवेरे उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी? सोचकर ही श्‍वेता रोमांचित हो उठी. इसी मीठी सोच में डूबी श्‍वेता की पलकें कब मुंद गईं, उसे पता ही न लगा.
सवेरे फ़ोन की घंटी के साथ ही उसकी आंख खुली. अमित बाथरूम में थे. स्नेहा की ख़ुशी से भरी आवाज़ सुन श्‍वेता की नींद पूरी तरह से उ़ड़ गई. “ममा, आपकी पुस्तक ने तो जादू कर दिया. मैंने उसकी एक प्रति आकाश को प़ढ़ने को दी. आपकी संघर्ष और हिम्मतभरी कहानी ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि उनमें एक नई जिजीविषा जाग उठी है. उन्होंने ख़ुद मुझे बताया. मुझे पूरी उम्मीद है कि अब वे बहुत जल्द अच्छे हो जाएंगे. आज का सूरज मेरे लिए बहुत लकी है.” फ़ोन पर बात करती श्‍वेता को पीछे से एक मज़बूत बाहुपाश ने बांध लिया तो एकबारगी वह चौंक उठी, फिर होंठों पर एक स्मित मुस्कान उभर आई और होंठ बुदबुदा उठे, “आज का सूरज मेरे लिए भी बहुत लकी है.”

                    अनिल माथुर

 

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