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कहानी- तुम लौट आना सारा (Short Story- Tum Laut Aana Sara)

 

मेरा मन तो कह रहा था कि उसके मुंह पर कह दूं- मैडम ऐसे रिश्तों का ऐसा ही अंजाम होता है. पर उसकी ईमानदारी मुझे अच्छी लगी. “ऐसे रिलेशनशिप में ऐसी बातें तो आती ही हैं. शादी हुई रहती है, तो आदमी कितना भी इधर-उधर मुंह मारे, घर लौटता है. एक बंधन तो होना ही चाहिए, नहीं तो आदमी की फ़ितरत ही होती है- जिधर देखा चारा उधर मुंह मारा.

 

 

 

मेरी नींद एक झटके के साथ खुल गई. ऐसे लगा कि मुझे सोते हुए एक घंटा बीत गया. डिम लाइट जल रही थी. सामनेवाली दीवार पर टंगी घड़ी में समय देखा, अभी पौने एक ही बजे थे. पंद्रह मिनट की नींद ने ही मेरी आधे दिन की थकान दूर कर दी थी. दोनों बच्चों को गहरी नींद में सोया देख उनके बीच तकिया लगाकर मैं उठी. हॉल में देखा जनाब टीवी पर फिल्म देख रहे थे. मैं चुपचाप दबे पांव लॉन की तरफ़ निकल आई और अपनी मनपसंद जगह पर बैठ गई. छोटे से बंगले के बाहर बीस बाई आठ फुट का लॉन मुझे दुनिया का सबसे सुकून भरा कोना लगता था. यहां बैठकर मैं दूर-दूर तक फैले आसमान को सिर उठाकर निहारती. ऊपर फैली आकाशगंगा के तारों से रिश्ता बनाने की कोशिश करती.

तभी अंदर से उनकी आवाज़ सुनाई देती, “कहां हो भाई?”

“यहीं हूं, कहां जा सकती हूं मैं!” मुझे लगता कि वे भी एक सितारा ही हैं, जिन्हें संभालने के लिए   यहां नीचे मेरे पास भेज दिया गया है. विचारों के स्पेसयान में बैठे-बैठे मैं न जाने कहां-कहां घूम आती. कभी-कभी लगता कि साइंस फिक्शन देखने का ही नतीज़ा है ये सब.

अभी कुछ महीनों पहले ही मैंने दो सितारों को पास-पास देखा था. वे अक्सर दिख जाते थे. मैं सोचती थी कि क्या हमारी तरह इन तारों की भी शादियां होती हैं या इनके यहां कोई और तरीक़ा होता होगा साथ रहने का. शादी का न सही, ‘गुरुत्वाकर्षण’ का तो बंधन रहता ही होगा. तभी तो धरती सूर्य के और चंद्रमा धरती के मोहपाश में बंधे हैं. पति-पत्नी ही क्या, दुनिया का हर इंसान किसी न किसी नाते, बंधन या कॉन्ट्रैक्ट में बंधा रहता है. यह बंधन है, तभी गति है. जिस दिन बंधन ढीला पड़ने लगता है, उस दिन गति बाधित होती है और टकराहट होने

लगती है. है न बिल्कुल अजीब, विसंगति में संगति…

तभी ऑटोरिक्शा रुकने की आवाज़ की दिशा में मैंने देखा- बंगला नं. 10 वाली सारा थी. मेरे बंगले का नं. 9 है. उसे मेरे पड़ोस में आए हुए आठ महीने हो गए और इन आठ महीनों में उससे मुलाक़ात कितनी बार हुई? मैं गिनने लगी… एक तो जुलाई में जब मेरी बेटी ऐश्‍वर्या का बर्थडे था. औपचारिकतावश पड़ोसी होने के नाते मैंने उसे बुला लिया था. वह आधे घंटे रुकी थी. इतनी ही देर में वह दोनों बेटियों से काफ़ी घुल-मिल गई थी. उसकी आंखों में ममत्व की एक किरण झिलमिला गई थी. उस दिन उसका वो रूप मुझे बहुत भाया था. तभी हमारी थोड़ी सी बातचीत हुई थी. उसने बताया वह कैथलिक है.

 

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“और आपके मिस्टर..?” मैंने पूछा था.

“वो महाराष्ट्रियन हैं- संदेश देशपांडे.”

मैंने उसके लिए खाना मंगवाया. हमने साथ बैठकर खाना खाया. हमारी दूसरी संक्षिप्त सी मुलाक़ात एक महीने बाद हुई. ऑफिस के लिए वह निकल रही थी. बाहर का गेट खोलकर वह मेरे घर के अंदर आई. बड़ी बेटी श्‍वेता सामने ही थी, उसे एक पैकेट पकड़ाया और बोली, “ये चॉकलेट्स हैं तुम दोनों सिस्टर्स के लिए. मम्मी को बोलना, आंटी यू.के. से आ गई हैं.” मैं किचन से हाथ धोकर बाहर निकली, तब तक वह गेट के दूसरी ओर थी. मेरी आहट पाकर उसने वहीं से मुझे ‘हाय’ कहा और एक आत्मीयता भरी मुस्कान छोड़कर मिस्टर के साथ गाड़ी में बैठकर चल दी.

जाने क्या बात थी उसकी मुस्कुराहट में, जिसने मुझे बांध लिया था. अब मुझे उसका ख़्याल रहने लगा था. रोज़ सुबह बड़ी बेटी श्‍वेता को सात बजे स्कूल बस लेने आ जाती है. घड़ी में साढ़े पांच बजे का अलार्म लगाकर सोती हूं. मगर पांच बजे ही आंख खुल जाती है. उस दिन बिस्तर पर पड़े-पड़े ही बाहर से आवाज़ें सुनाई दे रही थीं.

ऐसे ही होगा… सोचकर मैंने करवट बदली. जाने क्यों इस तरह की अनचाही, अनजानी आवाज़ों या हरकतों पर मैं ध्यान नहीं देती, क्योंकि मैं अपनी ऊर्जा इस तरह की ताक-झांक में ख़र्च नहीं करती जैसा कि अन्य घरेलू औरतें करती हैं. अब दूर ही क्यों जाएं, बंगला नं. 13 वाली को सब पता रहता है- कौन आया, कौन गया? किसकी नौकरानी का किसके ड्राइवर से टांका भिड़ा है? कौन जैन होते हुए भी लहसुन-प्याज़ खाता है? फिर भी मुझे उसकी संगत अच्छी लगती है, क्योंकि आप उससे शहर में फैले वायरल या सिंगापुर-हांगकांग में फैले स्वाइन फ्लू पर, अमेरिका के प्रेसीडेंट पर, नए ग्रह स्माइली पर या किसी भी विषय पर डिसकस कर सकते हैं और हां, फुस-फुसाकर, आंखें मटका-मटकाकर रात की ‘वो’ बातें भी कर सकते हैं. उसके साथ बातें करने में मज़ा आता था.

आवाज़ें अब भी आ रही थीं. उठना तो था ही मुझे. मैं किचन में आई. खिड़कियां खोलीं, जो बंगला नं. 10 की ओर खुलती थीं. पता चला ये तो उन दोनों की आवाज़ें हैं और वह भी लड़ने की. मुझे उस दिन की याद हो आई जब 10-15 दिन पहले मेरी बेटी ने बताया था कि अंकल-आंटी झगड़ा कर रहे थे. यह उस रविवार की बात है जब मैं छोटी बेटी को लेकर रात मां के घर रुक गई थी और सोमवार को दोपहर घर लौटी थी. हमारे गुडलक बंगलोज़ जहां 18 बंगले थे, वहां सभी एक-दूसरे से परिचित थे. आत्मीयता न होते हुए भी सभी एक अनुशासन से बंधे थे. एक अलिखित-सा नियम था, कोई किसी की निजी ज़िंदगी में दख़ल नहीं देता था.

आज उनके लड़ने की आवाज़ सुनकर मुझे भी लगा कि उनके बीच कुछ टूट रहा है. इस बात को 10-12 दिन बीत गए. एक रात दो बजे फिर उनके झगड़ने की आवाज़ें आने लगीं. मैंने करवट बदली, तो पाया वे भी जाग चुके थे. ़ज़्यादातर तटस्थ रहनेवाले ये भी कुछ विचलित लग रहे थे. दस मिनट बीत चुके थे, पर बंगला नं. 10 की बहस रुकी नहीं थी. मैं बेचैनी महसूस कर रही थी.

मैंने इनसे पूछा, “जाऊं देखूं, क्यों झगड़ रहे हैं ये दोनों?”

“जाने दो तुम भी क्या? देखो, दोनों क्या बढ़िया इंग्लिश में डिबेट कर रहे हैं. जब थक जाएंगे, तो अपने आप सो जाएंगे.” उन्होंने चुटकी ली.

मुझे भी रात के दो बजे किसी मियां-बीवी के झगड़े में पड़ना ठीक नहीं लगा और सचमुच 15 मिनट बाद वहां निस्तब्धता पसर गई.

इस बात को भी दो दिन बीत गए. आज ये घर अपेक्षा से जल्दी आठ बजे ही आ गए थे. एक पक्के अवसरवादी की तरह मैंने दोनों बेटियों को उनके हवाले किया और जुट गई किचन में. दो घंटे बाद दस बजे के क़रीब हम चारों बिस्तर में हल्ला-गुल्ला मचा रहे थे. लेकिन इतनी जल्दी किसे नींद आती.

मैं हॉल के दरवाज़े पर थी कि तभी 10 नंबर में आहट सुनाई दी. वह मुझे देखकर मुस्कुराई. पता नहीं क्यों, मैंने उसको कहा, “फ्री हो क्या? मुझे तुमसे बात करनी है.”

“ओ श्योर…” उसने तपाक से कहा.

मैंने उससे कहा, “तुम दरवाज़ा खोलो, मैं पांच मिनट बाद आती हूं.”

इतने महीनों में मैं आज पहली बार उसके घर के अंदर दाख़िल हुई थी. घर एकदम धूल रहित था. ऐसे लग रहा था कि अभी किसी ने डस्टिंग की हो. मैंने नज़र दौड़ाई. किचन का दरवाज़ा बंद था. हॉल में दो डिम लाइट जल रही थी. बोझिल-सी रोशनी पसरी थी. समझ नहीं आ रहा था कि यह रोशनी अंधेरे से लड़ रही है या उजाले को दबा रही है. बात शुरू करने के लिए मैंने पूछा, “खाना कब बनाओगी?” मैंने उससे हिंदी में ही पूछा. कैथलिक होने की वजह से वह ़ज़्यादातर अंग्रेज़ी में ही बात करती है.

“मैं तो खाकर आई हूं. उसके लिए थोड़ा कुक करना है. अभी हो जाएगा.”

फिर मैं असली मुद्दे पर आते हुए बोली, “तुम दोनों के बीच कुछ ठीक नहीं चल रहा है? कुछ प्रॉब्लम हो तो कहो.”

उसने अफ़सोस भरे लहज़े में कहा, “आई नो… कई बार हमारी आवाज़ें तेज़ हो जाती हैं. पर वो जब इस तरह से बात करता है तो यू नो… हम वीमेन को रोना ही आता है.”

“इसकी तुम परवाह मत करो कि तुम्हारी आवाज़ बाहर तक जाती है. झगड़े किस मियां-बीवी में नहीं होते. लड़ो-झगड़ो, रोओ, मगर फिर कॉम्प्रोमाइज़ कर लो.” मैंने उसे समझाया. मेरी इस बात पर जैसे महीनों से भरे आंसुओं के घड़े से दो बूंदें छलक कर गिर पड़ीं. उसने पलकों में बचे हुए आंसुओं को बांधे रखा, मगर अगली बार उसके आंसुओं ने छलकने की गुस्ताख़ी नहीं की.

“तुम्हें इतना परेशान होने की ज़रूरत नहीं है. शुरू-शुरू में एडजस्टमेंट नहीं हो पाता है, पर धीरे-धीरे सब ठीक हो जाता है. कितने साल हो गए शादी को?” मैंने उसे दिलासा देना चाहा.

“तीन साल से ज़्यादा हो गया. एक्च्यूली हमने शादी नहीं की है. हम लिव इन रिलेशनशिप में रह रहे हैं…” उसने थोड़ा झिझकते हुए कहा.

तड़ाक्… जैसे मुझे किसी ने थप्पड़ मार दिया हो. परंतु गिरगिट की तरह मैंने चेहरे के भाव बदल लिए.

“मैं तैंतीस साल की हूं. अब इस उम्र में ज़्यादा इंतज़ार भी नहीं कर सकती. वैसे भी मुझे हार्ट ट्रबल रहता है. तीन साल साथ रहने के बावजूद आज जो हो रहा है, इसकी तो मुझे उम्मीद ही नहीं थी. सोचती हूं कि ये सब शुरू के छह महीने में हुआ होता, तो मैं अलग होने का डिसीज़न आसानी से ले सकती थी. मगर अब व़क़्त बीतता जा रहा है.” उसने धीरे-धीरे ख़ुद को खोलना शुरू किया.

बोलते-बोलते वह उठी और उसने ट्यूबलाइट ऑन कर दी. यह ट्यूबलाइट जली या उसके जीवन की छिपी सच्चाई खुली, जो तुरंत कमरे में प्रकाश छा गया. यहां बैठकर शायद आनेवाले कल की रोशनी की झलक मिल जाए.

दीवान पर बैठते हुए उसने बोलना जारी रखा, “रिलेशनशिप में ईमानदारी होनी चाहिए. ठीक है उसे शादी में विश्‍वास नहीं है, लेकिन हम पति-पत्नी की तरह रह रहे हैं, तो उसको इस रिश्ते की क़द्र करनी चाहिए, मेरा भी आत्मसम्मान है. मुझे बंगले का सिक्युरिटी गार्ड आकर बताता है कि साब तो एक घंटे तक गाड़ी में बैठकर किसी से बात कर रहे थे. मुझे कितना ख़राब लगा. इसी बात पर बहस हो रही थी. उसकी दो-तीन गर्लफ्रेंड्स हैं. उनके साथ वह लॉन्ग ड्राइव पर जाता है. मैं मौज-मस्ती के लिए मना नहीं करती. घूमने जाओ, मगर आपकी नीयत सही है, तो किसी एक के साथ नहीं पूरे ग्रुप में जाओ.

मैं भी जॉब करती हूं. मुझे भी क्लाइंट्स को लेकर होटल में डिनर के लिए जाना होता है. मगर आज तक कभी अकेले नहीं गई, मेरे साथ और लोग भी होते हैं. संदेश को कभी कोई नहीं कह सकता कि हमने सारा को किसी के साथ देखा. मगर आप दूसरों को बढ़ावा देते हैं, तभी लड़कियां फ़ायदा उठाती हैं. उन्हें लगता है वेल सेटल्ड है, बिना शादी के रहता है. शायद थोड़ा डेटिंग-वेटिंग में पट जाए…” उसकी सांसें तेज़-तेज़ चलने लगी थीं. चेहरा तमतमा गया था.

मेरा मन तो कह रहा था कि उसके मुंह पर कह दूं- मैडम ऐसे रिश्तों का ऐसा ही अंजाम होता है. पर उसकी ईमानदारी मुझे अच्छी लगी.

“ऐसे रिलेशनशिप में ऐसी बातें तो आती ही हैं. शादी हुई रहती है, तो आदमी कितना भी इधर-उधर मुंह मारे, घर लौटता है. एक बंधन तो होना ही चाहिए, नहीं तो आदमी की फ़ितरत ही होती है- जिधर देखा चारा उधर मुंह मारा. कभी-कभी पत्नियां भी आंखें मूंद लेती हैं कि चाहे जितनी आंखें सेंक लें, रात होते ही अपने घोंसले में आ जाएंगे. पर तुम्हारे रिश्ते में शादी का बंधन ही नहीं है. क्या तुम्हें नहीं लगता कि अब शादी कर लेनी चाहिए?” मैंने अपनी समझ से इस नए रिश्ते की व्याख्या की.

 

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“मेरे चाहने से क्या होता है? संदेश तो शादी के लिए तैयार ही नहीं. मेरी मॉम ने तो उम्मीद ही छोड़ दी है.” वह बोली.

“और उसके पैरेंट्स…?”

“वे तो बहुत चाहते हैं. उसकी मम्मी से मेरी अच्छी ट्यूनिंग है. मगर संदेश समझता ही नहीं है. जब भी शादी की बात करो तो उसका दिमाग़ ख़राब हो जाता है. उसको क्या पता औरत तो मैं हूं, मुझे क्या-क्या भोगना पड़ रहा है. एक लड़की का अक्सर मेरे मोबाइल पर फ़ोन आता है और वह मुझे इतना सुनाती है, गालियां देती है. कहती है कि संदेश उसका है, मैं उसका पीछा छोड़ दूं. मुझे ‘बिच’ कहती है. अब अगर हमारी शादी हुई होती तो क्या मजाल है कि कोई किसी की पत्नी को गाली दे.” उसका गला भर उठा.

उसने एक-दो घटनाएं और सुनाई कि कैसे एक बार सड़क तक तीन-चार लड़के मोटरसाइकिल पर उसके पीछे आ गए थे और उससे कह रहे थे, ‘संदेश का तो निशा के साथ लफड़ा चल रहा है. वो मुझे लात मारकर निकाल देगा. चल हमारे साथ, मिल-बांटकर ऐश करेंगे.’

दूसरी घटना में रात को घर के पहले वाले सिग्नल पर एक मोटरसाइकिल वाला एक पैकेट उसके रिक्शे में फेंककर भाग निकला था. घर आने पर उसने संदेश को खोलने को दिया. संदेश ने खोला- एक गुलाब था और साथ में था कंडोम का एक पैकेट. उस दिन वह बहुत रोई थी.

इस पर संदेश का जवाब था कि इसमें वह क्या कर सकता था! जब उसने अपने कमिटमेंट-सेक्रिफाइस की दुहाई दी, तो उसका जवाब था- इस तरह अपने सेक्रिफाइस का नाम लेकर मुझमें गिल्ट मत भरो. किसने कहा है कि ज़बरदस्ती मेरे साथ रहो. रहना है तो रहो, नहीं तो चली जाओ…”

सारा आज मुझे सब कुछ बता देना चाहती थी. वह आगे बोली, “जब वह झगड़ता है, तो नफ़रत होने लगती है उससे. मैं बेडरूम में रोती रहती हूं और वो हॉल में मजे से टीवी देख रहा होता है. मगर जब सब कुछ ठीक रहता है तो मुझे लगता है कि हां, यही वह शख़्स है, जो मुझे पसंद है, जिससे मैं प्यार करती हूं.”

“जब तुम्हारे रिश्ते में अभी भी प्यार की गुंजाइश है, तो तुम्हें हिम्मत नहीं छोड़नी चाहिए. आफ्टरऑल ये तुम्हारा ही बसाया घर है. चाहे कितना भी झगड़ा क्यों न हो, तुम कभी अपना घर मत छोड़कर जाना. अगर वह जाने लगे, तो अपने ईगो को एक तरफ़ रखकर दरवाज़े पर खड़ी हो जाना, उसे भी जाने मत देना. मेरे ख़्याल से जिस दिन तुम दोनों में से किसी ने दहलीज़ पार कर दी, फिर शायद तुम्हारे रिश्ते का अस्तित्व ही न बचे.”

“यू आर राइट… पर मुझे जाना पड़ेगा. फ्राइडे को उसके मम्मी-डैडी आ रहे हैं. उसकी मम्मी सब समझती हैं, लेकिन मैं उसके डैडी की रिस्पेक्ट करती हूं. उनके सामने मैं संदेश के साथ नहीं रह सकती. जब तक वे यहां रहेंगे मैं अपनी मम्मी के घर रहूंगी. उनके जाने के बाद आऊंगी…” उसने दृढ़ शब्दों में कहा.

“टेक केयर… गुडनाइट.” कहकर मैं बाहर निकल आई.

अपने घर में दाख़िल होते ही आदतन मेरी नज़र ऊपर उठ गई. आसमान में सितारों का हुजूम रोज़ की तरह सजा हुआ था. सारी रात मैं गहरी सोच में थी. ‘लिव इन रिलेशन’ में कपल्स का रहना नई बात नहीं रह गई है.

सुबह अलार्म से ही नींद खुली. एक बार जो सुबह खुली, तो मैं जैसे ‘रात गई बात गई’ के अंदाज़ में अपनी गृहस्थी की धुरी में घूमने लगी. तीन-चार दिन मैं ख़ूब व्यस्त रही. कभी कोई घर आ गया, तो कभी टाउन जाना पड़ गया, तो कभी घर के कई दिनों के रुके हुए काम निपटाने में लगी रही. इन दिनों मैं भूल ही गई थी कौन सा बंगला नं. 10? कौन सारा? कौन संदेश?

उस दिन गुरुवार था. दोपहर के ढाई बज चुके थे. मैं दोनों बेटियों को सोने के लिए बेडरूम में जाने के लिए कह रही थी, तभी बाहर गेट खुलने की आवाज़ आई. मैंने बेटी से कहा, “श्‍वेता, देख तो कौन है?” वह दरवाज़े की ओर लपकी. उसने वहीं से बताया, “सारा आंटी हैं.”

“सारा, अंदर आ जाओ.” मैंने दरवाज़े के क़रीब आते-आते आवाज़ लगाई.

“इट्स ओके. मैं मम्मी के घर जा रही हूं.” और वह कंधे पर एयर बैग थामे सड़क की ओर घूम गई.

गेट के पास पहुंचकर वह मुड़ी, “… पर मैं आऊंगी ज़रूर दीदी…” उसकी आंखों से निकलकर आंसू की दो बूंदें गालों पर ढुलक गईं.

मैं स्तब्ध खड़ी रही. उसके चले जाने के बाद याद आया कल शुक्रवार है, संदेश के पैरेंट्स आनेवाले हैं. कैथलिक होते हुए भी लिव इन रिलेशनशिप की सोच रखनेवाली औरत हिंदुस्तानी संस्कृति से कितनी जुड़ी हुई है. उसमें इतनी लोक-लाज तो बची है कि वह अपने ‘पुरुष’ के पैरेंट्स के सामने बिना शादी के रहने की शर्मिंदगी नहीं उठा सकती.

जाने दिनभर कैसी बेचैनी रही. रात सारे काम निपटाकर मैं लॉन के उसी कोने पर जा बैठी. आसमान चांदनी से नहाया हुआ था. तारों की अलग-अलग आकृतियां बना रही थी मैं. आज मुझे वह युगल तारे नज़र नहीं आए. यहां-वहां ढूंढ़ा, शायद उन्होंने अपना आशियाना कहीं और बसा लिया हो. लेकिन वह कहीं नज़र नहीं आए. फिर इसे नज़रों का धोखा समझकर मैं अंदर चली आई.

अगले दिन सुबह उठते ही अख़बार पढ़ने बैठी. बॉटम न्यूज़ थी स्पेस स्टोरी. पढ़ा कि आसमान में एक युगल तारे अपनी जगह से गायब थे. वैज्ञानिकों के अनुसार, एक तारे को ब्लैक होल लील चुका था, तो दूसरा तारा उस बंधन के खुलते ही छिटककर अपनी आकाशगंगा से दूर जा गिरा था. ख़बर पढ़ते-पढ़ते जाने क्यों आंखें नम हो आईं, लगा जैसे यह वही युगल तारे तो नहीं, जिन्हें रात मैंने आसमान में खो दिया. ये सितारे मुझे सारा की आंखों से टूटे हुए सितारों की तरह लगे. क्या सारा का भी यही अंजाम…

‘नही… नहीं…’ मैंने सिर को झटका, क्योंकि मेरे कानों में जाने कहां से उसकी आवाज़ गूंज उठी. “मैं आऊंगी ज़रूर दीदी…”

और बेसाख्ता मेरे मुंह से निकला, “तुम लौट आना सारा.”

– सुमन सारस्वत

 

 

 

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Usha Gupta

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