“इतनी रात तक कहां थी? कुछ घर की इज्ज़त की परवाह है कि नहीं. तुम्हें हज़ार बार कहा है ना कि अंधेरा होने से पहले घर लौट आया करो.” बेटी के घर में पैर रखते ही पिता कठोर स्वर में बोले.
“आशा के घर पर बैठकर प्रोजेक्ट पूरा कर रही थी पिताजी, कल जमा करना है कॉलेज में.” बेटी नम्रता से जवाब देकर अंदर मां के पास चली आई. तब भी पिता का बुरा-भला कहना रुका नहीं था.
“ये क्या है मां, भैया कितनी भी देर से आए उसे तो पिताजी कुछ नहीं कहते, और मुझसे ऐसे पूछताछ की जाती है जैसे कि मैं पढ़ाई करके नहीं, बल्कि कोई पाप करके आ रही हूं.” बेटी मां के पास आकर भुनभुनाई.
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“मेरे हर कदम पर या तो सवाल उठते हैं या नसीहतें दी जाती हैं.”
“क्या करें बेटी ये दौर ही कुछ ऐसा है कि बाहर दिखावे के लिए शिक्षा, आधुनिकता और समानता का चकाचौंध उजाला है, लेकिन अंदर तो आज भी वही आदिम अंधेरा छाया है. बेटे को कुछ कहने से पहले अपना बुढ़ापा दिखने लगता है. इसीलिए बेटे को विरासत में नाम, मकान, पहचान सब मिलता है, लेकिन बेटियों के हिस्से आज भी डर, असुरक्षा, अपराधबोध, कमज़ोर व्यक्तित्व आता है. पल-पल उनके स्वाभिमान को तोड़ा जाता है.” मां एक गहरी सांस लेकर बोली.
“नहीं मां, मैं अपनी वसीयत ख़ुद अपने हाथ से लिखूंगी. अपने साहस और हिम्मत से और अपनी आनेवाली नस्लों को एक निर्भय और गौरवशाली जीवन की नींव सौंपूंगी विरासत में.” बेटी दृढ़ स्वर में बोली.
अतीत की औरत मुग्ध होकर देख रही थी, वर्तमान की स्त्री भविष्य की वसीयत में स्वाभिमान से भरपूर जीवन विरासत में लिखने के लिए आत्मविश्वास की सुनहरी कलम थाम चुकी है.
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